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गिद्ध सरक्षण: सिर्फ दवाओं पर पाबंदी नाकाफी, उठाने होंगे दूसरे कदम

उत्तरी भारत में शव खाते हुए गिद्ध। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY 2.0) के जरिए रॉन नाइट द्वारा ली गई तस्वीर।

उत्तरी भारत में शव खाते हुए गिद्ध। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY 2.0) के जरिए रॉन नाइट द्वारा ली गई तस्वीर।

  • जानवरों को दी जाने वाली कुछ जहरीली दवाओं पर पाबंदी के बावजूद दक्षिण भारत के गांवों में इनका दुरुपयोग किया जाता है। इन दवाओं से संक्रमित मवेशियों के शवों को खाने से गिद्धों की मौत हो जाती है।
  • झोलाछाप चिकित्सक, अप्रशिक्षित सहायक और यहां तक ​​कि किसान भी अक्सर बिना उचित जानकारी या नियमन के अपने पशुओं को ये दवाएं देते हैं।
  • जानकार दवाओं पर प्रतिबंध और रोक के अलावा सख्ती से इसे लागू करने, पशुओं के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल और जागरूकता बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।

कर्नाटका, तमिलनाडु और केरल में फैले दक्षिण भारत के अलग-अलग जंगलों में खामोशी से एक संकट पैर पसार रह है। यह संकट कुदरत के सबसे कुशल सफाईकर्मी गिद्धों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है।

इस साल फरवरी में तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में एक साथ किए गए गिद्ध सर्वेक्षण में 390 गिद्धों का अनुमान लगाया गया था। हालांकि, यह संख्या पिछले साल के 320 गिद्धों के अनुमान से ज्यादा है, लेकिन यह ऐतिहासिक आबादी से काफी कम है। सर्वेक्षण में तमिलनाडु में 157 गिद्ध दर्ज किए गए। इनमें सफेद पूंछ वाला गिद्ध (110), लंबी चोंच वाला गिद्ध (31) लाल सिर वाला गिद्ध (11) और सफेद गिद्ध (5) शामिल हैं। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार, पहली तीन प्रजातियों के गिद्ध गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं, जबकि बाद वाली प्रजाति संकटग्रस्त है।

भारत में गिद्धों की संख्या में कमी की बड़ी वजह डाइक्लोफेनाक नामक दवा है। यह मवेशियों के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली बिना स्टेरायडल एंटी-इंफ्लेमेटरी दवा (NSAID) है। इलाज वाले मवेशियों के शवों से डाइक्लोफेनाक के अवशेषों को खाने वाले गिद्धों के गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं और यहां तक ​​कि उन्हें मौत जैसी गंभीर स्वास्थ्य जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। इससे उनकी आबादी में भयावह गिरावट आती है। डाइक्लोफेनाक के दुष्प्रभाव से भारत में गिद्धों की आबादी में गिरावट के कारण सरकार ने 2006 में पशु चिकित्सा के लिए इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया। एसीक्लोफेनाक, कीटोप्रोफेन और निमेसुलाइड जैसी अन्य मिलती-जुलती दवाएं भी घातक रूप से जहरीली पाई गईं और बाद में उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

तमिलनाडु के इरोड शहर के पशु चिकित्सक के. विजयकुमार कहते हैं, “ये प्रतिबंधित NSAID मवेशियों पर चमत्कारिक रूप से काम करते हैं, दर्द और सूजन को लगभग तुरंत कम करते हैं, क्योंकि दवा के 50% चयापचय और असर दिखाने में लगने वाला समय सबसे कम और सबसे तेज होता है।” “हालांकि, इन दवाओं के सेवन के बाद यूरिक एसिड के स्तर में बढ़ोतरी के कारण अक्सर [गिद्धों में] गुर्दे काम नहीं करते हैं। गिद्ध जैविक रूप से यूरिक एसिड के ऐसे बढ़े हुए स्तर को संभाल नहीं पाते हैं, जिसके चलते गुर्दे काम नहीं करने से आखिरकार उनकी मौत हो जाती है।”

