- हाल ही में हुए एक अध्ययन में पता चला है कि मध्यप्रदेश के भोज वेटलैंड में माइक्रोप्लास्टिक पाए गए हैं। यह वेटलैंड रामसर साइट है और भोपाल के करीब 40 प्रतिशत लोगों को पीने का पानी देता है।
- अध्ययन में कहा गया है कि यहां प्लास्टिक प्रदूषण का कारण पर्यटन, मछली पकड़ने, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से निकलने वाला गंदा पानी, दुकानों से निकलने वाला कचरा और हवा के जरिये आए प्लास्टिक कण हैं।
- विशेषज्ञों का कहना है कि इस पर और शोध की जरूरत है, देशभर में माइक्रोप्लास्टिक और नैनोप्लास्टिक का डाटाबेस बनाना चाहिए और सीवेज व कचरे के बहाव पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए।
भोपाल, मध्यप्रदेश में फैला भोज वेटलैंड लगभग 32 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। इसमें अपर लेक (बड़ा तालाब) और लोअर लेक (छोटा तालाब) शामिल हैं। भोज वेटलैंड एक अंतरराष्ट्रीय महत्व की रामसर साइट है और भोपाल के करीब 40 प्रतिशत लोगों को पीने का पानी देती है। इसके अलावा यह मछली पालन, खेती, पर्यटन और जैव विविधता को भी सहारा देती है।
पहली बार वैज्ञानिकों ने इस वेटलैंड में माइक्रोप्लास्टिक (सूक्ष्म प्लास्टिक कण) पाए हैं। हाल ही में पत्रिका AQUA – वॉटर इन्फ्रास्ट्रक्चर, इकोसिस्टम्स एंड सोसाइटी में प्रकाशित एक अध्ययन में, आईसीएमआर–राष्ट्रीय पर्यावरणीय स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान (ICMR-NIREH), भोपाल की वैज्ञानिक सूर्या सिंह और उनकी टीम ने भोज वेटलैंड में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी की पुष्टि की है।
अध्ययन में क्या पाया गया
सूर्या सिंह और उनकी टीम ने झील की सतही परत से पानी के नमूने एकत्र किए। इन नमूनों का विश्लेषण एटीआर–एफटीआईआर (एटेन्यूएटेड टोटल रिफ्लेक्टेंस–फूरियर ट्रांसफॉर्म इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोस्कोपी) तकनीक से किया गया, जो लगभग 300 माइक्रोमीटर से बड़े प्लास्टिक कणों की पहचान कर सकती है।
शोधकर्ताओं ने अपर लेक में 2.4 कण प्रति लीटर और लोअर लेक में 6.6 कण प्रति लीटर की मात्रा दर्ज की।
तुलना के लिए देखें तो, भोज वेटलैंड में माइक्रोप्लास्टिक का स्तर गंगा नदी के सबसे प्रदूषित हिस्सों के बराबर या उससे भी अधिक पाया गया है, जहां 1,000 लीटर पानी में लगभग 100 से 1,000 तक कण मिले हैं। इसके विपरीत, यूरोप की मीठे पानी की झीलों, जैसे लेक बालटन, में यह मात्रा बहुत कम, अक्सर 10 कण प्रति 1,000 लीटर से भी नीचे रहती है। इससे साफ है कि भोज वेटलैंड का प्रदूषण स्तर यूरोप की झीलों की तुलना में कहीं अधिक है और भारत के सबसे अधिक प्रभावित जल स्रोतों में गिना जा सकता है।


सिंह ने चेतावनी दी कि ये आंकड़े असली प्रदूषण स्तर को कम करके दिखा सकते हैं। उन्होंने बताया, “एटीआर–एफटीआईआर की पहचान सीमा लगभग 300 माइक्रोमीटर तक है। अगर पायर जीसी-एमएस, माइक्रो एफटीआईआर या माइक्रो रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी जैसी उन्नत तकनीकें उपलब्ध होतीं, तो माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा और अधिक मिलती।”
उन्होंने बताया कि अध्ययन के लिए ग्रैब सैंपलिंग विधि अपनाई गई, जो एक एक स्थान पर पानी का नमूना एकत्र करने की सरल विधि है। उन्होंने कहा, “अन्य तकनीकें, जैसे न्यूस्टन नेट्स, अपने जाल के आकार और संभावित संदूषण की वजह से सीमित होती हैं, इसलिए ग्रैब सैंपलिंग बेहतर विकल्प रहा।”
