- मराठवाड़ा, जहां पहले सूखा पड़ता था, इस साल बहुत ज़्यादा बारिश हो रही है। इससे बाढ़ आई है और लोगों की जान, फसलें और रोज़गार सब प्रभावित हुए हैं।
- किसानों का कहना है कि सरकार से मिलने वाला मुआवज़ा बहुत कम है। तेज़ बारिश से सारी फसलें खराब हो गई हैं। वे चाहते हैं कि सरकार इसे “गीला सूखा” घोषित करे और नुकसान के हिसाब से मदद दे।
- पिछले कुछ सालों में बारिश का पैटर्न बदल गया है। अब मराठवाड़ा के किसान सोच रहे हैं कि ऐसे हालात में अपनी ज़िंदगी और खेती को कैसे संभालें।
मराठवाड़ा, जहां कभी पीने का पानी ट्रेन से लाया जाता था, अब बाढ़ से जूझ रहा है। यह क्षेत्र पहले सूखे के लिए जाना जाता था, लेकिन अब ज़्यादा पानी के कारण लोगों की ज़िंदगी और रोज़गार खतरे में हैं।
साल 2012-13 से 2019 के बीच मराठवाड़ा ने चार बार सूखा झेला। उन सालों में बारिश औसतन केवल 50 से 70 प्रतिशत ही हुई थी। इन सूखे सालों का असर लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर लंबे समय तक पड़ा।
लेकिन इस साल हालात पूरी तरह बदल गए। भारी बारिश से यह इलाका बुरी तरह प्रभावित हुआ। जून से सितंबर के बीच यहां सामान्य से 128 प्रतिशत ज़्यादा बारिश दर्ज की गई। हर नदी और नहर, यहां तक कि जो इलाके पहले हमेशा सूखे रहते थे, वे भी अब भर गए हैं।
25 सितंबर 2025 तक यहां 722.5 मिलीमीटर बारिश हुई, जो इस समय के औसत 679 मिलीमीटर से ज़्यादा है।
सबसे बड़ी समस्या बारिश के तरीके में रही। यह अचानक, बहुत तेज़ और थोड़े समय में हुई। लगातार हल्की बारिश के बजाय इस तेज़ बारिश ने फसलों को फायदा पहुंचाने के बजाय नुकसान पहुंचाया।
भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) पुणे के वैज्ञानिक प्रोफेसर एस. डी. सनप ने बताया, “इस साल जून की शुरुआत में ही अनुमान था कि विदर्भ और मराठवाड़ा में सामान्य से ज़्यादा बारिश होगी। जून में बारिश थोड़ी कम हुई, लेकिन अगस्त से 22 सितंबर के बीच मराठवाड़ा में 743 मिलीमीटर से ज़्यादा बारिश हुई।” उन्होंने कहा कि इस साल औसत से ज़्यादा बारिश दर्ज की गई है।
बारिश की तेज़ी को देखकर कई जगह यह बादल फटने जैसी स्थिति लगी, लेकिन यह वास्तव में बादल फटना नहीं था। प्रोफेसर सनप ने बताया, “बादल फटने का मतलब होता है एक घंटे में 100 मिलीमीटर से ज़्यादा बारिश। इस बार बहुत तेज़ बारिश हुई, लेकिन यह 24 घंटे में हुई। इसलिए इसे अत्यधिक बारिश कहा जा सकता है, बादल फटना नहीं। हम ऐसी जानकारी लगातार सरकार और जनता तक पहुंचा रहे हैं।”
