- बादल फटना मौसम की चरम घटना है जिसे भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) एक छोटे से क्षेत्र में एक घंटे के भीतर अचानक होने वाली 100 मिमी या उससे ज्यादा की बारिश के रूप में परिभाषित करता है।
- बादल फटने की घटनाओं की निगरानी या पूर्वानुमान के लिए उन क्षेत्रों में रडार का सघन नेटवर्क होना चाहिए, जहां वे होती हैं। साथ ही, इनकी सूक्ष्म गतिशीलता को समझने के लिए बहुत ज्यादा रिजॉल्यूशन वाले मौसम पूर्वानुमान मॉडल जरूरी है।
- नए अर्थ ऑब्जर्वेशन सैटेलाइट जोखिम का बेहतर मानचित्रण और पूर्व चेतावनी देने में बेहतर हैं, फिर भी ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों में अनियंत्रित विकास की पहचान करना जरूरी है।
जलवायु परिवर्तन और बहुत ज्यादा बारिश की घटनाओं के बीच बादल फटना (बहुत छोटे इलाके में अचानक, तेज बारिश) भारत के नाजुक पर्वतीय क्षेत्रों में बार-बार आने वाला खतरा बनता जा रहा है। बादल फटने की घटनाएं विनाशकारी बाढ़ और जमीन घंसने की वजह बन सकती हैं। अन्य जोखिमों के साथ बहुत ज्यादा बारिश की घटनाएं और भी भयावह हो सकती हैं। उदाहरण के तौर पर ग्लेशियल लेक आोउटबर्स्ट फ्लड (GLOFs) को लिया जा सकता है जो तब होता है जब सामान्य से ज्यादा तापमान के चलते बर्फ पिघलती है और भारी बारिश के कारण हिमनद झीलें टूट जाती हैं, जिससे नीचे की तरफ विनाशकारी बाढ़ आ जाती है।
उत्तराखंड के धराली गांव में आई हालिया आपदा ऐसे बढ़ते हुए खतरों के बारे में बताती है, जो प्राकृतिक कारणों और मानव निर्मित कमजोरियों दोनों को उजागर करती है। अस्थिर ढलानों पर सड़कों, सुरंगों, बांधों, खदानों और ब्लास्टिंग अक्सर नुकसान को और भी बढ़ा देते हैं।
जहां नासा-इसरो का निसार (NISAR) मिशन और नया अर्थ ऑब्जर्वेशन सैटेलाइट जोखिम के बेहतर मानचित्रण और पहले से चेतावनी देने में मदद करते हैं, वहीं जानकारों का कहना है कि असली लचीलापन पर्यावरण सम्बंधी सुरक्षा उपायों को लागू करने, स्थानीय तैयारियों को मजबूत करने और इस बात को स्वीकार करने पर निर्भर करेगा कि ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों में अनियंत्रित विकास अब कोई विकल्प नहीं है।
बादल फटना क्या है?
बादल फटना अचानक होने वाली मूसलाधार बारिश है। यह चरम मौसमी घटना है जो छोटे से क्षेत्र (20-30 वर्ग किमी.) तक सीमित रहती है। आईएमडी के मुताबिक एक स्टेशन पर एक घंटे में 100 मिमी या उससे अधिक बारिश होना बादल फटने की श्रेणी में आता है।
हालांकि, बादल फटने की घटनाएं हिमालय या पश्चिमी घाट जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में सबसे सामान्य हैं, लेकिन ये कहीं भी हो सकती हैं। ऐसी घटनाओं के लिए बस भारी मात्रा में नमी जमा होना और उनका एक साथ नीचे आना जरूरी है। हिमालय में बादल फटने की एक भारतीय समीक्षा से पता चलता है कि बादल फटने की ज्यादातर घटनाएं 1,000-2,500 मीटर की ऊंचाई पर हिमालय की दक्षिणी ढलानों की घाटियों में होती हैं।

तिरुवनंतपुरम स्थित केरल विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर विजयकुमार पी. ने बताया, “बादल फटने की ये घटनाएं ज़्यादातर सक्रिय मानसून के दौरान तिब्बत-लद्दाख क्षेत्र के ऊपर मध्य क्षोभमंडल (जिसका मतलब है निचले क्षोभमंडल में एक शीत-केंद्र) में पश्चिम की ओर बढ़ने वाले चक्रीय परिसंचरण से जुड़ी होती हैं।” क्षोभमंडल (पृथ्वी की सतह से लेकर भूमध्य रेखा पर 18-20 किलोमीटर की ऊंचाई तक) वायुमंडल की निचली परत है, जहां लगभग सभी मौसमी घटनाएं होती हैं। यह ध्रुवों पर सिर्फ छह किलोमीटर तक फैला होता है।
विजयकुमार ने मोंगाबे इंडिया को बताया, “बादल फटने की ज्यादातर घटनाओं के लिए पर्वतीय बल और प्रबल संवहन (कन्वेक्शन) जिम्मेदार हैं। इस वजह से 15 किलोमीटर तक ऊंचे गहरे क्यूम्यलोनिम्बस (बहुत घने) बादल बनते हैं।” पर्वतीय प्रभाव सघन वायु को पहाड़ों के ऊपर से बहने, ठंडा होने और जलवाष्प के संघनित होने में मदद करता है। वायुमंडल में ऊष्मा और नमी के ऊर्ध्वाधर परिवहन को संवहन कहा जाता है। इसलिए, आमतौर पर पहाड़ों के हवा की तरफ वाले हिस्से में अपेक्षाकृत ज्यादा बारिश होती है और तूफान के रास्ते की दिशा में ऊंचाई के साथ बारिश बढ़ती जाती है। क्यूम्यलोनिम्बस एक प्रकार का भारी घना बादल है जो बारिश होने और बिजली गिरने से जुड़ा होता है।
हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि ऐसी छिटपुट मूसलाधार बारिश की घटनाएं सिर्फ बादल फटने से नहीं हो सकती। अक्सर एक या दो दिन तक लगातार रुक-रुक कर होने वाली तेज बारिश ही बादल फटने का कारण बनती है।
बादल फटने के प्रकार और उनका असर
विजयकुमार ने बताया कि बादल फटने की (मुख्यतः) दो श्रेणियां होती हैं। हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं में होने वाली मूसलाधार बारिश की घटना से अचानक बाढ़, भूस्खलन और जान-माल का नुकसान हो सकता है। ऐसी घटना को बादल फटने (सीबीए) की श्रेणी ‘क’ में रखा जाता है, फिर बारिश चाहे कितनी भी हो। अगस्त 2025 के पहले हफ्ते में उत्तरकाशी में ऐसी ही एक घटना हुई थी। बादल फटने (सीबीबी) की श्रेणी ‘ख’ में वे घटनाएं शामिल हैं जहां एक छोटे भौगोलिक क्षेत्र में प्रति घंटे 100 मिमी या उससे ज्यादा बारिश होती है। इसके अलावा, बादल फटने की तीसरी श्रेणी को लघु बादल फटना (एमसीबी) कहा जाता है, जो दो घंटे में 50 मिमी या उससे ज्यादा बारिश वाली घटनाओं के बारे में बताता है। ऐसी घटनाएं भी अन्य दो प्रकार के बादल फटने की तरह अचानक बाढ़ और तबाही ला सकती हैं। एमसीबी की घटनाएं पश्चिमी घाट क्षेत्र में अधिकतर जुलाई में देखी गई हैं।”
इन घटनाओं से पहाड़ी क्षेत्रों में अचानक बाढ़ आ सकती है, भूस्खलन और निचले इलाकों में बड़े पैमाने पर विनाश हो सकता है। यह सब कुछ अक्सर बिना किसी चेतावनी के होता है। हिमालय में बादल फटने की घटनाएं अचानक बाढ़ और भारी बारिश के बीच अचानक मलबा बहने से जुड़ी होती हैं।

बादल फटने का पूर्वानुमान
