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सौर पार्कों में खरपतवार नाशक दवाओं का बढ़ता इस्तेमाल, लंबे समय में सेहत पर डाल सकता है असर

सुल्कोहाना कॉटन मिल्स के चार मेगावाट के सौर पार्क में सौर पैनलों के नीचे घास चरती बकरियां। ऐसा करने से दोहरे लाभ मिलते हैं, एक तो शाकनाशियों की जरूरत कम हो जाती है, दूसरे घास काटने के लिए इस्तेमाल होने वाली मशीनों में लगने वाली ऊर्जा की बचत होती है। तस्वीर: सुलोचना कॉटन मिल्स।

सुल्कोहाना कॉटन मिल्स के चार मेगावाट के सौर पार्क में सौर पैनलों के नीचे घास चरती बकरियां। ऐसा करने से दोहरे लाभ मिलते हैं, एक तो शाकनाशियों की जरूरत कम हो जाती है, दूसरे घास काटने के लिए इस्तेमाल होने वाली मशीनों में लगने वाली ऊर्जा की बचत होती है। तस्वीर: सुलोचना कॉटन मिल्स।

  • तमिलनाडु के कई सौर पार्क वनस्पति नियंत्रण के लिए ग्लाइफोसेट-आधारित शाकनाशी का इस्तेमाल कर रहे है। इससे लंबे समय में सेहत पर पड़ने वाले असर के साथ-साथ भूजल प्रदूषण और वायु प्रदूषण को लेकर भी चिंताएं बढ़ी हैं।
  • वनस्पति को पूरी तरह से साफ करने से हीट आइलैंड प्रभाव बढ़ जाता है। इसके बजाय सोलर ग्रेजिंग, खरपतवार काटने वाली मशीनें और एग्रीवोल्टेइक जैसे टिकाऊ तरीके बेहतर विकल्प हैं।
  • विशेषज्ञ सौर पार्कों में शाकनाशी के इस्तेमाल से होने वाले पर्यावरणीय और स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिए कड़े नियमों की जरूरत पर जोर दे रहे हैं।

जब पिछले साल तमिलनाडु के तिरुप्पुर जिले में 40 एकड़ का एक सौर पार्क बनाया गया, तो इस पार्क की सीमा से लगी एक कॉलोनी के निवासियों को इस बात का अंदाजा तक नहीं था कि उन्हें किन दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। फिलहाल, वे पार्क से आने वाली शाकनाशी की तेज गंध और संभावित स्वास्थ्य जोखिमों को लेकर खासे परेशान हैं।

नल्लमपुरम कॉलोनी की रहने वाली 45 वर्षीय वानथी (उनकी पहचान छिपाने के लिए उनका नाम बदल दिया गया है) ने चिंता जताते हुए कहा, “छिड़काव के दिनों में इन दवाओं की तेज गंध आना आम है। और यह हर महीने की कहानी है। पिछले महीने भी कुछ ऐसा ही हुआ था, काफी दिनों तक इसकी बदबू चारो और फैली रही थी। गांव का ही एक व्यक्ति अक्सर पार्क में शाकनाशियों का छिड़काव करता हुआ आपको नजर आ जाएगा।” उन्होंने आगे बताया, “हमें डर है कि कहीं ये रसायन हमारे पानी में न मिल जाए। हो सकता है कि अभी इसका असर न दिखाई न दें, लेकिन आगे चलकर ये हमारी सेहत और पर्यावरण को बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं।”

वानथी के मुताबिक, शायद घर के अंदर इनका खतरा थोड़ा कम हो, लेकिन बाहर खेलने वाले बच्चे सीधे इन रसायनों के संपर्क में आ सकते हैं। कंगायम शहर के पास कुट्टापलायम गांव में बने सोलर पार्क को कॉलोनी से सिर्फ एक स्टील के तार की बाड़ से अलग किया गया है।

कार्तिकेय शिवसेनापति के सेनापति कंगायम कैटल रिसर्च फाउंडेशन की जमीन सौर पार्क से सटी हुई है। वह कहते हैं, “जब खेती की जमीन या चरागाह को सोलर पार्क में बदला जाता है, तो पैनलों के नीचे की जमीन पर बिना किसी रोक-टोक के ग्लाइफोसेट जैसे जहरीले रसायन छिड़के जाते हैं।” शिवसेनापति सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) पार्टी के पर्यावरण विंग के सचिव भी हैं। उनके मुताबिक, डीएमके की पर्यावरण विंग ने सितंबर 2024 में राज्य और केंद्र सरकार को एक पत्र लिखकर सौर फार्मों में ग्लाइफोसेट के इस्तेमाल के खतरों को लेकर चेतावनी दी थी और तत्काल हस्तक्षेप और सुरक्षित विकल्पों का अपनाने की अपील भी की थी।

सौर ऊर्जा कंपनी स्वेलेक्ट एनर्जी सिस्टम लिमिटेड के संस्थापक और प्रबंध निदेशक आर. चेलप्पन ने कहा, “गैर-संगठित क्षेत्र अक्सर सौर पार्क के 25 साल के जीवनकाल को देखते हुए रखरखाव का खर्च कम करने के लिए खरपतवारनाशक दवाओं पर निर्भर हो जाते हैं।”

उन्होंने बताया कि स्वेलेक्ट एनर्जी सिस्टम लिमिटेड सोलर पार्कों में पौधों को हटाने के लिए किसी भी प्रकार के रसायन या जहरीली दवाओं के इस्तेमाल का सख्त विरोध करता है, क्योंकि यह पर्यावरण के लिए खतरनाक है। वह कहते हैं, “हम कभी भी शाकनाशकी का इस्तेमाल नहीं करते हैं। सिर्फ मशीनों से से घास निकालते हैं, ताकि प्रदूषण न फैले।”

तिरुप्पुर के एक स्पिनिंग मिल मालिक ने माना कि उन्होंने पहले अपने सौर फार्म में पैनलों के नीचे की घास-फूस हटाने के लिए खरपतवार नाशक का इस्तेमाल किया था। हालांकि, छिड़काव के बाद, वहां की सारी वनस्पतियां पूरी तरह सूख गईं। नतीजा यह हुआ कि बंजर जमीन से रेत और धूल ज्यादा उड़ने लगी, जो पैनलों पर जमा होकर उनकी कार्यक्षमता घटाने लगी और उनकी सफाई भी ज्यादा मेहनत वाला काम बन गया। बाद में उन्होंने मशीनों की मदद से खरपतवार हटाने का काम शुरू कर दिया है, जिसमें पौधों को सिर्फ इतना भर रहने दिया जाता है कि वे पैनलों पर छाया न डालें। उन्होंने आगे बताया, “हमारे जान-पहचान वाले कुछ सोलर फार्म नियमित रूप से पैनल के नीचे की जमीन की देखभाल नहीं कर पाते हैं, सो उन्होंने ऑटोमैटिक पैनल क्लीनिंग सिस्टम को अपनाना शुरू कर दिया है। इससे न सिर्फ घास-फूस से छुटकारा मिला है बल्कि धूल जमने की समस्या भी कम हो गई है।”

उन्होंने यह बात नाम न छापने की शर्त पर कही, क्योंकि इस जानकारी से उनकी कंपनी की छवि को नुकसान पहुंच सकता है।

मोंगाबे इंडिया ने कुट्टापलायम गांव में स्थित सौर पार्क के जमीन मालिक से संपर्क करने की कोशिश की थी, लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला।

पत्थर की दीवार के ऊपर बनी स्टील के तार की बाड़ से घिरा एक सौर पार्क। जल निकासी के लिए लगाए गए पाइप के जरिए पानी आसपास की जमीन तक पहुंच जाता है। तस्वीर- गौतमी सुब्रमण्यम, मोंगाबे
पत्थर की दीवार के ऊपर बनी स्टील के तार की बाड़ से घिरा एक सौर पार्क। जल निकासी के लिए लगाए गए पाइप के जरिए पानी आसपास की जमीन तक पहुंच जाता है। तस्वीर- गौतमी सुब्रमण्यम, मोंगाबे

