- हिमाचल प्रदेश के किब्बर गांव में 11 स्थानीय महिलाओं की एक टीम ने इस क्षेत्र में हिम तेंदुए (स्नो लेपर्ड) की आबादी का अनुमान लगाने के वैज्ञानिक सर्वेक्षण में अहम भूमिका निभाई।
- वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि ईको-डेवलपमेंट कमेटियों, रोज़गार कार्यक्रमों और जागरूकता अभियानों के ज़रिए स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग ने ट्रांस-हिमालय क्षेत्र में भरोसा बढ़ाया है और मानव–वन्यजीव संघर्ष को कम किया है।
- शोधकर्ताओं का मानना है कि जलवायु परिवर्तन और आवास में हो रहे बदलाव स्नो लेपर्ड नई चुनौतियाँ हैं, लेकिन विज्ञान और समुदायों के बीच यह साझेदारी ऊँचे हिमालय में सह-अस्तित्व और स्थायित्व का एक टिकाऊ मॉडल प्रस्तुत करती है।
स्पीति घाटी की एक खड़ी पहाड़ी ढलान पर तीन महिलाएं ठंडी हवा में पत्थरों के बीच कैमरा ट्रैप का एंगल ठीक कर रही हैं। यह काम मुश्किल और समय लेने वाला है, लेकिन उनके लिए यह गर्व की बात है। ये महिलाएं किब्बर गांव की 11 सदस्यीय टीम का हिस्सा हैं, जो हिमाचल प्रदेश में हिम तेंदुए (स्नो लेपर्ड) के संरक्षण में अहम भूमिका निभा रही हैं।
यह काम हिमाचल प्रदेश वन विभाग और नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन (NCF) द्वारा किए गए दूसरे हिम तेंदुआ सर्वेक्षण का हिस्सा है। इस सर्वे में राज्य में 83 हिम तेंदुए दर्ज किए गए, जो 2021 में 51 थे।
दो साल पहले जब लॉज़बांग यांगचेन ने अपने गाँव में वन्यजीव निगरानी टीम से जुड़ना शुरू किया, तब उन्होंने कभी कंप्यूटर नहीं चलाया था। आज 31 साल की उम्र में, दो बेटियों की माँ लॉज़बांग इस टीम की अगुवाई कर रही हैं और हिम तेंदुए के संरक्षण में सक्रिय हैं।
लॉज़बांग का जन्म लॉज़र गाँव में हुआ था, जो किब्बर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। वह कहती हैं, “बचपन में हम हिम तेंदुए की कहानियां सुनते थे कि वे रात में आते हैं और बकरियों पर हमला करते हैं, लेकिन मैंने कभी उन्हें देखा नहीं।”
शादी के बाद जब वह किब्बर आईं तो यह सब सच हो गया। “यहाँ एक रात में चार-पाँच बकरियाँ मारी जाना आम बात थी,” वह बताती हैं। “लोग हिम तेंदुए को समस्या मानते थे, न कि किसी ऐसी चीज़ को जिसे बचाया जाए।”
जब वन विभाग और NCF ने स्थानीय लोगों को इस सर्वे में शामिल किया, तो लॉज़बांग ने भी हिस्सा लिया। वह कहती हैं, “लोग पूछते थे कि जो हमारे लिए नुकसानदेह हैं, उन्हें क्यों बचाएं। अब सब समझते हैं कि हमारी बकरियां उनका खाना हैं और वे भी जीव हैं, जिन्हें जीने के लिए भोजन चाहिए।”
वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि ईको-डेवलपमेंट कमेटियों, रोज़गार कार्यक्रमों और जागरूकता अभियानों की मदद से स्थानीय लोगों के साथ भरोसा बढ़ा है और मानव–वन्यजीव संघर्ष में कमी आई है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और आवास में बदलाव नई चुनौतियाँ हैं, लेकिन विज्ञान और समुदायों की साझेदारी ऊँचे हिमालय में सह-अस्तित्व और स्थायी संरक्षण का मजबूत उदाहरण बन रही है।


स्पीति की महिलाएं
किब्बर गांव की महिलाओं की टीम ने राज्य के हिम तेंदुआ सर्वेक्षण के हर चरण में काम किया, कैमरा ट्रैप लगाने से लेकर डेटा प्रोसेस करने तक। उनकी सटीकता और धैर्य की प्रशंसा आधिकारिक रिपोर्ट में की गई है, जिसमें कहा गया कि “उनके काम का डेटा की गुणवत्ता और विश्लेषण की गति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।”
लॉज़बांग कहती हैं, “हमारी ट्रेनिंग बेसिक अंग्रेज़ी से शुरू हुई, फिर कंप्यूटर की पढ़ाई हुई। अब हम खुद तस्वीरों को टैग करते हैं, डेटा प्रोसेस करते हैं और कैमरा ट्रैप भी सँभालते हैं।”