मैसूर स्थित वन्यजीव संरक्षण फाउंडेशन (डब्ल्यूसीएफ) के प्रबंध न्यासी राजकुमार देवराज उर्स बताते हैं, “अगर गिद्धों का समूह ऐसे किसी शव को खा ले, तो उस समूह के सभी गिद्ध मर सकते हैं। लेकिन उनकी मौत तुरंत नहीं होती है। उनकी मौत कहीं ऐसी जगह होती है जहां किसी की नजर नहीं जाती।”

इन नुकसानदेह दवाओं पर प्रतिबंध के बावजूद, लागू करने में खामी से कानून बेअसर हो जाता है, जिससे पूरे भारत में गिद्धों की आबादी खामोशी से खत्म हो रही है।

मध्य प्रदेश में मवेशी के शव को खाता हुआ यूरेशियन गिद्ध। 2006 में बिना स्टेरॉयड वाली एंटी-इंफ्लेमेटरी दवाओं पर सरकारी प्रतिबंध के बावजूद, उन्हें मवेशियों को अवैध रूप से दिया जाना जारी है। इन मवेशियों के शवों को गिद्धों द्वारा खाने से उनके स्वास्थ्य पर भयावह नतीजे होते हैं। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए अरिंदम आदित्य द्वारा ली गई तस्वीर।
मध्य प्रदेश में मवेशी के शव को खाता हुआ यूरेशियन गिद्ध। 2006 में बिना स्टेरॉयड वाली एंटी-इंफ्लेमेटरी दवाओं पर सरकारी प्रतिबंध के बावजूद, उन्हें मवेशियों को अवैध रूप से दिया जाना जारी है। इन मवेशियों के शवों को गिद्धों द्वारा खाने से उनके स्वास्थ्य पर भयावह नतीजे होते हैं। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए अरिंदम आदित्य द्वारा ली गई तस्वीर।

प्रतिबंध की अनदेखी

साल 2006 में पशु चिकित्सा के लिए इस दवा के इस्तेमाल पर प्रतिबंध के बाद, डाइक्लोफेनाक को मानव इस्तेमाल के लिए कई खुराक वाली शीशियों (30 मिली) में बेचा जाना जारी रहा। इससे मवेशियों पर डाइक्लोफेनाक के अवैध इस्तेमाल को बढ़ावा मिला, जिससे गिद्धों की आबादी में और गिरावट आई।

इसके जवाब में, भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 17 जुलाई, 2015 को डाइक्लोफेनाक की इन शीशियों पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि एक दवा कंपनी ने इस प्रतिबंध को चुनौती दी, लेकिन मद्रास उच्च न्यायालय ने 2017 में प्रतिबंध को बरकरार रखा।

इस प्रतिबंध का कुछ जगहों पर सख्ती से पालन किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, नीलगिरी में एक फार्मासिस्ट ने नाम नहीं बताने की शर्त पर संवेदनशील विषय पर बात करते हुए पुष्टि की कि अब ज्यादातर खुदरा स्टोर बिना डॉक्टर की पर्ची की डाइक्लोफेनाक बेचने से मना कर देते हैं। इंसानों के इस्तेमाल के लिए भी ऐसा नहीं किया जाता है। वह कहते हैं, “हमने बोर्ड लगा दिए हैं जिसमें साफ तौर पर लिखा है कि यहां बेची जाने वाली दवाएं सिर्फ इंसानों के इस्तेमाल के लिए हैं।” “जब भी कोई किसान पशु चिकित्सा के लिए हमारी दुकान पर आता है, तो हम उन्हें सही इलाज के लिए पशु चिकित्सकों के पास भेजते हैं।”

उन्होंने कहा कि नीलगिरी में प्रतिबंधित दवाओं का मिलना लगभग असंभव हो गया है। वह कहते हैं, “खासकर डाइक्लोफेनाक अब हमें थोक वितरकों द्वारा नहीं दिया जाता, यहां तक कि इंसानों के इस्तेमाल के लिए भी नहीं।”