लंबे समय में होने वाले नुकसान को लेकर चिंता

जैसे-जैसे तमिलनाडु अपने सौर ऊर्जा का तेजी से विस्तार कर रहा है, वैसे-वैसे पैनलों के नीचे एक खामोश खतरा पनप रहा है – ऐसा खतरा जो जन स्वास्थ्य और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डाल सकता है। विशेषज्ञों मुताबिक, सौर पार्कों में वनस्पति नियंत्रण के लिए धड़ल्ले से शाकनाशी के इस्तेमाल से आसपास रहने वालों लोगों के बीच चिंताएं बढ़ी है। उन्हें डर है कि लंबे समय में इन से होने वाले नुकसान, स्वच्छ ऊर्जा के लाभों से कहीं अधिक होंगे।

राज्य सरकार की रिपोर्ट की मानें, तो तमिलनाडु ने अपनी सौर ऊर्जा क्षमता का तेजी से विस्तार किया है और भारत में स्थापित नवीकरणीय ऊर्जा के मामले में तीसरे और सौर क्षमता के मामले में चौथे स्थान पर है। सौर ऊर्जा उत्पादन तीन वर्षों में 53% बढ़कर 2021-22 में 7,203.11 मिलियन यूनिट (एमयू) से 2023-24 में 11,033 मिलियन यूनिट हो गया। हालांकि, जैसे-जैसे राज्य भर में सौर पार्क फैल रहे हैं, उनके रखरखाव को लेकर चिंताएं बढ़ती जा रही हैं।

राज्य की सत्ताधारी पार्टी से जुड़े शिवसेनापति ने जानकारी दी कि नल्लापुरम कॉलोनी में लगभग 70 घर सौर पार्क के बगल में हैं, जहां कम से कम 300 लोग रहते हैं। ये सभी खरपतवार नाशकों के प्रभाव से पूरी तरह असुरक्षित हैं। उन्होंने आस-पास के जल निकायों के बारे में चिंता जताई और कहा, “सौर पार्क से निकलने वाला पानी पास की धाराओं में जाता है, जो इंसानों के साथ-साथ मवेशियों और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर असर डालता है। एक बार नुकसान हो गया, तो हम इसकी भरपाई कैसे करेंगे?”

पेस्टिसाइड एक्शन नेटवर्क इंडिया के सीईओ ए.डी. दिलीप कुमार ने चेतावनी दी, “शाकनाशी के वाष्पशील घटक हवा में घुल सकते हैं, खासकर जब जलवायु परिवर्तन से तापमान लगातार बढ़ रहा है। हवा के बहाव से ये जहरीले कण दूर-दूर तक फैल सकते हैं और भोजन, पानी, हवा और पूरे पर्यावरण को प्रदूषित कर सकते हैं।”

ए.डी. दिलीप कुमार ने आगे कहा, “भले ही जहर का स्तर कम हो, लेकिन ये शरीर में जमा होकर ऐसी बीमारियों के रूप में सामने आ सकता है, जिनका इलाज मुश्किल है। यह धीमे जहर की तरह काम करता है।” उन्होंने बताया कि सोलर पार्क से निकलने वाला जहरीला पानी बांधों तक पहुंच सकता है और वहां से स्थानीय और शहरी इलाकों के साथ-साथ दूर-दराज के इलाकों को भी दूषित कर सकता है। वह कहते हैं, “भले ही वीडीसाइड सस्ती लगती है, लेकिन ग्लाइफोसेट जैसे रसायन—जिसे इंसानों के लिए कैंसर पैदा करने वाला माना गया है, लंबे समय में गंभीर स्वास्थ्य जोखिम पैदा करते हैं। इन नुकसानों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि थोड़े समय की ये बचत, लंबे समय में कहीं ज्यादा भारी पड़ती है। अगर लंबे समय के दुष्प्रभावों को देखें तो इनका इस्तेमाल बिल्कुल भी किफायती नहीं है।”

