- पश्चिमी राजस्थान का सूखा मेवा केर सदियों से महिलाओं की आर्थिक आजादी का जरिया रहा है। इसे तोड़कर और बाजार में बेचकर वह परिवार के जीविकोपार्जन में मदद करती रही हैं।
- महिला सशक्तिकरण के इस विकल्प पर अब खतरा गहराने लगा है। खेती का बढ़ता दायरा, पानी का बढ़ता इस्तेमाल, विलायती बबूल और तेजी से बदलती जलवायु इसकी वजह मानी जा रही है।
- थार की गर्म और सूखी जलवायु को पसंद करने वाले केर की पैदावार घटने से कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। अब केर के लिए भी जीआई टैग की मांग की जा रही है।
चेहरे पर झुर्रियां, सिर पर घाघरा-ओढ़णी, मांग में सोने का बोरला, गले में सोने का तेड़िया, नाक में सोने की बड़ी-सी बाली, बाहों में चांदी की चूड़ियां, पैरों में चांदी के कड़िया और बेड़िया। सत्तर साल की गंगा देवी का पहनावा आज भी ठेठ राजस्थानी महिलाओं जैसा ही है। दूसरी महिलाओं की तरह उन्हें आज भी अपने गहनों से उतना ही लगाव है।
राजस्थान में मेलबा गांव की निवासी गंगा देवी मोंगाबे-हिंदी के साथ इन गहनों के बनने के पीछे की रोचक कहानी ठेठ राजस्थानी में साझा करती हैं, “जब हम बड़े हो रहे थे, तो चारों तरफ केर ही केर की झाड़ियां थीं। मार्च-अप्रैल में हमारा पूरा दिन केर तोड़कर लाने, उसे उबालने और सुखाने में बीतता था। तब हम दो रुपए किलो में केर बेचते थे। मैंने भी उन पैसों से अपने और परिवार के लिए लिए गहने बनवाए हैं।”
यह उन दिनों की बात है, जब केर को बाट या किलो में नहीं तौला जाता था। उस वक्त इस सूखे साग को पाइली (एक तरह का नाप) में तौला जाता था। वह कहती हैं, “आज तो सोने की तरह केर के दाम भी बढ़कर 1,200 रुपए (प्रति किलो) हो गए हैं। उस समय सोना 400 रुपए तौले में आता था।”
महिला सशक्तिकरण का बड़ा जरिया
थार रेगिस्तान के सूखे मौसम और एक जमाने में यहां हरी सब्जियां नहीं होने से साल भर सूखा साग खाने की परंपरा रही है। इनमें सांगरी, कुमटिया के साथ-साथ केर भी शामिल है जो थार की मुख्य जंगली झाड़ी (कोपरिस डेसीडुआ\Capparis decidua) है। केर की झाड़ी खेत की मेड़, ओरण, गोचर और बंजर जमीन पर बहुतायत में होती है।
एक अनुमान के अनुसार, राजस्थान के बीकानेर और जोधपुर जिलों में केर का रकबा 3,540 वर्ग किमी में फैला है। इसका अनुमानित सालाना उत्पादन 7000 टन है। यह पौधा 50 डिग्री सेल्सियस तक के बहुत ज्यादा तापमान और 150 से 600 मिमी की बहुत कम बारिश में भी बचा रहता है।
थार क्षेत्र का सूखा मेवा कहे जाने वाले केर को कांटेदार झाड़ियों से तोड़ने और उन्हें उबाल कर तैयार करके आस-पास के बाजारों में बेचने का काम अधिकांशतः महिलाएं या लड़कियां ही करती हैं। इससे उन्हें आय का नियमित साधन मिलता है और उन्हें परिवार चलाने में मदद मिलती है।

राजस्थान में वन्यजीव संरक्षण के लिए काम करने वाले जोधपुर में मेलबा गांव के निवासी श्रवण पटेल कहते हैं, “केर की झाडियां छोटी होती हैं, इसलिए केर तोड़ने का काम महिलाएं ही करती हैं। एक महिला एक साल में दस से पंद्रह हजार रुपए तक के केर तैयार कर लेती है।”
जोधपुर स्थित साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर के संस्थापक भागीरथ चौधरी मोंगाबे-हिन्दी को बताते हैं, “ऐसी महिलाएं जिनके पास रोजी-रोटी, आजीविका का कोई साधन नहीं है, वे केर की झाड़ियों से केर (बेरीज) तोड़ती हैं और उन्हें घरेलू नुस्खों से सूखा कर तैयार करती हैं। फिर इन्हें आस-पास के छोटे बाजारों में बेचती हैं जो पूरी तरह असंगठित हैं।”
दरअसल, केर के कारोबार में बिचौलियों की भूमिका को देखते हुए अब इससे खाने-पीने की दूसरी चीजें बनाने पर भी काम हो रहा है। इस काम को स्वयं सहायता समूहों में महिलाओं को जोड़कर आगे बढ़ाया जा रहा है। जालौर के एग्रीकल्चर रिसर्च स्टेशन में असिस्टेंट प्रोफेसर सुरेश एनवी केंद्र सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग से मिले ऐसे ही प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। फिलहाल उनके यहां चार समूहों में 60 महिलाएं केर से अलग-अलग उत्पाद बना रही हैं।
उन्होंने मोंगाब-हिंदी को बताया, “हम केर के वैल्यू एडिशन पर काम कर रहे हैं। सूखे केर का पैकेट बनाने के अलावा महिलाएं गीले और सूखे केर से बेरी चॉकलेट बना रही हैं। केर का पाउडर, पाचक चूरन, पाचक गोली और चटनी भी बनाई जा रही है। हमारा मकसद केर के कारोबार से बिचौलियों को खत्म करना और महिलाओं को आर्थिक तौर पर सशक्त बनाना है।”
जालौर में ही आंवलोज स्वयं सहायता समूह से जुड़े पीरा राम कहते हैं, “मान लीजिए, कुछ महिलाएं मिलकर 10 किलो गीले केर इकट्ठा करती हैं, तो हम उसे बाजार दाम पर खरीदते हैं और यह रकम उन महिलाओं के अकाउंट में ट्रांसफर कर देते हैं। महिलाएं अपने हिसाब से इस रकम को खर्च कर सकती हैं।”
वहीं ऐसे ही एक स्वयं सहायता समूह से जुड़ी संतू देवी ने मोंगाबे-हिंदी को बताया कि वह अन्य चार महिलाओं के साथ मिलकर पिछले दो साल से केर तोड़ रही हैं। वह कहती हैं, “दाम के हिसाब से हम एक साल में तीस से पचास हजार तक के केर तोड़ लेती हैं। इससे हमारा चार-पांच महीने का काम आसानी से चल जाता है।”
हालांकि, महिला सशक्तिकरण के इस विकल्प पर अब खतरा बढ़ने लगा है। इसकी वजह खेती का बढ़ता दायरा, पानी का बढ़ता इस्तेमाल, और तेजी से बदलता मौसम है।
बेहतर शोध की जरूरत
केर की सबसे बड़ी खासियत इसका अपने-आप उगना है। सांगरी की तरह इसे नियंत्रित माहौल में उगाने की कोशिशें सफल नहीं हो पाई हैं। केर में पत्तियां नहीं होती हैं और शाखाएं बारीक होती हैं। इनका रंग गहरा हरा या हल्का स्लेटी होता है। केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (काजरी) में डिवीजन ऑफ इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम के प्रमुख धीरज सिंह कहते हैं कि यह थार की बहुत ज्यादा गर्मी को सहन करने का मैकेनिज्म है।
जोधपुर स्थित शुष्क वन अनुसंधान संस्थान में केर को नियंत्रित माहौल में बचाए रखने के लिए शोध चल रहा है। इस काम से जुड़ी वैज्ञानिक इलहाम बानो ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “पॉलिबैग में नर्सरी में पौधे बहुत कम बचते हैं और फील्ड ट्रायल में बचे हुए पौधे भी पूरी तरह खत्म हो जाते हैं। इसलिए, रूट ट्रेनर का इस्तेमाल किया गया जिसमें जड़ों को बचाए रखने के लिए पीवीसी पाइप को जोड़कर पौधे उगाए गए। इस तरीके से तैयार पौधे नर्सरी और फील्ड में भी बच पाए।”
