- करीब दो दशक बाद भी राजस्थान के 50 गांवों को जोजरी नदी के गंदे पानी से छुटकारा नहीं मिल पाया है। इससे बीमारियों के साथ-साथ खेती पर संकट गहराने लगा है।
- जैव-विविधता से समृद्ध रहे इन गांवों में वनस्पतियां और वन्यजीव तेजी से घट रहे हैं। नदी के पास वाले तालाब और कुएं गंदे पानी से भर गए हैं।
- जोधपुर शहर और वहां के कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी में से आधा ही साफ हो पाता है, और बाकी जोजरी में गिर जाता है। एनजीटी के कड़े रुख के बाद शहर में नए ट्रीटमेंट प्लाने लगाने का काम शुरू हुआ है।
तीस वर्षीय धन्नी देवी 10 साल पहले जोधपुर से 60 किलोमीटर दूर डोली-राजगुरु में ब्याह कर आई थीं। तब से उन्हें जोजरी नदी के केमिकलयुक्त बदबूदार पानी से छुटकारा नहीं मिला है। दो बच्चों की मां, धन्नी देवी पर इस पानी का असर बहुत गहरा हुआ है। एक तरफ केमिकलयुक्त इस पानी के कारण उनके, उनके बच्चों और उनके परिवार के स्वास्थ पर प्रभाव पड़ रहा है, इसके साथ ही एक महिला होने के नाते उनकी परेशानियां और बढ़ गयी हैं।
“मच्छरदानी के बावजूद रात में दोनों बच्चों को मोटे-मोटे मच्छर काटते हैं। वे रोते हैं, तो उन्हें गोद में लेकर बैठना पड़ता है। नींद पूरी नहीं हो पाती। इतनी कमजोर हो गई हूं कि सिर और पैर दुखते हैं। चक्कर आते हैं। ताकत की दवाइयां ले रही हूं,” घूंघट किए हुए धन्नी देवी मोंगेबे-हिंदी से कहती हैं।
बरसाती नदी जोजरी नागौर के पंदलू गांव निकलकर बालोतरा में लूणी नदी में मिलती है। इस दौरान जोधपुर में कपड़ा और स्टील उद्योग का केमिकल मिला गंदा पानी इसमें मिल जाता है।

सेहत, खेत सब बर्बाद
डोली-राजगुरु समेत जोधपुर-बाड़मेर हाइवे पर 100 किलोमीटर तक करीब 50 गांव और ढाणियां 2007 से जोजरी नदी में आ रहे गंदे पानी का दंश झेल रहे हैं। गंदा पानी औसतन तीन किलोमीटर चौड़ाई में फैला हुआ है। केंद्रीय मंत्री और जोधपुर से सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत के मुताबिक इस समस्या से करीब 16 लाख लोग पीड़ित हैं।
धन्नी देवी कहती हैं, “चारों तरफ बदबू से शाम के बाद कुछ नहीं खा पाती। इससे भी कमजोरी आ रही है।” पास के ही डोली कलां गांव के निवासी मोहन लाल ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “गर्भवती महिलाओं को हर दूसरे दिन डॉक्टर के पास ले जाना पड़ता है। या तो गर्भ ठहरता नहीं या फिर नवजात को बचाने के लिए गर्भवती को अच्छी आबोहवा में भेजना पड़ता है।”
धन्नी देवी की पड़ोसी मिरगा देवी मोंगाबे हिंदी को बताती हैं कि गांव से आगे पानी जाने का रास्ता नहीं है। इसलिए बारिश में पूरा गांव गंदे पानी से भर जाता है। गांव में पानी की सप्लाई भी यदा-कदा ही होती है। लोग 1200 से 1500 रुपए खर्च करके टैंकर मंगाते हैं। डोली-राजगुरु की ही हीरा देवी कहती हैं कि हालात इतने गंभीर हैं कि हमारे टांके (टंकियों) में भी गंदा पानी आ जाता है।
इलाके में वन्यजीव संरक्षण के लिए काम करने वाले और जोजरी के गंदे पानी से पीड़ित मेलबा गांव के निवासी श्रवण पटेल मोंगाबे हिंदी से कहते हैं, “हर घर मे कोई न कोई बीमार मिल जाएगा। शुरू में यहां मलेरिया के मरीज ज्यादा थे। अब इलाके का मौसम सूखे से एसिडिक नमी वाला हो गया है और इससे हमारे फेपड़े सड़ रहे हैं।”
इस भयावह स्थिति पर जोधपुर के जयनाराण व्यास विश्वविद्यालय में विज्ञान संकाय की डीन संगीता लुंकड़ कहती हैं कि जोजरी के पानी में इस्पात उद्योग से निकल, क्रोमियम, कॉपर, आयरन आदि एवं टेक्सटाइल उद्योग से निकले रंजकों (डाई) के साथ-साथ निकलने वाले अन्य केमिकल पाए गए हैं।
