- दक्षिण गोवा के लोलीयेम और पोइंगुनीम गांवों ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को याचिका दी है, जिसमें उन्होंने मांग की है कि उनके गांवों को प्रस्तावित इको सेंसिटिव एरिया (ESA) अधिसूचना में शामिल किया जाए।
- लोलीयेम गांव में एक लैटराइट पठार पर प्रस्तावित फिल्म सिटी परियोजना भूजल पर गंभीर प्रभाव डाल सकती है, ऐसा स्थानीय निवासियों का कहना है।
- वहीं दूसरी ओर, गोवा सरकार अधिसूचना में शामिल गांवों की संख्या घटाने के लिए केंद्र पर दबाव बना रही है, जिससे ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों को विकास परियोजनाओं के लिए खोला जा सके।
दक्षिण गोवा के लोलीयेम गांव के निवासी अपनी जमीनों को बचाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। ऐसे समय में जब विकास का मतलब स्मार्ट शहरों जैसी आकांक्षाओं में सिमटती जा रही है, लोलीयेम और आसपास के सैकड़ों ग्रामीण इससे विपरीत राह चुन रहे हैं। वे यह मांग कर रहे हैं कि उनके गांवों को उनके प्राकृतिक संसाधनों के लिए आधिकारिक रूप से मान्यता और संरक्षण दिया जाए।
लोलीयेम उन गांवों में से एक है जो जैव विविधता से भरपूर हैं और ऐसे पारिस्थितिक तंत्रों को संजोए हुए हैं जो गोवा में जमीन पर होने वाले कब्जे और भूमि उपयोग में बदलाव के कारण धीरे-धीरे समाप्त हो चुके हैं। यह गांव पणजी से लगभग दो घंटे की दूरी पर, कर्नाटका से सटे काणकोण तालुक में स्थित है। इस गांव के चारों ओर ऊँचाई पर घने जंगल और बाग-बगीचे फैले हैं। नीचे ढलान की ओर बढ़ने पर, धान के खेत, मैन्ग्रोव जंगल और आखिरी में खुला समुद्र दिखाई देता है।
राज्य सरकार इस क्षेत्र को बाकी के राज्य से जोड़ना चाहती है जहां लक्ज़री और पर्यटन की बढ़ती मांग के चलते तेजी से विकास किया जा रहा है।
“जिस तरह का विकास वे (सरकार) यहां लाना चाहते हैं, वह हमें मंजूर नहीं है,” 47 वर्षीय डेनिस फर्नांडीस ने कहा। फर्नांडीस लोलीयेम गांव के निवासी हैं, और उनका परिवार यहां पीढ़ियों से रह रहा है। उन्होंने कहा, “हम विकास के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन हम अपनी जमीनों को ऐसे बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए नहीं देंगे जो हमारे प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर दे।”

इस गांव के लोगों ने अपनी उम्मीदें पश्चिमी घाट के इको सेंसिटिव एरिया (ESA) की सीमांकन प्रक्रिया पर टिका रखी है, जो कि एक लम्बी और जटिल प्रशासनिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का परिणाम ही इस गांव के लोगों के भविष्य को तय कर सकता है।
लोलीयेम और इसके पड़ोसी गांव पोइंगुनी के लोगों ने पिछले वर्ष केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को याचिका दी थी, जिसमें मांग की गई थी कि उन्हें पश्चिमी घाट की अंतिम इको सेंसिटिव एरिया (ESA) अधिसूचना में शामिल किया जाए। यदि यह मांग मानी जाती है, तो इससे इन गांवों को बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स से कुछ हद तक संरक्षण मिल सकता है।

इस संघर्ष का केन्द्र भगवती पठार है, एक लैटराइट पठार, जिसे अक्सर इसकी सूखी, घास-युक्त सतह के कारण बंजर जमीन समझ लिया जाता है। लेकिन मानसून में यही जमीन दुर्लभ वनस्पतियों से भर जाती है, और इसकी झीनी चट्टानें भूजल को इकट्ठा करने का काम करती हैं।
लोलीयेम पंचायत क्षेत्र में आने वाला यह पठार गोवा सरकार द्वारा वित्तपोषित संस्था एंटरटेनमेंट सोसाइटी ऑफ गोवा (ESG) द्वारा प्रस्तावित फिल्म सिटी परियोजना की जगह भी है।
पर्यावरणीय संवेदनशीलता
पिछले साल जुलाई में केरला के वायनाड में हुए भीषण भूस्खलन के बाद पर्यावरण विशेषज्ञों ने पश्चिमी घाट के आसपास के इलाकों को इको सेंसिटिव एरिया के रूप में आधिकारिक रूप से अधिसूचित किए जाने की जरूरत पर जोर डाला।
हालांकि, दो विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों और 1986 के पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत कानूनी बाध्यता के बावजूद, ESA अधिसूचना साल 2013 से अब तक केवल ड्राफ्ट के स्तर पर ही अटकी हुई है।

इस अधिसूचना का उद्देश्य यह स्वीकार करना है कि पश्चिमी घाट को विशेष संरक्षण उपायों की आवश्यकता है, क्योंकि इसके कई हिस्से भूस्खलन की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील हैं। ड्राफ्ट अधिसूचना में इस क्षेत्र को “जैव विविधता का खजाना” माना गया है, जिसे संरक्षण की आवश्यकता है, साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि यह संरक्षण स्थायी और समावेशी विकास को अनुमति देते हुए किया जाना चाहिए।
वायनाड की आपदा के ठीक एक दिन बाद, जुलाई 2024 में केंद्र सरकार ने इको सेंसिटिव एरिया (ESA) अधिसूचना का छठा ड्राफ्ट जारी किया, जिसमें गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटका, केरला और तमिलनाडु जैसे प्रमुख पश्चिमी घाट राज्यों को शामिल किया गया है। लेकिन छह दौर की ड्राफ्टिंग के बाद भी, राज्य सरकारें लगातार इसका विरोध कर रही हैं। उनकी मांग है कि कम क्षेत्रों को इको-सेंसिटिव घोषित किया जाए, ताकि उन्हें बुनियादी ढांचा विकास पर संभावित प्रतिबंधों से होने वाले आर्थिक नुकसान से कुछ हद तक राहत मिल सके।
“हमारा लक्ष्य है कि ड्राफ्ट अधिसूचना से अधिक से अधिक गांवों को हटाया जाए,” गोवा के पर्यावरण मंत्री एलेक्सो सिक्वेरा ने 9 जनवरी को स्थानीय मीडिया से कहा था। कुछ महीने पहले गोवा के मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने भी इसी तरह का बयान दिया था: “हमारी कोशिश होगी कि इस सूची से अधिकतम गांव हटाए जाएं।”
गोवा की राज्य सरकार इस ड्राफ्ट अधिसूचना में शामिल 108 गांवों में से 21 गांवों को हटवाने के लिए प्रयास कर रही है। इस अधिसूचना के तहत औद्योगिक गतिविधियों, खनन, थर्मल पावर प्रोजेक्ट्स पर रोक लगाई गई है और बड़े पैमाने के निर्माण कार्यों को सीमित किया गया है। इन 21 में से 12 गांव उत्तर गोवा के सत्तारी तालुका से बताए जा रहे हैं, जो कि लौह अयस्क (आयरन ओर) खनन का एक प्रमुख क्षेत्र है।
इस बीच, ESA से बाहर किए जाने की आशंका ने लोलीयेम के लोगों को केंद्र सरकार से सीधे अपील करने के लिए प्रेरित किया, हालांकि गांव पहले से ही केंद्र सरकार की ड्राफ्ट सूची में शामिल है।
गांव वालों द्वारा 24 सितंबर 2024 को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को भेजे गए पत्र में कहा गया: “हमारा गांव लोलीयेम रियल एस्टेट की सट्टेबाज़ी, लक्ज़री पर्यटन, इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और अन्य विनाशकारी गतिविधियों का सामना कर रहा है।” पत्र में आगे कहा गया: “कम ऊंचाई वाले लैटराइट पठार, वन और नदियों की आर्द्रभूमियां (wetlands)… खतरे में हैं और यदि इन्हें पश्चिमी घाट के इकोलॉजिकल सेंसिटिव एरिया (ESA) में शामिल नहीं किया गया, तो ये हमेशा के लिए समाप्त हो जाएंगी।” इस पत्र पर 341 ग्रामीणों ने हस्ताक्षर किए थे। इस ही तरह पड़ोसी गांव पोइंगुनीम ने भी ESA के तहत संरक्षण की मांग करते हुए एक अलग याचिका भेजी, जिस पर 318 निवासियों के हस्ताक्षर थे।
वास्तव में, ये गांव केवल ESA में शामिल किए जाने की मांग ही नहीं कर रहे, बल्कि ESA के और भी सख्त क्रियान्वयन की मांग कर रहे हैं। ग्रामीणों की मांग है कि निर्माण गतिविधियां केवल सार्वजनिक आवश्यकताओं और स्थानीय निवासियों की व्यक्तिगत व आजीविका संबंधी जरूरतों तक सीमित रहें, और इनमें रियल एस्टेट की सौदेबाजी पर स्पष्ट प्रतिबंध हो। पत्र में यह भी कहा गया है कि नए निर्माण 4,000 वर्ग मीटर (लगभग 0.9 एकड़) से अधिक नहीं होने चाहिए।
“हमने देखा है कि पर्यटन और अनियंत्रित विकास ने कैसे पारंपरिक गोवा के गांवों को बर्बाद कर दिया है। हम अपने गांव के साथ ऐसा नहीं होने देना चाहते,” डेनिस फर्नांडीस ने बताया।
गोवा सरकार के अनुरोध पर, पूर्व वन महानिदेशक संजय कुमार की अध्यक्षता में एक केंद्रीय समिति ने नवंबर 2024 में राज्य का दौरा किया। इस यात्रा का उद्देश्य उन गांवों का निरीक्षण करना था, जिन्हें गोवा सरकार ESA की सूची से हटवाना चाहती है।
काणकोण में प्रस्तावित फिल्म सिटी
यह पहली बार नहीं है जब लोलीयेम के लोग ने अपनी जमीन को बचाने के लिए एकजुट होकर संघर्ष कर रहे हों। साल 2016 में, सरकार ने गांव में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) स्थापित करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन जब ग्रामीणों ने सहमति नहीं दी, तो सरकार को इस प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा।
लोलीयेम की जैव विविधता प्रबंधन समिति के अध्यक्ष मनोज दत्ता प्रभुगांवकर ने समझाया, “लोलीयेम खास है क्योंकि यहां सबसे ऊपर पठार है जो पानी को सोखता है, उसके बाद ढलानों पर बाग-बगीचे और जंगल, और फिर नीचे समुद्र तल पर खाजन भूमि और नदियां हैं। ये सभी पारिस्थितिक तंत्र आपस में जुड़े हुए हैं। यदि आप पठार को हटा दें या जल आपूर्ति को बाधित करें, तो इस पूरे इकोसिस्टम में असंतुलन पैदा हो जाएगा।”
लोलीयेम में जैव विविधता प्रबंधन समिति (Biodiversity Management Committee) का गठन 2016 में IIT कैंपस के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद किया गया था। तब से यह समिति गांव के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में अहम भूमिका निभा रही है और गांव वालों को जागरूक करने का कार्य कर रही है।
“जब हम अपने खेतों से गुजरते हैं या औषधीय पौधे तोड़ते हैं, तो हम ‘जैव विविधता’ और ‘पारंपरिक ज्ञान’ जैसे शब्दों में नहीं सोचते,” श्वेता अइया, जो 10 साल पहले शादी के बाद लोलीयेम आई थीं, ने कहा। “हमारे लिए तो यह जीवन जीने का तरीका है। लेकिन जब हमें समझ में आया कि IIT प्रोजेक्ट का हमारे गांव पर क्या असर हो सकता है, तब हमने ये शब्द और यह भाषा सीखी।”
इन्हीं आधारों पर अब इस गांव के लोग एंटरटेनमेंट सोसाइटी ऑफ गोवा (ESG) की फिल्म सिटी परियोजना का विरोध कर रहे हैं। इस परियोजना में प्रोडक्शन और स्पेशल इफेक्ट्स स्टूडियो शामिल होंगे, जो गोवा में फिल्म निर्माण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाए जा रहे हैं। गोवा 2004 से अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (IFFI) की मेजबानी करता आ रहा है, और यह फिल्म सिटी पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर का ड्रीम प्रोजेक्ट मानी जाती रही है।

एंटरटेनमेंट सोसाइटी ऑफ गोवा (ESG) ने 2023 में लोलीयेम में फिल्म सिटी बनाने के लिए 250 हेक्टेयर जमीन की मांग की थी। लोलीयेम के कम्युनिदादे (Comunidade) वर्ग, जो समृद्ध जमींदारों का एक समूह है और सामूहिक जमीनों पर नियंत्रण रखता है, ने इस जमीन की पेशकश की।
कम्युनिदादे व्यवस्था गोवा के औपनिवेशिक युग से पहले की भूमि प्रणाली की विरासत है, जिसमें गांव में पहले बसने वालों (गांवकर्स) ने कृषि भूमि और कॉमन्स की जमीनों पर अधिकार प्राप्त कर उन्हें पट्टे पर देना शुरू किया था, ताकि गांव की उत्पादकता बनी रहे।
“यह प्रणाली इस रूप में भी विकसित हुई कि जो लोग ज़मीन पर काबिज़ थे, उन्हें अधिकार हिस्सेदारी (shareholding) दी जाती थी, बशर्ते जमीन का उपयोग गांव की उत्पादकता बनाए रखने के लिए होता रहे और उसे व्यापारिक रूप में खरीदा-बेचा न जाए,” लोक-आधारित नगरीय नियोजन, डिज़ाइन और गवर्नेंस पर काम करने वाले प्लेटफ़ॉर्म उर्ब्ज (urbz) के संस्थापक, मैटियस इकानोव और राहुल श्रीवास्तव, लिखते हैं।
कम्युनिदादे प्रणाली को 16वीं सदी से 1961 तक गोवा पर पुर्तगाली शासन के दौरान विधिसम्मत रूप दिया गया था। यह प्रणाली आज भी पंचायत व्यवस्था के समानांतर अस्तित्व में बनी हुई है, पंचायत प्रणाली को गोवा के भारत में विलय के बाद लागू किया गया था। हालांकि, इन दोनों व्यवस्थाओं के अस्तित्व में बने रहने से लोलीयेम जैसी जगहों पर भूमि उपयोग और सामूहिक भूमि के स्वामित्व की स्थिति जटिल हो जाती है। ऐसी जगहों पर अक्सर कम्युनिदादे और पंचायत के बीच टकराव की स्थिति बनी रहती है।
लोलीयेम की कम्युनिदादे के अध्यक्ष विश्वजीत वारिक ने फिल्म सिटी के लिए जमीन की पेशकश करते समय कहा था: “यह केवल भूमि उपयोग का सवाल नहीं है, बल्कि तालुक के समग्र विकास का विषय है, क्योंकि इससे रोज़गार के अवसर पैदा होंगे और साथ ही स्थानीय प्रतिभा को भी बढ़ावा मिलेगा।”
नवंबर 2023 में, कम्युनिदादे द्वारा फिल्म सिटी के लिए जमीन देने की घोषणा के बाद, लोलीयेम गांव की ग्राम सभा, जो कि पंचायती व्यवस्था के तहत बुलाई गई, ने फिल्म सिटी के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया। प्रस्ताव में कहा गया: “लोलीयेम-पोलेम ग्राम पंचायत भगवती पठार का संरक्षण सुनिश्चित करने और फिल्म सिटी या किसी अन्य उद्देश्य के लिए कम्युनिदादे भूमि के आवंटन को रोकने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगी।” इस प्रस्ताव का समर्थन वर्तमान में उपस्थित लगभग 204 ग्रामीणों ने किया।

लेकिन ग्राम सभा के इस प्रस्ताव का प्रभाव कम्युनिदादे के फैसले के ऊपर कितना पड़ेगा, यह स्पष्ट नहीं है, गोवा विश्वविद्यालय में सार्वजनिक प्रशासन की प्रोफेसर अलंकनंदा श्रींगारे ने बताया। कम्युनिदादे ने 250 हेक्टेयर भूमि को 99 वर्षों के लिए ESG को पट्टे पर देने पर सहमति जताई है। श्रींगारे ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “ऐसे कई अन्य क़ानून हैं जो ग्राम सभा के प्रस्ताव को अप्रभावी बना सकते हैं। भूमि उपयोग से जुड़े मामलों में निर्णय लेने वाली मुख्य संस्था टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग है।”
लोलीयेम के विरोध कर रहे ग्रामीणों के लिए एकमात्र आशा अब पश्चिमी घाट की अंतिम इको सेंसिटिव एरिया (ESA) अधिसूचना हो सकती है, यदि उनका गांव उसमें शामिल किया गया। इस अधिसूचना के तहत खनन जैसी औद्योगिक गतिविधियों, 50 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में नए टाउनशिप निर्माण, और 20,000 वर्ग मीटर (लगभग 4.9 एकड़) से बड़े किसी भी नए निर्माण प्रोजेक्ट पर प्रतिबंध लगाया गया है।
लोलीयेम में रहने वाले एक सरकारी स्कूल के शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा: “कम्युनिदादे कहती है कि फिल्म सिटी परियोजना गांव में रोजगार लाएगी, लेकिन हमने कंकोलिम में राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (NIT) के उदाहरण में देखा है कि नौकरियां बाहरी लोगों को दे दी जाती हैं।” उन्होंने आगे कहा, “इसके अलावा हमारे सभी प्राकृतिक संसाधन, खासकर पानी, खत्म हो जाएंगे।”
इस पूरे मामले में केवल कम्युनिदादे का फैसला ही नहीं है जो ग्रामीणों के इस विरोध के खिलाफ काम कर रहा हो। टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग (TCP) द्वारा गोवा की भूमि नीति में किए गए कई बदलाव भी गांव वालों के जैवविविधता बचने के प्रयास में बाधा बन रहे हैं। इस नीति ने ग्रीन ज़ोन को सेटलमेंट एरिया में बदलने की प्रक्रिया को आसान बना दिया है। और, एक बार जमीन का दर्जा सेटलमेंट ज़ोन में बदलने के बाद, उसे आवासीय या अर्ध-आवासीय उद्देश्यों के लिए आसानी से विकसित किया जा सकता है। यह नीति परिवर्तन, लोलीयेम जैसे गांवों को बाहरी दबावों के प्रति और भी अधिक संवेदनशील बना देता है।
साल 2023 और 2024 के बीच के 15 महीनों में, राज्य विधानसभा में प्रस्तुत जानकारी पर आधारित मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, सरकार ने 21.29 लाख वर्ग मीटर क्षेत्रफल के बाग-बगीचों, धान के खेतों और “नो-डेवलपमेंट स्लोप्स” को आवासीय क्षेत्रों में बदलने की मंजूरी दी। इन बदलावों से फायदा उठाने वालों में एक कंपनी भी शामिल है, जिसके निदेशक खुद टाउन एंड कंट्री प्लानिंग मंत्री विश्वजीत राणे और उनकी पत्नी हैं, यह भी मीडिया रिपोर्टों में सामने आया है। यह मामला गोवा में भूमि उपयोग और विकास से जुड़े निर्णयों में हितों के टकराव (conflict of interest) की गंभीर चिंता को उजागर करता है।

जलचक्र को नियंत्रित करता एक पठार
एक किंवदंती के अनुसार, भगवती देवी, जो भगवती पठार की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं, कर्नाटका से लोलीयेम लाई गई थीं। ग्रामीणों के अनुसार, इस पठार पर कम से कम 500 वर्षों से देवी को समर्पित एक छोटा मंदिर स्थित है। भगवती पठार लगभग 40,000 वर्ग मीटर में फैला हुआ है और इसकी सतह पर लैटराइट की परत है — एक प्रकार की लाल रंग की अवशिष्ट मिट्टी और तलछटी चट्टान, जो पानी को सोखने और भूजल के पुनर्भरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
गोवा में लैटराइट चट्टानें और पठार आम हैं, एक मैपिंग स्टडी से पता चलता है कि राज्य के तटीय क्षेत्र में 10 प्रमुख लैटराइट पठार फैले हुए हैं। लेकिन तेजी से हो रहे अनियंत्रित विकास के कारण ये पठारी संरचनाएं तेजी से गायब हो रही हैं।
सबसे चर्चित उदाहरण है मोपा गांव में बना मनोहर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, जो पर्नेम पठार के ऊपर बनाया गया है। हवाई अड्डा बनने के बाद, स्थानीय लोगों ने शिकायत की है कि मानसून के दौरान पहाड़ी ढलानों से पानी तेज़ी से नीचे बहता है, जिससे नीचे के इलाकों में बाढ़ आ जाती है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा 2020 में गोवा के भूजल पर किया गया आकलन बताता है कि लैटराइट चट्टानें राज्य में “महत्वपूर्ण जल वाहक संरचनाएं” हैं, और उनकी स्थलाकृति (topography) भूजल की क्षमता को नियंत्रित करती है। इन चट्टानों की छिद्रयुक्त सतह (porous surface) बारिश के पानी को सोखने और उसे ज़मीन के नीचे रिसने में मदद करती है, जिससे ढलानों पर स्थित कुओं और भूजल स्रोतों का पुनर्भरण होता है।

लोलीयेम गांव के लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि यह पठार भूजल को रिचार्ज करने में कितनी अहम भूमिका निभाता है, खासकर तब जब जल संसाधन सूखने लगते हैं। इस गांव में अकसर जनवरी के बाद, यानी मानसून खत्म होने के काफी समय बाद, जल संकट शुरू हो जाता है। पास स्थित चापोली बांध लोलीयेम को जल आपूर्ति नहीं करता, जिससे गर्मियों के महीनों में सिंचाई करना काफी कठिन हो जाता है।
मानसून के पैटर्न में आए बड़े बदलावों ने जल आपूर्ति में उतार-चढ़ाव को और बढ़ा दिया है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, 1990 से 2018 के बीच गोवा में औसत वार्षिक वर्षा में 68% की वृद्धि दर्ज की गई है। लेकिन दूसरी ओर, 1901 से 2015 के दौरान हल्की और मध्यम बारिश वाले दिनों की संख्या में तेज़ गिरावट आई है। इनकी जगह अब भारी और अत्यधिक बारिश वाले दिन ले रहे हैं। यह पैटर्न न सिर्फ पारिस्थितिक असंतुलन को बढ़ाता है, बल्कि भूजल पुनर्भरण और जल प्रबंधन को भी कठिन बना देता है।
“हम पूरी तरह से पानी के बिना कभी नहीं रहते, पीने का पानी मिल जाता है। लेकिन जनवरी के बाद खेतों की सिंचाई करना मुश्किल हो जाता है,” अइया, जो पेशे से एक पंडित (पुरोहित) हैं, कहते हैं। “कल्पना कीजिए अगर हम पठार खो देते हैं और यहां अचानक हजारों लोगों की भीड़ आ जाती है, तो हमें पूरी तरह से पानी के टैंकरों पर निर्भर रहना पड़ेगा।” अइया ने डेनिस फर्नांडिस के साथ मिलकर पठार की चट्टानी सतह से मिट्टी हटाने का काम स्वेच्छा से किया, ताकि भूजल का रिसाव (percolation) बेहतर हो सके और स्थानीय जल स्रोतों का पुनर्भरण होता रहे।
ड्राफ्ट इको सेंसिटिव एरिया अधिसूचना में लैटराइट पठारों को पश्चिमी घाट की विशिष्ट पारिस्थितिकी प्रणालियों में शामिल किया गया है। लेकिन लोलीयेम के रहने वाले अशिष प्रभुगांवकर, जो धेम्पे कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड साइंस, पणजी में वनस्पति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, इस बात पर अफसोस जताते हैं कि राज्य सरकार की ओर से इन पठारों को उचित मान्यता देने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जा रहा।
“ये लैटराइट पठार सिर्फ सपाट मेज जैसे नहीं हैं। इनकी सतह असमान होती है — कहीं उथली, कहीं पानी जमा करने वाली, और इनके बीच-बीच में मिट्टी के टुकड़े होते हैं। ये सब मिलकर अलग-अलग तरह के सूक्ष्म आवास (microhabitats) बनाते हैं,” उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया।

रुतुजा कोलते, जो बेलगाम के गोविंदराम सेकसरिया साइंस कॉलेज में फैकल्टी हैं, बताती हैं कि पश्चिमी घाट के तटीय निचले लैटराइट पठारों में लगभग 100 स्थानिक (endemic) प्रजातियां पाई गई हैं — यानी ये प्रजातियाँ दूसरे किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र में मौजूद नहीं हैं। उन्होंने कहा, “इनमें से ज्यादातर प्रजातियाँ मानसून के दौरान फूलती हैं, जब पठार की सूनी पथरीली सतह एक रंग-बिरंगी घास और फूलों की चादर में बदल जाती है।” कोलते के अनुसार, “ये पठार दरअसल इस विशिष्ट वनस्पति के लिए एक तरह के बीज भंडार (seed banks) भी हैं।”
और पढ़ेंः बढ़ते पर्यटन से जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होते दक्षिण गोवा के गांव
आशीष प्रभुगांवकर और रुतुजा कोलते, दोनों ने गोवा के लैटराइट पठारों में नई स्थानिक वनस्पति प्रजातियों की खोज की है, जैसे कि Dipcadi goanese, Canscora shrirangiana, और Cuscuta janarthanamii। कोलते ने तो 2022 में ही एक नई प्रजाति, Eriocaulon goaense, की खोज की थी।
प्रभुगांवकर ने सवाल उठाया, “जब हर जगह रेत के टीलों, मैंग्रोव और वेटलैंड्स को विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में मान्यता दी जा रही है, तो फिर लैटराइट पठारों को क्यों नहीं?” “हमारे लैटराइट पठारों को भी विकास के संदर्भ में विशेष नियम और संरक्षण नीति की ज़रूरत है,” उन्होंने आगे जोड़ा।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 15 जनवरी 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: लोलीयेम के निवासी इकोलॉजिकल सेंसिटिव एरिया (ESA) अधिसूचना के सख्त क्रियान्वयन की मांग कर रहे हैं। तस्वीर: सिमरिन सिरूर द्वारा।