- मनुष्य और कुत्तों का रिश्ता हजारों साल पुराना है, लेकिन आज बेतरतीब भोजन, कचरा प्रबंधन की कमी और असंतुलित व्यवहार ने इंसान–कुत्ता संघर्ष को गंभीर रूप दे दिया है।
- लोगों द्वारा अनुचित भोजन (मीठा, नमक, ज़ाइलिटोल आदि) खिलाने और कसाईखानों के बचे मांस ने कुत्तों को आक्रामक और झुंड प्रवृत्ति वाला बना दिया है।
- नसबंदी और नियमित टीकाकरण जैसे वैज्ञानिक उपायों का विरोध तथा जिम्मेदारी से बचना भी इस समस्या को और जटिल बना रहा है, जिसके कारण रेबीज और काटने की घटनाएं बढ़ी हैं।
- कमेंट्री में विचार लेखिका के अपने हैं।
इंसानो और कुत्तो का रिश्ता हज़ारो साल पुराना है। आनुवंशिक (genetic), रूपात्मक (morphological) और व्यवहारिक (behavioural) अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि वर्त्तमान के कुत्तो का सबसे निकटतम संबंधी भेड़िया (ग्रे वुल्फ, Canis lupus) है। देखा जाये तो कुत्ता एक अत्यंत सफल प्रजाति है। आज जहां-जहां मनुष्य हैं, वहां कुत्ते भी पाए जाते हैं चाहे वो आर्कटिक क्षेत्र में पाए जाने वाले कैनेडियन एस्किमो डॉग या कैनेडियन इनुइट कुत्ते हो या अरब के रेगिस्तानों में सालुकी या अरेबियन हाउंड हो ।
रोचक बात तो यह है की कुत्ता ऐसी एकमात्र मांसाहारी प्रजाति है, जो मनुष्यों को हानि पहुँचाने की क्षमता रखते है इसके बावजूद भी मनुष्य उनके अपने सबसे नजदीक रखते है। उनके साथ जीवन साझा करते हैं, और अधिकांश लोग तो उन्हें परिवार का सदस्य मानते हैं। समय के साथ कुत्ते केवल सहायक या सुरक्षा देने वाले जीव नहीं रहे, बल्कि लोगों के सुख दुःख के साथी बन गए।
यूरोप और एशिया में अलग-अलग कार्यों के लिए कुत्तों की अलग अलग नस्लों का विकास हुआ, जिसमें प्रमुख चरवाहा कुत्ते, शिकारी कुत्ते, गार्ड कुत्ते और बाद में केवल पालतू एवं साथी कुत्ते।
कुत्तों के प्रति हमारे आधे-अधूरे और दिशाहीन स्नेह ने उन्हें अत्यंत दयनीय स्थिति में पहुँचा दिया है। मानव–कुत्ता संघर्ष के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण पहलू तथाकथित डॉग लवर्स की भूमिका अनदेखी नहीं की जा सकती है।
कई बार देखा गया है कि लोग अपनी गली में, धार्मिक स्थल के बाहर, पार्क में या सड़कों पर कुत्तों को मीठे बिस्कुट या प्रसाद या अन्य अनुपयुक्त खाद्य-पदार्थ खिलाते हैं। इस प्रकार की करुणा केवल क्षणिक संतुष्टि और प्रसन्नता के लिए एक आसान माध्यम है, जिसके दूरगामी स्वास्थ्य सम्बन्धी दुष्परिणाम कुत्तों को उठाने पड़ते हैं।

कुत्तों के लिए नहीं इंसानों का खाना
कुत्तों को अगर खाने में अधिक नमक दिया जाये तो उनमें सॉल्ट पॉइज़निंग या वॉटर डिप्राइवेशन नामक स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इससे उन्हें स्नायु व मस्तिष्क संबंधी विकार, उल्टी, दस्त, अवसाद, बुखार और दौरे जैसी समस्याएँ हो सकती हैं। यदि स्थिति गंभीर हो तो जानलेवा भी साबित हो सकती है। इसी प्रकार ज़ाइलिटोल (Xylitol) एक प्रकार का शुगर अल्कोहल है, जिसका प्रयोग अक्सर कैंडी, च्यूइंग गम, टूथपेस्ट और बेक्ड फूड्स को मीठा बनाने के लिए किया जाता है। ज़ाइलिटोल मनुष्यों के लिए सुरक्षित माना जाता है, लेकिन कुत्तों के लिए जानलेवा साबित हो सकता है। इसलिए मीठा खाने से कुत्तों में ब्लड शुगर का स्तर अचानक और खतरनाक रूप से कम हो जाता है, जिससे उनकी जान भी जा सकती है। कुत्तों में फूड पॉइज़निंग रोकने का सबसे सही तरीका है कि उन्हें केवल डॉग फूड ही खिलाएँ और इंसानो द्वारा खाने की चीज़ो से सम्भवता दूर रखा जाये ।