हालांकि, चौधरी इस झाड़ी पर ज्यादा शोध की आवश्यकता बताते हैं। वह कहते हैं, “यह पौधा उपेक्षा का शिकार है। यह किसी भी संस्था की अनुसंधान के अनिवार्य पौधे में शामिल नहीं है। मैं आईसीएआर से आग्रह करता हूं कि इसे शुष्क वन से सम्बंधित संस्थानों जैसे बीकानेर स्थित सीआईएएच या जोधपुर काजरी में अनिवार्य फसल बनाया जाए और इस पौधे पर अध्ययन और अनुसंधान किया जाए।”
हालांकि, केर के खत्म होने के पीछे स्थानीय लोग विलायती बबूल को भी वजह मानते हैं, क्योंकि केर के मुकाबले यह तेजी से उगता है और आक्रामक तरीके से फैलता है। पटेल कहते हैं, “यह किसी भी स्थानीय पेड़ (केर खेजरी) के आसपास उगता है। फिर भेड़-बकरियां इसे खाती हैं और इसका बीज दूसरी जगहों पर फैलता है। तब यह सात-आठ साल में स्थानीय पेड़ों को खत्म कर देता है।”

लेकिन भागीरथ चौधरी इससे इत्तेफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, “अगर ऐसा होता, तो केर पूरा खत्म हो जाना चाहिए था, क्योंकि विलायती बबूल 70 सालों से राजस्थान में है। जहां पर विलायती बबूल सबसे ज्यादा है, वहां केर भी बहुत हैं। इसका उदाहरण बाड़मेर है। दरअसल, केर की झाड़ियां खत्म होने पर अभी तक कोई रिसर्च नहीं किया गया है। केर को राजस्थान के शुष्क वन से सम्बंधित संस्थानों में अनिवार्य फसल बनाकर इस पर अनुसंधान तेज किया जाना चाहिए।”
खेती का बढ़ता दबाव
हालांकि, धीरे-धीरे केर की झाड़ियां खत्म होने की बड़ी वजह खेती का बढ़ता दायरा भी है।
नागौर स्थित राजस्थान केर प्रोडक्शन एंड प्रोसेसिंग डेवलपमेंट सोसाइटी ने केर को जीआई टैग दिलाने के लिए आवेदन किया है। इस काम में मदद कर रहे नागौर कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विकास जी पावड़िया कहते हैं, “हमने ओरिजिन के आधार पर जीआई टैग की मांग की है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान में भी ये झाड़ी होती है, लेकिन भारत के अंदर इसका फैलाव ज्यादा है। हम राजस्थान की इस खासियत को बचाना चाहते हैं।”
पावड़िया का मानना है, “खेती में आधुनिकीकरण से केर का वितरण कम हुआ है। पहले खेतों के ऊपर भी मेड़ थी, लेकिन अब वह खत्म हो रही है और उसकी जगह तारबंदी ले रही है।”
थार के कई इलाकों में नहर आ जाने या ट्यूबवेल से साल में दो बार खेती होने लगी है। इससे जमीन में नमी बढ़ रही है और केर की जड़ें गलने लगी हैं। हालांकि, सिंह इसकी वजह बढ़ती आबादी और मानवीय गतिविधियों को भी बताते हैं। वह कहते हैं, “केर जहां भी होता है, गुच्छों में होता है। लेकिन, किसान को खुली जमीन चाहिए होती है। किसान खेत का कोई भी हिस्सा खाली नहीं छोड़ता है। इसलिए, खेती और केर एक साथ नहीं चल सकते।”
जोधपुर जिले के ओसियां के पास श्रीराम नगर के किसान तिलोका राम गोदारा ने अपने 80 एकड़ के खेत की मेड़ पर लगे केर के चार-पांच बड़ी झाड़ियां हटवा दीं। वह कहते हैं, “झाड़ी होने से उसके अंदर जंगली सूअर जैसे जानवरों ने अपना घर बना लिया। इससे हमेशा फसल खराब होने और हमलों का डर बना रहता था।”
दूसरी तरफ, आबादी बढ़ने और विकास परियोजनाओं की वजह से राजस्थान में ओरण पर भी दबाव बढ़ रहा है।