इस मसले पर इंडियन कॉलेज ऑफ मेटरनल एंड चाइल्ड हेल्थ की चेयरपर्सन और स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ वीणा आचार्य कहती हैं, “जोजरी नदी में सीसा, कैडियम और सल्फर योगिक पाए गए हैं। सीसा गर्भनाल के जरिए भ्रूण में प्रवेश करके मस्तिष्क विकास में बाधा, कम वजन और स्नायु तंत्र की गड़बड़ी पैदा करता है। कैडियम गर्भनाल की क्षमता को प्रभावित कर भ्रूण को मिलने वाले पोषक तत्वों को कम कर देता है जिससे शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। वहीं सल्फर योगिक की ज्यादा मात्रा पानी को विषैला बना सकती है और अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं के संपूर्ण स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।”
यह दुष्प्रभाव खेती में भी दिख रहा है। धन्नी देवी के ससुर घेवर राम कहते हैं, “मेरा 20 बीघा खेत गंदे पानी में डूब जाता है। अब तो बाजरी भी खरीद कर खानी पड़ती है। पूरे गांव में यही हालात हैं।”
दूसरी तरफ, धवा गांव के उकाराम पटेल के अधिकतर खेत जोजरी नदी के बगल में हैं। मोंगाबे हिंदी की टीम मई के महीने में इस नदी पर बनी पुलिया पर पहुंची, तो बदबू से यहां खड़ा रहना दूभर था और नीचे जोजरी में काला पानी बह रहा था। उकाराम पटेल मोंगाबे हिंदी से कहते हैं, “मजबूरी में चारे के लिए ज्वार बोया है। नदी के ऊपर (गाद जमने से) आ जाने से गंदा पानी खेत में फैल जाता है।”
थार रेगिस्तान के इस इलाके में खेती साल में सिर्फ चौमासे (बारिश के मौसम) में होती है। लेकिन, उस समय नदी के जरिए बारिश का पानी खेतों में आ जाने से बाजरा और मूंग जैसी पारंपरिक फसलें नहीं हो पाती। पटेल कहते हैं, “पिछले आठ-दस साल से समस्या ज्यादा विकराल हो गई है। 50 बीघा में से 40 बीघा में खेती पूरी तरह बंद है।”
पास के ही डोलीकलां गांव के रमेश बिश्नोई के 50 बीघा खेत गंदे पानी में डूब गए हैं। अब वह दूसरे गांवों में बटाई पर खेती करते हैं। वह कहते हैं, “पानी के ठहर जाने से समस्या और विकट हो गई है।”
पूर्व संरपंच प्रतिनिधि और इसी गांव के निवासी दिमाराम बिश्नोई कहते हैं, “डोली कलां की 60, राजगुरु ग्राम पंचायत की 99 और डोली खुर्द की 70 फीसदी जमीन खराब हो गई है। ग्राम पंचायत डोली और राजगुरु सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। हमने हर जगह अपनी समस्या उठाई, लेकिन समाधान नहीं निकला।”
श्रवण पटेल बताते हैं, “चार साल पहले मेरे खेत में भी गंदा पानी घुस गया था। जब पानी कम हुआ, तो आठ बीघे में सरसों बोया। पहले साल में 20 बोरी सरसों हुई। पिछले साल पैदावार घटकर महज एक-चौथाई रह गई। मुझे लगता है कि उस सरसों में तेल से ज्यादा केमिकल है।”


राजस्थान राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के मतुबाकि, “किसान जोजरी नदी के पानी का इस्तेमाल खेती में करते हैं। इस तरह के कृषि उत्पादों के सेवन से मानव शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि अपशिष्ट जल में विषाक्त भारी धातुएं मौजूद हैं।”
इस रिपोर्ट के अनुसार, जोजरी से लिए गए सैंपल में पीएच वैल्यू के अलावा टोटल सस्पेंडेड सॉलिड, केमिकल ऑक्सीजन डिमांड, बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड, और ऑइल और ग्रीस की मात्रा भी तय मानकों से कहीं ज़्यादा पाई गयी थी।
