- हिम तेंदुओं की आबादी और वे कहां पाए जाते हैं, इस पर हुए एक आकलन में पाया गया है कि ट्रांस-हिमालयी लद्दाख में लगभग 500 बड़ी बिल्लियां हैं। यह भारत में हिम तेंदुओं की तादाद का 68% है।
- नतीजे बताते हैं कि हिम तेंदुए अक्सर संरक्षित क्षेत्रों से बाहर ऐसी जगहों पर फल-फूल रहे हैं, जहां मानव बस्तियां हैं और सैलानी आते हैं।
- वैसे अब तक इंसानों और हिम तेंदुओं के बीच सह-अस्तित्व कारगर रहा है, लेकिन पर्यटन, बुनियादी ढांचे के विकास और आवारा कुत्तों जैसा बढ़ता मानवीय दबाव इस नाजुक संतुलन के लिए खतरा बन रहा है।
- इस अध्ययन में भारत में हिम तेंदुओं की पहली राष्ट्रीय फोटो लाइब्रेरी बनाई गई है जिसमें हर तेंदुए के फर की अलग-अलग बनावट शामिल है। उनके आवास वाले अन्य देश और भारतीय राज्य इस लाइब्रेरी में मदद दे सकते हैं।
हिमालय की दुर्गम, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों में एक शिकारी घूमता है। वह शायद ही कभी दिखाई देता है। बस खामोशी से जिंदा रहता है। दुनिया की सबसे बड़ी मायावी बिल्लियों में से एक हिम तेंदुआ का पता लगाना लगभग नामुमकिन है। अब तक “पहाड़ों के इन प्रेत” के बारे में ज्यादातर जानकारी अलग-अलग सर्वेक्षणों, किस्से-कहानियों और कैमरा ट्रैप की दुर्लभ तस्वीरों से ही मिलती रही है। उनकी आबादी का अनुमान लगाना बड़ी चुनौती रही है। लेकिन एक हालिया अध्ययन इसे बदल रहा है।
दो सालों तक ट्रांस-हिमालयी लद्दाख के 59,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में किए गए इस सर्वेक्षण से अनुमान लगाया गया है कि यहां लगभग 477 हिम तेंदुए रहते हैं। यह तादाद भारत में हिम तेंदुओं की कुल आबादी का करीब 68% है। इसे हिम तेंदुओं पर भारत में अब तक का सबसे व्यापक और गहन सर्वेक्षण बताया जा रहा है।
केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के लेह स्थित वन्यजीव संरक्षण विभाग के पंकज रैना कहते हैं, “हमने इस अध्ययन को बेहतर और दोहराने योग्य बनाने के लिए 25 सालों तक बड़े पैमाने पर बाघों की आबादी के आकलन से मिली सीख पर काम किया। यह सिर्फ ज्ञात हॉटस्पॉट या प्रमुख आवासों तक सीमित नहीं था। यह इसे हिम तेंदुओं पर अब तक का सबसे बड़ा, सबसे व्यवस्थित और सबसे गहन कोशिश बनाता है।” रैना इस अध्ययन के सह-लेखकों में शामिल हैं।
ऐसे हुई तैयारी
देश में लद्दाख हिम तेंदुओं का सबसे बड़ा आवास है जो आपस में मिले हुए हैं। दुर्लभ मानी जाने वाली इन बड़ी बिल्लियों के आवास को समझने और उनकी संख्या का अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने “दोहरी नमूनाकरण” पद्धति का इस्तेमाल किया। सबसे पहले, उन्होंने पूरे क्षेत्र में 6,000 किलोमीटर से ज्यादा पैदल यात्रा की और मल, पंजों के निशान और खरोंच जैसे चिह्नों का दस्तावेजीकरण किया। फिर, दूसरे चरण में उन्होंने ज्यादा, सामान्य और कम घनत्व वाले क्षेत्रों में 956 कैमरा ट्रैप लगाए, जिनसे हिम तेंदुओं की 26,000 से ज्यादा तस्वीरें ली गईं।

रैना कहते हैं, “दुर्गम इलाके और खराब परिवहन व्यवस्था ने सर्वेक्षण को चुनौतीपूर्ण बना दिया। हमें राशन और उपकरण ढोने के लिए टट्टुओं पर निर्भर रहना पड़ा, शून्य से नीचे के तापमान में अस्थायी शिविर लगाने पड़े और दूरदराज के कुछ इलाकों तक पहुंचने के लिए सर्दियों का इंतजार करना पड़ा, जब जमी हुई नदियां रास्तों का काम करती हैं। सर्दी के एक मौसम में कैमरे लगाए जाते थे और अगली सर्दी में उन्हें इकट्ठा कर लिया जाता था, जिससे अच्छी कवरेज पक्की होती थी।”
वहीं, हिमालयी वन्यजीवों को पहचानने के लिए डिजाइन किया गया CaTRAT नामक कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) उपकरण, तस्वीरों में प्रजातियों की पहचान करने के लिए इस्तेमाल किया गया था। जीवविज्ञानियों ने फिर इन पहचानों को सत्यापित किया। इस डेटा से, हिम तेंदुए की तस्वीरों का चयन किया गया और सॉफ्टवेयर (Extract-Compare) का इस्तेमाल करके उनका विश्लेषण किया गया, जो हर जानवर के ललाट के फर की अनूठे बनावट पर केंद्रित था। यह फिंगरप्रिंट की तरह था जो हिम तेंदुओं को एक-दूसरे से अलग करता था। आमतौर पर यह इस्तेमाल की जाने वाली बगल की बनावट वाली पद्धति से ज्यादा भरोसेमंद निकला। भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) के वरिष्ठ वैज्ञानिक और अध्ययन के सह-लेखक यदवेंद्रदेव झाला कहते हैं, “हिम तेंदुए का लंबा फर हवा में लहरा सकता है और बगल की बनावट को बिगाड़ सकता है, लेकिन ललाट का फर छोटा, अधिक बेहतर होता है, जिससे पहचान स्पष्ट होती है।” झाला नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज और वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से भी जुड़े हैं।
ललाट की बनावट को देखने से ना सिर्फ कैमरों की संख्या कम हुई, बल्कि ज्यादा साफ और सुसंगत डेटा भी मिला।
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इस पूरी कवायद का नतीजा यह रहा कि भारत में हिम तेंदुओं की पहली राष्ट्रीय फोटो लाइब्रेरी बनी। इसमें हर प्रजाति के फर की अनूठी बनावट को मशीन लर्निंग प्रोग्राम का इस्तेमाल करके डिजिटल किया गया है। रेंज वाले दूसरे देश और भारतीय राज्य इस लाइब्रेरी में मदद कर सकते हैं। जैसे-जैसे यह डेटाबेस बढ़ेगा, यह प्रजातियों पर लंबी अवधि में नजर रखने, अवैध शिकार का पता लगाने और अलग-अलग सालों और क्षेत्रों में व्यवहार संबंधी रुझानों को सामने लाने में मदद करेगा।
शोधकर्ताओं ने लैंडस्केप का अध्ययन करने और यह समझने के लिए कि हिम तेंदुए किस प्रकार के भूभाग को पसंद करते हैं, उपग्रह चित्रों और जलवायु डेटा का भी इस्तेमाल किया। साथ ही, क्षेत्र में तेंदुओं की संख्या का अनुमान लगाने के लिए स्थानिक कैप्चर-रिकैप्चर (यह जगह के आधार पर ज्ञात तेंदुओं के बार-बार देखे जाने के आधार पर आबादी का अनुमान लगाता है) नामक तरीके का इस्तेमाल किया।

गवाही देते आंकड़े