गूगल मैप्स के एक स्क्रीनशॉट में सौर पार्क का दृश्य, जिसके एक तरफ नल्लपुरम कॉलोनी और दूसरी तरफ सेनापति कांगेयम कैटल रिसर्च फाउंडेशन है।
गूगल मैप्स के एक स्क्रीनशॉट में सौर पार्क का दृश्य, जिसके एक तरफ नल्लपुरम कॉलोनी और दूसरी तरफ सेनापति कांगेयम कैटल रिसर्च फाउंडेशन है।

सरकारी हस्तक्षेप की कमी

भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन 74% से ज्यादा सोलर फार्म जिस जमीन पर बने हैं, वह वहां की जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा पर असर डालते हैं। इसमें 67.6% कृषि भूमि है, जिसमें से 38.6% मौसमी फसलों और 28.95% बागानों के लिए उपयुक्त है। इसके अलावा, 6.99% सौर पार्क प्राकृतिक आवासों- जैसे सदाबहार, पर्णपाती और दलदली वन- पर बने हैं, जो जैव विविधता के लिहाज से बेहद अहम हैं।

तमिलनाडु के पर्यावरण संगठन ‘पुवुलगिन नन्बरगल’ से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता सुंदर राजन ने कहा, भले ही सौर ऊर्जा को ‘ग्रीन प्रोजेक्ट’ माना जाता है, लेकिन इन परियोजनाओं को किसी भी तरह के पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) से नहीं गुजरना पड़ता और न ही पर्यावरण प्रबंधन योजना बनानी होती है। उन्होंने तर्क दिया कि इन परियोजनाओं को बकायदा ईआईए प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए, ताकि जैव विविधता और प्रदूषण नियंत्रण से जुड़े कानूनों का पालन सुनिश्चित हो सके।

शिवसेनापति ने आगाह करते हुए बताया कि अगर इनकी रोकथाम या निगरानी नहीं की गई तो यह स्थिति केरल की एक और एंडोसल्फान जैसी त्रासदी का कारण बन सकती है, जहां कीटनाशकों के बेधड़क इस्तेमाल ने जन्म दोष सहित कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा कर दी थीं। इसके बाद कीटनाशकों पर पूरी तरह से प्रतिबंधित लगाना पड़ा था।

सौर पार्क से निकलने वाला पानी घनी वनस्पतियों से होकर गुजरता है, जिससे संभावित संदूषण संबंधी चिंताएं बढ़ गई हैं। तस्वीर- गौतमी सुब्रमण्यम, मोंगाबे
सौर पार्क से निकलने वाला पानी घनी वनस्पतियों से होकर गुजरता है, जिससे संभावित संदूषण संबंधी चिंताएं बढ़ गई हैं। तस्वीर- गौतमी सुब्रमण्यम, मोंगाबे

खरपतवार नाशक के सुरक्षित विकल्प

पर्यावरणविदों का तर्क है कि खरपतवार हटाने के लिए कई सुरक्षित और टिकाऊ विकल्प मौजूद हैं, जिन्हें तरजीह दी जानी चाहिए। दुर्गा (बदला हुआ नाम) ने कहा, “पहले, वे खरपतवार हटाने के लिए लगभग दस लोगों को काम पर रखते थे, जिससे कुछ आमदनी हो जाती थी, लेकिन अब क्योंकि छिड़काव करना होता है, तो एक ही कर्मचारी से काम चल जाता है।”

दिलीप कुमार ने सुझाव दिया कि हाथ से खरपतवार निकालना थकाऊ और महंगा है, लेकिन खरपतवार काटने वाली मशीनों का इस्तेमाल एक स्थायी समाधान हो सकता है। उन्होंने कहा, “इन मशीनों का इस्तेमाल करके, सौर पार्क बिना किसी रासायनिक संदूषण के खरपतवार जैसी समस्या से निबट सकते हैं।”

