- पहले से ही विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुके छत्तीसगढ़ के राजकीय पशु वनभैंसा के अंतिम आश्रय-स्थल पामेड़ वन्यजीव अभयारण्य में सीआरपीएफ ने जंगल वारफेयर कॉलेज और कैंप खोलने का फ़ैसला किया है।
- सीआरपीएफ ने इसके लिए 700 एकड़ की मांग की थी लेकिन वन विभाग ने नेशनल पार्क की 8500 एकड़ से भी अधिक ज़मीन को डी-नोटिफाइ करने का फ़ैसला किया है।
- इस कॉलेज के लिए चयनित बस्तर का यह इलाका इंद्रावती टाइगर रिज़र्व लैंडस्केप का हिस्सा है। लेकिन वन विभाग का तर्क है कि यह माओवाद प्रभावित इलाका है और जंगल वारफेयर कॉलेज खुलने से वन प्रबंधन भी बेहतर तरीके से हो पाएगा।
- विशेषज्ञों का कहना है कि पामेड़ में बनने वाला यह कॉलेज सुरक्षाबलों को तो ताक़त देगा, लेकिन वनभैंसा, बाघ और अनगिनत जीवों और जैव विविधता पर इसका गंभीर प्रभाव होगा।
छत्तीसगढ़ के इंद्रावती के जंगल में जब सुबह की हल्की धुंध छंटती है, तो हर तरफ़ जीवन की आवाज़ें धीरे-धीरे जाग उठती हैं। कभी-कभी इन आवाज़ों में, पामेड़ और भैरमगढ़ इलाके में उन वनभैंसों की भारी पदचाप भी सुनाई पड़ जाती है, जिनकी संख्या महज 25 से 35 के बीच रह गई है। लेकिन आईयूसीएन की लाल सूची में लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध इन वनभैंसों के अस्तित्व पर भी संकट गहराने लगा है।
माओवाद से प्रभावित बस्तर के इंद्रावती टाइगर रिज़र्व के जिस पामेड़ नेशनल पार्क में इन वनभैंसों का अंतिम घर बचा है, वहां केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ ने 700 एकड़ क्षेत्र में जंगल वार फेयर कॉलेज और कैंप बनाने का फ़ैसला किया है।
सरकार ने यह फ़ैसला ऐसे समय में लिया है, जब बस्तर और देश से 31 मार्च 2026 तक माओवाद को पूरी तरह से ख़त्म करने की समय सीमा तय की गई है। यह भी दिलचस्प है कि सीआरपीएफ ने भले 700 एकड़ ज़मीन में जंगल वार फेयर कॉलेज और कैंप बनाने का प्रस्ताव दिया है लेकिन वन विभाग ने इंद्रावती टाइगर रिज़र्व लैंडस्केप के पामेड़ वाइल्ड बफेलो वाइल्डलाइफ सेंचुरी की 8,611.66 एकड़ ज़मीन को टाइगर रिजर्व और नेशनल पार्क से अलग करने का फ़ैसला लिया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि शेष इलाकों में खनन का काम किया जा सकता है।
हालांकि, राज्य के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) अरुण पांडेय का कहना है कि यह बदलाव सिर्फ प्रबंधन से जुड़ा हुआ है। उन्होंने मोंगाबे हिंदी से कहा, “बीच वाला हिस्सा जंगल वारफेयर कॉलेज को दिया जा रहा है। इसलिए उसके पास के हिस्से को भी बीजापुर के सामान्य वन विभाग में जोड़ा जा रहा है, जिससे प्रबंधन में सुविधा हो। लेकिन इससे अभयारण्य का क्षेत्रफल कम नहीं होगा, क्योंकि हम बीजापुर के सामान्य वन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा पामेड़ अभयारण्य में मिला रहे हैं।”