हालांकि अध्ययन में खतरे का स्तर “बहुत कम” या “कम” बताया गया है, सिंह का कहना है, “यह जोखिम वर्तमान में उपलब्ध आंकड़ों पर आधारित है। छोटे नमूना आकार, एक बार की सैंपलिंग और तकनीकी सीमाओं जैसी बातों को भी ध्यान में रखना चाहिए। नीति-निर्माताओं को इसे एक बढ़ती हुई चुनौती के रूप में देखना चाहिए और सावधानी सिद्धांत (Precautionary Principle) अपनाते हुए जोखिम कम करने के कदम उठाने चाहिए। साथ ही, संवेदनशील पारितंत्रों और प्रजातियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”
सिंह ने बताया कि अध्ययन के दौरान कई चुनौतियाँ आईं, जैसे प्लास्टिक-मुक्त माहौल बनाए रखना, प्रयोग की प्रक्रिया तय करना (क्योंकि कोई मानक पद्धति उपलब्ध नहीं है) और नमूनों का सटीक विश्लेषण करना।
माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण के स्रोत
अध्ययन के अनुसार, भोज वेटलैंड में प्लास्टिक की मौजूदगी के चार प्रमुख कारण हैं जैसे पर्यटन और मछली पकड़ने की गतिविधियाँ, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से निकलने वाला गंदा पानी, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का कचरा, और वायुमंडलीय परिवहन (हवा के जरिये पहुंचने वाले कण)।
सूर्या सिंह कहती हैं, “स्थानीय स्तर पर कुछ व्यावहारिक कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे पर्यटन स्थलों पर सिंगल-यूज़ प्लास्टिक (एक बार इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक) पर लगे प्रतिबंध का कड़ाई से पालन करना (यह प्रतिबंध भारत में जुलाई 2022 से लागू है), जनजागरूकता और व्यवहार में बदलाव के अभियान चलाना, और कचरा एकत्र करने की व्यवस्था को बेहतर बनाना।

वहीं, नीतिगत स्तर पर बदलाव के तौर पर प्लास्टिक के लिए विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (Extended Producer Responsibility – EPR) को सख्ती से लागू करना, वॉशिंग मशीनों में माइक्रोफाइबर फिल्टर लगाना, और एकीकृत जलग्रहण प्रबंधन नीतियों (Integrated Watershed Management Policies) को अपनाना शामिल हो सकता है।”
भोपाल के लिए भोज वेटलैंड क्यों महत्वपूर्ण है
जिला पर्यावरण योजना भोपाल के अनुसार, उपरी झील (बड़ा तालाब) शहर की लगभग 40 प्रतिशत आबादी को पेयजल उपलब्ध कराती है। यह वेटलैंड मछलियों और प्रवासी पक्षियों सहित जैव विविधता (जीव-जंतुओं की विविधता) को भी सहारा देती है। इसलिए, इसके पानी की गुणवत्ता पर किसी भी तरह का खतरा मानव स्वास्थ्य, आजीविका और पारिस्थितिक संतुलन पर गहरा असर डाल सकता है। यहां तक कि माइक्रोप्लास्टिक की कम मात्रा भी तलछट में जमा होकर, जलीय जीवों के शरीर में जा सकती है, और अंततः खाद्य श्रृंखला के जरिए मनुष्यों तक पहुंच सकती है।
साल 2025 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन (दिनीश कुमार गुप्ता और सहयोगियों द्वारा) ने भोपाल की छह प्रमुख झीलों जिनमें भोज वेटलैंड की उपरी और निचली झील, शाहपुरा और कलियासोत शामिल हैं, का तीन मौसमों में अध्ययन किया। उन्होंने हर स्थान पर माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी पाई, जिनकी मात्रा लगभग 540 से 1,410 कण प्रति घन मीटर थी। इनमें से लगभग 90 प्रतिशत कण फाइबर (रेशे) थे, जो ज्यादातर नायलॉन और पॉलीप्रोपाइलीन के बने थे। इनका आकार 75 से 600 माइक्रोमीटर के बीच था, जो मछलियों द्वारा निगलने के लिए पर्याप्त आकार का है। शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी कि वैश्विक तुलना में ये स्तर “कम से मध्यम” हैं, लेकिन माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है और लंबे समय तक बना रहता है।

भोज वेटलैंड के हालिया अध्ययन के साथ मिलाकर देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि भोपाल के जल स्रोतों में माइक्रोप्लास्टिक पहले से ही व्यापक रूप से मौजूद हैं और अगर सख्त कदम नहीं उठाए गए, तो स्थिति और गंभीर हो सकती है।
जहां समुद्री पारिस्थितिक तंत्र (marine systems) पर काफी शोध हुआ है, वहीं अंदरूनी मीठे पानी के स्रोतों (inland freshwater systems) पर माइक्रोप्लास्टिक के अध्ययन बहुत कम हुए हैं। गंगा जैसी नदियों पर कुछ सीमित अध्ययन जरूर हुए हैं, लेकिन झीलों और वेटलैंड्स पर शोध की कमी बनी हुई है।
शहर के पेयजल की सुरक्षा के बारे में पूछे जाने पर, भोपाल नगर निगम के सीवेज और जल प्रभाग के अतिरिक्त आयुक्त वरुण अवस्थी ने मोंगाबे इंडिया को बताया कि निगम द्वारा पानी को शुद्ध करके ही आपूर्ति की जाती है। उन्होंने कहा, “हमारे पास आधुनिक शोधन संयंत्र (ट्रीटमेंट प्लांट) हैं और जल गुणवत्ता की निगरानी के लिए एक समर्पित प्रयोगशाला भी है।”
मानव गतिविधियों की निगरानी और गहन अध्ययन की जरूरत
अध्ययन के नतीजों को व्यापक संदर्भ में समझने के लिए, मोंगाबे इंडिया ने कोलकाता स्थित आईसीएआर–सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट (CIFRI) के निदेशक बी. के. दास से बात की, जो कई वर्षों से भारत की मीठे पानी की झीलों और नदियों में माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण पर काम कर रहे हैं।
दास, जो इस अध्ययन का हिस्सा नहीं थे, ने बताया कि भारत में अभी तक पीवीसी जैसे पॉलीमर की विषाक्तता (टॉक्सिसिटी) को मापने के लिए कोई मानक तय नहीं हैं।
उन्होंने कहा कि चूंकि भोज वेटलैंड भोपाल का प्रमुख पेयजल स्रोत है, इसलिए यहां कड़े सुरक्षा उपायों की जरूरत है। दास ने कहा, “पर्यटन गतिविधियों की निगरानी और प्रबंधन, सीवेज और ठोस कचरे के अनियंत्रित बहाव को रोकने के लिए जांच चौकियां बनाना, और प्लास्टिक प्रदूषण से जुड़े स्वास्थ्य व पर्यावरणीय जोखिमों पर जन-जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है।”
दास ने यह भी कहा कि यह समझने के लिए कि विभिन्न प्रकार के माइक्रोप्लास्टिक और उनकी मात्रा जलीय जीवों को किस तरह प्रभावित करती है, और अधिक गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
एक अन्य स्वतंत्र विशेषज्ञ, अभिजीत सरकार, जो पश्चिम बंगाल के गौर बंग विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं, ने अध्ययन की पद्धति पर टिप्पणी करते हुए कहा, “हमारे अपने शोध से पता चलता है कि स्थानीय परिस्थितियों में माइक्रोप्लास्टिक के स्रोत अलग-अलग होने के कारण परिणामों में काफी अंतर आ सकता है। नमूना स्थल की अधिक जानकारी के बिना निष्कर्ष निकालना कठिन है। मैं मानता हूं कि एटीआर–एफटीआईआर (ATR–FTIR) की कुछ सीमाएं हैं, खासकर नैनोप्लास्टिक पहचानने में, लेकिन यह माइक्रोप्लास्टिक की पहचान के लिए एक भरोसेमंद तकनीक है।”
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उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान में भले ही जोखिम “कम” बताया गया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भविष्य में स्थिति सुरक्षित रहेगी।
सरकार ने सुझाव दिया कि सरकार को माइक्रोप्लास्टिक और नैनोप्लास्टिक पर एक राष्ट्रीय डाटाबेस तैयार करने को प्राथमिकता देनी चाहिए। उन्होंने कहा, “केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) इसे एक मुख्य प्रदूषक श्रेणी के रूप में शामिल करने पर विचार कर सकता है। हम इस समस्या के समाधान के लिए कुछ उपायों पर भी काम कर रहे हैं।”
इस बीच, आईसीएमआर–एनआईआरईएच (ICMR–NIREH) की टीम, जिसमें सिंह और उनके सहयोगी शामिल हैं, अब झील की तलछट (sediments), जलीय जीवों और खाद्य श्रृंखला के माध्यम से माइक्रोप्लास्टिक के प्रसार पर अध्ययन करने की योजना बना रही है। यह कार्य संस्थान के व्यापक लक्ष्य जैसे नए प्रदूषकों और उनके स्वास्थ्य जोखिमों पर शोध से जुड़ा हुआ है।
बैनर तस्वीरः भोज वेटलैंड के किनारों पर फैला प्लास्टिक प्रदूषण। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे।