- मुंबई महानगर के मैंग्रोव के इलाकों में किए गए एक कैमरा ट्रैप सर्वेक्षण में सुनहरे सियारों के अन्य वन्यजीवों और इंसानों के साथ सह-अस्तित्व को समझने की कोशिश की गई।
- इस सर्वेक्षण ने उनके व्यवहार, आहार और संभावित खतरों को लेकर कई अहम जानकारियां दीं।
- ऐतिहासिक रूप से, सुनहरे सियार दक्षिण मुंबई के कई हिस्सों में पाए जाते थे, लेकिन शहरी विस्तार ने उन्हें छोटे-छोटे खंडित आवासों तक सीमित कर दिया है।
मुंबई जैसे महानगर में तेजी से बढ़ता शहरीकरण, शहर के प्राकृतिक आवासों पर कब्जा करता जा रहा है। ऐसे में शहर के मैंग्रोव में रहने वाले सुनहरे सियार (गोल्डन जैकाल) अब अपने लिए जीवित रहने के लिए जगह और शिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
सुनहरे सियार को भारत के कुछ हिस्सों में सोन कुत्ता, सुनहरा गीदड़ या एशियाई गीदड़ भी कहा जाता है।
हालांकि, इन तमाम मुश्किलों के बावजूद भी ये जानवर अपने अस्तित्व के लिए डटे हुए हैं। यह बात वाइल्डलाइफ़ कंज़र्वेशन सोसाइटी (WCS) – इंडिया द्वारा मैंग्रोव एंड मरीन बायोडायवर्सिटी कंज़र्वेशन फाउंडेशन के सहयोग से साल 2024 में किए गए एक अध्ययन में सामने आई है।
“भले ही हमें उनके (सुनहरे सियार) सटीक आंकड़े नहीं मालूम हैं, लेकिन दो महीने के सर्वे के दौरान हमने अलग-अलग उम्र के शावकों को देखा, जिससे यह संकेत मिलता है कि वे साल भर प्रजनन करते हैं,” WCS-इंडिया में रिसर्च मैनेजर और अध्ययन के सह-लेखक निकित सुरवे ने बताया।
“यहां तक कि छोटे समूहों में भी हमने शावकों और दूध पिलाती मादाओं को देखा, जो इस बात का मजबूत संकेत है कि यह आबादी सक्रिय रूप से प्रजनन कर रही है।”
हालांकि, इन सब के साथ ही अब नए खतरे सामने आ रहे हैं। आवारा कुत्तों के साथ संकरण (हाइब्रिडाइज़ेशन), और मैंग्रोव आवासों का विखंडित होना और उनका नुकसान इन खतरों में शामिल है।

लुका-छुपी
भारत में सुनहरे सियार अलग-अलग तरह के आवासों में पाए जाते हैं। यह अधिकतर संरक्षित क्षेत्रों के साथ-साथ अर्ध-शहरी और ग्रामीण इलाकों में भी रहते हैं। लेकिन हिमालय के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में यह नहीं पाए जाते।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (IUCN) ने भले ही इसे “कम चिंता वाली प्रजाति” (Least Concern) के रूप में वर्गीकृत किया है, लेकिन 2022 में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम में हुए संशोधन के तहत भारत में इसकी स्थिति को और मज़बूत किया गया है। अब इसे अनुसूची-I (Schedule I) की श्रेणी में रखा गया है, जो किसी भी प्रजाति को मिलने वाला सर्वोच्च कानूनी संरक्षण है।
इस अध्ययन के अनुसार, सुनहरे सियार कभी पूरी मुंबई में व्यापक रूप से फैले हुए थे। साल 1904 से 1914 के कुछ अभिलेखों में शहर के दक्षिणी हिस्सों में उनकी मौजूदगी का ज़िक्र है, लेकिन शहरी विस्तार ने इन्हें इनके बिखरे हुए आवासों में सीमित कर दिया है। अब ये शहर के मैंग्रोव क्षेत्रों में एक अनोखी पारिस्थितिक भूमिका निभा रहे हैं, ये न केवल स्कैवेंजर (मृत जीवों को खाने वाले) के रूप में बल्कि शीर्ष शिकारी (एपेक्स प्रीडेटर) की भूमिका भी निभाते हैं।