लेकिन ऐसा सभी क्षेत्रों में नहीं होता है। राजकुमार बताते हैं कि कई खुराक वाली बड़ी शीशियां व्यापक रूप से उपलब्ध हैं और अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं के इलाज के लिए डॉक्टर के पर्चे की जरूरतों को दरकिनार करते हुए उनका दुरुपयोग किया जा रहा है। कोयंबटूर स्थित गैर-सरकारी संगठन अरुलागाम के सह-संस्थापक व सचिव और गिद्धों के संरक्षण पर सक्रिय रूप से काम करने वाले एस भारतीदासन कहते हैं कि प्रतिबंध के बावजूद दवा की शीशियां अभी भी बाजार में उपलब्ध हैं। ऐसा खास तौर पर एमएम हिल्स और गुंडलूपेट जैसी जगहों पर हो रहा है, जो नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व से बाहर हैं। इनमें से दवा की कुछ शीशियों पर 2022 की तारीख है।

तमिलनाडु के ड्रग कंट्रोल के निदेशक एमएन श्रीधर कहते हैं, “2016 से 2021 तक पशु चिकित्सा उद्देश्यों के लिए डाइक्लोफेनाक के दुरुपयोग के 104 मामले दर्ज किए गए और लगभग सभी में सजा हुई और कुछ में अभी भी फैसला आना बाकी है।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि स्थिति फिलहाल नियंत्रण में है और एक क्षेत्र में कानून को सख्ती से लागू करने का असर अक्सर दूसरे क्षेत्रों में भी दिखाई देता है।

उन्होंने बताया कि तमिलनाडु के पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और वन विभाग की अतिरिक्त मुख्य सचिव सुप्रिया साहू की सलाह पर कोयंबटूर, इरोड, तिरुप्पुर और नमक्कल जैसे जिलों में विशेष सतर्कता बरती जा रही है।

“कोयंबटूर में दो लाइसेंस पहले ही रद्द किए जा चुके हैं और पांच मामलों में जांच जारी है। साथ ही कारण बताओ नोटिस भी जारी किए गए हैं। प्रतिक्रिया और उल्लंघन की गंभीरता के आधार पर, लाइसेंस निलंबित या रद्द करने का फैसला लिया जाता है,” वह कहते हैं।

कूड़े के ढेर पर पशुओं के शवों के ऊपर चक्कर लगाते हुए सफेद गिद्ध। केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में किए गए सर्वेक्षणों से पता चला है कि मानव इस्तेमाल के लिए डाइक्लोफेनाक की कई खुराक वाली शीशियों की खरीद जारी है। इससे मवेशियों को अवैध रूप से दिया जा रहा है। 2016-2021 के दौरान डाइक्लोफेनाक के दुरुपयोग के 104 मामले दर्ज किए गए। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए सारसस्केप द्वारा ली गई तस्वीर।
कूड़े के ढेर पर पशुओं के शवों के ऊपर चक्कर लगाते हुए सफेद गिद्ध। केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में किए गए सर्वेक्षणों से पता चला है कि मानव इस्तेमाल के लिए डाइक्लोफेनाक की कई खुराक वाली शीशियों की खरीद जारी है। इससे मवेशियों को अवैध रूप से दिया जा रहा है। 2016-2021 के दौरान डाइक्लोफेनाक के दुरुपयोग के 104 मामले दर्ज किए गए। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए सारसस्केप द्वारा ली गई तस्वीर।

पशु चिकित्सों के लिए नियमन की कमी

राजकुमार के अनुसार, संसाधनों की कमी से जूझ रहे पशु चिकित्सा विभाग डाइक्लोफेनाक के दुरुपयोग को बढ़ावा देते हैं। वे कहते हैं, “चूंकि वे हर कॉल का जवाब नहीं दे पाते, इसलिए सेवानिवृत्त कर्मचारी या अप्रशिक्षित सहायक इस काम को करते हैं।”

विजयकुमार कहते हैं कि मवेशी को गर्भ धारण कराने वाले और अन्य गैर-योग्य कर्मचारी अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में झोलाछाप पशु चिकित्सक के रूप में काम करते हैं। ये बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के ओवर-द-काउंटर दवाइयां लिखते हैं। वे बताते हैं, “ये अप्रशिक्षित व्यक्ति पशु चिकित्सा दवाओं को अंधाधुंध तरीके से वितरित करते हैं। उन्हें सही खुराक, नुकसान या कुछ दवाओं पर प्रतिबंध के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है।” वह कहते हैं कि कुछ मामलों में, किसान भी पशु चिकित्सक की फीस का भुगतान करने से बचने के लिए खुद ही दवाइयां खरीदते हैं और मवेशियों को देते हैं। कभी-कभी घातक सीमा से ज्यादा खुराक भी दे दी जाती है।

