- आईआईटी दिल्ली के एक नए अध्ययन में पाया गया है कि चीर के गिरे हुए पत्ते (पिरूल) से बना बायोचार 4.7 मिलियन टन कोयला बचा सकता है और हर साल 6.4 टेरावाट घंटे बिजली पैदा कर सकता है।
- इस बायोचार को बिजली संयंत्रों में कोयले के साथ जलाया जा सकता है, जिससे कार्बन उत्सर्जन में 5.8 मिलियन टन की कमी आएगी। साथ ही, हिमालयी क्षेत्र में जंगल में आग का खतरा भी कम होगा।
- इससे पर्यावरण के साथ-साथ आर्थिक फायदे तो मिलेंगे, लेकिन जानकारों का कहना है कि संग्रहण व्यवस्था और उसका विस्तार अभी भी बड़ी चुनौतियां बनी हुई हैं।
भारतीय हिमालयी क्षेत्र में हर साल अनुमानित 7.47 मिलियन टन पिरूल गिरते हैं। इससे जंगल में आग का खतरा बढ़ता है और इसे जलवायु परिवर्तन ज्यादा खतरनाक बना रहा है। एक नए अध्ययन से पता चलता है कि ये पिरूल ईंधन के रूप में काम कर सकते हैं और 4.7 मिलियन टन कोयले की जगह ले सकते हैं तथा इस क्षेत्र को बिजली उपलब्ध करा सकते हैं। अध्ययन के अनुसार, पिरूल से बने बायोचार को हिमालयी राज्यों के बिजली संयंत्रों में कोयले के साथ मिलाकर जलाया जा सकता है। इससे 6.4 टेरावाट-घंटे बिजली पैदा होगी और कार्बन उत्सर्जन में सालाना 5.8 मिलियन टन की कमी आएगी। साथ ही, जंगल की आग से भी बचाव होगा।
ये नतीजे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए रिसर्च पर आधारित हैं जो मार्च 2025 में बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी रिपोर्ट्स पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। यह अध्ययन पूरे क्षेत्र की गंभीर चिंता को दूर करता है। अकेले उत्तराखंड में नवंबर 2023 से जून 2024 तक जंगल में आग की 11,000 से ज्यादा घटनाएं दर्ज की गईं।
वैज्ञानिकों ने पाया कि 600°C पर 10°C प्रति मिनट की ताप दर से तैयार पिरूल बायोचार अपनी उच्च कार्बन सामग्री के कारण, कोयले के विकल्प के रूप में अच्छी क्षमता दिखाता है। इस अध्ययन के नतीजों का इस्तेमाल रोजगार के नए साधन पैदा करने और बार-बार लगने वाली जंगल की आग की समस्या से छुटकारा पाने के लिए किया जा सकता है। साथ ही, बिजली संयंत्रों में कोयले की जरूरत भी काफी कम की जा सकती है, जो भारत के 2070 तक नेट जीरो लक्ष्यों के मुताबिक है।
आईआईटी दिल्ली के ग्रामीण विकास एवं प्रौद्योगिकी केंद्र की प्रोफेसर प्रियंका कौशल ने कहा, “इस शोध का नया पहलू बायोचार उत्पादन को बिजली संयंत्रों से जोड़ना और इसके कार्बन लाभ का आकलन करना है।” उन्होंने पिरूल बायोचार के इस्तेमाल के दोहरे फायदे भी बताए। “एक तो यह कि गंदे कोयले की जगह बिजली संयंत्र वाली जगह पर ही बनाया गया हरित ईंधन इस्तेमाल किया जा सकता है। दूसरा, अगर इसे इस बिजली संयंत्र में नहीं ले जाया जाता, तो शायद यह सड़ जाता या जंगल में आग लग जाती।” उन्होंने मोंगाबे इंडिया को बताया।
यह शोध जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर भारत के लिए काम की चीज हो सकता है, जहां गिरे हुए पिरूल से जंगल में बार-बार आग लगती है। जलवायु परिवर्तन के कारण आग लगने की घटनाएं बढ़ रही हैं, जिससे जंगल और वन्यजीव खत्म हो रहे हैं और वायु प्रदूषण बढ़ रहा है।
यह शोध जैव ईंधन के रूप में चीड़ की लकड़ी और पिरूल की खोज की दिशा में दुनिया भर में हो रही व्यापक पहल के मुताबिक है। साल 2013 से स्पेन, ट्यूनीशिया, पोलैंड और दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिक चीड़ के बायोचार का अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि, इस क्षेत्र में अनुसंधान अभी भी जारी है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में पिरूल से ऊर्जा उत्पादन में निवेश की घोषणा के बाद, भारत इस दिशा में अग्रणी प्रतीत होता है।

ऐसे बनता है बायोचार
शोधकर्ताओं ने सबसे पहले उत्तराखंड से पिरूल के छोटे नमूनों का अध्ययन किया, ताकि उनके तापीय व्यवहार को समझा जा सके और फिर उन नतीजों का इस्तेमाल बायोचार उत्पादन के लिए किया। टीम ने थर्मोग्राविमेट्रिक विश्लेषण (ताप को समझने की प्रक्रिया) और काइनेटिक मॉडलिंग सहित प्रयोगशाला तकनीकों का उपयोग करके यह अनुमान लगाया कि पिरूल से बना बायोचार बड़े पैमाने पर किस तरह प्रदर्शन करेगा। इन तकनीकों ने उन्हें दिखाया कि कौन-सा तापमान और तापीय दर सबसे अच्छी तरह काम करेगी। फिर उन्होंने इन जानकारियों को पायरोलिसिस नामक अगले चरण में लागू किया, जिसमें बायोचार बनाने के लिए पिरूल को बिना ऑक्सीजन के गर्म किया जाता है।