आईएमडी अपने सरफेस ऑब्जर्वेशन नेटवर्क और डॉप्लर मौसम रडार (डीडब्ल्यूआर) नेटवर्क की मदद से उन गरज वाले तूफानों (बिजली के साथ बारिश वाले बादल) की निगरानी करता है जो बादल फटने का कारण बनते हैं। ये नेटवर्क हर दस मिनट में बादलों की तस्वीरें और हवा की गति के आंकड़े और अपने क्षेत्र में हवा की गति साझा करते हैं, जिससे गरज वाले तूफानों की गतिविधियों का पूर्वानुमान (कुछ घंटों पहले दी गई सूचना) लगाने में मदद मिलती है। आईएमडी गरज वाले तूफानों का पूर्वानुमान लगाने और लोगों को जानकारी देने के लिए संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान (एनडब्ल्यूपी) मॉडल का भी उपयोग करता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार जगह और समय के हिसाब से बहुत छोटे पैमाने के कारण इनका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है। विजयकुमार ने कहा, “ऐसी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना कठिन है। ये संख्यात्मक मॉडलों में पूरी तरह से प्रतिबिंबित नहीं होती।” गरज वाले तूफान तेजी से बन सकते हैं और भारत जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इनसे जुड़ी वायुमंडलीय प्रक्रियाएं बहुत जटिल हैं। बादल फटने की घटनाएं ज्यादातर उन निगरानी केंद्रों से बाहर होती हैं जो दूर-दराज़ की पहाड़ियों पर स्थित होते हैं और जहां पहुंचना मुश्किल होता है। इसलिए अक्सर ऐसी घटनाओं का पता नहीं चल पाता है और ना ही ये रिपोर्ट हो पाती हैं।
बादल फटने की घटनाओं की निगरानी या पूर्वानुमान के लिए उन क्षेत्रों में सघन रडार नेटवर्क चाहिए, जहां वे होती हैं और उनके छोटे पैमाने को समझने के लिए हाई रिजोल्यूशन वाले मौसम पूर्वानुमान मॉडल की जरूरत होती है।
उदाहरण के लिए, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा धाराली में आई बाढ़ के लिए प्राप्त उपग्रह आंकड़ों से अचानक बाढ़ आने के संकेत मिले हैं, जिसमें चौड़ी जलधाराएं, नदी का आकृति विज्ञान (नदी की जलधारा और उसके आसपास के बाढ़ के मैदान का आकार और स्वरूप) और मानव जीवन और बुनियादी ढांचे को व्यापक नुकसान हुआ था। तस्वीरें खीरगाड और भागीरथी नदियों के संगम पर लगभग 20 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले धाराली गांव में गाद और मलबे का पंखानुमा जमाव दिखाती हैं। इस घटना के कारण बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में कई इमारतें नष्ट और गायब हो गईं। धाराली गांव में कीचड़ और मलबे के तेज बहाव में कई इमारतें डूब गईं या बह गईं।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के संस्थापक सदस्य और शिक्षाविद विनोद सी मेनन ने कहा, “धराली में अचानक आई बाढ़, भूस्खलन और मलबे के प्रवाह ने हिमालय के पहाड़ी इलाकों की नाजुकता को उजागर कर दिया है। ऐसा ही जून 2013 में केदारनाथ में और 2023 व 2024 में हिमाचल प्रदेश में अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन के दौरान देखा गया था।”

जून 2013 में उत्तराखंड में बादल फटने से पांच जिले प्रभावित हुए: रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ और टिहरी। इस आपदा में कथित तौर पर 6,000 से ज्यादा लोगों की जान चली गई। बारह साल बाद, धराली में आई अचानक बाढ़ में कई लोग भूस्खलन के कारण फंस गए। दोनों ही घटनाएं ढलानों पर अव्यवस्थित विकास के प्रभावों पर सवाल उठाती हैं।
जब विकास परियोजनाओं (सड़क, बांध, सुरंग और राजमार्ग) के लिए चट्टानों को उड़ाने के मकसद से विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जाता है, तो यह अस्थिरता का कारण बनता है। यह काम जोखिम पर विचार किए बिना किया जाता है। मेनन ने कहा, “इन परियोजनाओं को शुरू करते समय अक्सर पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन नहीं किया जाता है। विकास परियोजनाओं को नाजुक हिमालय में इतना जोखिम नहीं बढ़ाना चाहिए कि मौसम की चरम घटनाओं और आपदाओं के चलते लोगों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाए।”
उभरती प्रौद्योगिकियों से मिलेगी मदद?
