- गंगा नदी में 30 साल बाद लगभग विलुप्त मानी जा रही रेड-क्राउन्ड रूफ्ड टर्टल या बटागुर कछुगा की वापसी हुई है।
- इस कछुए को रेड रूफ टर्टल भी कहते हैं। यह प्रजाति क्रिटिकली एंडेंजर्ड यानी गंभीर रूप से संकटग्रस्त मानी जाती है।
- उत्तर प्रदेश के मेरठ वन प्रभाग स्थित गंगा नदी के हैदरपुर वेटलैंड क्षेत्र में 20 कछुओं को छोड़ा गया। यह प्रजाति केवल चंबल नदी में थोड़ी बहुत बची है, और अनुमान है कि वहां भी सिर्फ 500 मादा कछुए ही बचे हैं।
- ये सभी कछुए सोनिक ट्रांसमीटर नाम की खास तकनीक के साथ टैग किए गए हैं, जिससे वैज्ञानिक इनकी गतिविधियों पर नज़र रख सकें। इसे भारत में गंगा नदी में कछुओं पर पहला सोनिक ट्रैकिंग वाला पुनर्वास माना जा रहा है।
गंगा नदी में लगभग विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके रेड-क्राउन्ड रूफ्ड टर्टल या बटागुर कछुगा की 30 साल बाद वापसी हुई है। इस साल अप्रैल में राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य, उत्तर प्रदेश के भीतर और उसकी देखरेख में स्थित गढ़ैता कछुआ संरक्षण केंद्र से 20 कछुओं को स्थानांतरित कर हैदरपुर वेटलैंड में छोड़ा गया। नमामि गंगे, उत्तर प्रदेश वन विभाग, और इंडिया टर्टल कंज़र्वेशन प्रोग्राम (ITCP) के सहयोग से 20 लाल-मुकुट कछुओं को ऊपरी गंगा में छोड़ा गया है। इन कछुओं की सुरक्षा और प्रवास पर नजर रखने के लिए उन्हें सोनिक उपकरणों से टैग किया गया है। इस तकनीक के जरिए कछुओं का अध्ययन किया जाएगा, जो आगे संरक्षण के प्रयास में सहायक होंगे।
पुनर्वास प्रक्रिया के लिए कछुओं को दो समूहों में विभाजित किया गया – एक समूह को हैदरपुर वेटलैंड में बैराज के ऊपर छोड़ा गया, जबकि दूसरे समूह को गंगा की मुख्य धारा में छोड़ा गया। इस दृष्टिकोण का लक्ष्य यह निर्धारित करना है कि कछुओं के पुनर्वास के लिए कौन सी विधि सबसे प्रभावी है।
“हस्तिनापुर वाइल्डलाइफ सेंचुरी में कछुओं की 12 प्रजाति मिलती है, जिनमें से चार पर संरक्षण का काम चल रहा है। हमारी कोशिश है कि गंगा में फ्लैगशिप प्रजातियों जैसे कि घड़ियाल, डॉल्फिन और कछुओं का संरक्षण किया जाए,” मेरठ वन प्रभाग के डीएफओ राजेश कुमार ने मोंगाबे हिन्दी से बातचीत में बताया।
उन्होंने आगे बताया, “इस क्षेत्र के लिए गंभीर रूप से लुप्तप्राय 20 बटागुर कछुगा को चंबल से लाकर दो भागों में बांटा गया। इसमें से 5-5 नर और मादा को हैदरपुर बैराज में और इतनी ही संख्या में जोड़ो को गंगा में छोड़ा गया।”
कभी गंगा नदी और इसकी सहायक नदियों में यह कछुआ पाया जाता था। पर पिछले 30 वर्षों में अत्यधिक शिकार, अवैध व्यापार, आवास की कमी और नदी के बहाव में बदलाव जैसे कारणों से इनकी संख्या बहुत कम हो गई।
यह कछुआ भारत, बांग्लादेश और नेपाल का स्थानिक है। पहले यह प्रजाति भारत और बांग्लादेश में गंगा नदी में बड़ी संख्या में पाई जाती थी। यह ब्रह्मपुत्र नदी क्षेत्र में भी मिलती है।
अब देश में सिर्फ नेशनल चंबल नदी घड़ियाल अभयारण्य ही ऐसा इलाका है जहाँ इस कछुए की अच्छी संख्या बची है। लेकिन अब यह इलाका और इसका प्राकृतिक घर भी खतरे में है। चंबल नदी में आबादी काफी कम बची है, और अनुमान है कि वहां भी सिर्फ 500 मादा कछुए से कम बचे हैं।

नई उम्मीद की किरण
मई 2021 में, उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले के एक गांव में एक ग्रामीण को एक बड़ा कछुआ दिखा। जब विशेषज्ञों ने जांच की, तो पता चला कि यह वही बटागुर कछुगा था, जो 30 साल से गंगा में नहीं दिखा था।
फिर मार्च 2023 में, पास के एक दूसरे गांव में दो घोंसले मिले, जिनमें से 21 बच्चों ने जन्म लिया और उन्हें पालने के बाद नदी में छोड़ दिया गया । यह साफ संकेत था कि गंगा में अब भी कुछ कछुए जीवित हैं।
कछुओं में पहला टेलीमेट्री अध्ययन
“यह अध्ययन बटागुर कछुए की गंगा नदी में पहला टेलीमेट्री-आधारित निगरानी प्रयास है,” टर्टल सर्वाइवल एलायंस फाउंडेशन – इंडिया से जुड़े शोधकर्ता पवन शांतिप्रकाश पारीक ने बताया। वह इस प्रोजेक्ट का समन्वयन और कछुओं की गतिविधियों की निगरानी कर रहे हैं। इस तकनीक के बारे में मोंगाबे हिन्दी से बात करते हुए वह कहते हैं, “हर कछुए पर लगाया गया ट्रांसमीटर वैज्ञानिकों को यह जानकारी देता है कि कछुआ किस दिशा में जा रहा है, किस स्थान को अपना रहा है और कैसे व्यवहार कर रहा है। इस आंकड़े से यह समझा जाएगा कि गंगा में जाने के बाद यह प्रजाति किस तरह परिस्थितियों से अपने आप को ढाल रही है और किन खतरों से जूझ रही है।”
“गंगा में तीन कछुओं की प्रजाति पर डब्लूडब्लूएफ के साथ 2010 से ही संरक्षण का काम चल रहा है। पहले हम सॉफ्ट रिलीज करते थे, यानी कछुओं को समय-समय पर पानी में छोड़ा जाता था,” कुमार बताते हैं।
उन्होंने कहा, “कछुओं की तीन प्रजाति के लिए मेरठ के अलावा बुलंदशहर में भी हेचरी बनाई गई है। हालांकि इस बार बटागुर कछुगा की तकनीक के माध्यम से निगरानी की जाएगी, जिससे संरक्षण में मदद मिलेगी।”
इस अध्ययन में उपयोग किए गए एकॉस्टिक टैग बटागुर कछुए की पीठ (डॉर्सल कैरापेस) पर बाहरी रूप से लगाए गए। यह एक कठोर खोल वाला मीठे पानी का कछुआ है।
ट्रांसमीटर लगाने में बरती गई सावधानियों के बारे में पारीक बताते हैं, “इसकी पीठ पर केराटिन की बनी प्लेटें होती हैं, जो संरचना में इंसानी नाखूनों जैसी होती हैं, जिससे टैग लगाना आसान हो जाता है।”
वह बताते हैं, “हमारी टीम ने अत्यंत सावधानीपूर्वक इन ट्रांसमीटरों को इस तरह से चिपकाया कि कछुए को कोई चोट या असहजता न हो। हमने यह सुनिश्चित किया कि उपकरण अच्छी तरह से जुड़ा हो और किसी भी प्रकार की हानि की संभावना कम से कम हो।”

जो कछुए छोड़े गए, उनका चयन सावधानीपूर्वक स्वास्थ्य, लिंग और शरीर के मापदंडों के आधार पर किया गया। स्थानांतरण के दौरान सभी वैज्ञानिक प्रक्रियाएं अपनाई गईं—जैसे उनमें पानी की कमी न होने देना, तनाव कम करना, और गर्मी से बचाव हेतु रात में परिवहन करना।
कछुओं की पल-पल की निगरानी
सभी कछुओं को एक ऐसा ट्रांसमीटर लगाया गया है, जो विशिष्ट फ्रीक्वेंसी पर सिग्नल छोड़ता है। इससे हर कछुए की व्यक्तिगत पहचान और उसकी गतिविधियों की ट्रैकिंग संभव हो पाई है। पारीक बताते हैं, “यह प्रणाली हमें प्रत्येक कछुए की आवाजाही, उसके द्वारा चुने गए आवास और व्यवहारिक पैटर्न की सतत निगरानी की सुविधा देती है। इस प्रक्रिया से यह समझने में मदद मिलेगी कि बटागुर कछुए पुनर्प्रवेश (रीइंट्रोडक्शन) के बाद कैसे प्रतिक्रिया देते हैं, नए वातावरण में कैसे ढलते हैं, और पारिस्थितिक चुनौतियों से कैसे निपटते हैं। इन आंकड़ों के आधार पर भविष्य की संरक्षण और प्रबंधन रणनीतियाँ तैयार की जाएंगी,”
एक विशेष टीम रोज इन कछुओं की निगरानी कर रही है, ताकि यह समझा जा सके कि कितने कछुए जीवित हैं और किस तरह से नए वातावरण में फैल रहे हैं। इस निगरानी में खास ध्यान कछुओं की आवास पसंद, उनकी आवाजाही के पैटर्न और उनके जीवित रहने व चलने-फिरने पर असर डालने वाले संभावित खतरों पर दिया जाता है। पारीक कहते हैं, “इस जानकारी से हम भविष्य की योजना बनाएंगे और समझ पाएंगे कि इन कछुओं को फिर से बसाने में क्या काम कर रहा है और क्या नहीं।”
मौसम और जलवायु परिवर्तन के खतरे