संगीता लुंकड़ कहती हैं, “(जोजरी नदी के) आसपास की जमीन बंजर होती जा रही है। मेरी एक छात्रा प्याज पत्ती का एक नमूना वहां से लेकर आई थी। जब मैंने उसे माइक्रोवेव में उसे सुखाया, तो पूरे घर में रसायन की बदबू हो गई।“
इन्हीं वजहों से कई गांवों से पलायन भी हो रहा है। डोली-राजगुरु में रहने वाले राकेश देवासी बताते हैं कि इस गांव में उनका घर 14 साल से बंद पड़ा है। लेकिन दिक्कत यह है कि यहां से एक किलोमीटर दूर जहां उन्होंने नया घर बनाया है, अब वहां भी पिछले पांच सालों से गंदा पानी आ रहा है।
वह कहते हैं, “हमारी सबसे बड़ी मजबूरी यह है कि चारों तरफ पानी है, लेकिन पीने के लिए एक बूंद भी साफ पानी नहीं है।”
जोजरी का पानी नए इलाकों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। दिमाराम कहते हैं कि जहां भी रास्ता मिलता है, पानी उधर चला जाता है। श्रवण पटेल कहते हैं कि बारिश में जब नदी में पानी बहुत ज्यादा आता है, तो नए गांव इसकी चपेट में आ जाते हैं।
दरकती जैव-विविधता
एक समय धवा-डोली क्षेत्र वन्यजीवों और रेगिस्तानी वनस्पतियों से भरा-पूरा था। यहां राज्य वृक्ष खेजड़ी, केर और राज्य पुष्प रोहिड़ा बहुतायत में पाया जाता था। पूरा इलाका काले हिरण, चिंकारा और प्रवासी पक्षियों से आबाद था। नदी में प्रदूषण बढ़ने के साथ ही इलाके में वनस्पतियां और वन्यजीव भी खत्म हो रहे हैं। मोंगाबे-हिंदी ने जब राजगुरु गांव का दौरा किया, तो वहां कई नीलगायें जोजरी का गंदा पानी पी रही थीं।
श्रवण पटेल बताते हैं, “जब पानी साफ था, तो यहां एक-एक खेत में इमारती रोहिड़ा के लगभग सौ-सौ पेड़ थे। आज रोहिड़ा गिना-चुना दिखेगा। रोहिड़ा इतना संवेदनशील है कि जहरीला पानी आने के एक महीने बाद ही सूख जाता है।”

साल 2021 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक लूनी, बांडी (पाली की तरफ से लूणी में मिलने वाली) और जोजरी नदियों के किनारे कुल 49 प्रजातियां (वनस्पित) दर्ज की गईं। इनमें सबसे कम वनस्पतियां जोजरी नदी के किनारे देखी गईं।
इस रिसर्च का हिस्सा रहे और शुष्क वन अनुसंधान संस्थान में वन पारिस्थितिकी और जलवायु परिवर्तन के पूर्व प्रमुख जी सिंह ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “प्रदूषण के चलते नदी के आसपास पारंपरिक वनस्पतियों की विविधता घट रही है और खारे पानी की वनस्पतियां बढ़ रही हैं। पानी से प्रदूषक तत्व वनस्पतियों में जा रहे हैं और वन्यजीवों के शरीर में पहुंच रहे हैं। अधिकांश समय तक इस पानी के जमा रहने से पारंपरिक वनस्पतियों पर खतरा बढ़ सकता है। जलमग्न अवस्था में फरास और खेजड़ी की अपेक्षा रोहिड़ा ज्यादा प्रभावित हो सकता है।”
ऐसा ही कुछ हाल काले हिरणों का भी है। श्रवण पटेल अपने बचपन को याद करके बताते हैं कि तब 300 के झुंड में काले हिरण आया करते थे, लेकिन आज इनका झुंड महज 30 का रह गया है। वह संरक्षणवादी असद रहमानी के एक रिसर्च का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि तब धवा-डोली में करीब 3,700 काले हिरण थे, जबकि ताल छापर में इनकी तादाद महज दो हजार थी। अब ताल छापर में, 2021-22 में हुई गणना के अनुसार, 4,223 काले हिरण हैं और धवा-डोली में इनकी संख्या और कम हो गयी है।
वह काले हिरणों के खत्म होने की वजह बताते हैं, “पहले तो खेतों की तारबंदी हो गई। इससे वन्यजीवों का स्वच्छंद विचरण बंद हो गया। उन पर कुत्तों के हमले बढ़ गए हैं। फिर 2007-08 से केमिकल वाली पानी आना शुरू हो गया और हिरणों की संख्या घटती चली गई।”