बस्तर के बीजापुर इलाके में 262.120 वर्ग किलोमीटर में फैले पामेड़ वन्यजीव अभयारण्य को दिसंबर 1983 में अधिसूचित किया गया था। हालांकि भारत सरकार के राजपत्र में इसका क्षेत्रफल 442.230 वर्ग किलोमीटर बताया गया है। कई सरकारी दस्तावेज़ों में इसे पामेड़ वाइल्ड बफेलो वाइल्डलाइफ सेंचुरी के रुप में दर्ज़ किया गया है। यह छत्तीसगढ़ के इंद्रावती टाइगर रिज़र्व लैंडस्केप का तो हिस्सा है ही, महाराष्ट्र के ताड़ोबा टाइगर रिज़र्व, छत्तीसगढ़ के उदंती टाइगर रिज़र्व और ओडिशा के सुनाबेड़ा वन्यजीव अभयारण्य से जुड़ा हुआ है। यह मध्य भारत में संरक्षण की दृष्टि से सबसे बड़े प्राकृतिक क्षेत्रों में से एक का निर्माण करता है।
माओवादियों के ख़िलाफ़ छत्तीसगढ़ में पिछले 22 महीनों से चल रहे सघन अभियान के बीच, इस साल केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल ने 30 जुलाई को इसी पामेड़ के, ताड़पाला गांव के पास 700 एकड़ ज़मीन की मांग की। इसमें 650 एकड़ में जंगल वार फेयर कॉलेज खोला जाएगा, जबकि 50 एकड़ में बटालियन कैंपिग की जाएगी।
वन विभाग के आंतरिक दस्तावेज़ों में यह दावा किया गया है कि केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के प्रस्ताव का परीक्षण, पामेड़ वन्यजीव अभयारण्य के उप संचालक द्वारा किया गया, जिसमें निर्विवाद तथ्य सामने आया कि उक्त इलाका माओवादी गतिविधियों का केंद्र बिंदु बन गया है। इसके कारण वन्यजीव प्रबंधन, सर्वेक्षण एवं निगरानी करना न केवल कठिन बल्कि अत्यधिक जोखिमपूर्ण है। वन विभाग के दस्तावेज़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ के गृह विभाग और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल ने भी बैठकों में यह स्पष्ट किया है कि यह क्षेत्र आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील है, अतः उनके लिए प्रशिक्षण एवं कैंपिंग आधार स्थापित करना अत्यावश्यक है। इससे न केवल देश की आंतरिक सुरक्षा मज़बूत होगी बल्कि पूरे क्षेत्र में वन और वन्यजीव प्रबंधन भी अधिक सुदृढ़ एवं सुरक्षित परिस्थितियों में किया जा सकेगा।
इसके लिए वन विभाग ने पामेड़ अभयारण्य के नौ कंपार्टेमेंट एव असीमांकित वन तथा राजस्व भूमि का 3,485 हेक्टेयर यानी 8611.66 एकड़ अलग करने का फ़ैसला किया है। यानी केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल ने भले केवल 700 एकड़ ज़मीन की मांग की है लेकिन वन विभाग ने इससे 10 गुना से भी अधिक 8611.66 एकड़ ज़मीन को अभयारण्य से अलग करने का फ़ैसला किया है।

दिलचस्प ये है कि वन विभाग ने अभयारण्य से बाहर के बीजापुर वनमंडल के 11 कंपार्टमेंट की 3534.964 हेक्टेयर ज़मीन को पामेड़ अभयारण्य में जोड़ने का फ़ैसला किया है। विभाग का तर्क ये है कि जितनी ज़मीन पामेड़ अभयारण्य से अलग की जा रही है, उससे अधिक ज़मीन अभयारण्य में शामिल की जा रही है। लेकिन इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है कि टाइगर रिजर्व के कोर इलाके की ज़मीन, उसकी जैव विविधता और उसकी प्रकृति की, भला सामान्य संरक्षित वन से तुलना कैसे की जा सकती है?