“ऐतिहासिक रूप से, सुनहरे सियार मरीन लाइन्स और चारनी रोड (दक्षिण मुंबई) जैसे इलाकों में देखे गए थे। आज उनकी दक्षिणी सीमा भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (मुंबई के पूर्वी उपनगरों में) तक सिमट गई है, जबकि गोराई, मणोरी (उत्तर मुंबई) और वाशी के मैंग्रोव क्षेत्रों में इनकी स्वस्थ आबादी पाई जाती है,” सुरवे बताते हैं।
इस प्रजाति ने बढ़ते शहरीकरण में किस तरह अपने आप को ढाला, इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने मुंबई मैंग्रोव कंज़र्वेशन यूनिट (MMCU) की विभिन्न रेंजों में 68 जगहों पर ट्रैप कैमरा लगाए। यह सर्वेक्षण कुल 938 रातों तक चला। इस दौरान कई प्रजातियों की करीब 2,950 कैमरा कैप्चर घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें से 790 में सुनहरे सियार नज़र आए। यह आंकड़ा अन्य जंगली प्रजातियों जैसे भारतीय ग्रे नेवला (92 बार) और जंगल कैट (28 बार) की तुलना में कहीं अधिक था।
मानव गतिविधियां मैंग्रोव क्षेत्र में सबसे अधिक दर्ज की गईं। कुल 1,666 कैमरा कैप्चर मानव उपस्थिति से संबंधित थे। इसके अलावा, 374 बार आवारा कुत्तों की मौजूदगी भी दर्ज हुई। इन व्यवधानों के बावजूद, सुनहरे सियार अद्भुत अनुकूलन क्षमता दिखते हैं।
“उनकी गतिविधि मुख्य रूप से रात्रिचर (रात में सक्रिय) थी, और यह सुबह और शाम, जब मानव उपस्थिति कम हो जाती है, के समय चरम पर थी। यह उनके द्वारा इंसानों से समयानुकूल दूरी बनाए रखने की एक अच्छी रणनीति को दर्शाता है,” सुरवे बताते हैं।
सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि सुनहरे सियार और पालतू (या आवारा) कुत्तों के बीच कई बार संभोग हुआ। हालांकि कुछ स्थानों पर दोनों अलग-अलग समय पर सक्रिय थे, फिर भी वे अक्सर एक ही स्थान साझा कर रहे थे।

खान-पान का स्वभाव
मैंग्रोव के इलाके सुनहरे सियार को कई प्रकार का आहार उपलब्ध कराते हैं। सुनहरे सियार मल के 38 नमूनों के विश्लेषण में पाया गया कि उनके आहार में स्तनधारी जीवों के अवशेष (31.4%), वनस्पति पदार्थ (26.7%), पक्षी (14.3%) और कभी-कभी केकड़े, मछलियां और सांप भी शामिल थे। चिंताजनक रूप से, 3% नमूनों में प्लास्टिक के अंश भी पाए गए।
हालांकि, इस निष्कर्ष के साथ कुछ शर्तें भी जुड़ी हुई हैं। परिक्षण किये गए मल को सिर्फ देखकर इसे सुनहरे सियार का माना गया, लेकिन कुछ नमूने संभवतः कुत्तों के भी हो सकते हैं। चूंकि सुनहरे सियार और कुत्तों का आहार काफी हद तक एक जैसा होता है, इसलिए उनके मल में अंतर कर पाना एक बड़ी चुनौती है। इसी कारण शोधकर्ताओं ने आगे और अध्ययन की आवश्यकता बताई है, जिसमें आनुवंशिक विश्लेषण (जैनेटिक एनालिसिस) शामिल हो, ताकि मल के नमूनों की सही पहचान हो सके।
कुल मिलाकर, अध्ययन के अनुसार, मुंबई के सुनहरे सियार अच्छी सेहत में दिखते हैं और एक सामान्य स्कैवेंजर (मृत जीवों को खाने वाले) आहार पर जीवित हैं। “हमने मैंग्रोव क्षेत्रों में कई बार गायों के पूरे शव देखे हैं, जिसे सुनहरे सियार पूरी तरह से खा लेते हैं। जहां तक प्लास्टिक का सवाल है, यह इस क्षेत्र के स्कैवेंजरों में आम तौर पर देखा जाने वाला तत्व है,” सुरवे बताते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि सुनहरे सियारों की यह आहार संबंधी अनुकूलन क्षमता एक अन्य शोध पत्र में भी सामने आई है, जो इसी वर्ष प्रकाशित हुआ। इस अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली के रिज फॉरेस्ट में रहने वाले सुनहरे सियार भी बेहद अवसरवादी भोजन व्यवहार दिखाते हैं। प्राकृतिक शिकार जैसे पक्षियों, चूहों और कीटों के अलावा वे इंसानों द्वारा छोड़े गए खाद्य पदार्थ जैसे केले, ब्रेड, चपाती, चने और कसाईखाने के अवशेष भी खाते हैं।
“गौर करने वाली बात यह है कि शावकों को अक्सर प्रजनन जोड़े और उनके सहायक, उल्टी करके दिया गया मानव-प्रदत्त भोजन, जैसे चपाती और केले, खिलाते हैं। इस तरह के संसाधनों पर निर्भरता उनकी अद्भुत अनुकूलन क्षमता को दर्शाती है। ऐसी प्रवृत्तियाँ शहरी परिवेश में प्रजातियों के जीवित रहने और सफल होने के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो सकती हैं, क्योंकि ये वयस्क सुनहरे सियारों और उनके शावकों, दोनों के लिए आवश्यक पोषण संसाधनों तक पहुंच सुनिश्चित करती हैं,” अजय इमैनुएल गोंजी, जो डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली के स्कूल ऑफ ह्यूमन इकोलॉजी से जुड़े हैं और इस अध्ययन के शोधकर्ताओं में से एक हैं, बताते हैं।
सह-अस्तित्व की चुनौतियां
मैंग्रोव क्षेत्रों की अपनी खूबियों के बाद भी, मुंबई के मैंग्रोव क्षेत्रों में जीवन कई चुनौतियों से भरा हुआ है। कैमरा ट्रैप से यह स्पष्ट हुआ है कि सुनहरे सियार और आवारा कुत्ते एक ही स्थानों पर सक्रिय हैं, जिससे उनके बीच सह-अस्तित्व की स्थिति बनती है। लेकिन यह स्थिति बीमारी फैलने का खतरा भी बढ़ा देती है। अक्टूबर में, सुनहरे सियार में रेबीज़ संक्रमण का पहला मामला सामने आया। एक महीने के भीतर अलग-अलग स्थानों पर मरे हुए पांच सियारों के नमूनों की जांच के बाद यह पुष्टि हुई कि वे रेबीज़ से संक्रमित थे।
“हालांकि किसी बड़े पैमाने पर संक्रमण के पुख्ता सबूत अभी नहीं हैं, लेकिन बीमारियों के अध्ययन के लिए अधिक गहराई से शोध की ज़रूरत है, जिसमें खून के नमूने लेना और कल्चर जैसी विधियां शामिल हैं। इस समय हमें यह स्पष्ट रूप से नहीं पता कि वास्तव में क्या हो रहा है,” सुरवे कहते हैं।
संकरण (हाइब्रिडाइज़ेशन) भी एक उभरता हुआ गंभीर खतरा है। कैमरा ट्रैप से मिले संकेतों से कुछ ऐसे सियारों की मौजूदगी का संकेत मिला है जो संभवतः संकर हो सकते हैं। अगर यह पुष्टि होती है, तो यह सुनहरे सियारों की आनुवंशिक शुद्धता को कमजोर कर सकता है, जिससे न केवल उसकी पारिस्थितिकी भूमिका पर असर पड़ेगा बल्कि उसकी अनुकूलन क्षमता भी प्रभावित हो सकती है।

नाज़ुक संतुलन
मुंबई के सुनहरे सियार शहर के पारिस्थितिक संतुलन के लिए बेहद अहम हैं। वे प्राकृतिक कचरा प्रबंधक की भूमिका निभाते हैं, शिकार की आबादी को नियंत्रित करते हैं और जैविक अपशिष्ट को साफ करते हैं। लेकिन इनका अस्तित्व इस बात पर बहुत हद तक निर्भर है कि मैंग्रोव क्षेत्रों को विखंडित होने से कितना बचाया जाता है। यदि इन आवासों का विखंडन जारी रहा, तो यह शिकारी प्रजाति भी स्थानीय स्तर पर विलुप्ति की कगार पर पहुंच सकती है।