उन्होंने बताया कि इस साल भारी बारिश के पीछे कई कारण हो सकते हैं। हिंद महासागर का गर्म होना जिससे बारिश के पैटर्न बदलते हैं, प्रशांत महासागर का तापमान और ओडिशा तथा आंध्र प्रदेश के तटीय इलाकों में मानसूनी हवाओं से बने कम दबाव वाले क्षेत्र। ये सभी वजहें बारिश को प्रभावित करती हैं।
अब तक यानी 25 सितंबर तक अत्यधिक बारिश से कम से कम 52 लोगों की मौत हो चुकी है। 1067 पशु मारे गए हैं और 2000 से ज़्यादा घरों को नुकसान पहुंचा है।
करीब 3960 गांव किसी न किसी तरह बारिश से प्रभावित हुए हैं और यह आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं।
इसके अलावा जब बांध भरने लगे तो उनमें से 1 लाख क्यूसेक से ज़्यादा पानी छोड़ा गया, जिससे कई खेत, घर और ज़िंदगियां बह गईं।

भारी बारिश ने खेतों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है, जहां फसलों के साथ-साथ मिट्टी तक बह गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, संभाजीनगर, जलना, बीड, लातूर, परभणी, धाराशिव और हिंगोली जिलों में लगभग 17.5 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को नुकसान हुआ है। सोयाबीन, मक्का, कपास, तुअर (अरहर), उड़द, सब्ज़ियां, मूंग, फल, ज्वार, गन्ना और हल्दी जैसी सभी फसलें नष्ट हो गई हैं।
जलगांव जिले की बदनापुर तहसील के खड़गांव गांव के किसान उमेश मोरे कहते हैं, “मैंने चार एकड़ ज़मीन में सोयाबीन बोई थी। अब पूरा खेत पानी में डूबा हुआ है। पिछले पाँच-छह सालों से मौसम का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल हो गया है। कभी बारिश होती है, कभी बिल्कुल नहीं होती। पिछले साल बारिश नहीं हुई तो सोयाबीन की पैदावार नहीं हुई। इस साल इतनी बारिश हुई कि पूरा खेत झील बन गया है।”
बदलते बारिश के पैटर्न से किसान असमंजस में, समझ नहीं पा रहे कि कौन सी फसल बोएं
पिछले कुछ वर्षों में बारिश के पैटर्न में तेज़ी से बदलाव हुआ है, जिससे मराठवाड़ा के किसान यह समझ नहीं पा रहे हैं कि अपनी खेती और आजीविका पर पड़ रहे असर को कैसे कम करें।
“क्या हमें नुकसान कम करने के लिए फसलों में बदलाव करना चाहिए? क्या हमें बोवाई का तरीका बदलना चाहिए? और अगर हां, तो बीजों की लागत, सिंचाई की कमी और बाजार में उतार-चढ़ाव का क्या?” यही सवाल अब किसानों के मन में घूम रहे हैं।
हडगांव की रहने वाली मंगलबाई काकड़े ने मोंगाबे इंडिया से कहा, “यह बारिश हर साल हमारा काम छीन लेती है। पहले गणपति त्योहार के बाद (अगस्त-सितंबर के आसपास) हमें खेतों में घास निकालने का काम मिल जाता था। लेकिन अब इतनी भारी बारिश के कारण हमें रोज़ाना मजदूरी का काम नहीं मिल रहा। अगर काम ही नहीं मिलेगा, तो घर कैसे चलाएं?”
