- सोलर पैनल असम के नदी द्वीपों के स्कूलों, जहाँ ग्रिड से बिजली पहुँचना मुश्किल है, को विश्वसनीय बिजली आपूर्ति प्रदान करते हैं।
- सोलर पैनलों की मदद से, यह स्कूल राज्य के अन्य स्कूलों की तरह ही डिजिटल या ई-क्लासेज चला सकते हैं।
- इलेक्ट्रिक रिक्शा इन द्वीपों पर छात्रों और शिक्षकों को सुविधाजनक और किफायती आवागमन प्रदान कर रहे हैं। हालाँकि, इन वाहनों की बढ़ती भीड़ और ऑपरेटरों की अनियमित संख्या चिंता का विषय बन रही है।
अगस्त के महीने की उमस भरी दोपहर को असम में बारपेटा जिले के लखीपुर माध्यमिक विद्यालय में जहीर अली बच्चों को विज्ञान पढ़ा रहे हैं। सभी बच्चों का ध्यान कक्षा में लगी प्रोजेक्टर स्क्रीन पर चल रहे पाठ पर है। बच्चे ब्लैकबोर्ड पर समझाए जाने वाले पाठ से ज्यादा इस तरीके की पढाई पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं, यह साफ़ दिखाई दे रहा है।
लखीपुर स्कूल में चल रही ये क्लास ई-क्लास और ऑडियो-विज़ुअल तरीके से पढाई के महत्त्व को दिखती है। “पिछले साल तक विज्ञान जैसे विषय को समझने में हमें दिक्कत आती थी। लेकिन इस नए तरीके से हमें बहुत जल्दी समझ में आ जाता है,” आठवीं कक्षा के छात्र राजिबुल हक ने बताया। राजिबुल बड़े होकर शिक्षक बनना चाहते हैं।
इस तरह की ई-क्लासरूम सुविधा के जरिये दूर-दराज के इलाकों में बेहतर शिक्षा पहुंचाई सकती है। हालाँकि, इन सुविधाओं के इस्तेमाल के लिए स्कूलों में बिजली की उपलब्धता सबसे जरूरी है। लेकिन, असम के अधिकतर बाढ़ से प्रभावित नदी द्वीपों पर बसे गांव के स्कूलों के लिए बिजली का हमेशा होना एक सपने के जैसा है। स्कूलों में बिजली की अनुप्लब्धता की इस समस्या से निपटने के लिए सौर ऊर्जा का सहारा लिया जा रहा है, लेकिन ई-क्लासरूम जैसी सुविधाओं को बढ़ावा देने के लिए सौर ऊर्जा पर और काम करने की आवश्यकता है।

शिक्षा मंत्रालय के यूडीआईएसई+ 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार, असम में 45,008 सरकारी स्कूल हैं, जिनमें से 3,048 में सोलर पैनल लगे हैं। असम के प्राथमिक शिक्षा विभाग के अनुसार, असम के लगभग 2,500 उच्च प्राथमिक और 4,000 माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालयों में ई-कक्षाएँ या ई-क्लासरूम, जिन्हें आईसीटी (सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी) भी कहा जाता है, की सुविधा उपलब्ध है।
इन ई-क्लासरूम के अलावा भी, अक्षय ऊर्जा से सम्बंधित योजनाएं, विशेष रूप से सौर ऊर्जा और इलेक्ट्रिक रिक्शा, शिक्षा की पहुँच को व्यापक रूप से बढ़ा रही हैं। ये योजनाएं असम की ब्रह्मपुत्र नदी घाटी में दूरदराज के नदी द्वीपों, जिन्हें स्थानीय रूप से ‘चार’ कहा जाता है, पर रहने वाले बच्चों की शिक्षा के लिए और भी ज़्यादा मायने रखती हैं। ये क्षेत्र, जहाँ अक्सर ग्रिड से आने वाली बिजली की कमी होती है, गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ), सरकारी कार्यक्रमों और सामुदायिक प्रयासों के माध्यम से कई सकारात्मक बदलाव देख रहे हैं।
सोलर पैनल से बेहतर होते स्कूल
जहीर अली कहते हैं कि उनके स्कूल में सोलर पैनल लगने के बाद से उन्होंने डिजिटल क्लासरूम की सुविधा द्वारा पढ़ाई में सुधार होने के साथ-साथ छात्रों के लिए नियमित बिजली, पंखे और पानी के फ़िल्टर जैसी बुनियादी सुविधाओं में भी सुधार होते हुए देखा है। पहले बच्चों को तपती गर्मी और उमस में पढ़ाई करनी पड़ती थी।
दरांग ज़िले के नंबर 3 धलपुर में स्थित एक प्राथमिक विद्यालय के वरिष्ठ अध्यापक नूर जमान शेख कहते हैं, “हमें लगभग तीन साल पहले सोलर पैनल मिले थे। उससे पहले, बच्चे गर्मी से परेशान रहते थे और अक्सर बीमार पड़ते थे। हमारा इलाका बहुत पिछड़ा है और यहाँ काफी गरीबी है, ऐसे में कई बच्चे बिना कुछ खाए-पिए स्कूल आते हैं। ऐसे में, उमस भरी और गर्म कक्षाओं में रहना उनकी मुश्किलें और बढ़ा देता है। अब हमारे पास जो पंखे हैं, उन्होंने पूरी तरह से नहीं तो कुछ हद तक तो मदद की है।”

हालाँकि, कुछ ही किलोमीटर दूर, मध्य धलपुर प्राथमिक विद्यालय में स्थिति अलग है। यहाँ पर लगे सोलर पैनल से तीन कमरों में लगे पंखों को बिजली मिलती है — चौथी और पाँचवीं की दो कक्षाएं और एक कार्यालय कक्ष। पहली, दूसरी और तीसरी कक्षा के छोटे बच्चों के पास पंखे नहीं हैं।
इस स्कूल की दूसरी कक्षा में पढ़ने वाले आठ साल के रज़ीबुल को गर्मी में स्कूल जाना पसंद नहीं है। रज़ीबुल की माँ अज़ीरोन निसा बताती हैं कि हालाँकि स्कूल बिल्कुल पास में ही है, फिर भी “गर्मी के दिनों में इसे स्कूल जाने के लिए मनाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन बारिश के दिनों में, यह हमेशा तैयार रहता है।”

इसी इलाके के 21-वर्षीय नजमुल हक कहते हैं, “कुछ कक्षाओं में पंखे नहीं हैं। जब बहुत गर्मी होती है तो बच्चे स्कूल नहीं जाना चाहते। कभी-कभी तो वे स्कूल जाते हैं और तापमान बढ़ने पर एक-दो घंटे बाद वापस आ जाते हैं।”
“स्कूल का समय सुबह 9:45 से दोपहर 1 बजे तक का है। ये वो समय है जा गर्मी बहुत ज़्यादा होती है। इसलिए स्कूल का समय सुबह जल्दी होना चाहिए ताकि गर्मी से कुछ राहत मिल सके,” वे आगे कहते हैं।
सोलर ऊर्जा और विश्वसनीयता
असम की एकीकृत स्वच्छ ऊर्जा नीति, 2025 में शैक्षणिक संस्थानों में ऑफ-ग्रिड सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने की बात कही गई है। इस नीति में कहा गया है, “राज्य दूरदराज के गांवों/बस्तियों/शैक्षणिक संस्थानों/स्वास्थ्य संस्थानों/सार्वजनिक क्षेत्रों आदि में घरों तक बिजली पहुँचाने के लिए एकल सौर ऊर्जा प्रणालियों की स्थापना को भी बढ़ावा देगा।”