कुत्तों का व्यवहार उनके भोजन पर निर्भर करता है। जब उन्हें संतुलित और पोषक आहार मिलता है तो उनकी ऊर्जा, स्वभाव और स्वास्थ्य सामान्य रूप से स्थिर रहता है जैसा की हमारे पालतू कुत्तों का होता है। लेकिन जब उनको भोजन असंतुलित, अस्वच्छ और अनियंत्रित स्रोतों से मिलने लगता है, तो उनके व्यवहार में नकारात्मक बदलाव दिखाई देने लगते हैं जो की वर्तमान में हो रहा है।
विशेषकर आवारा कुत्ते अपना भोजन उन्हीं स्रोतों से प्राप्त करते हैं जो उन्हें आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।
कचरा प्रबंधन की कमी से बढ़ी समस्या
हमने कचरे के कभी सही और सुव्यवस्थित तरीके से नहीं फेका जो की हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है , इसी कचरे से आवारा कुत्तों के लिए भोजन का अनंत स्रोत निर्मित हो गया। हमने पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को भी पूर्ण तरह बिगड़ दिया है – गिद्ध, जो प्राकृतिक रूप से मृत पशुओं को खा कर वातावरण को स्वस्थ रखते थे, लगभग लुप्त हो गए हैं। परिणामस्वरूप, शहरों, गांवों और सड़कों पर पड़े मृत पशु कुत्तों के लिए सहज भोजन का माध्यम बन गए हैं और उनके आक्रामक स्वभाव को बढ़ावा देने में पूर्णता जिम्मेदार है।

कसाईखाने/मीट की दुकान का बचा हुआ मांस भी कुत्तो को आक्रामक बना रहा हैं। ऐसा भोजन उनकी भूख तो मिटाते हैं लेकिन साथ ही उनके व्यवहार को परिवर्तित करता है जिससे वे अत्यधिक क्षेत्रीय प्रवृत्ति (territorial instinct), झुंड प्रवृत्ति (pack behaviour) और आक्रामक हो रहे हैं। समय के साथ यह मांस-प्रधान भोजन उनकी प्राकृतिक scavenging आदत को भी प्रभावित कर रहा है। सर्वाहारी रहने के बजाय वे शिकार जैसी प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। ऐसे भोजन स्रोतों के लिए प्रतिस्पर्धा हर दिन बढ़ रही है तो कुत्तों का स्वभाव और भी आक्रामक होता जा रहा है, जिससे वे अन्य जानवरों और इंसानों दोनों के प्रति हिंसक व्यवहार करने लगे हैं।
कुत्तों ने न केवल शहरों में पाए जाने वाले जानवर जैसे की गाय, मोर, बन्दर आदि को शिकार बनाना शुरू किया बल्कि लगभग हर प्रकार के वन्यजीवों पर भी प्रहार किय। कुत्तो की हिंषक प्रवति पर हाल ही में बहुत से शोध पात्र भी प्रकाशित हुए है, जिसमें सामने आया कि काटने की घटनाएँ, झुंड में हमला करना और इंसान– कुत्तों के टकराव जैसी समस्याएँ सामने आ रही हैं।
नसबंदी के साथ नियमित टीकाकरण
केवल भोजन और नसबंदी (sterilization) ही आवारा कुत्तों की समस्याओं का संपूर्ण समाधान नहीं है। इसके लिए कुत्तों का नियमित टीकाकरण होना अति आवश्यक है। एक कुत्ते के लिए एंटी-रेबीज वैक्सीन (Anti-Rabies Vaccine) का औसत खर्च लगभग ₹250–300 प्रति डोज़ आता है और इसे हर वर्ष दोहराना अनिवार्य है। यदि किसी मोहल्ले या नगर में सैकड़ों आवारा कुत्ते हैं, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी देखभाल के लिए कितना बड़ा आर्थिक दायित्व सरकार व समाज पर आता है। फिर प्रश्न उठता है कि क्या स्वयं को डॉग लवर कहने वाले इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हैं?