शोधकर्ताओं ने पूरे भूभाग में हिम तेंदुओं के 9,525 संकेत दर्ज किए। 97,000 कैमरा-ट्रैप रातों में उन्होंने 126 हिम तेंदुओं की पहचान की। आंकड़ों के आधार पर, अध्ययन का अनुमान है कि लगभग 477 हिम तेंदुए ट्रांस-हिमालयी लद्दाख के 47,572 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में निवास करते हैं। यह भारत की कुल हिम तेंदुओं की आबादी का लगभग 68% है।
हालांकि, घनत्व में व्यापक अंतर था जो प्रति 100 वर्ग किलोमीटर में 0.003 से लेकर 3.18 तक था। हेमिस राष्ट्रीय उद्यान और नुब्रा श्योक वन्यजीव अभयारण्य में इनकी संख्या उल्लेखनीय रूप से ज्यादा थी। झाला कहते हैं, “पूरे लद्दाख क्षेत्र में प्रति 100 वर्ग किलोमीटर औसत घनत्व लगभग एक हिम तेंदुआ है। लेकिन हेमिस राष्ट्रीय उद्यान में यह 100 वर्ग किलोमीटर में 3 तक पहुंच जाता है। यह बहुत अधिक है।”
शोधकर्ताओं ने पाया कि हिम तेंदुए नीचे वाले घास के मैदानों को पसंद करते हैं जहां प्रचुर मात्रा में जंगली और पालतू दोनों तरह के शिकार हैं। आधे से ज़्यादा (61%) हिम तेंदुए संरक्षित क्षेत्रों के बाहर, लोगों, पशुओं और मौसमी पर्यटकों के साथ साझा किए गए लैंडस्केप में देखे गए। रैना कहते हैं, “हमने 10 हिम तेंदुओं को जीपीएस कॉलर से भी लैस किया। आंकड़े (जो अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं) बताते हैं कि निवास स्थान और शिकार की उपलब्धता के आधार पर हिम तेंदुए का निवास 100 से 500 वर्ग किलोमीटर तक होता है। इससे यह पुष्टि होती है कि ये व्यापक रूप से फैले हुए जानवर हैं, जो अक्सर संरक्षित क्षेत्रों से बहुत दूर तक घूमते-फिरते हैं।”
सह-अस्तित्व
सर्वेक्षण के नतीजे साझा लैंडस्केप और सह-अस्तित्व की अहमियत पर रोशनी डालते हैं। लद्दाख में स्थानीय समुदाय पीढ़ियों से सांस्कृतिक मूल्यों और पशुपालन के स्थायी तरीकों के हिसाब से वन्यजीवों के साथ रहते आए हैं। झाला कहते हैं, “यहां हिम तेंदुओं का शिकार नहीं होता। बौद्ध संस्कृति और इस प्रजाति के संरक्षण के लिए आर्थिक प्रोत्साहनों ने उनकी आबादी के घनत्व को बढ़ाया है।”
फिर भी, सह-अस्तित्व की अपनी चुनौतियां हैं। हिम तेंदुए भरल (ब्लू शीप), जंगली बकरा और लद्दाख उरियल जैसे जंगली जानवरों और पालतू पशुओं दोनों का शिकार करते हैं। सर्दियों में जब भोजन की कमी होती है, तो वे झुंड में निचली घाटियों में आ जाते हैं, जहां इंसान और जानवर दोनों रहते हैं। सिंधु नदी के किनारे ये बहु-उपयोगी घाटियां खासकर सर्दियों में चराई के लिए अहम हैं। यह संघर्ष का कारण बन सकता है, खासकर जब हिम तेंदुए पशुओं का शिकार करते हैं। संघर्ष की इस आशंका को कम करने के लिए, शोधकर्ता ऐसी क्षतिपूर्ति योजनाओं और नीतियों पर जोर देते हैं जो वन्यजीवों और स्थानीय समुदायों, दोनों के लिए लाभकारी हो।
इसके अलावा, लद्दाख के अनोखे भूमि-उपयोग पैटर्न ने हिम तेंदुओं को फलने-फूलने में मदद की है। रैना कहते हैं, “कृषि सहित मानवीय गतिविधियां कुल भौगोलिक क्षेत्र के महज 0.5% हिस्से पर ही होती हैं, जिससे बाकी हिस्सा मानवीय असर से परे है। यही वजह है कि लद्दाख के लगभग सभी भू-भाग संरक्षण के लिए उपयुक्त हैं।”