असम के नदी द्वीपों के कुछ स्कूल, जिन्हें ग्रिड से बिजली मिलती है, उन्हें अभी भी सोलर पैनलों की ज़रूरत इसलिए महसूस होती है क्योंकि ग्रिड से मिलने वाली बिजली की आपूर्ति विश्वसनीय नहीं है। बार-बार बिजली कटौती और बाढ़ के कारण बिजली की लाइनों को नुकसान होने से बिजली आपूर्ति बाधित होती है। ऐसे में, ई-क्लास की व्यवस्था किसी काम की नहीं रह जाती। इसके अलावा, छात्रों को उमस भरी कमरों में बैठकर पढ़ने में भी दिक्कत होती है।
माफ़ीदा खातून, 58, बारपेटा जिले के खार बल्ली गाँव के खार बल्ली लोअर प्राइमरी स्कूल में प्रधानाध्यापिका हैं और पिछले 27 सालों से बच्चों को पढ़ा रही हैं। वे कहती हैं, “स्कूल को 2021 में बिजली (ग्रिड) मिली, उससे पहले स्कूल में पंखा नहीं था, इसलिए हम हाथ से चलने वाले पंखे इस्तेमाल करते थे। डिजिटल कक्षाओं की व्यवस्था इसी साल फरवरी में हुई और हमरे पास कंप्यूटर टीचर न होने के बावजूद भी हमने कुछ कक्षाएं शुरू कीं।”
“हालांकि, बेकी नदी (ब्रह्मपुत्र की एक प्रमुख सहायक नदी) में जलस्तर बढ़ने के कारण बिजली की आपूर्ति बाधित हुई, जिससे कक्षाएं नहीं चल पाईं,” वे आगे बताती हैं।

स्कूल प्रबंधन समिति के अध्यक्ष, 47-वर्षीय अजहर अली कहते हैं, “दो साल पहले जब स्कूल की पुरानी इमारत बह गई थी, तब स्कूल नई इमारत में शुरू किया गया। इसी फरवरी में आईसीटी (डिजिटल क्लास) यहाँ आई थी। तब से, बिजली आपूर्ति तीन बार बाधित हो चुकी है – एक महीने, पंद्रह दिन और एक हफ्ते के लिए। इस दौरान प्रोजेक्टर से चलने वाली डिजिटल कक्षाओं के साथ-साथ कंप्यूटर सिखाने वाली कक्षाएं भी बंद रहीं।” समिति ने हाल ही में हुए चुनावों के दौरान पंचायत से सोलर पैनल लगाने की मांग भी की थी।
जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों पर अपने अध्ययन में, विश्व संसाधन संस्थान (WRI) ने पाया कि डिजिटल शिक्षा, गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा और आजीविका बढ़ावा देने वाली पहल जैसी आवश्यक सेवाओं के लिए बिजली की आने वाले समय में माँग बढ़ेगी। बढ़ते जलवायु जोखिमों के मद्देनजर दीर्घकालिक सामुदायिक लचीलापन बनाने के लिए ये सेवाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। साल 2021 की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि असम के जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों, जैसे कि ‘चार क्षेत्रों’ में निर्बाध, विश्वसनीय बिजली आपूर्ति प्रदान करने के लिए अक्षय ऊर्जा प्रणालियों को डिज़ाइन किया जा सकता है।
डब्ल्यूआरआई के अध्ययन के अनुसार, विकेन्द्रीकृत सौर ऊर्जा समाधान, असम के ‘चार क्षेत्रों’ जैसे जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में सामुदायिक बुनियादी ढाँचे के लिए विश्वसनीय बिजली सुनिश्चित करने हेतु एक आशाजनक दृष्टिकोण के रूप में उभर रहे हैं। हालाँकि, विकेन्द्रीकृत प्रणालियाँ चरम मौसम से पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन वे आमतौर पर केंद्रीकृत बिजली के बुनियादी ढाँचे की तुलना में अधिक लचीली होती हैं।
अक्षय ऊर्जा से कम होती दूरियां