इस प्रस्ताव को 4 सितंबर को वन विभाग ने मंजूरी दे दी और उसके बाद राज्य वन्यजीव बोर्ड ने भी इसे हरी झंडी दे दी।
छत्तीसगढ़ में वन विभाग के एक वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी ने, नाम सार्वजनिक नहीं किए जाने की शर्त पर कहा, “असल में बस्तर के बहुत से इलाकों में खनन की तैयारी है। राज्य में खाली पड़े हुए प्रधान मुख्य वन संरक्षक वन्यजीव के खाली पद पर आनन-फानन में नियुक्ति की गई, उसके पांच दिन के भीतर वन्यजीव बोर्ड की बैठक आयोजित की गई। राज्य वन्यजीव बोर्ड के सदस्यों को एक दिन पहले एजेंडा दिया गया और अगले दिन बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी भी दे दी गई। यह हड़बड़ी बताती है कि सब कुछ सामान्य नहीं है।”
राज्य के गृहमंत्री विजय शर्मा का कहना है कि जिस इलाके में जंगल वारफेयर कॉलेज बनाने की योजना है, वह नक्सलियों की राजधानी थी। इसे हाल ही में नक्सलियों के चंगुल से मुक्त कराया गया है और स्थाई तौर पर समाधान के लिए यहां जंगल वारफेयर कॉलेज शुरू किया जाएगा।

लेकिन देश के जाने-माने पर्यावरणविद और भारत में वन्यजीव क़ानूनों के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले 86 साल के एमके रणजीत सिंह इस बात से चिंतित हैं कि पामेड़ में अगर इस तरह की गतिविधियां शुरू हुईं तो वन्यजीवों का संरक्षण मुश्किल हो जाएगा।
साल 1973 में पर्यावरण मंत्रालय में भारत के पहले वन्यजीव संरक्षण निदेशक के रूप में काम करने वाले एमके रणजीत सिंह बताते हैं कि जब वह अविभाजित मध्यप्रदेश में वन विभाग के मुख्य सचिव थे, उसी दौरान पामेड़ वन्यजीव अभयारण्य और इंद्रावती टाइगर रिज़र्व की अधिसूचना जारी की गई थी।
एमके रणजीत सिंह ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “पामेड़ में जंगल वार फेयर कॉलेज कैसे खोला जा सकता है? एक तरफ़ तो हम देश में पर्यावरण और वन्यजीवों को बचाने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं। छोटे से छोटे इलाके के संरक्षण की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ़ इस तरह का प्रयोग, वन्यजीवों के लिए भयावह होगा। यह केवल पामेड़ का नहीं, बल्कि पूरे मध्यभारत के लिए चिंताजनक है।”
मध्य भारत में वनभैंसों का अंतिम आश्रय स्थल
वनभैंसा छत्तीसगढ़ का राजकीय पशु है। लेकिन पिछले कई दशकों से इस राजकीय पशु को बचाने की तमाम कोशिशें नाकामयाब रही हैं। कभी इसे बाड़े में बंद रख कर इसकी आबादी बढ़ाने की कोशिश हुई, कभी इनकी कथित क्लोनिंग की गई। यहां तक कि असम के मानस राष्ट्रीय उद्यान से वनभैंसे पकड़ कर लाए गए। लेकिन राज्य में वनभैंसों की संख्या में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है।
राज्य में वनभैंसा की संख्या उदंती-सीतानदी में महज एक और इंद्रावती टाइगर रिज़र्व में लगभग 25 से 35 के आसपास मानी गई है। यह आबादी पामेड़ और भैरमगढ़ के इलाके में ही है। इसी इलाके से वनभैंसों का झुंड अलग-अलग मौसम में महाराष्ट्र की ओर जाता है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह संकटग्रस्त विशाल शाकाहारी वन्यजीव, 95 फीसदी इलाकों से लुप्त हो चुका है और इसकी वैश्विक आबादी का लगभग 90 फीसदी, भारत के दो इलाकों- पूर्वोत्तर भारत और छत्तीसगढ़ में पाया जाता है। लेकिन छत्तीसगढ़ की आबादी भी विलुप्ति की कगार पर है।

