- शोधकर्ताओं ने एक किलोमीटर के स्थानीय रिजॉल्यूशन पर वनों की कटाई की वैश्विक वजहों को दिखाने वाला नया डेटासेट विकसित किया है।
- एशिया के लिए किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि 65.4% के साथ जंगली आग मुख्य वजह थी। इसके बाद 26.3% के साथ लकड़ी के लिए कटाई और 2.5% के साथ स्थायी खेती थी।
- हालांकि, भारत के शोधकर्ताओं का मानना है कि एक किलोमीटर के आधार पर स्थानीय तरीका भारत में पूरे विश्लेषण के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि भारत में वन भूमि के कई छोटे-छोटे टुकड़े हैं।
- भारत में जंगलो की कटाई के कारणों को बड़े स्तर पर समझने के लिए अतिरिक्त फील्ड ऑब्जर्वेशन और जैव-भौतिकीय आंकड़ों के साथ-साथ उपग्रह-आधारित मैपिंग टूल का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
दुनिया भर में 2024 उष्णकटिबंधीय वनों के लिए रिकॉर्ड तोड़ने वाला साल रहा। मैरीलैंड विश्वविद्यालय के ग्लोबल लैंड एनालिसिस एंड डिस्कवरी (GLAD) लैब द्वारा इकट्ठा किए गए और वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (WRI) के ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच प्लेटफॉर्म पर साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2024 में दुनिया में हर मिनट फुटबॉल के 18 मैदानों के बराबर उष्णकटिबंधीय प्राथमिक जंगल नष्ट हो गए। 3.1 गीगाटन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के साथ वनों की कटाई से दुनिया भर में जैव विविधता, पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी सेवाओं और आजीविका को भारी नुकसान हुआ। आंकड़ों से पता चला कि इस नुकसान का करीब आधा (49.5 फीसदी) जंगल मे आग से हुआ।
जंगलों को बचाने और इन्हें फिर से संवारने की रणनीतियां बनाने के लिए वनों को हो रहे नुकसान की वजहों को समझना बहुत जरूरी है। ये आंकड़े इस बात पर भी प्रकाश डाल सकते हैं कि क्या ये कारक वनों के नुकसान या खराब होने में मदद करते हैं, जिससे वन भूमि में स्थायी परिवर्तन (जंगलों का नुकसान) और पेड़ के आवरण या घनत्व में कमी (जंगलों का खराब होना) के बीच अंतर स्पष्ट हो सकता है।
वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट, गूगल डीप माइंड और द सस्टेनेबिलिटी कंसोर्टियम की ओर से विकसित नया वैश्विक डेटासेट एक किलोमीटर के स्थानीय रिजॉल्यूशन पर जंगलों को होने वाले नुकसान की वजहों का पता लगाता है। हाई-रिजॉल्यूशन वाली उपग्रह तस्वीरों और रेसनेट नामक कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) एल्गोरिथम का इस्तेमाल करते हुए, शोधकर्ताओं ने 2001 और 2022 के बीच पेडों के आवरण को हुए नुकसान के प्रमुख कारणों को दिखाया है और स्थायी कृषि, झूम खेती, कठोर वस्तुएं, जंगल की आग, लकड़ी काटने, बस्तियां और बुनियादी ढांचा और अन्य प्राकृतिक बाधाओं सहित सात कारणों में अंतर किया है। डेटासेट से पता चलता है कि स्थायी कृषि के कारण 2001 और 2022 के बीच दुनिया भर में पेड़ों के आवरण में 34.8% (± 2.6) का नुकसान हुआ।

बेहतर हुआ अंतर करना
वनों को नुकसान के कारणों की पहचान करने के लिए एआई मॉडल को प्रशिक्षित करके डेटासेट तैयार किया गया था। प्रशिक्षण नमूनों (पेड़ के आवरण को कम से कम 0.5% नुकसान के हाई-रिजॉल्यूशन वाले 1 किमी ग्रिड सेल) की जानकारों द्वारा दृश्य के आधार पर व्याख्या की गई। इन चिन्हित नमूनों ने मॉडल को उपग्रह की तस्वीरों के साथ-साथ सम्बंधित आबादी और जैव-भौतिकीय डेटा इनपुट का विश्लेषण और व्याख्या करने का आधार प्रदान किया। इस तरह पैटर्न को इसकी वजह से जोड़ा गया।
साल 2018 में डब्ल्यूआरआई ने मैरीलैंड विश्वविद्यालय और अर्कांसस विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर 2001 और 2015 के बीच दुनिया भर में जंगलों के नुकसान की वजहों के लिए वर्गीकरण मॉडल प्रकाशित किया था। आंकड़ों ने 10 किमी के स्थानिक रिजॉल्यूशन पर वनों के नुकसान की जांच की। इसकी तुलना में, मौजूदा डेटासेट हाई रिजॉल्यूशन और एक जैसे स्थानिक पैटर्न वाली वजहों के बीच बेहतर अंतर करता है।
मुख्य लेखिका और अमेरिका के डब्ल्यूआरआई में भू-स्थानिक शोधकर्ता मिशेल जे. सिम्स बताती हैं कि अलग-अलग क्षेत्रों में हर कारक वर्ग में शामिल अलग-अलग कारणों को पकड़ना टीम के सामने आई चुनौतियों में से एक था। सिम्स बताती हैं, “उदाहरण के लिए, ‘अन्य प्राकृतिक कारण’ वर्ग में कीटों का प्रकोप, जमीन का धंसना, हवा का प्रवाह, घुमावदार नदियां और तूफानों से होने वाले नुकसान जैसी वजहें शामिल हैं। इसी प्रकार, ‘लॉगिंग’ में अलग-अलग प्रकार की लकड़ी की कटाई (पूरी तरह काटना या चुनिंदा तरह से काटना या वृक्षारोपण में कटाई चक्र) शामिल हो सकती है और अक्सर दुनिया के विभिन्न हिस्सों में इसके अलग-अलग पैटर्न होते हैं।” इस चुनौती का हल निकालने के लिए, टीम ने मॉडल और उसकी वजहों की पहचान को बेहतर बनाने के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण डेटा एकत्र किया।

‘भारत के लिए व्यापक विश्लेषण जरूरी’
जीएफडब्ल्यू इंटरैक्टिव मानचित्र से पता चलता है कि 2001 से 2024 के बीच भारत में वनों की कटाई से पेड़ों के आवरण में 29% की कमी आई, जिसमें स्थायी कृषि, ठोस वस्तुएं, बस्तियां और बुनियादी ढांचा प्रमुख कारण थे।
मानचित्र से यह भी पता चलता है कि इस वजह से हर साल उत्सर्जन लगभग 15 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर था। ज़ूम इन करने पर, राज्य और जिला स्तर पर वनों के लिए भी इसी तरह के नतीजे पाए जा सकते हैं। हालांकि, भारत में शोधकर्ता चेतावनी देते हैं कि इस डेटा का इस्तेमाल सावधानी से किया जाना चाहिए।
बेंगलुरु स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट के संकाय सदस्य शेषाद्रि के.एस. कहते हैं, “यह डेटासेट बेहद उपयोगी टूल है। ऐसा उन लोगों के लिए है जो किसी खास देश में वनों की कटाई की दरों का तुरंत अंदाजा लगाना चाहते हैं या यह समझना चाहते हैं कि वे अपने यहां जंगल बढ़ाने से जुड़ी कोशिशों पर कहां ध्यान केंद्रित करें।” वे आगे कहते हैं, “इस तरह के कई टूल के साथ काम करने के बाद, मैं कह सकता हूं कि शोधकर्ताओं ने बहुत अच्छा काम किया है। हालांकि, भारत के लिए एक किमी का स्थानिक रिजॉल्यूशन गहराई से विश्लेषण के लिए पर्याप्त नहीं है।”
शेषाद्रि और मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के ग्लोबल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता धनपाल गोविंदराजुलु दोनों बताते हैं कि भारत में वन भूमि और मोजेक भू-दृश्यों के कई छोटे-छोटे टुकड़े हैं जहां वन और वृक्षारोपण एक साथ मौजूद हैं, जिससे बंटा हुआ पारिस्थितिकी तंत्र बनता है। धनपाल कहते हैं, “यह टूल एक किलोमीटर से भी बड़े पैमाने पर वनों के विशाल भूभाग और वनों की कटाई की जांच में मददगार साबित होगा। भारत में, हम सड़क चौड़ीकरण परियोजनाओं के लिए एक या दो हेक्टेयर वन भूमि की कटाई या पेड़ों को हटाते हुए देखते हैं। छोटे पैमाने पर होने वाली वनों की कटाई की ये घटनाएं आमतौर पर ऐसे मानचित्रों में दर्ज नहीं होतीं।”
धनपाल बताते हैं कि उपग्रह की तस्वीरों पर आधारित मैपिंग टूल के नतीजों के विश्लेषण में वन की परिभाषा अहम भूमिका निभाती है। भारत में वन आवरण की परिभाषा इस प्रकार है – एक हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्रफल वाली समस्त भूमि, जहां पेडों का आवरण 10% से ज्यादा हो, चाहे उसका मालिकाना हक और कानूनी स्थिति कुछ भी हो।
धनपाल कहते हैं, “भारत वन स्थिति रिपोर्ट (आईएसएफआर) की काफी आलोचना इस बात पर हुई है कि यह (परिभाषा) वृक्षारोपण, बाग-बगीचों और अन्य ऐसे क्षेत्रों को शामिल करती है जहां वृक्षों का घनत्व ज्यादा है। यह अंतर स्पष्ट नहीं है। हालांकि, लकड़ी के लिए वनों के बाहर किए गए वृक्षारोपण को वन माना जाता है, लेकिन उनकी कटाई को वनों की कटाई नहीं माना जाता।”
सिम्स इसे चुनौती मानती हैं। वह आगे कहती हैं कि उपग्रह की तस्वीरों से प्राप्त मानचित्र अक्सर ‘भूमि आवरण’ या पृथ्वी पर देखे गए भौतिक आवरण, जैसे वृक्षों की मौजूगी को देखते हैं। सिम्स कहती हैं, “उदाहरण के लिए हमारे डेटासेट में, वृक्ष आवरण को पांच मीटर से अधिक ऊंचाई वाली काठ वाली वनस्पति के रूप में परिभाषित किया गया है। एक उपयोगकर्ता, जो किसी ऐसे क्षेत्र में वजहों को समझना चाहता है जहां ‘वन’ को इस व्यापक परिभाषा से कहीं ज्यादा सीमित मानदंडों के आधार पर परिभाषित किया गया है, अतिरिक्त डेटा (जैसे आधार रेखा मानचित्र, छत्र घनत्व सीमा, या रुचि का एक निर्दिष्ट क्षेत्र) का इस्तेमाल करके अपने विश्लेषण को सिर्फ उन्हीं खास क्षेत्रों पर केंद्रित कर सकता है।”
“आखिरकार, उपग्रह डेटा से प्राप्त मानचित्रों ने बड़े क्षेत्रों में लागत-प्रभावी मानचित्रण और निगरानी को संभव बनाकर कई फायदे दिए हैं। रिमोट सेंसिंग में प्रगति ज्यादा जटिल भू-दृश्यों के मानचित्रण की चुनौतियों से निपटने की हमारी क्षमता में काफी सुधार ला रही है। चुनौतियां बनी हुई हैं और कुछ मामलों में अतिरिक्त प्रकार के डेटा जरूरी हो सकते हैं,” वह आगे कहती हैं।

जीएफडब्ल्यू इंटरेक्टिव मानचित्र से पता चलता है कि 2001 से 2024 के बीच भारत में वनों की कटाई से पेड़ों के आवरण में 29% की कमी हुई, जिसमें स्थायी कृषि, ठोस वस्तुएं, बस्तियां और बुनियादी ढांचा प्रमुख कारण थे। हालांकि, भारत के शोधकर्ता चेतावनी देते हैं कि इस डेटा का उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिए। चार्ट ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच के सौजन्य से।
वनों की कटाई के कारणों का बहुआयामी विश्लेषण
काष्ठ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (आईसीएफआरई-आईडब्ल्यूएसटी), राष्ट्रीय उन्नत अध्ययन संस्थान (एनआईएएस) और भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन में, कर्नाटक के काली टाइगर रिजर्व (केटीआर) और उसके आसपास भूस्खलन से होने वाली वनों की कटाई के पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया गया। अध्ययन से पता चलता है कि वनों की कटाई के कारणों और प्रभावों को सही ढंग से समझने के लिए कई स्त्रोत और मल्टी-टेम्पोरल तरीके की जरूरत है।
“हमने आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के भूस्खलन रिकॉर्ड, बारिश और तापमान पर जिला-स्तरीय आंकड़े और उपग्रह-आधारित भूमि सतह तापमान और आर्द्रता सूचकांकों सहित कई डेटा स्रोतों को आपस में मिलाया। इस ढांचे ने हमें संरक्षित क्षेत्रों के भीतर और बाहर, दोनों जगह पर वनों के नुकसान की पहचान करने में मदद की। इससे स्थानिक रूप से स्पष्ट और जगह के हिसाब से खास आंकड़े प्राप्त हुए जो संरक्षण से जुड़े लक्षित हस्तक्षेपों के लिए बहुत जरूरी हैं। इस नजरिए ने संवेदनशील भू-भागों में वनों की कटाई के जटिल कारणों और व्यापक प्रभावों की व्यापक समझ में मदद की,” आईसीएफआरई-आईडब्ल्यूएसटी के वैज्ञानिक टी.एन. मनोहरा ने मोंगाबे इंडिया को बताया।
मनोहरा आगे बताते हैं कि इस शोध का प्रमुख इनोवेशन हाई-रिज़ॉल्यूशन (10 मीटर) वन-कटाव निगरानी मानचित्र का विकास है, जो खास तौर पर भूस्खलन के ज्यादा खतरों वाले क्षेत्रों को लक्षित करता है। वे कहते हैं, “यह उन्नत स्थानिक रिजॉल्यूशन हमें बारीक पारिस्थितिकी परिवर्तनों—जैसे वनों का बंट जाना, पेड़ों की ऊंचाई में कमी और सतह के तापमान और मिट्टी की नमी में बदलाव—को पहचानने में मदद करती है। ऐसे कारक जिन्हें अक्सर मोटे वैश्विक डेटासेट द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है।”
अध्ययन में भूस्खलन से पहले और बाद के तापमान में बदलावों की भी जांच करना भी अहम है और उन्हें वनस्पति और नमी में बदलाव से जोड़कर प्रभावित क्षेत्रों का ज्यादा व्यापक पारिस्थितिक प्रोफ़ाइल तैयार किया गया। शोधकर्ताओं ने क्षेत्र-आधारित ऑब्जर्वेशन को भी शामिल किया, जिससे पता चला कि भूस्खलन से प्रभावित क्षेत्रों में आक्रामक प्रजातियों, खास तौर पर क्रोमोलेना ओडोराटा, में बढ़ोतरी हुई है।
और पढ़ेंः झारखंड में तकनीक की मदद से खेती में मिलती सिंचाई, मौसम और बीमारियों की सटीक जानकारी
शेषाद्रि बहुआयामी नजिरए के साथ-साथ प्रभावी हस्तक्षेप रणनीतियों के लिए लंबी अवधि में वनों की निगरानी पर भी जोर देते हैं। वे बताते हैं कि छोटे पैमाने पर वनों के खराब होने के भी लंबी अवधि में अलग-अलग प्रभाव हो सकते हैं जो पारिस्थितिकी तंत्र की प्रकृति को बदल सकते हैं।
वे कहते हैं, “जब किसी क्षेत्र में सिर्फ कुछ पेड़ ही काटे जाते हैं या प्रभावित होते हैं, तो उप-इष्टतम आवासों का निर्माण भी महत्वपूर्ण बदलाव है। इसका उस क्षेत्र में रहने वाली अन्य प्रजातियों की आबादी पर असर पड़ सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ जानवरों को वन क्षेत्र के बाहर शिकार करने के लिए मजबूर करना, जिससे वे अलग-अलग खतरों के संपर्क में आ जाते हैं। ये प्रभाव तुरंत दिखाई नहीं देते।”
शेषाद्रि बताते हैं कि पारिस्थितिकी रूप से जटिल होने के कारण, मूल्यवान ऑब्जर्वेशन के लिए वन निगरानी कई दशकों तक जारी रहनी चाहिए। वे आगे कहते हैं, “हमें लगातार निगरानी के लिए प्रणालियों में निवेश करने और क्षमता बढ़ानी होगी।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 7 अगस्त, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: अरुणाचल प्रदेश में टेंगापानी आरक्षित परियोजना से 2010 में ली गई तस्वीर। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) के जरिए रोहित नानीवाडेकर द्वारा ली गई तस्वीर।