- कश्मीर ग्रे लंगूर की जेनेटिक पहचान अभी भी प्राइमेट वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य बनी हुई है, क्योंकि इसके व्यवहार, पारिस्थितिकी और जेनेटिक्स पर पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है।
- हाल ही में हुए एक अध्ययन ने इस प्रजाति में जेनेटिक विविधता कम होने की बात कही है, जो इसके अस्तित्व के लिए बढ़ते खतरे की ओर इशारा करता है।
- रिसर्चर्स ने इस लंगूर की बेहतर सुरक्षा की मांग की है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन इसके आवास को लगातार खतरे में डाल रहा है।
कश्मीर में पाए जाने वाले ग्रे लंगूर इस प्रजाति की वर्गीकरण की स्थिति के अनिश्चित होने के कारण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। भारतीय प्राइमेट वैज्ञानिक वर्तमान में कई प्रमुख सवालों की जांच कर रहे हैं, जिसमें इसके एक अलग प्रजाति होने और इसे हिमालयी लंगूर से अलग करके पहचानना शामिल है। कश्मीर ग्रे लंगूर को अक्सर हिमालयी लंगूर में मिला दिया जाता है।
इस प्रजाति के वर्गीकरण को लेकर चल रही अनिश्चितता को देखते हुए, उत्तर-पश्चिमी हिमालय में पाए जाने वाले कश्मीर के ग्रे लंगूर (सेम्नोपिथेकस अजाक्स) का नवीनतम जनसंख्या अनुमान और आनुवंशिक अध्ययन और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
इस प्रजाति के वर्गीकरण में हमेशा से अस्पष्टता रही है। हालाँकि, हम ‘अरेकर एट अल.’ के निष्कर्षों का खंडन करते हैं, जिन्होंने यह माना कि कश्मीर ग्रे लंगूर और हिमालयी लंगूर एक ही प्रजाति के हैं। उनके शोध में केवल माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए के एक सीमित हिस्से का उपयोग किया गया, जो निर्णायक वर्गीकरण पहचान के लिए अपर्याप्त है,” कश्मीर विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ रिसर्च फॉर डेवलपमेंट में सहायक प्रोफेसर तौकीर बशीर ने बताया। बशीर, कश्मीर ग्रे लंगूर की आबादी और आनुवंशिक विविधता पर हाल ही के 2024 के प्रकाशनों के सह-लेखक हैं।
शाहिद हामिद, जो इन पेपर्स के मुख्य लेखक हैं, मोंगाबे इंडिया को बताते हैं कि इस प्रजाति के बारे में जानकारी की कमी ने उन्हें यह अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। वे कहते हैं, “इस लंगूर के बारे में पहली बार वाल्टर (रोपर) लॉरेंस ने 1895 में प्रकाशित अपनी किताब ‘वैली ऑफ कश्मीर’ में बताया था। एक सदी बीत जाने के बाद भी हमारे पास इस प्रजाति के बारे में पर्याप्त डेटा नहीं है।” उत्तर-पश्चिमी हिमालय में इसकी स्थानिक स्थिति और IUCN द्वारा इसे दी गयी ‘संकटग्रस्त’ स्थिति ने उन्हें इस प्रजाति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए और भी प्रोत्साहित किया।

कश्मीर ग्रे लंगूर को अक्सर हिमालयी लंगूर (Semnopithecus schistaceus) के साथ मिला दिया जाता है। कुछ शोध, जैसे कि 2020 में हुए एक अध्ययन जो हिमालयी लंगूर की टैक्सोनॉमी पर था, यही बात कही गई है। वैसे भी, हिमालयी लंगूर एक ऐसी प्रजाति मानी जाती है जिस पर कम शोध हुआ है। एक समय पर इसे मैदानी इलाकों में पाए जाने वाले हनुमान लंगूर (Semnopithecus entellus) की उप-प्रजाति माना जाता था।
लेकिन इस शोध ने माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mt-DNA) के ज़रिए ये दिखाया कि हिमालयी लंगूर, हनुमान लंगूर से अलग हैं। हालांकि दिलचस्प बात ये रही कि इस शोध ने ये नतीजा निकाला कि पूरे हिमालयी इलाके में मिलने वाले लंगूर असल में एक ही प्रजाति के हैं, भले ही उनके आकार, फर के रंग और चेहरे की बनावट जैसे कुछ फर्क साफ तौर पर दिखते हों।
शोधकर्ता अपने हालिया अध्ययन में इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि कश्मीर ग्रे लंगूर जेनेटिक रूप से अलग हैं। बशीर बताते हैं कि वे इस प्रजाति की टैक्सोनॉमिक पहचान दो अहम वजहों से बनाए रख रहे हैं: पहला, IUCN इसे एक अलग प्रजाति के तौर पर मान्यता देता है, और दूसरा, जिस जेनेटिक स्टडी ने इसकी पहचान पर सवाल उठाया था, उसमें ज़रूरी जानकारी की कमी थी।
हामिद बताते हैं कि पिछली जेनेटिक स्टडी ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया था कि इस प्रजाति में मादाएं अपने मूल क्षेत्र में ही रहती हैं या वहीं लौट आती हैं। इसे “फीमेल फिलोपैट्री” कहा जाता है। यह एक ऐसा व्यवहार जो कई जानवरों में देखा जाता है, जहां मादाएं अपनी मां, बहनों या मौसी जैसी रिश्तेदारों के साथ घनिष्ठ सामाजिक संबंध बनाकर उसी इलाके में रहती हैं। इस तरह की सामाजिक संरचना बच्चों के जीवित रहने और अच्छी परवरिश में मदद करती है।
इसके मुकाबले, वयस्क नर आमतौर पर अपने जन्म वाले समूह को छोड़कर दूसरे समूहों की मादाओं से मिलते हैं, जिससे जेनेटिक विविधता बढ़ती है। हामिद कहते हैं, “क्योंकि माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (mt-DNA) मां के जरिए अगली पीढ़ी में जाता है, इसलिए ऐसे शोध में नर लंगूरों की आवाजाही और अलग-अलग समूहों को आपस में जोड़ने वाली जेनेटिक कड़ी दिख ही नहीं पाती।”
हालांकि, कश्मीर की स्वतंत्र शोधकर्ता और ‘वाइल्डलाइफ रिसर्च एंड कंजर्वेशन फाउंडेशन’ की संस्थापक, महरीन खलील कश्मीर ग्रे लंगूर की अलग जेनेटिक पहचान को लेकर अब भी आश्वस्त नहीं हैं। वो कहती हैं, “इसकी टैक्सोनॉमी को लेकर अब भी स्थिति साफ नहीं है। हमारे पास इतना ठोस सबूत नहीं है कि इसे एक अलग प्रजाति कहा जा सके।” उनका मानना है कि इस प्रजाति को ठीक से वर्गीकृत करने के लिए और गहराई से जेनेटिक रिसर्च की ज़रूरत है।
साथ ही, वे यह भी बताती हैं कि इस लंगूर की पारिस्थितिकी (ecology) को लेकर हमारी समझ बहुत सीमित है, जिससे इसकी पहचान तय करना और भी जटिल हो जाता है। वे कहती हैं, “सिर्फ जेनेटिक्स के आधार पर किसी प्रजाति को तय नहीं किया जा सकता, जब तक उसके व्यवहार और पारिस्थितिकी पर भी गहराई से अध्ययन न हो।” खलील प्राइमेट पर काम कर रहे शोधकर्ताओं से अपील करती हैं कि वे अपने शोध का दायरा बढ़ाएं ताकि इस लंगूर को बेहतर तरीके से समझा जा सके।
गिनती का काम
शाहिद हामिद की अगुवाई में इस रिसर्च टीम ने “डबल ऑब्जर्वर” पद्धति का इस्तेमाल किया, जिसमें दो पर्यवेक्षक स्वतंत्र रूप से लंगूरों की मौजूदगी दर्ज करते हैं। इस तरीके से उन्होंने अनुमान लगाया कि उत्तर-पश्चिमी हिमालय में करीब 1,496 कश्मीर ग्रे लंगूर मौजूद हैं। इनकी आबादी घनत्व लगभग 3.64 लंगूर प्रति वर्ग किलोमीटर है।