ऐसे हालात में सबसे ज़्यादा असर महिलाओं पर पड़ रहा है, जो खेती में मौसमी भूमिका निभाती हैं या किसी खास फसल जैसे सोयाबीन से जुड़ा काम करती हैं।
मंगलबाई कहती हैं, “मौसम का अंदाज़ा लगाना अब नामुमकिन हो गया है। आज दस दिन हो गए, हमारे इलाके की कोई भी महिला खेत में नहीं गई। न खेतों में काम है, न फसलें बची हैं। सरकार सिर्फ हालात देखती है, मदद नहीं भेजती। हम कैसे जिएं? पांच साल से हम इसी तरह की बारिश की समस्याओं से जूझ रहे हैं। लोगों ने त्योहार और खुशियां मनाना तक भूल गए हैं, बस इन परेशानियों से लड़ रहे हैं।”

किसानों की मांग: “गीला सूखा” घोषित कर दिया जाए और उचित मुआवज़ा मिले
भारी बारिश से हुए नुकसान के बाद सरकार ने 2,215 करोड़ रुपये का मुआवज़ा देने की घोषणा की है। जून से अगस्त के बीच खरीफ सीजन में जिन 31 लाख से ज़्यादा किसानों की फसलें बर्बाद हुई हैं, उन्हें यह सहायता दी जाएगी। सरकार ने यह राशि संभाजीनगर संभाग को 721 करोड़ रुपये, नासिक को 13.77 करोड़ रुपये, अमरावती को 565.60 करोड़ रुपये, नागपुर को 23.85 करोड़ रुपये, पुणे संभाग को 14.29 करोड़ रुपये और कोंकण को 10.53 करोड़ रुपये आवंटित की है।
राशि जारी होने के बाद यह किसानों तक पहुंचने में कुछ दिन या हफ्ते लगते हैं।
मराठवाड़ा से बीबीसी संवाददाता श्रीकांत बंगाले बताते हैं कि किसान चाहते हैं कि सरकार इस आपदा को “गीला सूखा” घोषित करे और हालात के अनुसार ज़्यादा मुआवज़ा व विशेष सहायता दे। “गीला सूखा” या मराठी में “ओला दुष्काळ” वह स्थिति होती है जब किसी क्षेत्र में सामान्य से ज़्यादा बारिश होती है, लेकिन फिर भी सूखे जैसी स्थिति पैदा हो जाती है, जैसे फसलों का नुकसान और पानी की कमी।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने हालांकि इस मांग को स्वीकार नहीं किया और कहा कि मुआवज़ा मौजूदा नियमों के अनुसार ही दिया जाएगा।
लेकिन किसानों का कहना है कि यही नियम पुराने हैं और जो मुआवज़ा राशि तय की गई है, वह बहुत कम है।
मार्च 2023 तक बारिश से फसलें खराब होने पर किसानों को वर्षा आधारित खेती के लिए प्रति हेक्टेयर ₹8,500 और सिंचित फसलों के लिए ₹17,000 मिलते थे, जिसमें अधिकतम सीमा 2 हेक्टेयर थी।
जनवरी 2024 में सरकार ने इन दरों को संशोधित किया था। तब वर्षा आधारित फसलों के लिए मुआवज़ा ₹13,600 और सिंचित फसलों के लिए ₹27,000 प्रति हेक्टेयर कर दिया गया था, और सीमा 3 हेक्टेयर तक बढ़ा दी गई थी।
यह संशोधन नवंबर 2023 से लागू होना था, जब एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री थे। लेकिन मई 2025 में सरकार ने इसे वापस ले लिया।
अब 2025 के खरीफ सीजन से फिर पुराने मार्च 2023 वाले दरें लागू हैं। यानी किसानों को अब प्रति हेक्टेयर ₹13,600 के बजाय केवल ₹8,500 मिलते हैं, या लगभग ₹85 प्रति गुंठा (100 गुंठे = 1 हेक्टेयर)। किसानों का कहना है कि यह रकम बहुत ही कम है और इससे उनका नुकसान पूरा नहीं हो सकता।
बंगाले बताते हैं कि ₹8,500 का यह मुआवज़ा वास्तव में कितना अपर्याप्त है।
