- भारत में झाड़ू घास (Thysanolaena maxima) की व्यावसायिक खेती मेघालय में तेजी से बढ़ी है। आजकल कम उर्वर भूमि, ढलानदार पहाड़ियाँ और पारंपरिक कृषि में गिरावट ने इसे एक आम विकल्प बना दिया है।
- पूर्वी खासी व दावकी, जो पहले मिश्रित खेती और औषधीय पौधों के लिए जाना जाता था, अब बड़े हिस्से में झाड़ू घास की मोनोकल्चर में बदल चुका है।
- विशेषज्ञ अब सुझाव दे रहे हैं कि झाड़ू घास की खेती के लिए एक संतुलित नीति बनाई जाए जो वेस्टलैंड में इसकी खेती को उतना ही बढ़ावा दे जिससे पारंपरिक झूम खेती खत्म न हो।
मेघालय की पूर्वी खासी हिल्स की एक गहराती सुबह में जब कोहरा गांव के घने पेड़ों और लकड़ी के घरों को ढक लेता है, तभी माईलिनखोम्बा अपनी सात साल की बेटी मारेन्ग का हाथ थामे खेत की ओर निकल पड़ती हैं। यह कोई आम खेत नहीं, बल्कि गांव के ढलवां ज़मीन का वह टुकड़ा है जहां पहले मक्का, अदरक और हल्दी की फसलें लहलहाया करती थीं। अब वहां एक ही फसल लहरा रही है – Thysanolaena maxima, जिसे हम आमतौर पर ‘झाड़ू घास’ के नाम से जानते हैं। उनकी बेटी मारेन्ग झाड़ू घास की जड़ों के पास चूहों को दिखा रही है। दोनों माँ-बेटी जड़ों के पास से चूहे भगाने में लगे हैं।
माईलिनखोम्बा कहती हैं, “जब हम इस पहाड़ी की ढलान पर खड़े होकर गांव की ओर देखते हैं, जहां देखो, वहीं इसकी (झाड़ू घास) हरियाली, यह घास अब हर जगह है। पहले यहां संतरे, बेर और कई तरह की जड़ी-बूटियां मिलती थीं। अब सब गायब हो गया है।”
पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समुदायों की आजीविका का मुख्य आधार लंबे समय तक झूम खेती रही है। परंतु हाल के दशकों में बढ़ती जनसंख्या और भूमि की सीमित उत्पादकता ने पारंपरिक कृषि प्रणालियों को कई तरह से प्रभावित किया है। ऐसे में यहां के लोगों ने नकदी फसलों की ओर रुख किया और यहीं से इस ख़ास घास का प्रवेश इन इलाकों एक नकदी फसल के रूप में हुआ।

माईलिनखोम्बा कहती हैं कि झूम खेती मेघालय के खासी समुदाय की जीवनधारा रही है जो सदियों से प्रकृति के साथ एक गहरे सहजीवी रिश्ते में जीते आए हैं। मेघालय में यह कृषि परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है। झूम खेती में किसी एक भूखंड को कुछ वर्षों के लिए साफ किया जाता है। जंगल के सूखे पेड़-पौधे काटे और जलाए जाते हैं, और इस प्राकृतिक खाद से समृद्ध ज़मीन पर एक या दो सीजन तक मिश्रित खेती की जाती है। कोंगथोंग जैसे गांवों में कभी यह एक सामान्य दृश्य था कि पहाड़ी ढलानों पर झूम खेती के तहत मक्का, मिर्च, हल्दी, अरबी, साग और फलदार पौधे साथ-साथ लहलहाते थे। फिर उस भूमि को छोड़कर किसान किसी अन्य स्थान पर चले जाते हैं, ताकि पहले वाली भूमि अपने आप फिर से उपजाऊ हो सके।
तभी उधर टहलते खारबुदोन आये और बताने लगे झूम खेती की खूबी यह है कि इसमें एक ही खेत में कई तरह की फसलें उगाई जाती हैं। इससे न केवल अलग-अलग फसल होते हैं, बल्कि कीटों और बीमारियों के खिलाफ भी एक संतुलन बना रहता है। खेतों के बीच झाड़ियों, पेड़ों और फूलों की मौजूदगी से पक्षियों, मधुमक्खियों और अन्य परागण करने वाले कीड़ों को भी बचाने का काम होता है। यही विविधता पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। कोंगथोंग की महिलाएं सुबह अपने बच्चों के साथ झूम के खेतों में जाती थीं। जब खेत जलाए जाते थे, तो वह एक सामूहिक त्योहार जैसा होता था,जिसमें प्रकृति से क्षमा मांगी जाती और नई शुरुआत का संकल्प लिया जाता था। लेकिन इस समय में इस पारंपरिक खेती को कई जगहों पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
झाड़ू घास की खेती का प्रसार
झूम खेती के अंधाधुंध बढ़ते स्वरुप से जंगलों को होने वाले नुकसान को लेकर इसे पर्यावरण के लिए हानिकारक माना जाने लगा। लेकिन ऐसे में ही बड़े पैमाने पर नकदी फसलें और मोनोकल्चर खेती को बढ़ावा मिला। परिणामस्वरूप कोंगथोंग जैसे गांवों में धीरे-धीरे झूम खेती का स्थान झाड़ू घास जैसी एकल नकदी फसल ने ले लिया।
अब वह जमीन, जहां पहले वर्ष भर में कई प्रकार की फसलें उगती थीं, केवल झाड़ू घास की हरियाली में समा चुकी है। लेकिन इस हरियाली के पीछे एक चुप्पी छुपी है।

बहत्तर वर्षीय सनोबिया लिंगदोह, कोंगथोंग की खासी महिला हैं और उस पीढ़ी से हैं जिसने झूम खेती को आगे बढ़ाया। वह अपने धीमे मगर स्पष्ट स्वर में कहती हैं, “हमने सोचा था कि झाड़ू घास उस ज़मीन पर उगाई जाएगी जो जमीन बंजर, सूखी और छोड़ दी गई है, जिसे कुछ समय के लिए आराम चाहिए। लेकिन अब देखो, यह सुपारी के बागानों में घुस आई है। उर्वर ढलानों पर इसकी कतारें लहलहा रही हैं।”
सनोबिया की बात में केवल अपनी याद नहीं है, बल्कि एक गहरी चेतावनी भी है। वह बताती हैं कि पहले वे बारिश की पहली बूंदों के साथ जंगल की तरफ जाती थीं, जहां झाड़ियों में जड़ी-बूटियां अपने आप उग आती थीं। “बोने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी,” वह कहती हैं, “माँ बताती हैं, हमारे खाने भर की चीजें हमारे खेतों से ही आ जाते थे। हमारी बीमारियों का इलाज हमारे आस-पास की जड़ी-बूटियों में था।” अब वे पौधे दिखाई नहीं देते। उनका मानना है कि झाड़ू घास की जड़ें काफी लंबी होती वो न केवल जमीन की नमी खींच लेती हैं, बल्कि उसके आसपास कुछ और उगने ही नहीं देतीं। “मिट्टी अब पहले जैसी मुलायम नहीं रही। अब वह कठोर और सूखी हो गई है,” वह कहती हैं।
शोध कहते हैं कि पारंपरिक झूम खेती, जिसमें कई तरह की फसलें उगाई जाती थीं, न केवल अधिक पोषण देती थीं, बल्कि आहार की विविधता भी सुनिश्चित करती थीं। इस विविधता का अभाव अब स्पष्ट दिखता है। गाँव के एक बुजुर्ग किसान जैंटरा कहते हैं, ”झूम खेती में मक्का, कोदो, हल्दी, अदरक, मिर्च और साग जैसी फसलें एक साथ उगाई जाती थीं। वहीं अब झाड़ू घास के खेतों में केवल एक फसल है। झाड़ू घास पैसा देती है, लेकिन हमारी जमीन को बंजर बना रही है,अब हमारी आबादी बढ़ रही है हमें ज्यादा भोजन की जरूरत होगी।”
मेघालय में सालाना लगभग 30,000 से 40,000 मीट्रिक टन झाड़ू का उत्पादन होता है। प्रति हेक्टेयर 3,333 पौधों के घनत्व पर ₹1,26,200 तक की नेट प्रेजेंट वैल्यू संभव है। यह आंकड़ा आकर्षक है, विशेष रूप से ऐसे इलाकों में जहाँ नकदी फसलों के सीमित विकल्प हैं और युवा पीढ़ी जल्दी पैसे कमाने की ओर झुक रही है।
बिगड़ रहा पारिस्थितिक संतुलन
एक हालिया शोध के अनुसार, प्रति हेक्टेयर यह आर्थिक लाभ जैव विविधता की गिरावट, मिट्टी की उर्वरता में कमी, वर्षा जल को सोखने की क्षमता और जड़ी-बूटियों व परागण करने वाले कीटों के गायब हो जाने जैसे संकेत लगातार मिल रहे हैं। खेतों में अब एकरस हरियाली है, पर उसकी छाया में गाँव के पोषण, परंपरा और पारिस्थितिक संतुलन की नींव हिल रही है।
आईसीएआर और अन्य शोध संस्थानों के अनुसार, झाड़ू घास की जड़ें गहरी होती हैं और ये भूमि की सतह को इतना कठोर बना देती हैं कि वर्षा जल ज़मीन में समा नहीं पाता, बल्कि मिट्टी बहकर चली जाती है। इसी कारण पहले जहाँ झरनों का पानी गर्मियों तक बहता था, अब वे मार्च आते-आते सूखने लगते हैं।

कृषि प्रौद्योगिकी अनुप्रयोग अनुसंधान संस्थान– आईसीएआर जोन VII के कृषि निदेशक एके मोहंती बताते हैं, “पहले यह फसल बंजर ज़मीन में होती थी, लेकिन अब यह उपजाऊ ज़मीन को भी निगलने लगी है। यह जैव विविधता के लिए खतरा बनती जा रही है। हालाँकि जब पत्तियाँ सूखकर नीचे गिरती हैं तो मिट्टी में मिलकर पोषण बढ़ना चाहिए लेकिन इसकी लंबी जड़ें और लगने वाले चूहे मिट्टी की उपजाऊ परत को रोक नहीं पाते और वो उपजाऊ मिट्टी बारिश के साथ बह जाती है।”
मोहंती बताते हैं, “झाड़ू घास की गहरी जड़ें ज़मीन से सारे पोषक तत्व खींच लेती हैं। इससे मिट्टी कठोर हो जाती है, और जल-संचयन घट जाता है। झाड़ू घास की जड़ें पाइन के पेड़ की जड़ों की तरह काम करती हैं। यह प्रक्रिया पहाड़ियों में मिट्टी के कटाव को बढ़ावा देती है।”
पारिस्थितिक और सामाजिक बदलाव
सनोबिया की बात में एक चुभन भी है, जब वह कहती हैं, “हमें बताया गया था कि यह घास हमारी ज़िंदगी को आसान बनाएगी। बाजार में झाड़ू बिकती है, थोड़ा पैसा आता है। लेकिन अब समझ आ रहा है कि जो खो गया है, उसका हिसाब कोई नहीं करता। यह बदलाव सिर्फ पर्यावरणीय नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भी है। “अब न किसी और फसल की आस है, न जड़ी-बूटियों की। यहाँ तक कि पानी जमीन में रुकता नहीं बह जाता है इस कारण धान की खेती के लिए पानी जमा नहीं हो पाता,” वह बताती हैं।
“पहले घर के पीछे ही शहद के छत्ते लग जाते थे, अब तो मधुमक्खी भी नहीं दिखती,” माईलिनखोम्बा कहती हैं।
कोंगथोंग गाँव के निवासी और गाइड जेरमे बूंदिया बताते हैं कि कोंगथोंग जैसे गाँवों में ज़्यादातर ज़मीन सामुदायिक है। मतलब खेती का निर्णय केवल एक व्यक्ति नहीं करता-पूरा समुदाय इसके लिए जिम्मेदार होता है। लेकिन जब झाड़ू घास के व्यापार ने गाँवों में आर्थिक लालच और अवसर की ताक ने सामूहिक निर्णयों को तोड़ दिया।
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“पहले लोग मिलकर तय करते थे कि कौन सी फसल कहाँ उगानी है। अब हर कोई अपनी ज़मीन पर झाड़ू घास लगा रहा है। इससे सामूहिक संतुलन टूट गया है,” माईलिनखोम्बा कहती हैं।
गाँव के प्रधान टेबोर लीनराह कहते हैं, “मेघालय के पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय जीवनशैली में गहरी पर्यावरणीय समझ रही है। हमने हमेशा जंगल को माँ की तरह माना है लेकिन अब हम उसे बाज़ार समझ बैठे हैं। अब समय है कि हम स्थानीय ज्ञान, वैज्ञानिक शोध और सामुदायिक भागीदारी के सहारे एक संतुलित राह तलाशें,जहाँ हरियाली केवल पैसों की नहीं, बल्कि पारिस्थितिक समृद्धि की भी हो।”
बैनर तस्वीर- लुमशनोंग, मेघालय में झाड़ू घास एकत्र करता एक स्थानीय व्यक्ति। तस्वीर- MongWorld/विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0)