- भारत ने जीनोम-एडिटेड चावल की दो किस्में जारी की हैं। इसका मकसद उपज में बढ़ोतरी करना और पर्यावरण से जुड़े जोखिमों को कम करना है।
- दोनों ही किस्मों को जीनोम में बदलाव करने वाली तकनीक का इस्तेमाल करके विकसित किया गया है। यह तकनीक विदेशी जीन को शामिल किए बिना पौधे के डीएनए में सटीक बदलाव की सुविधा देती है।
- इसे खाद्य सुरक्षा की दिशा में सकारात्मक कदम माना जा रहा है, फिर भी इन किस्मों की जैव सुरक्षा को लेकर चिंताएं जताई गई हैं।
भारत ने जलवायु की बढ़ती चुनौतियों के बीच खाद्य सुरक्षा को मजबूत करने के इरादे से मुख्य फसल चावल को लेकर अहम कदम उठाया है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के तहत काम करने वाले भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) और भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआईआरआर) के शोधकर्ताओं ने जीनोम-एडिटेड चावल की दो नई किस्में विकसित की हैं। इनके नाम डीआरआर धान 100 (कमला) और पूसा डीएसटी चावल 1 हैं। इन किस्मों का उद्देश्य उपज में बढ़ोतरी करना और पर्यावरण से जुड़े जोखिमों को कम करना है।
हैदराबाद में आईसीएआर-आईआईआरआर द्वारा विकसित डीआरआर धान 100 या कमला लोकप्रिय सांबा महसूरी (बीपीटी-5204) पर आधारित है। नई किस्म सूखे को बेहतर तरीके से झेल सकती है और खारेपन को कम करने के साथ-साथ ज्यादा उपज देती है। पूसा डीएसटी राइस 1 को नई दिल्ली में आईसीएआर-आईएआरआई ने कॉटन डोरा सन्नालू (MTU 1010) से विकसित किया है। इसे डीएसटी या सूखा और खारेपन को झेलने के लिए विकसित किया गया है।
दोनों किस्मों को जीनोम एडिटिंग तकनीक CRISPR-Cas9 का इस्तेमाल करके विकसित किया गया है। यह तकनीक विदेशी जीन को शामिल किए बिना पौधे के डीएनए में सटीक बदलाव करने की सुविधा देती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह पौधे में आनुवंशिक बदलाव से बहुत अलग तरीका है। जीनोम एडिटिंग प्रजनन प्रक्रिया को तेज करती है और पसंदीदा गुणों के साथ फसलों को ज्यादा कुशलता से विकसित कर पाती है।
जीनोम एडिटिंग बनाम जेनेटिक मॉडिफिकेशन
वैसे तो जीनोम एडिटिंग और जेनेटिक मॉडिफिकेशन (जीएम) दोनों में फसलों की जेनेटिक चीजों को बदला जाता है, लेकिन उन्हें लेकर नजरिया और नतीजे मूल रूप से अलग-अलग हैं। जीनोम एडिटिंग में अन्य प्रजातियों के जीन को शामिल किए बिना जीव के अपने डीएनए में लक्षित बदलाव करने के लिए खास उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है। दूसरी तरफ, जेनेटिक मॉडिफिकेशन में आमतौर पर जीनोम में विदेशी जीन डाला जाता है, जिसके चलते अक्सर ट्रांसजेनिक जीव बनते हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में संयुक्त निदेशक (अनुसंधान) विश्वनाथन सी. बताते हैं, “जीनोम एडिटिंग में, म्युटेशन उन खास जगहों पर किए जाते हैं जहां बदलाव जरूरी होता है। ये आंतरिक और अपने हिसाब से किए गए बदलाव हैं। यह आनुवंशिक म्युटेशन को प्रेरित करने का आधुनिक, लक्षित तरीका है जो प्रकृति में भी होता है, लेकिन ऐसा खास नतीजों के लिए सटीकता के साथ किया जाता है।” दूसरी ओर, आनुवंशिक संशोधन के चलते ऐसे आनुवंशिक बदलाव भी हो सकते हैं, जिसकी उम्मीद नहीं की गई थी। इस तरह के बदलाव सख्त नियामक जांच के अधीन हैं।

वैज्ञानिकों ने बीज विकसित करने के लिए साइट-डायरेक्टेड न्यूक्लिअस 1 और साइट-डायरेक्टेड न्यूक्लिअस 2 (एसडीएन-1 और एसडीएन-2) जीनोम एडिटिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया है। विश्वनाथन ने बताया कि चावल में जीनोम एडिटिंग का इस्तेमाल कम पैदावार, सूखा और मिट्टी की लवणता जैसी खेती की चुनौतियों से निपटने के लिए किया जा रहा है। ये सभी समस्याएं जलवायु परिवर्तन के कारण तेजी से बढ़ रही हैं।
उदाहरण के लिए, पूसा डीएसटी चावल 1 और डीआरआर धान 100 (कमला) को सूखे और खारी मिट्टी जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करने के लिए विकसित किया गया था। ये समस्याएं भारत के कई कृषि क्षेत्रों में आम हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, लोकप्रिय सांबा महसूरी चावल से प्राप्त कमला ने दानों की संख्या में भी सुधार किया है और पर्यावरण से जुड़े दुष्प्रभाव को कम किया है।
जैव सुरक्षा से संबंधित चिंताएं
चावल की इन जीनोम-एडिटेड किस्मों से कृषि क्षेत्र के अलग-अलग हितधारकों का ध्यान आकर्षित किया है। कई जानकार इस विकास को टिकाऊ कृषि की दिशा में सकारात्मक कदम के रूप में देखते हैं। हालांकि, कुछ जीनोम एडिटिंग प्रौद्योगिकियों के लंबी अवधि के प्रभावों और नियामक निगरानी के बारे में चिंता जताई है।
कॉलेशन फॉर जीएम फ्री इंडिया ने बेंगलुरू में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में चावल जैसी फसलों में जीनोम एडिटिंग से जुड़ी सुरक्षा के बारे में चिंताएं सामने रखीं। उन्होंने आरोप लगाया कि चावल की किस्मों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली SDN-1 और SDN-2 दोनों तकनीकें अवैध और असुरक्षित हैं। गठबंधन की सदस्य कविता कुरुगंती कहती हैं, “सुकुमार बिस्वास और अन्य जैसे प्रकाशित हुए अध्ययनों में कहा गया है कि CRISPR/Cas9 प्रणाली का इस्तेमाल करने वाली एसडीएन-1 तकनीक चावल में सटीक नहीं है। चावल की बदली गई किस्मों को किसानों को सौंपने से पहले कई पीढ़ियों तक शुरुआती और सटीक आणविक लक्षण का पता लगाया जाना चाहिए और जांच की जानी चाहिए।”
आईसीएआर के वैज्ञानिकों ने इन आरोपों का खंडन किया है। उन्होंने कहा कि जीनोम एडिटिंग तकनीक (एसडीएन-1/एसडीएन -2) प्राकृतिक या रासायनिक-प्रेरित म्युटेशन के बराबर है, जिनका 75 से ज्यादा सालों तक सुरक्षित रूप से इस्तेमाल किया गया है। वे बताते हैं कि इन तकनीकों में विदेशी डीएनए की अनुपस्थिति की पुष्टि करने के लिए खास परीक्षणों की जरूरत होती है। मोंगाबे इंडिया को मिलने खंडन में कहा गया है, “30 से ज्यादा कृषि-आधारित देशों ने एसडीएन-1 और एसडीएन-2 जीनोम एडिटिंग को जैव सुरक्षा के सख्त नियमों से छूट दी है। भारत भी प्रगतिशील देशों में शामिल हो गया है और 2022 में एसडीएन-1 और एसडीएन-2 जीनोम एडिटेड पौधों को छूट देने की अधिसूचना जारी की।”
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कुरंगंती ने बेहतर उपज वाले धान की जरूरत पर यह कहते हुए सवाल उठाया कि भारत दुनिया में सबसे बड़े चावल उत्पादकों में से एक है। इस मामले में वह चीन के बाद दूसरे पायदान पर है। देश उत्पादित धान के बेहतर वितरण के साथ बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। विश्वनाथन कहते हैं कि चावल देश की खाद्य सुरक्षा में केंद्रीय भूमिका निभाता है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि बाजरा और अन्य फसलों पर भी इसी तरह का शोध चल रहा है।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 2 जून, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: धान के खेत की प्रतिनिधि तस्वीर। विकिमीडिया कॉमन्स(CC BY-SA 4.0) के जरिए शगिल कन्नूर द्वारा ली गई तस्वीर।