एक रिसर्च के मुताबिक दुनिया भर के सभी 14 प्रमुख रेगिस्तानों में से 2000-2020 के दौरान थार क्षेत्र में आबादी में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी देखी गई। यह बढ़ोतरी 50 से 800 प्रतिशत तक है। थार क्षेत्र में यह बढ़ोतरी शहरी क्षेत्रों और फसल भूमि के विस्तार से स्पष्ट है। खेती के विस्तार में पानी की उपलब्धता ने भी अहम भूमिका निभाई।
पिछले साल 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वन (संरक्षण) कानून के तहत ओरण को जंगल के रूप में संरक्षित करना “पारिस्थितिक स्थिरता और सांस्कृतिक विरासत दोनों को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।” फैसले में कहा गया कि अकेले राजस्थान में करीब 25,000 ओरण हैं जो करीब 6,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले हैं। राज्य में करीब 1,100 बड़े ओरण का रकबा 1,00,000 हेक्टेयर से ज्यादा हैं और ये ग्रामीण आबादी को आजीविका प्रदान करते हैं।

मौसम की मार
केर के पेड़ की तरह इसके फल का भी सीधा संबंध बारिश से है। बानो कहती हैं, “लू जितनी ज्यादा चलती है, इसमें उतने ही अधिक फल आते हैं।”
ओसियां मंडी में सूखा साग बेचने वाले विजय कृष्ण सोनी केर से जुड़े पारंपरिक ज्ञान को सामने रखते हैं। वह कहते हैं, “हमारे पूर्वज बोलते थे कि बारिश ज्यादा होने पर केर कम होगा। बारिश कम होने पर केर ज्यादा होगा। पिछले दो-तीन साल से राजस्थान में बारिश अच्छी हो रही है, इसलिए केर की पैदावार कम हो रही है।”
इन तमाम वजहों से भी हाल के सालों में केर के भाव में काफी उछाल देखा गया है। इस साल गीला केर 250 से 300 रुपए किलो तक बिका। सूखे केर के भाव 1,000 से 3,000 रुपए किलो तक हैं। केर जितना महीन होता है, कीमत भी उतनी ही अधिक होती है। पांच साल पहले बारीक केर 1,000 से 1,200 रुपए किलो बिकता था। इस साल बारीक केर 2,000 रुपए किलो तक बिका है।
सोनी कहते हैं, “एक किलो गीला केर सूखने के बाद 100 ग्राम हो जाएगा और भाव मिलेंगे 2,000 रुपए किलो तक। इसलिए, गीले केर में किसान को ज्यादा फायदा है। एक तो मेहनत कम लगती है औऱ दूसरा अचार बनाने वाली कंपनियां भी गीला केर खरीदकर स्टॉक करती हैं।”

नागौर सूखा साग मेथी पत्ता व्यापार मंडल के अध्यक्ष रामस्वरूप चांडक ने करीब दो दशक पहले सूखे साग का व्यापार शुरू किया था और उनका मानना है कि तब से केर की पैदावार आधी हो गई है। उनकी नजर में इसकी दो बड़ी वजहें हैं — एक, सड़कों का बढ़ता जाल जिसके लिए सड़कों के किनारे लगने वाली केर की झाड़ हटा दी जाती हैं; दूसरा, मौसम की मार।
पिछले साल के मुकाबले इस साल केर की फसल पर मौसम की मार भी पड़ी। चांडक ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “अप्रैल में आंधी-तूफान और ठंड रहने से फूल झड़ गए। इसलिए, बाजार तेज है। थोक में महीन केर 1,600 रुपए किलो तक बिक रहा है।”
नागौर में सलेऊ गांव के किसान उगमा राम भाटी भी इसकी तस्दीक करते हैं। वह कहते हैं, “केर के फूल मार्च में आते हैं। फूल के लिए सर्दी की विदाई और गर्मी के आगमन का मौसम सबसे अच्छा होता है। इस बार बारिश भी हो गई और सर्दी भी देरी से गई। इससे फूल कम आए।”
बैनर तस्वीर: कांटेदार झाड़ियों से केर तोड़ती महिलाएं। तस्वीर – पीरा राम\मोंगाबे