कभी इस इलाके में कुएं और तालाब पीने के पानी का एकमात्र स्त्रोत थे। लेकिन, केमिकल वाले पानी ने तालाबों और कुओं को भी प्रदूषित कर दिया है। रमेश बिश्नोई कहते हैं कि हमारे गांव के छह तालाबों में से चार में गंदा पानी भर गया है। दूर वाले दो तालाबों का पानी अभी साफ है।


समाधान तेज करने की कोशिश
दो दशक से लगातार गंभीर हो रही इस समस्या का अब तक ठोस समाधान नहीं खोजा जा सका है। इन गांवों के लोग धरना-प्रदर्शन करके थक चुके हैं। बड़े-अधिकारियों से मिल चुके हैं, लेकिन नतीजा सिफर रहा। मामला राष्ट्रीय हरित अधिकरण तक भी पहुंचा और कोर्ट ने पिछले साल राज्य सरकार को कार्य योजना बनाकर नदी में प्रदूषण रोकने को कहा था। आंकड़ों के मुताबिक जोधपुर में घरेलू अपशिष्ट 230 मेगालीटर प्रतिदिन (MLD) निकलता है। इसमें से 120 MLD ही साफ हो पाता है। बाकी 110 MLD अपशिष्ट बिना साफ किए बहा दिया जाता है। राजस्थान प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के डेटा के अनुसार, जोधपुर में करीब 20 MLD पानी उद्योगों से निकलता है और 20 MLD क्षमता के ट्रीटमेंट प्लांट के बावजूद सिर्फ 11 MLD ही इस प्लांट तक पहुंच पाता है। बाकी का औद्योगिक अपशिष्ठ पानी पाइपलाइन के आभाव में बह जाता है।
जोधपुर के जिला कलेक्टर गौरव अग्रवाल ने मोंगाबे हिंदी को बताया, “केंद्र सरकार ने 176 करोड़ रुपए का बजट दिया है। इससे चार एसईटीपी बनेंगे। सीवरेज लाइन भी सही की जाएगी। निर्माण का काम जल्द ही शुरू किया जा रहा है। सालावास में 100 MLD के पुराने प्लांट का अपग्रेडेशन हो रहा है।”
जोधपुर में 312 पंजीकृत कपड़ा उद्योग हैं। स्टील री-रोलिंग मिल 94 हैं। अन्य इंडस्ट्री 13 हैं। वहीं, राजस्थान स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एंड इनवेस्टमेंट कारपोरेशन लिमिटेड (रीको) के जोधुपर कलस्टर में करीब 2100 औद्योगिक प्लॉट हैं।
सूत्रों के मुताबिक, स्टील उद्योग से 1.5 MLD पानी निकलता है और इसमें से आधा ही ट्रीट हो पाता है। लेकिन, असल समस्या कपड़ा उद्योग की है। इसका ट्रीटमेंट प्लांट 18.5 MLD का है। गंदा पानी भी इतना ही निकलता है, लेकिन प्लांट तक 11 MLD ही पहुंच पाता है। पाइपलाइन की क्षमता कम होने से ऐसा होता है।
इस समस्या से निपटने के लिए नई पाइपलाइन बिछाई जा रही है। करीब 23.5 किलोमीटर लंबी लाइन में से 5.5 किमी का काम पूरा हो गया है। अग्रवाल कहते हैं, “दोनों उद्योगों का सीईटीपी पुरानी टेक्नोलॉजी का है। स्टील उद्योग का अपग्रेड हो रहा हैं। लेकिन फंड की कमी के चलते कपड़ा उद्योग का काम अटका हुआ है।”
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इस बीच, धवा मार्केट एसोसिएशन के अध्यक्ष सुखाराम पटेल का सुझाव है कि अगर लूणावास से डोली के बीच तीन किलोमीटर दूर तक नदी गहरी (गाद निकालना) कर दी जाए और 50 फुट चौड़ी कर दी जाए, तो 80 फीसदी खेतों में गंदा पानी नहीं जाएगा।”
दिक्कत यह है कि बारिश के मौसम में जोजड़ी और बांडी से आने वाला गंदा पानी रेगिस्तान की एकमात्र बड़ी नदी लूणी में पहुंच जाता है। इससे लूणी में भी प्रदूषण बढ़ता जा रहा है जो रेगिस्तान में सिंचाई का जरूरी जरिया है।
बैनर तस्वीरः करीब दो दशक बाद भी राजस्थान के 50 गांवों को जोजरी नदी के गंदे पानी से छुटकारा नहीं मिल पाया है। तस्वीर- निर्मल वर्मा/मोंगाबे