उनकी छोटी बहन छॉई, जो ग्रेजुएट हैं, भी इस टीम का हिस्सा हैं। “टीम की बाकी महिलाओं ने चौथी या पाँचवीं तक ही पढ़ाई की है,” वह बताती हैं। “NCF और वन विभाग की ट्रेनिंग ने हमें ऐसे अवसर दिए, जिनकी हमने कभी कल्पना नहीं की थी।”
लॉज़बांग आगे कहती हैं, “जब हमने शुरुआत की थी, तो मुझे अपने ससुराल वालों से ट्रेनिंग और फील्ड वर्क के लिए अनुमति लेनी पड़ी थी। मैं आभारी हूँ कि उन्होंने अनुमति दी। अब जब मैं अपनी टीम की प्रगति और हमारे काम को देखती हूँ, तो लगता है कि हम अपने गाँव के लिए कुछ सच में महत्वपूर्ण कर रहे हैं।”
स्पीति घाटी में हिम तेंदुआ सर्वेक्षण के तहत किब्बर गांव की महिलाएं कैमरा ट्रैप से ली गई तस्वीरों को टैग और प्रोसेस करती हुईं। तस्वीर साभार: नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन और हिमाचल प्रदेश वन विभाग
हिम तेंदुओं की गिनती
इस सर्वे में राज्य में 83 हिम तेंदुए दर्ज किए गए, जिनकी वास्तविक संख्या 67 से 103 के बीच मानी गई है। 2021 में यह संख्या 51 थी।
हिम तेंदुए के आवास वाले 26,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लगाए गए कैमरा ट्रैप से 44 अलग-अलग तेंदुए रिकॉर्ड किए गए। सर्वे में किन्नौर में पहली बार पल्लासेस कैट (मानुल) की तस्वीरें मिलीं और लाहौल में ऊन वाले उड़न गिलहरी (woolly flying squirrel) की उपस्थिति की पुष्टि हुई।
रिपोर्ट की प्रस्तावना में अमिताभ गौतम, प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव), ने इन परिणामों को “ऊँचाई वाले इलाकों में संरक्षण के लिए एक मील का पत्थर” बताया। उन्होंने लिखा, “यह उपलब्धि हिमाचल प्रदेश की ऊँचाई वाले पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित करने की प्रतिबद्धता को दिखाती है। यह प्रयास स्थानीय टीमों और समुदायों की भागीदारी के बिना संभव नहीं था, जो इस कठिन भूभाग को सबसे बेहतर जानते हैं।”
मोंगाबे इंडिया से बातचीत में प्रीति भंडारी, मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव), ने कहा, “यह सर्वे सिर्फ एक साल में पूरा हुआ, जबकि पिछला सर्वे तीन साल तक चला था। यह दिखाता है कि बड़े स्तर पर निगरानी करने की हमारी क्षमता बढ़ी है और विभाग व स्थानीय समुदायों के बीच भरोसा मजबूत हुआ है।”

नाज़ुक ज़मीन पर भरोसे की नींव
मैदान पर काम करने वाले अधिकारियों के लिए समुदायों का भरोसा जीतना आसान नहीं रहा है। मंदार जेवरे, जिन्होंने अगस्त 2023 से जून 2025 तक स्पीति वन्यजीव प्रभाग में उप वन संरक्षक (वन्यजीव) के रूप में कार्य किया, बताते हैं कि इस क्षेत्र का अनोखा ठंडा मरुस्थलीय पारिस्थितिक तंत्र वन्यजीवों और पारंपरिक कृषि–पशुपालक समुदायों दोनों का घर है।
उन्होंने कहा, “स्पीति का ठंडा मरुस्थल ऐसा क्षेत्र है जहां वन्यजीव सीमित संसाधनों के लिए संघर्ष करते हैं और समुदाय कठिन मौसम में उनके साथ रहते हैं। यह ट्रांस-हिमालयी क्षेत्र बहुत नाज़ुक है और जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील है। बढ़ता पर्यटन, विकास की आकांक्षाएँ और चरागाहों में सेना की मौजूदगी ऐसे दबाव पैदा कर रही हैं, जो मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ा रही हैं।”
जेवरे ने बताया कि विभाग की प्राथमिकता इन दबावों को कम करने पर रही है, समुदायों के नेतृत्व में पर्यटन प्रबंधन, जागरूकता कार्यक्रम और नए विकास कार्यों में शमन उपायों को शामिल करना।
उन्होंने कहा, “लैंडस्केप आधारित और समुदाय-नेतृत्व वाला प्रबंधन हमारे काम का अहम हिस्सा रहा है। स्पीति पहला बर्फ़ीला तेंदुआ लैंडस्केप था, जहाँ 2009 में प्रोजेक्ट स्नो लेपर्ड के तहत लैंडस्केप आधारित संरक्षण योजना लागू की गई थी।”
इसके बाद से वन विभाग ने समुदायों के साथ मिलकर ईको-डेवलपमेंट कमेटियों (EDCs) और जाइका (जापान अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एजेंसी -JICA) परियोजना के तहत जैव विविधता प्रबंधन समितियों के ज़रिए काम किया है। ये समितियाँ सर्दियों के पर्यटन को नियमित करती हैं, पॉपलर, विलो और सी-बकथॉर्न जैसे पौधों का रोपण बढ़ावा देती हैं, शिकारी-रोधी पशु बाड़ लगाती हैं और एनजीओ की मदद से आवारा कुत्तों की नसबंदी मुहिम चलाती हैं।
जेवरे कहते हैं, “कोई भी सफल संरक्षण पहल समुदाय के नेतृत्व के बिना संभव नहीं है। सर्दियों में लोग बर्फ़ीला तेंदुआ देखने वाले पर्यटन से आजीविका कमाते हैं और अब वे खुद यह सुनिश्चित करते हैं कि वन्यजीव और उनका आवास सुरक्षित रहे। खासकर महिलाएं कैमरा ट्रैप और तस्वीरों के विश्लेषण के ज़रिए निगरानी में अहम भूमिका निभा रही हैं।”
उनका कहना है कि ऐसे छोटे-छोटे कदमों ने विभाग और लोगों के बीच भरोसे को मज़बूत किया है और संरक्षण की एक साझा ज़िम्मेदारी की भावना पैदा की है।

उन्होंने कहा, “आख़िरकार, जो समुदाय सदियों से इस स्थानव की देखभाल कर रहे हैं, उन्हें ही वन विभाग की मदद से इसे बनाए रखने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए।”
उनकी सहयोगी, मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) प्रीति भंडारी, कहती हैं कि समुदायों के साथ इस तरह का करीबी सहयोग अब राज्य के संरक्षण कार्यों का मूल हिस्सा बन गया है।
भंडारी ने बताया, “इस सर्वे में हमने आठ लाख से ज़्यादा तस्वीरें प्रोसेस कीं, जिनमें से कई में स्थानीय महिलाओं की भागीदारी रही। हम लोगों को बताते हैं कि बर्फ़ीला तेंदुआ राज्य की ‘फ़्लैगशिप प्रजाति’ है और पर्यटन उनकी आय का मुख्य स्रोत है। लोग इन क्षेत्रों में इस शानदार जीव को देखने आते हैं, इसलिए अब संरक्षण और आजीविका एक-दूसरे से गहराई से जुड़ गए हैं।”
भंडारी ने यह भी कहा कि सहयोग सिर्फ सर्वे या जागरूकता बैठकों तक सीमित नहीं है, बल्कि इन दूरदराज़ के गाँवों के रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुका है।
वह कहती हैं, “हमारे अधिकारी सड़क मरम्मत जैसे छोटे कामों या स्थानीय ज़रूरतों में लोगों की मदद करते हैं, और बदले में लोग वन्यजीवों की रक्षा में हमारा साथ देते हैं। हम आजीविका, मिट्टी का संरक्षण और पौधरोपण जैसी परियोजनाएँ भी चलाते हैं, जो समुदाय में साझा ज़िम्मेदारी की भावना को बढ़ाती हैं।”
स्पीति घाटी, जो अपने नाज़ुक ट्रांस-हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र और प्रकृति के साथ गहरे सांस्कृतिक संबंध के लिए जानी जाती है, अब कोल्ड डेज़र्ट बायोस्फीयर रिज़र्व (CDBR) में शामिल की गई है। यह यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त एक नेटवर्क है, जो संरक्षण और स्थानीय आजीविका के बीच संतुलन को बढ़ावा देता है।
दूसरी प्रजातियों का भी संरक्षण
जब स्थानीय समुदायों और शोधकर्ताओं ने मिलकर हिम तेंदुए का अध्ययन किया, तो किन्नौर की हंगरंग घाटी में लगाए गए कैमरा ट्रैप में पहली बार पल्लास की बिल्ली (Otocolobus manul) की तस्वीरें मिलीं। यह रिकॉर्ड 3,900 से 4,100 मीटर की ऊँचाई पर तीन स्थानों से प्राप्त हुआ, जहाँ शोधकर्ताओं ने इस छोटी जंगली बिल्ली की 19 तस्वीरें हासिल कीं।
चारु शर्मा, जो नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन (NCF) से इस अध्ययन की प्रमुख लेखिका हैं, कहती हैं, “यह रिकॉर्ड हिम तेंदुए के लिए चलाए गए बड़े पैमाने के कैमरा ट्रैप सर्वेक्षण से मिला। इससे हमें पल्लास की बिल्ली के भारत में वितरण की नई जानकारी मिली और यह दिखाता है कि छोटी और कम जानी-पहचानी प्रजातियों को भी संरक्षण योजनाओं में शामिल करना कितना ज़रूरी है।”