असम में इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने के प्रयास का फायदा यहां के नदी द्वीपों के स्कूलों की शिक्षा को मिला है। इलेक्ट्रिक रिक्शा के माध्यम से शिक्षकों, खासकर महिलाओं, को दूरदराज के स्कूलों तक सुरक्षित और किफायती आवागमन की एक बेहद जरूरी सुविधा मिली है।
राज्य सरकार असम में इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रसार को बढ़ावा देने और एक किफायती एवं टिकाऊ परिवहन विकल्प प्रदान करने के लिए विभिन्न सरकारी योजनाओं के माध्यम से इलेक्ट्रिक रिक्शा को बढ़ावा दे रही है। अल्पसंख्यक कल्याण एवं विकास विभाग बेरोजगार युवाओं को आजीविका प्रदान करने और सस्ते परिवहन विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए उन्हें मुफ्त इलेक्ट्रिक रिक्शा वितरित करता है। इस विभाग का चार क्षेत्र विकास निदेशालय, जो राज्य के नदी द्वीपों के विकास की देखरेख करता है, इस इलेक्ट्रिक तिपहिया वाहन के माध्यम से दो लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहता है – किफायती परिवहन और आजीविका।

निदेशालय की वेबसाइट पर लिखा है, “गरीब लोग जिन्हें रोज़ाना सफ़र करना पड़ता है, वे आसानी से ऐसे वाहनों से सफ़र कर सकते हैं। जिन गरीब लोगों के पास कोई हुनर नहीं है, वे कम से कम ई-रिक्शा चलाकर अपनी आजीविका तो कमा सकते हैं। इससे पर्यावरण प्रदूषण में भारी कमी आएगी, भारी रखरखाव नहीं होगा और सवारी आसान, प्रदूषण मुक्त और पर्यावरण के अनुकूल होगी।”
बारपेटा जिले में इलेक्ट्रिक रिक्शा की भूमिका पर किए गए एक अध्ययन में ग्रामीण क्षेत्रों में परिवहन के एक साधन और समाज के निचले तबके के लिए रोज़गार के एक नए साधन के रूप में इसकी भूमिका का उल्लेख किया गया है। अध्ययन में कहा गया है, “असम के बारपेटा जिले के ग्रामीण इलाकों में इलेक्ट्रिक रिक्शा स्थानीय छोटी दूरी के परिवहन के साथ-साथ आजीविका के साधन के रूप में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। कभी-कभी, कुछ चालकों को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा है, लेकिन ये छोटी दूरी के लिए परिवहन का एक बहुत लोकप्रिय साधन बन गए हैं।”
इलेक्ट्रिक रिक्शा के आने से कई शिक्षकों, खासकर महिला शिक्षकों को समय पर अपने स्कूल पहुंचने में मदद मिली है। पहले शिक्षकों को नदी के किनारे दो से चार किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था, जहां से वे आमतौर पर नाव से चर (द्वीप) तक जाते थे।
शिक्षिका माफ़िदा खातून के स्कूल में अभी तक सौर पैनल नहीं लगे हैं, लेकिन इलेक्ट्रिक रिक्शा के रूप में उन्हें अक्षय ऊर्जा का लाभ मिल रहा है। वह कहती हैं, “मेरा घर फेरी पॉइंट से लगभग दो किलोमीटर दूर है। मैं आमतौर पर टो-टो (ई-रिक्शा के लिए स्थानीय शब्द) लेती हूं और कभी-कभी पैदल जाती हूं। पहले मुझे ज़्यादातर समय पैदल जाना पड़ता था या जब यह संभव नहीं होता था तो मुझे पड़ोस में किसी से छोड़ने के लिए कहना पड़ता था। टो-टो आने के बाद स्थिति बेहतर हो गई है।”