मेनन ने बताया कि नदियों और बांधों में जल स्तर की निगरानी के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी समाधानों का इस्तेमाल ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों में कई तरह के खतरों के आकलन के लिए किया जाना चाहिए। इनमें इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) सेंसर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग टूल्स, ड्रोन, बिग डेटा एनालिटिक्स और जियो-इन्फॉर्मेटिक्स सोल्यूशन शामिल हैं। उन्होंने समझाया, “भारत में कई वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थान, शैक्षणिक और शोध संस्थान और पेशेवर निकाय हैं, जिनमें आपदा प्रबंधन में दशकों का अनुभव रखने वाले कई विशेषज्ञ हैं। साथ ही, सही कौशल और टूलकिट भी मौजूद है।”
नासा-इसरो सिंथेटिक अपर्चर रडार (NISAR) उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों में कई तरह के जोखिम के आकलन के लिए रिमोट सेंसिंग का इस्तेमाल किया जा सकेगा, ताकि जोखिम से जुड़ी चेतावनी और पूर्व चेतावनी संदेश देने में मदद मिल सके। मेनन ने आगे कहा, “एनडीएमए, एसडीएमए और डीडीएमए (राज्य और जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण) के अधिकारी ज्यादा जोखिम वाले क्षेत्रों में आखिरी छोर पर मौजूद समुदायों और हितधारक समूहों को जीवन और आजीविका बचाने में उनकी मदद कर सकते हैं।”
जानकारों का कहना है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी समाधान, नागरिक विज्ञान तथा कई विषयों और आपदा प्रबंधन के पेशेवरों की प्रतिक्रिया भी बेहतर फैसले लेने में मदद कर सकती है।
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सिंथेटिक अपर्चर रडार (PSinSAR) के साथ पर्सिस्टेंट स्कैटर इंटरफेरोमेट्री और सिंथेटिक अपर्चर रडार (DinSAR) के साथ डिफरेंशियल इंटरफेरोमेट्री भी आपदाओं से पहले, उसके दौरान और उसके बाद में बिल्ट स्टॉक और अहम बुनियादी ढांचे में होने वाली विकृतियों की निगरानी में मदद कर सकती है। PSinSAR समय के साथ पृथ्वी की सतह के विस्थापन को मापने और उसकी निगरानी करने की शक्तिशाली रिमोट सेंसिंग तकनीक है। DinSAR वैज्ञानिकों को जमीन की हलचलों का कुछ सेंटीमीटर तक भी सटीकता के साथ पता लगाने में मदद करता है। यह प्रक्रिया एक ही क्षेत्र की अलग-अलग समय पर रडार से ली गई तस्वीरों की तुलना करके काम करती है। साथ मिलकर, ये तकनीकें संवेदनशील क्षेत्रों का मानचित्रण करके बादल फटने के जोखिम को कम करने में मदद करती हैं और विशेषज्ञ शुरुआती हस्तक्षेप के लिए इन पर भरोसा करते हैं।
हालांकि मेनन का कहना है कि “नियामक तकनीकी-कानूनी तंत्र के किसी भी उल्लंघन को बर्दाश्त नहीं” किया जाना चाहिए और राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर आपदा लचीलापन और जलवायु लचीलापन के लिए अधिकृत संस्थानों को शहरी, अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भवन संहिताओं का सख्ती से पालन और अनुपालन पक्का करना चाहिए, ताकि बादल फटने के जोखिम को कम करने में मदद मिल सके।
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 27 अगस्त, 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: जानकारों का कहना है कि बादल फटने की ज्यादातर घटनाएं क्यूम्यलोनिम्बस बादलों की वजह से होती है। गर्मी और नमी की गति के साथ पहाड़ों के ऊपर से बहने वाली हवा पहाड़ों के हवा की ओर वाले हिस्से में ज्यादा बारिश का कारण बनती हैं, जिससे ऐसे बादल बनते हैं। विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 3.0) के जरिए फ़्लोरियन राडू द्वारा ली गई तस्वीर।