अब आगे क्या
हिम तेंदुए सिर्फ करिश्माई प्रतीक भर नहीं हैं। वे सबसे बड़े शिकारी हैं, जो पर्वत के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी हैं। फिर भी, उनका अस्तित्व लगातार खतरे में है। यह अध्ययन कई उभरते खतरों की ओर इशारा करता है: बढ़ता पर्यटन, सड़कों और बांधों का निर्माण, आवासों का खराब होना और जलवायु के कारण वनस्पतियों में बदलाव।
सबसे बड़ी चिंताओं में से एक है आवारा कुत्तों की बढ़ती संख्या। ऐसा सेना के शिविरों और बढ़ते शहरों के पास जमा हो रहे कचरे से हो रहा है। झाला कहते हैं, “यहां भेड़िये, वनबिलाव, भूरे भालू और लोमड़ियों जैसे मांसाहारी जानवरों का स्वाभाविक समुदाय है, लेकिन जंगली कुत्ते इंसान का बनाया हुआ संकट हैं। ये हिम तेंदुओं और भेड़ियों, दोनों के लिए गंभीर खतरा हैं और अगर इन पर लगाम नहीं लगाई गई तो स्थिति और बिगड़ जाएगी।”
इसके अलावा, सिर्फ संरक्षित क्षेत्रों को बचाना ही पर्याप्त नहीं है। विकास, संचयी प्रभाव आकलन और इनसे पार पाने की साझा रणनीतियों पर आधारित होना चाहिए। रैना कहते हैं, “लद्दाख का अपनी पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक संदर्भ है। दूसरी जगहों के विकास मॉडल की नकल करना कारगर नहीं होगा।”
अध्ययन इस अंतर को पाटने के लिए लंबी अवधि की निगरानी, कम अध्ययन वाले क्षेत्रों में विस्तार और साझा उपयोग वाले लैंडस्केप के लिए मजबूत सुरक्षा उपायों पर जोर देता है। झाला कहते हैं, “हमारे नतीजे बताते हैं कि लद्दाख में हिम तेंदुओं की आबादी चीन, तिब्बत, नेपाल, पाकिस्तान और काराकोरम (पर्वत श्रृंखला) की आबादियों से जुड़ी हुई है। इसलिए, किसी भी नए बुनियादी ढांचे की योजना सावधानी से बनाई जानी चाहिए, ताकि यह पक्का हो सके कि यह अहम गलियारा खंडित ना हो। यह इसलिए भी अच्छा डेटासेट है कि हरित बुनियादी ढांचा (पशु मार्ग, गलियारे) क्यों आदर्श होने चाहिए।”
यह सर्वेक्षण इस तथ्य से भी अहम बन जाता है कि यह PAWS (दुनिया भर के हिम तेंदुओं की जनसंख्या का आकलन) जैसे वैश्विक संरक्षण ढांचों के साथ जुड़ा हुआ है। विशाल और विविध भूभाग पर मानकीकृत विधियों को लागू करके, शोधकर्ताओं ने अनुकरणीय मॉडल तैयार किया है जिसे पूरे भारतीय हिमालय में लागू किया जा सकता है। यह एकीकृत दृष्टिकोण भविष्य में हिम तेंदुओं के संरक्षण को और बेहतर बनाएगा। झाला कहते हैं, “इसके अलावा, इसकी व्यापक, अनुकरण के योग्य कार्यप्रणाली उसी कैमरा ट्रैप डेटा का इस्तेमाल करके भेड़ियों, लिंक्स और भूरे भालू जैसे अन्य मांसाहारी जानवरों की निगरानी करने में भी मदद कर सकेगी।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 जुलाई, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: हिम तेंदुओं की पहचान करने के लिए, शोधकर्ताओं ने उनके पीछे के हिस्से के बजाय उनके ललाट पर मौजूद फर की बनावट पर ध्यान दिया। पीछे के फर हवा से खराब हो सकते हैं। इससे कैमरा ट्रैप की कम जरूरत पड़ी और स्पष्ट आंकड़े मिले । तस्वीर: पंकज व अन्य।