“ई-रिक्शा के आने से शिक्षकों, खासकर महिला शिक्षकों, की आवाजाही में मदद मिलती है क्योंकि वे असम के चर क्षेत्रों में अंतिम छोर तक परिवहन सेवाएँ प्रदान कर सकते हैं। अब वे उन जगहों तक पहुँच सकते हैं जहाँ आमतौर पर बसों जैसे बड़े वहां नहीं पहुँच पाते,” बारपेटा में किये गए अध्ययन के लेखक और गुवाहाटी स्थित रॉयल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर देलुवर हक ने बताया।
“ग्रामीण इलाकों में किराए की टैक्सी सुविधाओं की कमी है, और अगर वे उपलब्ध भी हैं, तो बहुत महंगी हैं। ई-रिक्शा के आने से आवागमन सस्ता हो गया है, साथ ही इन शिक्षकों के लिए इंतज़ार का समय भी कम हो गया है क्योंकि वाहनों की संख्या अधिक होने के कारण उनकी आवृत्ति बढ़ गई है,” उन्होंने बताया।

वाहनों की बढ़ती भीड़
इन तमाम सुविधाओं के आलावा इलेक्ट्रिक रिक्शा की तेज़ी से बढ़ती संख्या अपनी चुनौतियाँ लेकर आ रही है। कम निवेश के कारण इन वाहनों की संख्या बढ़ रही है, इसलिए शहरी और ग्रामीण इलाकों की सड़कें अक्सर इनसे भरी रहती हैं। इसके अलावा, अनियमित पार्किंग, अवैज्ञानिक डिज़ाइन और बढ़ती प्रतिस्पर्धा भी कुछ अन्य समस्याएँ हैं जिनका सामना लोगों को करना पड़ रहा है।
असम के रहने वाले अनवर हुसैन ने अपनी इंजीनियरिंग करने के बाद टैक्सी का बिज़नेस शुरु किया इस कारण से से वे राज्य के विभिन्न इलाकों और वहां की सड़कों को बखूबी जानते हैं। “ये टो-टो हर जगह हैं। आप इन्हें मुख्य सड़कों और यहाँ तक कि हाइवे पर भी पा सकते हैं। चूँकि ये धीमी गति से चलते हैं और संख्या में काफ़ी होते हैं, इसलिए सड़कों पर गाड़ी चलाना मुश्किल हो जाता है। ये स्थानीय लोगों के लिए बहुत मददगार होते हैं, लेकिन कुछ इलाकों में, खासकर मुख्य सड़कों और हाइवे पर, इन्हें अनुमति नहीं दी जानी चाहिए,” अनवर कहते हैं।

“ई-रिक्शा की संख्या बढ़ रही है और एक जगह पर ई-रिक्शा की संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं होना एक चिंता का विषय है। ग्रामीण इलाकों में अकुशल या अनपढ़ मजदूरों के लिए यह आजीविका का साधन भी बन गया है। लेकिन जैसे-जैसे यह चलन बढ़ रहा है, इससे सड़कों पर जाम की समस्या बढ़ रही है, खासकर संकरी ग्रामीण सड़कों पर। पार्किंग की समस्या भी है क्योंकि इन वाहनों के लिए कोई निर्धारित स्टैंड नहीं हैं,” देलुवर हक कहते हैं।
उन्होंने यह भी बताया कि ऑपरेटरों के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण चालक असुरक्षित ड्राइविंग पद्धति अपना रहे हैं, जिससे यात्रियों के साथ-साथ सड़क पर चलने वाले दुसरे वाहनों के लिए भी जोखिम बढ़ रहा है।
यह स्टोरी इंटरन्यूज़ के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के सहयोग से रिपोर्ट की गई है।
बैनर तस्वीर: बारपेटा में बेकी नदी के किनारे नाव का इंतज़ार करते ग्रामीण। तस्वीर – शैलेष श्रीवास्तव/मोंगाबे।