“अगर हम सोयाबीन का उदाहरण लें, तो एक एकड़ की उत्पादन लागत लगभग ₹25,000 आती है। यानी एक हेक्टेयर (करीब 2.5 एकड़) की कुल लागत लगभग ₹62,500 होती है। लेकिन सरकार उस पूरे क्षेत्र के लिए अधिकतम ₹8,500 दे रही है। इसका मतलब है कि किसान को ₹54,000 का घाटा झेलना पड़ रहा है। हाल की इस भारी बारिश के कारण किसानों की आने वाले साल की पूरी आर्थिक स्थिति बिगड़ने वाली है,” वे कहते हैं।

पानी की कमी और बाढ़, दोनों के लिए ज़रूरी है बेहतर योजना
जलवायु परिवर्तन का असर खेती, स्वास्थ्य और रोज़गार पर कोई नई बात नहीं है। इसका असर अब देशभर में देखा जा रहा है। हर जलवायु से जुड़ी आपदा के बाद यह कहा जाता है कि पहले से चेतावनी देने की व्यवस्था है या उसका पालन किया जा रहा है।
इस साल मराठवाड़ा में सरकार ने दावा किया कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के “सचेत” ऐप के ज़रिए तीन मिलियन संदेश लोगों को भारी बारिश की चेतावनी के लिए भेजे गए। लेकिन ज़मीनी हकीकत में यह जानकारी लोगों तक ठीक से नहीं पहुंची।
फुलंब्री के किसान गजानन तारोटे कहते हैं, “यह सचेत ऐप क्या है? मैंने तो इसका नाम भी नहीं सुना। कभी-कभी मौसम विभाग से हमारे फोन पर रेड या येलो अलर्ट का संदेश आता है, वही मैं देखता हूं।”
उधर उमेश मोरे का पूरा गांव खड़गांव इस साल की बाढ़ में डूब गया। वह कहते हैं कि उन्होंने सचेत ऐप के बारे में सुना है, लेकिन कभी इस्तेमाल नहीं किया। “कभी-कभी हमारे मोबाइल पर संदेश आता है कि इतनी गति की हवाएं चलेंगी या बारिश होगी। लेकिन कई बार ऐसा कुछ नहीं होता। और कभी संदेश बारिश या तूफान के बाद आता है,” वे कहते हैं।
इन गलत या देर से आने वाली चेतावनियों के कारण लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है।
वे आगे कहते हैं, “हमने फसलों के पैटर्न बदलने के बारे में भी सोचा, लेकिन हमें यह नहीं पता कि इसके लिए सही जानकारी, तकनीक या उपकरण कहां से मिलेंगे।”
विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी जलवायु आपदाओं से निपटने के लिए लंबे समय की तैयारी ज़रूरी है।
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जलवायु अनुकूल खेती के तरीके अपनाना, किसानों को नई तकनीक से जोड़ना, चेतावनी प्रणाली को अधिक सुलभ बनाना, बीमा और सहायता समय पर देना और पानी प्रबंधन के ठोस प्लान बनाना, ये कुछ ज़रूरी कदम हैं जिनकी सिफारिश की जा रही है।
पर बड़ा सवाल यह है कि क्या ये कदम वास्तव में लागू किए जाएंगे।
बाढ़ का सामाजिक और आर्थिक असर अभी पूरी तरह सामने नहीं आया है। किसान कहते हैं कि अगर खेतों को दोबारा संभाल नहीं पाए तो उन्हें मज़दूरी करनी पड़ेगी।
मराठवाड़ा में पानी की कमी से निपटने की योजनाएं तो गंभीरता से बनाई जाती हैं, लेकिन बाढ़ नियंत्रण के लिए प्रशासन में उतनी गंभीरता नहीं दिखती।
यह रिपोर्ट बायमाणूस के साथ सह-प्रकाशित की गई है। मराठी रिपोर्ट यहां पढ़ें। अंग्रेजी में रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
बैनर तस्वीर: जलना जिले के खड़गांव गांव का एक किसान अपनी सोयाबीन की फसल दिखा रहा है, जो भारी बारिश से नष्ट हो गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, संभाजीनगर, जलना, बीड, लातूर, परभणी, धाराशिव और हिंगोली जिलों में लगभग 17.5 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को नुकसान पहुंचा है। तस्वीर- यश पवार