सर्वेक्षण के निष्कर्षों ने इस नाज़ुकता को और स्पष्ट किया। ठाणे क्रीक फ्लेमिंगो अभयारण्य में सुनहरे सियार का सबसे अधिक रिलेटिव अबंडेंस इंडेक्स (RAI), जो उनकी उपलब्धता को दर्शाता है, दर्ज किया गया, जबकि मुंबई मैंग्रोव कंज़र्वेशन यूनिट (MMCU) की ठाणे रेंज जैसे इलाकों में यह सबसे कम पाया गया।
विशेष रूप से, ठाणे रेंज में इंसानों और सुनहरे सियार के लिए RAI लगभग बराबर था, जो इस बात को दर्शाता है कि इन इलाकों में जगह के लिए प्रतिस्पर्धा हो रही है।
सुनहरे सियार भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची-1 (Schedule I) के तहत संरक्षित हैं, जो शिकार, हत्या और व्यापार से उन्हें सर्वोच्च स्तर का कानूनी संरक्षण प्रदान करती है। हालांकि, शोधकर्ता मानते हैं कि इस प्रजाति के संरक्षण के लिए विभिन्न परिदृश्यों में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
“शहरी परिवेश में प्रभावी संरक्षण रणनीतियां विकसित करना एक चुनौती है। पारंपरिक संरक्षण जीवविज्ञान, जो मुख्य रूप से स्वच्छ और संरक्षित प्राकृतिक आवासों पर केंद्रित है, अक्सर शहरी पारिस्थितिकी तंत्र की जटिलताओं को समझने में असमर्थ रहता है। इन परिदृश्यों में एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है। एक ऐसा दृष्टिकोण जो शहरी स्थानों को संरक्षण के लचीले मोर्चे के रूप में देखे, जहां प्रजातियाँ नए हालात में विकसित होती हैं और जीवित रहती हैं,” अजय इमैनुएल गोंजी कहते हैं।
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इंसानों और सुनहरे सियारों के बीच सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने में समुदाय की भागीदारी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मुंबई सर्वेक्षण के दौरान स्थानीय निवासियों के साथ किए गए सामाजिक इंटरव्यू से सुनहरे सियारों को लेकर मिली-जुली धारणाएं सामने आईं। इन धारणाओं को बदलना इस सिमटती शहरी वन्य दुनिया में इंसानों और सुनहरे सियारों के बीच साझेदारी सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है।
दिल्ली पर आधारित शोध पत्र में शहरी प्रकृति और योजना की परंपरागत सोच पर पुनर्विचार की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है। “हमें पारंपरिक ‘ग्रीन’ अवधारणाओं से आगे बढ़कर ऐसे नवाचार अपनाने होंगे जो शहरी वन्यजीव आवासों को एकीकृत करें। इसमें ऐसे परिदृश्य डिज़ाइन करना शामिल है जो पोरसिटी यानी वन्यजीवों की आवाजाही की अनुमति दें, और ऐसे ‘इनवायलेट पॉकेट्स’ (अस्पर्शित क्षेत्र) बनाना जो उन्हें शरणस्थली प्रदान करें। ऐसी रणनीतियाँ न केवल आनुवंशिक विविधता को बनाए रखने में मदद कर सकती हैं, बल्कि तेजी से हो रहे शहरीकरण को झेल रही प्रजातियों की सहनशीलता (resilience) को भी बढ़ा सकती हैं,” गोंजी कहते हैं।

यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 16 दिसंबर 2024 को प्रकाशित हुई थी।
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