आज सिर्फ इंसानी गतिविधियाँ ही नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन भी इन कछुओं के लिए बड़ा खतरा बन गया है।
पारीक बताते हैं, “सभी कछुओं में लिंग का निर्धारण अंडों के तापमान से होता है। अगर तापमान ज़्यादा होगा, तो एक ही लिंग यानी मादा अधिक पैदा होंगे। इससे पूरी आबादी का संतुलन बिगड़ सकता है।”
इसके अलावा, बेमौसम बारिश और अचानक पानी छोड़े जाने जैसे बदलाव घोंसलों को तबाह कर सकते हैं और प्रजनन चक्र को बिगाड़ सकते हैं।
साधु-संत भी करेंगे निगरानी
गंगा किनारे रहने वाले साधु-संतों को भी संरक्षण प्रयासों में शामिल किया गया है। पवन पारीक बताते हैं, “साधुओं की बात लोग मानते हैं। अगर वे कहें कि कछुए पवित्र हैं, तो आसपास के लोग मछली पकड़ना और शिकार बंद कर देते हैं। फिलहाल 20 से ज़्यादा साधु इस काम में मदद कर रहे हैं। उनके आश्रम के आसपास के इलाकों में अवैध गतिविधियाँ काफी कम हो गई हैं।”
“स्थानीय लोगों में इन जलीय जीवों के लिए काफी जागरुकता है। डब्लूडब्लूएफ के साथ जो हमारा प्रयास है उसमें किसानों को जागरूक कर खेतों में कछुओं के अंडों को बचाया जाता है। किसान इतने जागरूक हैं कि वह कछुओं के घोसलों का संरक्षण करने लगे हैं। साधु-संत और स्कूली बच्चे भी इस प्रयास में सहयोग कर रहे हैं,” कुमार बताते हैं।

“निगरानी के लिए एआई कैमरे और ड्रोन की मदद भी ली जाती है, लेकिन पानी के भीतर रहने वाले प्राणी के लिए सोनार तकनीक काफी कारगर है। डॉल्फिन सर्वे में भी इनका उपयोग हुआ था। हालांकि, स्थानीय लोग भी निगरानी में काफी मददगार हैं,” कुमार ने बताया।
नीर फाउंडेशन के निदेशक और नदियों पर काम करने वाले रमन कांत त्यागी ने मोंगाबे हिन्दी को बताया, “तीस साल बाद बटागुर कछुए की गंगा में वापसी सिर्फ एक जैविक घटना नहीं है, बल्कि यह नदी संरक्षण के प्रयासों की सफलता का संकेत है। किसी भी नदी की सेहत का अंदाजा उसमें रहने वाले जलीय जीवों से लगाया जा सकता है।”
उन्होंने आगे कहा, “नमामि गंगे जैसे सरकारी प्रयासों के तहत घड़ियाल और कछुए छोड़े जा रहे हैं। एसटीपी बनाए जा रहे हैं, जैव-विविधता पार्क और जागरूकता अभियान भी चलाए जा रहे हैं।”
त्यागी ने बताया, “हालांकि, ज़मीन पर इन प्रयासों का असर सीमित है क्योंकि समाज से सही जुड़ाव की कमी है। साधु-संतों और विद्यार्थियों की भागीदारी को बढ़ावा देने की जरूरत है।”
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उन्होंने यह भी कहा, “भारतीय नदी परिषद जैसी संस्थाएं समाज और सरकार के बीच पुल का काम कर रही हैं। भविष्य में नदी पुनर्जीवन को ज़मीनी स्तर पर सफल बनाने के लिए भ्रष्टाचार, अफसरशाही और जन सहभागिता की कमी जैसी बाधाओं को दूर करना होगा।”
गंगा जल की गुणवत्ता के बारे में राजेश कुमार ने बताया कि मेरठ ग्रामीण क्षेत्र होने की वजह से यहां गंगा में गंदगी कम होती है। “बनारस जैसे शहरों में सिवेज की समस्या है लेकिन यहां काली नदी का पानी अप्रत्यक्ष रूप से मिलता है। यह इलाका संरक्षित है इसलिए सीवेज सीधे नहीं मिलता।”
उन्होंने आगे बताया, “शहर में 220 एमएलडी और 65 एमएलडी के दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट प्रस्तावित हैं जिससे आने वाले समय में नालों का पानी साफ होकर ही गंगा में जाएगा।”
बैनर तस्वीरः नमामि गंगे, उत्तर प्रदेश वन विभाग, और इंडिया टर्टल कंज़र्वेशन प्रोग्राम (ITCP) के सहयोग से 20 बटागुर कछुगा को ऊपरी गंगा में छोड़ा गया है। इन कछुओं की सुरक्षा और प्रवास पर नजर रखने के लिए उन्हें सोनिक उपकरणों से टैग किया गया है। तस्वीर साभार- TSAFI