एक सफल विकल्प सौर ग्रेजिंग भी है, जहां बकरियों जैसे मवेशी घास चरकर इस समस्या से निपटने में मदद करते हैं। पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा—94% पवन और 6% सौर ऊर्जा— पर चलने वाली पल्लदम स्थित सुलोचना कॉटन स्पिनिंग मिल्स का जमीन पर एक सौर पार्क बना है जिसकी क्षमता चार मेगावाट है। उन्होंने आठ साल पहले सौर ग्रेजिंग का विकल्प चुना था। 40 बकरियों से शुरू हुआ उनका ये सफर, बढ़कर 360 पर पहुंच गया है। अब उन्हें घास काटने वाली मशीनों की भी पूरी जरूरत पड़ती है। मिलों के सस्टेनेबिलिटी हेड आर. सबहारी गिरीश ने कहा, “हम ऊर्जा के हर कण को ​​बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, यहां तक कि घास काटने वाली मशीनों द्वारा खपत की जाने वाली ऊर्जा की छोटी सी मात्रा पर भी हमारी नजर रहती है।”

चेल्लप्पन ने आगे जोर दिया कि विकसित देशों में सौर पैनल ग्रेजिंग की सुविधा के लिए ऊंचाई पर लगाए जाते हैं। भारत को भी ऐसा ही नजरिया अपनाना चाहिए और ऐसी स्थायी तरीकों की ओर बढ़ना चाहिए।

ऑरोविले कंसल्टिंग के सह-संस्थापक और कार्यकारी निदेशक, मार्टिन शेरफ्लर ने भी पैनलों के नीचे और आसपास उगी घास-फूस के लिए सौर ग्रेजिंग को अपनाए जाने की सराहना की है। उनके मुताबिक इससे दोहरे लाभ मिलते हैं। एक तरफ तो ये प्राकृतिक रूप से पौधों को बढ़ने से रोकता है, वहीं दूसरी तरफ मशीनों के इस्तेमाल की जरूरत को भी कम करता है। उन्होंने कहा, “अगर इसे स्थायी रूप से लागू किया जाए, तो सौर ग्रेजिंग बंजर भूमि को बहाल करने में भी मदद कर सकती है।” ऑरोविले कंसल्टिंग तमिलनाडु में एक सस्टेनेबिलिटी से जुड़ा एक संगठन है जो पॉलिसी एडवोकेसी, रिन्यूएबल एनर्जी और इकोलॉजिकल प्लानिंग में विशेषज्ञता रखता है।


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दिलीप कुमार ने जानकारी देते हुए बताया कि बंजर जमीन अधिक गर्मी अवशोषित करती है, जो हीट आइलैंड इफेक्ट यानी गर्मी को बढ़ाने का काम करेगी। शेरफ्लर के अनुसार, पौधे वाष्पोत्सर्जन के जरिए पर्यावरण को प्राकृतिक रूप से ठंडा रखते हैं, जिससे पैनल का तापमान कम करने और दक्षता बढ़ाने में भी मदद मिलती है।

उन्होंने कहा, “सौर पैनलों की दक्षता आमतौर पर बढ़ते तापमान के साथ कम हो जाती है। वनस्पति के जरिए से एक कूलर माइक्रोक्लाइमेट बनाए रखकर हम इस प्रणाली के प्रदर्शन में पूरी तरह से सुधार ला सकते है।”

2021 में प्रकाशित एक वैज्ञानिक रिपोर्ट ने भी इस तरफ इशारा किया था। रिपोर्ट कहती है, कई देशों में, सौर पार्कों में वनस्पति को साफ करने और उसे फिर से बढ़ने से रोकने के लिए शाकनाशी का इस्तेमाल करना आम बात हो गया है। और इसी के चलते भूमि उपयोग परिवर्तन (LUC) के कारण उत्सर्जन बढ़ा है। रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि अगर भारत में नामित सौर पार्क क्षेत्रों में सभी वनस्पति को स्थायी रूप से हटा दिया गया, तो 2020 से 2050 तक परिणामी LUC उत्सर्जन उसी अवधि में बिजली उत्पादन के लिए प्राकृतिक गैस को जलाने से उत्पन्न कुल उत्सर्जन का 2.5-3.5% होगा।

नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में एक बढ़ता हुआ चलन एग्रोवोल्टेइक है यानी कृषि को सौर ऊर्जा के साथ एकीकृत करना। शेर्फलर ने बताया, “इस प्रणाली में, सौर पीवी पैनल आमतौर पर ऊंचा करके लगाए जाते हैं। पैनल के नीचे उगने वाली फसलों को पर्याप्त धूप मिलती रहे, इसके लिए इन्हें एक नई तकनीक एग्रोवोल्टेइक वोल्टेक्स है यानी कृषि को सौर ऊर्जा के साथ एकीकृत करना। शेरफ्लर बताते हैं, “इस प्रणाली में, सौर पीवी पैनल आमतौर पर ऊंचा करके लगाए जाते हैं। पैनल के नीचे उगने वाली फसलों को पर्याप्त धूप मिलती रहे, इसके लिए इन्हें एक दूसरे से अधिक दूरी पर लगाया जाता है। कुछ मामलों में, सौर पैनलों के बीच की जगह में फसलें उगाई जाती हैं, जिससे जमीन का ज्यादा ज्यादा इस्तेमाल हो पाता है।”

दिलीप कुमार ने सौर ऊर्जा से चलने वाले पहले ‘कोचीन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे’ का उदाहरण दिया, जहां अभी भी पैनलों के नीचे सब्जियां उगाई जाती हैं। दिलीप ने बताया, “यह दिखाता है कि कैसे जमीन का बेहतर और प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे सौर पार्क के मालिक के लिए अतिरिक्त आमदनी के रास्ते भी खुल जाते हैं। हमें छतों पर सौर ऊर्जा पैनल लगाने पर अधिक ध्यान देना होगा और जहां तक संभव हो, जमीन पर स्थित सौर पार्कों पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी।”

शेरफ्लर ने कहा, “सीधे तौर पर इससे मिलने लाभों के अलावा, सौर पैनलों के नीचे उगने वाली घास-फूस से मिट्टी की गुणवत्ता सुधरती है, कार्बन की मात्रा बढ़ती है, जल प्रबंधन बेहतर होता है और ये मिट्टी के कटाव को भी रोकता है।” उनहोंने आगे बताया, सिर्फ इतना ही नहीं, यह परागणकों और अन्य वन्यजीवों के लिए आवास मुहैया कराके जैव विविधता संरक्षण में भी योगदान देता है। नतीजन सौर संयंत्रों के पारिस्थितिक फायदे और अधिक हो जाते हैं।

दिलीप कुमार के मुताबिक, हालांकि स्थानीय सरकारी स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियां इस मुद्दे में हस्तक्षेप कर सरकार और जनता दोनों को जागरूक बना सकती है। लेकिन सरकारी संस्थान और कानून चुपचाप या शायद जानबूझकर, शाकनाशी के लगातार हो रहे इस्तेमाल का समर्थन करते नजर आ रहे हैं।


यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 6 मार्च 2025 को प्रकाशित हुई थी।


बैनर तस्वीर: सुल्कोहाना कॉटन मिल्स के चार मेगावाट के सौर पार्क में सौर पैनलों के नीचे घास चरती बकरियां। ऐसा करने से दोहरे लाभ मिलते हैं, एक तो शाकनाशियों की जरूरत कम हो जाती है, दूसरे घास काटने के लिए इस्तेमाल होने वाली मशीनों में लगने वाली ऊर्जा की बचत होती है। तस्वीर: सुलोचना कॉटन मिल्स।

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