और पढ़ेंः [वीडियो] छत्तीसगढ़ में बंदरों के आतंक से किसान परेशान, दलहन-तिलहन की खेती प्रभावित
इस टीम ने कश्मीर के तीनों क्षेत्रों — उत्तर, मध्य और दक्षिण — में फैले 31 सर्वे ब्लॉकों में कुल 411 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का सर्वे किया और इस दौरान 1,284 किलोमीटर पैदल चलकर डेटा इकट्ठा किया। हामिद यह भी बताते हैं कि यह अनुमान हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले को शामिल नहीं करता, जबकि वहां भी इस प्रजाति की मौजूदगी दर्ज की गई है।
बशीर इस जनसंख्या के अनुमान को संरक्षण के लिहाज से बेहद अहम मानते हैं, खासकर इसलिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन ऊंचाई पर रहने वाली इस प्रजाति के अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है।
जीन्स में छुपा संसार
बताते हैं हामिद कि कश्मीर ग्रे लंगूर की जेनेटिक विविधता को समझना इस अध्ययन का एक और अहम मकसद था, क्योंकि किसी प्रजाति के लंबे समय जीवित रहने का सीधा संबंध उसकी जेनेटिक विविधता से होता है। ये खासकर लंगूर जैसी संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है।
इस जनसंख्या जेनेटिक्स के अध्ययन के लिए, शोधकर्ताओं ने 15 लंगूर समूहों से बिना किसी नुकसान पहुंचाए नमूने इकट्ठे किए — जैसे उनके मल (स्कैट) का संग्रह — और साथ ही एक मृत लंगूर से ऊतक (टिशू) का नमूना भी लिया गया, ताकि पूरे जीनोम की सीक्वेंसिंग की जा सके, जैसा कि पेपर में बताया गया है।

हामिद बताते हैं कि इस जनसंख्या के अनुमान से पता चला कि इस प्रजाति का वितरण बहुत टुकड़ों में बंटा हुआ है, यानी इनके समूह अलग-अलग इलाकों में अलग-थलग पड़े हैं। “इस अध्ययन का मकसद इस प्रजाति की कुल जेनेटिक विविधता का आकलन करना और यह समझना था कि यह प्रजाति जेनेटिक तौर पर कैसी स्थिति में है,” वे कहते हैं।
लेकिन इसके नतीजे चिंताजनक रहे: कश्मीर ग्रे लंगूर की जेनेटिक विविधता बहुत कम है, जो भारत की अन्य गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्राइमेट प्रजातियों से भी कम है। “इन उप-आबादी समूहों में जेनेटिक रूप से बहुत कम कनेक्शन है और वे ज्यादा जेनेटिक सामग्री साझा नहीं करते,” हामिद बताते हैं।
यह एक गंभीर समस्या है क्योंकि कम जेनेटिक विविधता, साथ ही जलवायु परिवर्तन जैसे अन्य खतरे, इस प्रजाति के दीर्घकालिक अस्तित्व को जोखिम में डालते हैं, खासकर जब तक लक्षित संरक्षण प्रयास नहीं होते। “कम हुई जेनेटिक विविधता के कारण यह प्रजाति पर्यावरणीय या विकासात्मक बदलावों के साथ खुद को ढालने के लिए पर्याप्त जेनेटिक मजबूती नहीं रख पाएगी,” हामिद आगाह करते हुए कहते हैं।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 13 दिसंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: अक्सर हिमालयी लंगूर मान लिए जाने वाले कश्मीर ग्रे लंगूर के अस्तित्व को बचाने के लिए इसके व्यवहार और पारिस्थितिकी पर अधिक शोध की ज़रुरत है। तस्वीर: शाहिद हामिद।