एक ऐसे गैस स्टोव की कल्पना करें जहां खाना पकाते समय तापमान नियंत्रित करने के लिए नॉब को एडजस्ट किया जा सके। शोधकर्ताओं ने पीसे हुए पिरूल को खास तापमान और तापीय दर पर “पकाने” के लिए विशेष ताप कक्ष या पायरोलिसिस रिएक्टर का इस्तेमाल किया। लेकिन उन्होंने कक्ष से सारी ऑक्सीजन निकाल दी और उसमें नाइट्रोजन भर दी, जिससे ऑक्सीजन-मुक्त वातावरण बना जो पिरूल को राख बनने से रोकता है और उन्हें बायोचार नामक उपयोगी ठोस पदार्थ में बदलने की सुविधा देता है। अब इसका इस्तेमाल बिजली संयंत्रों में कोयले के साथ ईंधन के रूप में किया जा सकता है।
टीम ने बायोचार बनाने वाली इकाइयों के लिए कार्बन उत्सर्जन लाभ और उत्पादन लागत के साथ-साथ भुगतान अवधि की गणना की। उन्होंने पाया कि लगभग चार साल तक चीड़ बायोचार इकाई चलाने के बाद, कोई भी व्यक्ति अपनी सेटअप की लागत निकाल सकता है और लाभ कमाना शुरू कर सकता है।

आगे बढ़ाने में चुनौती
कौशल ने बताया कि अध्ययन में पिरूल इकट्ठा करने के लिए जरूरी व्यवस्था, उत्पादन बढ़ाने, चीड़ के तेल (जो इस प्रक्रिया का एक उप-उत्पाद है) के प्रबंधन की समस्या और मजबूत आपूर्ति श्रृंखला बनाने सम्बंधी मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं की गई है। उन्होंने कहा, “अगर मैं एक प्लांट लगाती हूं, तो क्या मुझे साल भर पिरूल मिलते रहेंगे? अगर ये मुझे खास मौसम में मिलते हैं, तो मैं इन्हें कहां रखूंगी?” उन्होंने बताया कि अध्ययन की भुगतान अवधि की गणना मुख्य रूप से परिचालन लागतों पर केंद्रित थी, लेकिन आठ से नौ महीनों के लिए पिरूल इकट्ठा करने और संग्रहीत करने के खर्चों का पूरी तरह से हिसाब नहीं लगाया गया था, जिससे इस पर असर पड़ सकता है कि उद्यमी ऐसे उपक्रमों में निवेश करने के लिए तैयार होंगे या नहीं।
भुवनेश्वर में सीएसआईआर के खनिज एवं पदार्थ प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक मनीष कुमार ने एक ईमेल साक्षात्कार में कहा कि अध्ययन की ताकत “पायलट पैमाने पर आजमाने और मानक विश्लेषणात्मक पद्धति” है, लेकिन उन्होंने आगाह किया कि “बिजली संयंत्रों में तकनीकी-व्यावसायिक प्रतिकृति हमेशा किसी भी अन्य प्रयोगशाला-आधारित अध्ययन की तरह एक चुनौती होती है।”
पिरूल से बिजली उत्पादन की पिछली कोशिशें सफल नहीं रही हैं। 2021 में, उत्तराखंड ने पिरूल से बिजली उत्पादन की एक योजना शुरू की, लेकिन छह पायलट इकाइयों से सिर्फ 1 मेगावाट बिजली ही मिल पाई, जो 60 इकाइयों से 150 मेगावाट क्षमता प्राप्त करने की योजना से काफी कम है। अधिकारियों ने महंगी बिजली संग्रहण क्षमता, परिवहन की कमी और सही तकनीक की कमी को प्रमुख बाधाएं बताया।
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कुमार ने चीड़ के बायोचार पर आधारित छोटे बिजली संयंत्र स्थापित करने या ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले के साथ बायोचार का सह-मिश्रण करके आजमाने की सुझाव दिया। उन्होंने कहा, “बायोमास आधारित नवीन ऊर्जा समय की मांग है और पायरोलिसिस इसमें मददगार हो सकता है।” कौशल के अनुसार, भविष्य के शोध में चीड़ के तेल को किस तरह संभाला जाए, आपूर्ति श्रृंखला कैसे स्थापित की जाए और बायोचार उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए नीति कैसे बनाई जाए, इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 3 सितंबर, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: धर्मशाला में चीड़ के पेड़। एक नए अध्ययन में पाया गया है कि कार्बन की अधिकता वाले पिरूल से ईंधन बनाया जा सकता है और इससे 47 लाख टन कोयला बचाया जा सकता है। यह शोध जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर भारत के लिए प्रासंगिक हो सकता है। तस्वीर: विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 3.0) के जरिए Vssun की तस्वीर।