वह कहते हैं, “अच्छे चिकित्सक गैर-जरूरी दवाओं से तब बचते हैं, जब प्राकृतिक इलाज ही पर्याप्त हो सकता है। लेकिन हम असल में जो देखते हैं, वह चिंताजनक है। झोलाछाप डॉक्टर घातक खुराक देते हैं, अक्सर गाय के दर्द के आधार पर बिना उचित निदान के कई दिनों तक इलाज जारी रखते हैं।”

यहां तक ​​कि 30 मिलिलीटर जैसी थोड़ी सी भी अतिरिक्त खुराक, मवेशियों में खूनी दस्त जैसे घातक दुष्प्रभाव पैदा कर सकती है। विजयकुमार बताते हैं, “हम हमेशा गायों का वजन सही तरीके से नहीं माप पाते, जिससे जोखिम बढ़ जाता है।” “किसान और झोलाछाप डॉक्टर अक्सर गिद्धों के बारे में भी नहीं जानते, इन दवाओं के अप्रत्यक्ष दुष्प्रभाव की तो बात ही छोड़िए। पशु चिकित्सा दवा के इस्तेमाल पर नियंत्रण के लिए सख्त सरकारी हस्तक्षेप के साथ-साथ शिक्षा और जागरूकता की तुरंत जरूरत है।”

भारतीदासन का सुझाव है कि पशु चिकित्सा देखभाल को सरकार के अधीन लाया जाना चाहिए। “तमिलनाडु सरकार को पशु चिकित्सकों को सस्ती दरों पर व्यापक रूप से उपलब्ध कराना चाहिए। यह तरीका नीम हकीमों और दवाओं के अवैध इस्तेमाल जैसे जटिल मुद्दों को कम करेगा,” वह कहते हैं। इसके अलावा, वह सुझाव देते हैं कि हर मवेशी का विस्तृत इतिहास रखने से दी जाने वाली दवाओं पर नजर रखने, पशु की मृत्यु के कारण के बारे में जरूरी जानकारी पाने और निपटान का उचित तरीका तय करने में मदद मिलेगी।

तमिलनाडु के अन्नामलाई हिल्स में मवेशी। जानकारों का कहना है कि पशुपालकों को गिद्धों पर NSAID के दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए, क्योंकि बहुत से लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं। कुछ लोगों का सुझाव है कि पशु चिकित्सा देखभाल को पूरी तरह से सरकार के अधीन लाया जाना चाहिए। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए पी. जगनाथन द्वारा ली गई तस्वीर।
तमिलनाडु के अन्नामलाई हिल्स में मवेशी। जानकारों का कहना है कि पशुपालकों को गिद्धों पर NSAID के दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए, क्योंकि बहुत से लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं। कुछ लोगों का सुझाव है कि पशु चिकित्सा देखभाल को पूरी तरह से सरकार के अधीन लाया जाना चाहिए। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए पी. जगनाथन द्वारा ली गई तस्वीर।

बहुआयामी नजरिया जरूरी

तमिलनाडु ने गिद्धों के संरक्षण के लिए अहम कदम के तौर पर 2019 में पशु चिकित्सा दवा फ्लूनिक्सिन के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया है। साथ ही, राज्य में कोयंबटूर, नीलगिरी और इरोड जिलों में गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र स्थापित करने पर काम हो रहा है। भारतीदासन कहते हैं, “राज्य सरकारों के पास दवाओं पर पूरी तरह पाबंदी लगाने का अधिकार नहीं है, तमिलनाडु ने अपने अधिकार क्षेत्र में दवा की बिक्री और खरीद को सीमित करके निर्णायक कार्रवाई की है।” राज्य ने इससे पहले 2015 में एक अन्य हानिकारक दवा, कीटोप्रोफेन के इस्तेमाल पर अंकुश लगाया था, जो कि राष्ट्रीय सरकार द्वारा 2023 में देशव्यापी प्रतिबंध लागू करने से बहुत पहले हुआ था। भारतीदासन कहते हैं, ”इस स्तर पर, सिर्फ नैतिक अभियान ही संभव है। इसे कानूनी ताकत देने के लिए ड्रग्स टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ इंडिया द्वारा जारी किया गया देशव्यापी प्रतिबंध आवश्यक है।”

लेकिन, उनका कहना है कि सिर्फ सूजन रोधी दवाओं पर प्रतिबंध लगाने से गिद्धों की संख्या बढ़ाने में मददगार नहीं होगी। इस समस्या के लिए बहुआयामी नजरिए की जरूरत है।

राजकुमार और उनकी टीम जमीनी स्तर पर सबूत इकट्ठा कर रही है और किसानों, पशु चिकित्सकों और वन्यजीव विभागों के साथ मिलकर जागरूकता पैदा करने और जवाबदेही की मांग कर रही है। राजकुमार ने बताया कि गांव के शिक्षित बाशिंदों में भी इस बात को लेकर भ्रम है कि गिद्ध कैसे दिखते हैं। वे कहते हैं, “कई लोग चील को गिद्ध समझते हैं, क्योंकि उन्होंने कभी असली गिद्ध को नहीं देखा।” जब वे स्कूलों में गए, तो शिक्षकों को भी छात्रों को पढ़ाने के लिए कभी कोई नहीं मिला। उन्होंने बताया, “हम गिद्धों की आबादी को बचाने के लिए ग्रामीणों को रामायण का जटायु दिखाते हैं। जब वे इसे अपनी आस्था से जोड़ पाते हैं, तो इस मुद्दे पर तुरंत ध्यान दिया जाता है।” टीम एथनो-वेटरनरी तरीकों को भी बढ़ावा दे रही है, जिसमें जानवरों के इलाज के पारंपरिक तरीके शामिल हैं, जैसे कि आयुर्वेदिक दवाओं का इस्तेमाल, जो वे प्रतिबंधित/पाबंदी वाली दवाओं की शुरूआत से पहले इस्तेमाल करते थे। उन्होंने बताया कि इसे कर्नाटक के पांच गांवों में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर चलाया जा रहा है।

इसके अलावा, भारतीदासन का मानना ​​है कि सरकार को पशु शव के उचित निपटान के लिए तंत्र स्थापित करना चाहिए। वह पशु विषाक्तता के बढ़ते मुद्दे की ओर इशारा करते हैं, जहां जंगली जानवर या पक्षी अनजाने में मोर, आवारा कुत्तों और इसी तरह के जानवरों के लिए बनाए गए पदार्थों का सेवन कर लेते हैं। इन जहरीले जंगली जानवरों को फिर गंदगी साफ करने वाले जानवर खा लेते हैं, जिससे जहर की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है जिसके चलते गिद्धों की मौत हो जाती है, जिससे शवों को निपटाने का बोझ बढ़ जाता है।


और पढ़ेंः प्रकृति के सफाईकर्मी गिद्ध के योगदान का क्या है मोल?


वे कहते हैं, “गिद्ध प्रकृति के सफाईकर्मी हैं। उनकी अनुपस्थिति समुदायों को मृत मवेशियों को ज्यादा कीमत पर निपटाने के लिए मजबूर करती है या इससे भी बदतर, शवों को मांस उद्योगों को भेजा जाता है, जिससे अन्य जानवर और मनुष्य इनके संपर्क में आते हैं।” वे कहते हैं कि गिद्धों का संरक्षण सिर्फ एक प्रजाति को बचाने के बारे में नहीं है; यह सफाईकर्मियों की पूरी श्रृंखला को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है।

पारिस्थितिकी में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, गिद्ध धीरे-धीरे प्रजनन करते हैं। जोड़े साल में एक बार प्रजनन करते हैं और परिपक्व होने में चार साल तक का समय लेते हैं। भारतीदासन कहते हैं, “बिजली के झटके, पवनचक्की से टक्कर, जानवरों के जहर और औद्योगिक मांस प्रथाओं के कारण भोजन की कमी जैसे अन्य खतरों के साथ, हर गिद्ध का खो जाना बड़ा झटका है।”


यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 जून, 2025 को  प्रकाशित हुई थी।


बैनर तस्वीर: उत्तरी भारत में शव खाते हुए गिद्ध। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY 2.0) के जरिए रॉन नाइट द्वारा ली गई तस्वीर।

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