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के दस्तावेज़ बताते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी में पूर्वी भारत की बड़ी नदियों के किनारे सैकड़ों की संख्या में वनभैंसा मिलते थे। इनमें बिहार का पूर्णिया जिला, अविभाजित बंगाल के माल्दा, दिनाजपुर, जलपाईगुड़ी, ढाका, फरीदपुर, नोआखोली, मिदनापुर, ब्रह्मपुत्र के चुर और असम के मैदान, ओडिशा के बालासोर और कटक के समुद्री इलाके, अविभाजित मध्यप्रदेश के मंडला, रायपुर, संबलपुर और बस्तर के अलावा दक्षिण भारत में भी ये वनभैंसे खूब नज़र आते थे। लेकिन मानव आबादी का विस्तार, वनभैंसों का शिकार और बीमारियों के कारण इनकी संख्या कम होती चली गई।
अप्रैल 1965 में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी द्वारा किए एक विस्तृत सर्वेक्षण में पश्चिमी बस्तर में 86, दक्षिण बस्तर में 11 और बस्तर से लगे हुए ओडिशा के इलाके में आठ वनभैंसे देखे गए थे। यानी कुल 105 वनभैंसे देखे गए थे।
इस रिपोर्ट में कहा गया कि यह देखते हुए कि पश्चिम बस्तर में हमारे पास वर्तमान में प्रायद्वीपीय भारत में सबसे बड़ा और सर्वोत्तम भैंस का आवास है, जिसका क्षेत्रफल लगभग 400 वर्ग मील है, वहाँ वनभैसों की आबादी आश्चर्यजनक रूप से कम है। रिपोर्ट में कहा गया कि इस क्षेत्र में 200 से 250 से अधिक भैंसें नहीं हैं, और इनमें से कुछ भैंसें महाराष्ट्र के सटे हुए चांदा ज़िले के साथ साझा होते हैं।
रिपोर्ट में यह भी माना गया कि वास्तविक गिनती इस अनुमान के निचले स्तर की आधी है, लेकिन रिपोर्ट में उन झुंडों को भी शामिल किया गया, जिनके बारे में सर्वे दल को जानकारी दी गई थी, पर जिन्हें सर्वे दल ने स्वयं नहीं देखा, और उन क्षेत्रों को भी जिनका दौरा करने का अवसर या समय, सर्वेक्षण करने वाले दल को नहीं मिला। रिपोर्ट में कहा गया कि वन विभाग के कर्मचारियों और गाँव वालों से स्वतंत्र रूप से मिली जानकारी सर्वेक्षण दल के आंकड़ों से लगभग मेल खाती है।
वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 1965 के सर्वे के बाद वनभैंसों की संख्या कम-ज़्यादा होती रही। 1994 में इस इलाके में वनभैंसो की संख्या 214 थी, जो वर्ष 2000 में घट कर महज़ 20 रह गई। साल 2004 में इस इलाके में 47 वनभैंसों की उपस्थित का दावा किया गया लेकिन उसके बाद से यह संख्या 25 से 35 के बीच ही बनी रही। हालांकि माओवादी गतिविधियों के कारण पिछले कई सालों से इस इलाके में वन्यजीवों की कोई गणना नहीं हुई है। लेकिन जैवविविधता सर्वे और वाइल्डलाइफ़ ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट्स दर्शाती हैं कि पामेड़ और आस-पास के इलाकों में वनभैंसों के छोटे, पर महत्वपूर्ण वंश मौजूद रहे हैं।
वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि यहाँ इनके छोटे-छोटे झुंड अब भी देखे जा सकते हैं। लेकिन ये झुंड अलग-थलग पड़ चुके हैं और किसी भी तरह का व्यवधान उनकी प्रजनन और अस्तित्व क्षमता को गहरा नुकसान पहुँचा सकता है। ज़ाहिर है, पामेड़ में जंगल वार फेयर कॉलेज का निर्माण, दूसरे वन्यजीवों के अलावा, वनभैसों की लुप्तप्राय आबादी पर प्रतिकूल असर डालने वाला साबित हो सकता है।
जंगल वारफेयर कॉलेज के अनुभव
छत्तीसगढ़ में 2005 में बस्तर के ही कांकेर इलाके में लगभग 300 एकड़ में काउंटर टेररिज़्म जंगल वारफेयर कॉलेज़ खोला गया था। पिछले दो दशकों में, इस काउंटर टेररिज्म एंड जंगल वारफेयर कॉलेज में, हज़ारों की संख्या में सुरक्षाबलों को प्रशिक्षण दिया गया। इस कॉलेज के कारण माओवादी मोर्चे पर लड़ना भी सरल हुआ लेकिन इस काउंटर टेररिज्म एंड जंगल वारफेयर कॉलेज के कारण, इलाके में वन्यजीव और मानव संघर्ष में टकराव की घटनाओं में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई।
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इस इलाके में भालुओं के हमले भी बढ़े और वन्यजीवों का मानव-निवास क्षेत्रों में आना भी बढ़ा। विशेषज्ञों का मानना है कि सुरक्षाबलों की गश्त, गोली और अन्य अस्त्र-शस्त्र चलाने के अभ्यास और रात में तेज़ रोशनी जैसी गतिविधियाँ जंगल के बड़े जानवरों ख़ासकर भालू और बड़े शाकाहारी जानवरों का बर्ताव बदल देती हैं। यही कारण है कि जंगल वारफेयर कॉलेज के प्रशिक्षण के इलाके में पानी के सोते और प्राकृतिक चारागाहों पर भी प्रभाव पड़ा और सबसे अधिक प्रभावित हुआ वन्यजीवों के आवागमन का बरसों पुराना मार्ग।


विशेषज्ञों का कहना है कि पामेड़ में जंगल वारफेयर कॉलेज का वनभैंसों पर और प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि जंगली भैंस जैसे जानवरों का जीवन खुले चरागाह और साफ़ पानी पर निर्भर है। ये वनभैंसा नमी वाले मैदानों और नदी की किनारी घास पर निर्भर करते हैं। लेकिन वारफेयर कॉलेज की अधोसंरचना निर्माण, पानी के साथ-साथ रेत का विन्यास भी बदल सकती हैं। छोटे जल स्रोतों का सूख जाना सीधे-सीधे स्थानीय भैंसों के जीवन-चक्र पर असर डाल सकता है।
पामेड़ अभयारण्य और उसके आस-पास लगभग 65 गाँव बसे हैं। यहाँ के आदिवासी सदियों से जंगल पर निर्भर हैं। खेती, महुआ और तेंदू पत्ते की रोज़गार-श्रृंखला और नदियों से जुड़ी संस्कृति उनके जीवन की रीढ़ है। विरोधाभास यह है कि एक तरफ़ राज्य सरकार वन्यजीव संरक्षण के नाम पर इंद्रावती समेत दूसरे वन्यजीव अभयारण्य और टाइगर रिज़र्व में सैकड़ों सालों से बसे आदिवासी गाँवों को खाली करा रही है या उसे खाली कराने की योजना पर काम कर रही है। वहीं दूसरी तरफ़, उसी जंगल के बीचोंबीच सुरक्षाबलों का 700 एकड़ का कैंप स्थापित करने की तैयारी है।
पामेड़ के भीतर जंगल वारफेयर कॉलेज बनाना केवल सुरक्षा का प्रश्न नहीं है, बल्कि उस क्षेत्र में भी व्यापक हस्तक्षेप का मुद्दा है, जहाँ संकटग्रस्त वनभैंसा, आदिवासी समाज की सांस्कृतिक पहचान और वन संरक्षण की राष्ट्रीय जिम्मेदारी जुड़ी हुई है। ऐसे में नीति निर्माताओं के सामने एक बड़ी चुनौती है कि सुरक्षा की ज़रूरतें इस तरह पूरी हों कि जंगल और समाज दोनों सुरक्षित रहें। ऐसा नहीं होने पर माओवादियों पर जीत का श्रेय तो मिल सकता है, पर जंगल और उसकी जैव विविधता के नष्ट होने के अनिवार्य ख़तरे के लिए भी हमें तैयार रहना होगा।
बैनर तस्वीर- छत्तीसगढ़ के जंगल में वन भैंसा। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में वनभैंसों की शुद्ध नस्ल अब केवल असम और छत्तीसगढ़ में ही बची हुई है। तस्वीर- छत्तीसगढ़ वन विभाग