पशु-पक्षियों के प्रति सच्चा प्रेम केवल भावनात्मक अभिव्यक्ति या वाचिक घोषणाओं तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि यह व्यवहारिक कार्यों में दिखना भी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति वास्तव में तोते से प्रेम करता है, तो उसे ऐसे प्रयास करने चाहिए कि वे स्वेच्छा से उसके आँगन में आए। इसके लिए वे चाहे तो फलदार वृक्ष लगाए, पक्षियों के लिए दाना और जल सुलभ करवाए अथवा सुरक्षित घोंसले हेतु स्थान की व्यवस्था करे । पिंजरे में बंद कर, तोते को मानवीय भाषा सिखाना प्रेम नहीं, बल्कि एक प्रकार का दुखदायी बंधन है।
इसी प्रकार आवारा कुत्तों के संदर्भ में भी समझा जा सकता है। यदि आप वास्तव में उनसे प्रेम करते हैं तो उनकी जिम्मेदारी स्वीकार कीजिए। यह समझना आवश्यक है कि किसी भी जगह में रहने वाले कुत्ते उन व्यक्तियों के प्रति तो स्नेह प्रदर्शित कर सकते हैं जो उन्हें भोजन कराते हैं, परंतु वे राहगीरों, मोटरसाइकिल चालकों अथवा विद्यालय से लौटते छोटे बच्चों के प्रति आक्रामक व्यवहार भी दिखा सकते हैं। यह किसी दुर्भावना का परिणाम नहीं, बल्कि एक प्राकृतिक पशु-व्यवहार (natural animal behaviour) है।
एक ओर हम पशु-अधिकारों की वकालत करते हैं, तो दूसरी ओर हम उन मूलभूत कारणों को दूर करने में असफल रहे हैं, जिनसे न केवल कुत्तों के लिए समस्याएँ बढ़ीं, बल्कि हमारे लिए भी गंभीर चुनौतियां उत्पन्न हो गयीं।

हमने कुत्तों की संख्या नियंत्रण हेतु प्रभावी नसबंदी कार्यक्रमों को न तो कभी जरूरी समझा न ही न ही पर्याप्त और नियमित रूप से कभी संचालित किया। यदि कुछ वर्ष पूर्व कुत्तों की संगठित और व्यापक नसबंदी के किये मांग उठायी जाती तो आज यह समस्या इतने बड़े पैमाने पर सामने नहीं आती।
वास्तविकता यह रही कि हमेशा ही कुत्तों की नसबंदी जैसे मानवीय और वैज्ञानिक रूप से स्वीकृत उपायों का विरोध किया गया। यहाँ तक की लोगों ने कुत्तों की नसबंदी को अत्याचार बताया और इसको रुकवाया हैं। इसलिए करुणा और संवेदनशीलता के नाम पर व्यक्त किया गया यह विरोध कुत्तों की समस्या के समाधान में बेहद बाधक सिद्ध हुआ। परिणामस्वरूप मानव–कुत्ता संघर्ष की समस्या और अधिक गंभीर हो गई है।
इस प्रकार तथाकथित ‘पशु-प्रेम’ की गलत व्याख्या ने अनजाने में ही सामाजिक और पारिस्थितिक संकट को और गहराई प्रदान की है। इसका परिणाम आज हमारे सामने है – प्रकृति का संतुलन गम्भीर रूप से बिगड़ चुका है।
प्रतिदिन रेबीज के मामले बढ़ रहे हैं, कुत्तों के काटने की घटनाओं में तीव्र वृद्धि हो रही है, और सड़कों पर कुत्तों के कारण होने वाली दुर्घटनाएं आम हो चुकी हैं। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, 2024 में कुत्ते के काटने के कुल मामले 3,717,336 थे, जबकि रेबीज से लगभग 54 मौतें हुई थीं। किंतु अब जब स्थिति विकराल हो गयीं है, तो दोषारोपण केवल कुत्तों और न्यायालयों को दिया जा रहा है, मानो सारी जिम्मेदारी उन्हीं की हो।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अनुसार दिल्ली नगर निगम ने इस समस्या को रोकने के प्रयास किए। वर्ष 2022 तक 56,045 आवारा कुत्तों की नसबंदी की गई और 2023 में उनका लक्ष्य 80,000 का था। वर्तमान में भारत सरकार के कई मंत्रालय, जैसे पशुपालन एवं डेयरी विभाग (डीएएचडी), आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय (एमएचयूए), और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (एमएचएफडब्ल्यू) आवारा पशुओं की समस्या को रोकने के लिए मिलकर काम कर रहे हैं। डीएएचडी ने आवारा कुत्तों की आबादी के प्रबंधन को सरल बनाने के लिए पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के अंतर्गत पशु जन्म नियंत्रण नियम, 2023 को अधिसूचित किया है।
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एमएचयूए ने 25 जुलाई 2024 को सभी राज्यों को बच्चों पर आवारा कुत्तों के हमलों को रोकने के लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग द्वारा किये गए अनुरोधों को लागू करने के लिए एक एडवाइजरी जारी की। एमएचयूए की 12वीं पंचवर्षीय योजना (2019-2023) के अनुसार, 2030 तक भारत को रेबीज मुक्त बनाना था । इस संबंध में, 2030 तक कुत्तों द्वारा नियंत्रित रेबीज उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना (एनएपीआरई) विकसित की गई और 28 सितंबर, 2021 को इसे प्रारंभकिया गया। अब तक, सरकार ने रेबीज की रोकथाम (2019-2023 तक) के लिए 1.19 लाख चिकित्सा अधिकारियों और पैरामेडिक्स को प्रशिक्षण भी प्रदान किया है। फिर भी रेबीज मुक्त भारत का लक्ष्य पूरा करना संभव नहीं दिख रहा।
सरकारी योजनाओ की विफलता के बहुत से कारण हो सकते है जिनमें से एक है आम इंसान को इन योजनाओ की न ही जानकारी होना और न ही इन योजनाओ में सम्मिलित करना। रही बात नागरिको की तो “आवारा नहीं, हमारा है ” नारा बिलकुल सही है बस लोगो ने इसको पहले समझा होता।
लेखिका सोनिका कुशवाहा, भारतीय जैवविविधता संरक्षण संस्थान की प्रेसिडेंट हैं।
बैनर तस्वीरः शहरों, गांवों और सड़कों पर पड़े मृत पशु कुत्तों के लिए सहज भोजन का माध्यम बन गए हैं और उनके आक्रामक स्वभाव को बढ़ावा देने में पूर्णता जिम्मेदार है। तस्वीर- अखिलेश कुमार/भारतीय जैवविविधता संरक्षण संस्थान