पल्लास की बिल्ली भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची-I और CITES के परिशिष्ट-II में सूचीबद्ध है। वैश्विक स्तर पर इसे लीस्ट कंसर्न श्रेणी में रखा गया है, लेकिन इसे आवास हानि, आवारा कुत्तों, और पर्यटन से होने वाले व्यवधानों जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
यह खोज दिखाती है कि हिम तेंदुए का संरक्षण सिर्फ एक प्रजाति की रक्षा नहीं करता, बल्कि ट्रांस-हिमालय की कई कम जानी-पहचानी प्रजातियों के अस्तित्व को भी सुरक्षित करता है।
बदलते पहाड़
ताज़ा रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पर्यावरण में हो रहे बदलाव भविष्य में हिम तेंदुए की स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। प्रीति भंडारी कहती हैं, “कुछ हिम तेंदुए अब नीचे के इलाकों में देखे जा रहे हैं, जबकि तेंदुए ऊँचाई पर दिखाई देने लगे हैं। बर्फ़बारी कम हो रही है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, और आवास की स्थिरता बनाए रखना एक बड़ी चुनौती बन गया है।”
रिपोर्ट के फ्यूचर डायरेक्शंस भाग में हर तीन से पाँच साल में कैमरा ट्रैप सर्वे दोहराने, जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों को अपनाने और स्थानीय ज्ञान को योजनाओं में शामिल करने की सिफारिश की गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि “वैज्ञानिक निगरानी और पारंपरिक समझ का मेल ही ऊंचे हिमालय में दीर्घकालिक स्थिरता की कुंजी है।”
सर्वे के पूरा होने के बाद हिमाचल प्रदेश वन विभाग और नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन (NCF) अब ट्रांस-हिमालयी परिदृश्य में हिम तेंदुए के आवासों के संरक्षण और प्रबंधन के लिए एक ड्राफ्ट प्लान तैयार कर रहे हैं। यह योजना वैज्ञानिक शोध, सामुदायिक भागीदारी और जलवायु अनुकूलता को एक साथ जोड़ने पर केंद्रित है।


यह प्रस्तावित योजना संकटग्रस्त प्रजातियों की रक्षा, मानव–वन्यजीव संघर्ष को कम करने और हंगरंग घाटी, स्पीति, और लाहौल जैसे क्षेत्रों में टिकाऊ आजीविका को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखती है। इसमें नियमित आबादी की निगरानी, कचरा प्रबंधन में सुधार और पर्यटन व जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के उपाय शामिल हैं।
दीपशिखा शर्मा, जो NCF के हाई एल्टीट्यूड प्रोग्राम से जुड़ी हैं, कहती हैं, “यह योजना वन अधिकारियों और NCF के इनपुट पर आधारित है और हिम तेंदुए के आवासों के शोध और संरक्षण के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाती है। NCF और अन्य हितधारकों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है कि समुदायों और आवास दोनों को संरक्षण के प्रयासों से लाभ मिले।”
और पढ़ेंः [इंटरव्यू] हिमालयी क्षेत्रों में दिख रही पलासेस कैट के संरक्षण में क्या हैं चुनौतियां
अंतिम रूप मिलने के बाद यह योजना हिमाचल की ऊँचाई वाली जैव विविधता को संरक्षित करने का एक दीर्घकालिक रोडमैप बनेगी, जिसमें स्थानीय समुदायों को निर्णय प्रक्रिया के केंद्र में रखा जाएगा।
इन योजनाओं और नीतियों के बीच, स्पीति के लोग अपने शांत लेकिन महत्वपूर्ण काम में लगे हैं। किब्बर में अब लॉज़बांग यांगचेन अपना घर संभालने के साथ संरक्षण का काम भी कर रही हैं। उनकी 11 साल की बेटी अक्सर उनके साथ बैठकर हिम तेंदुए की तस्वीरें देखती है।
लॉज़बांग मुस्कराते हुए कहती हैं, “जब मैं लोज़र में बच्ची थी, तब हम सिर्फ हिम तेंदुए की कहानियां सुनते थे। अब, हमारी कोशिशों की वजह से हमारे बच्चे उनकी तस्वीरें देख सकते हैं।”
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बैनर तस्वीरः सर्वे के दौरान कैमरा ट्रैप में कैद हुआ हिम तेंदुआ। तस्वीर साभार-तस्वीर साभार- वन्यजीव शाखा- हिमाचल प्रदेश वन विभाग और नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन