- “ग्रेट निकोबार – कहानी विश्वासघात की” किताब ग्रेट निकोबार द्वीप पर चल रही “होलिस्टिक डेवलपमेंट प्रोजेक्ट” की पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक जटिलताओं को उजागर करती है।
- पुस्तक में विभिन्न विशेषज्ञों के लेख हैं जो परियोजना की प्रक्रियागत खामियों, स्थानीय समुदायों की उपेक्षा और पारिस्थितिक जोखिमों पर गहराई से चर्चा करते हैं।
- लेखक पंकज सेखसरिया द्वारा संपादित किताब की हिन्दी अनुवादक संघप्रिया मौर्या ने मूल लेखों की गंभीरता को बरकरार रखते हुए उन्हें सरल और प्रवाहपूर्ण बनाया है।
- पुस्तक में फ्रंटलाइन, द वायर, मोंगाबे इंडिया और सैंक्चुअरी एशिया जैसी पत्रिकाओं के लेख शामिल हैं, जो मिलकर इस परियोजना की वैज्ञानिक, कानूनी और सामाजिक परतों को उजागर करते हैं।
भारत के सबसे दक्षिणी छोर पर स्थित ग्रेट निकोबार द्वीप इस समय एक विशाल ‘होलिस्टिक डेवलपमेंट प्रोजेक्ट’ के केंद्र में है। सरकार यहां एक ट्रान्शिपमेंट पोर्ट, इंटरनेशनल एयरपोर्ट, पावर प्लांट और नया शहर बसाने की योजना बना रही है। आधिकारिक दस्तावेज़ इस परियोजना को “रणनीतिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण” बताते हैं, लेकिन पर्यावरणविद, वैज्ञानिक और स्थानीय समुदायों का कहना है कि यह विकास योजना द्वीप की नाज़ुक पारिस्थितिकी और वहां के जनजीवन के लिए गंभीर खतरा बन सकती है।
इसी विषय को गहराई से समझने में मदद करती है पुस्तक “ग्रेट निकोबार – कहानी विश्वासघात की”, जो अंग्रेज़ी पुस्तक “द ग्रेट निकोबार बिट्रेयल” (The Great Nicobar Betrayal) का हिंदी अनुवाद है। यह पुस्तक दिखाती है कि कैसे “राष्ट्रीय विकास” की महत्वाकांक्षा एक पारिस्थितिक और सामाजिक संकट में बदल सकती है।
इसका संपादन और हिंदी प्रकाशन पंकज सेखसरिया ने किया है। इसमें फ्रंटलाइन, द वायर, सैंक्चुअरी एशिया और मोंगाबे इंडिया जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख शामिल हैं। हर लेख ग्रेट निकोबार परियोजना के एक अलग पहलू को सामने लाता है, जैसे पर्यावरणीय मंजूरी की प्रक्रिया में जल्दबाज़ी, भूकंपीय जोखिम, स्थानीय समुदायों की भागीदारी की कमी, जैव विविधता पर पड़ते खतरे और परियोजना के आर्थिक तर्क की सीमाएँ।
पंकज सेखसरिया पर्यावरणीय संगठन कल्पवृक्ष (Kalpavriksh) के सदस्य हैं और पिछले दो दशकों से अंडमान और निकोबार आइलैंड्स से जुड़े पर्यावरण और सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। वे लेखक, शोधकर्ता और फोटोग्राफर हैं तथा द्वीप पारिस्थितिकी और साइंस कम्युनिकेशन पर कई वर्षों से लेखन कर रहे हैं।
लगभग 100 पृष्ठों की यह पुस्तक 395 रुपए की कीमत पर प्रकाशित हुई है और अमेज़न व फ्लिपकार्ट जैसे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध है। अंग्रेज़ी संस्करण फ्रंटलाइन बुक्स (Frontline Books) द्वारा प्रकाशित किया गया था, जबकि इसका हिंदी प्रकाशन स्वयं पंकज सेखसरिया ने किया है। हिंदी संस्करण का उद्देश्य इस विषय को शोध संस्थानों या अंग्रेज़ी पाठकों तक सीमित न रखकर व्यापक हिंदी पाठक समुदाय तक पहुंचाना है, ताकि ग्रेट निकोबार के सवालों पर राष्ट्रीय स्तर पर संवाद बढ़े।

विविध दृष्टिकोण
पुस्तक में शामिल लेख ग्रेट निकोबार परियोजना को कई दृष्टिकोणों से समझने का अवसर देते हैं। इसमें पारिस्थितिकी, भूगोल, कानून, मानवविज्ञान और नीति विश्लेषण जैसे विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की बातें शामिल हैं। संकलन को इस तरह व्यवस्थित किया गया है कि पाठक परियोजना के इतिहास, पर्यावरणीय प्रभाव, आदिवासी अधिकारों और कानूनी प्रक्रियाओं के बीच संबंधों को स्पष्ट रूप से देख सके।
पहला लेख “एक बड़ी गलती” (The Great Misadventure) परियोजना के स्वरूप और स्वीकृति प्रक्रिया की आलोचनात्मक समीक्षा करता है। पंकज सेखसरिया बताते हैं कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) रिपोर्ट जल्दबाजी में तैयार की गई और स्थानीय लोगों से राय लेने की प्रक्रिया केवल औपचारिकता बनकर रह गई। यह लेख विकास की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी और प्रशासनिक जल्दबाजी पर सीधा सवाल उठाता है।
दूसरा लेख वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह चेतावनी देता है कि निकोबार द्वीप उच्च भूकंपीय क्षेत्र में आता है। 2004 की सुनामी की भयावहता के बाद भी इतने बड़े पैमाने पर निर्माण की योजना बनाना जोखिम भरा और अविवेकपूर्ण कदम माना गया है।
पुस्तक के कुछ लेख निकोबारी और शॉम्पेन जनजातियों के जीवन और संघर्षों पर केंद्रित हैं। लेखक बताते हैं कि ये समुदाय सदियों से समुद्र, जंगल और भूमि के साथ गहरे रिश्ते में जीते आए हैं, लेकिन परियोजना की योजना बनाते समय उनकी आवाज़ को शामिल नहीं किया गया। यह केवल विकास की कहानी नहीं, बल्कि सामाजिक असमानता और सांस्कृतिक उपेक्षा का दस्तावेज़ भी बन जाती है।
द्वीप की जैव विविधता पर केंद्रित लेखों में वैज्ञानिक बताते हैं कि ग्रेट निकोबार दुनिया के उन दुर्लभ इलाकों में से एक है जहाँ कई अनोखी प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जैसे निकोबार मेगापोड, विशाल चमगादड़ और नाजुक प्रवाल भित्तियाँ। बड़े पैमाने पर निर्माण, जंगलों की कटाई और तटीय बदलाव इन जीवों के प्राकृतिक आवास को नष्ट कर सकते हैं।
इन सभी लेखों के माध्यम से पुस्तक यह दिखाती है कि ग्रेट निकोबार परियोजना केवल एक विकास योजना नहीं, बल्कि भारत में “विकास बनाम पर्यावरण” की बहस का जीवंत उदाहरण है।
कानूनी पहलू के साथ पारिस्थितिकी वैभव
पुस्तक के कानूनी विश्लेषण वाले लेख यह दिखाते हैं कि ग्रेट निकोबार परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृतियाँ पारदर्शिता से बहुत दूर रहीं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) और सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएँ दायर की गईं, लेकिन उनसे कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। ये लेख यह सवाल उठाते हैं कि क्या भारत की पर्यावरणीय और नियामक संस्थाएँ इतनी बड़ी परियोजनाओं की स्वतंत्र और निष्पक्ष समीक्षा करने में सक्षम हैं।
इन लेखों में यह भी बताया गया है कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) जैसी प्रक्रियाएँ किस तरह जल्दबाज़ी में पूरी की गईं और स्थानीय लोगों द्वारा उठाई गई आपत्तियों को बहुत सतही रूप से निपटा दिया गया। कानूनी दस्तावेज़ों और सुनवाई के अंशों के माध्यम से लेखक दिखाते हैं कि कई निर्णय पहले से तय दिशा में आगे बढ़ रहे थे, जिससे औपचारिक प्रक्रिया का उद्देश्य ही कमजोर पड़ गया। यह स्थिति पाठक को सोचने पर मजबूर करती है कि क्या “विकास” की यह तेज़ दौड़ वास्तव में वैध और न्यायसंगत है।
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आर्थिक दृष्टि से भी पुस्तक कई अहम सवाल उठाती है। रोहन आर्थर और टी. आर. शंकर रमन जैसे लेखक लिखते हैं कि सिंगापुर और कोलंबो जैसे बड़े बंदरगाहों से प्रतिस्पर्धा करने का विचार अव्यावहारिक है। उनके अनुसार, ग्रेट निकोबार का भौगोलिक स्थान और निवेश की लागत इसे भविष्य में “अटके हुए निवेश” यानी stranded investment में बदल सकता है।
पुस्तक के कई अध्याय द्वीप की भौगोलिक नाज़ुकता पर भी केंद्रित हैं। निकोबार द्वीपसमूह उच्च भूकंपीय गतिविधि वाले क्षेत्र में आता है, और 2004 की सुनामी इस अस्थिरता की याद दिलाती है। ऐसे क्षेत्र में इतनी विशाल निर्माण परियोजनाएँ कितनी टिकाऊ होंगी, यह प्रश्न लेखक खुलकर उठाते हैं।
पुस्तक के अन्य लेख स्थानीय समुदायों, विशेषकर निकोबारी और शॉम्पेन जनजातियों के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे दिखाते हैं कि कैसे इन समुदायों को निर्णय लेने की प्रक्रिया से बाहर रखा गया, जबकि भूमि, जंगल और तट उनके जीवन, संस्कृति और पहचान के अभिन्न हिस्से हैं। इस दृष्टि से पुस्तक यह स्पष्ट करती है कि ग्रेट निकोबार की यह कहानी केवल पर्यावरण या विकास की नहीं, बल्कि न्याय, प्रतिनिधित्व और अस्तित्व की भी है।
![भारत के अंडमान में पानी के नीचे की तस्वीर। Pexels [CC0] के जरिए देबेल दास की तस्वीर।](https://imgs.mongabay.com/wp-content/uploads/sites/35/2024/12/24085745/pexels-photo-7970770-1200x800-1-768x512.jpeg)
संवेदनशीलता और संतुलित दृष्टिकोण
पुस्तक का हिंदी अनुवाद संघप्रिया मौर्या ने किया है। अनुवाद के स्तर पर यह साफ झलकता है कि इस कार्य को गहरी समझ और संवेदनशीलता के साथ पूरा किया गया है। भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है। शब्दावली संतुलित है और तकनीकी अवधारणाएँ बिना बोझिल हुए स्पष्ट रूप में सामने आती हैं। यह अनुवाद केवल पठनीय ही नहीं, बल्कि संवादात्मक भी है, जो पाठक को जोड़ता है, उसे सोचने पर मजबूर करता है और विषय की गंभीरता को सहजता से समझने में मदद करता है।
पुस्तक का स्वर आलोचनात्मक जरूर है, परंतु यह एकतरफा नहीं है। यह सरकार या विकास योजनाओं के विरोध में खड़ी नहीं होती, बल्कि उन खामियों और अनदेखी पर प्रकाश डालती है जो अक्सर नीति-निर्माण और परियोजना स्वीकृति की प्रक्रिया में रह जाती हैं। उदाहरण के लिए, एक अध्याय में यह बताया गया है कि परियोजना की आर्थिक व्यवहार्यता का परीक्षण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बंदरगाहों जैसे सिंगापुर या कोलंबो की तुलना में नहीं किया गया। इससे यह प्रश्न उठता है कि क्या परियोजना का आर्थिक तर्क पर्याप्त ठोस है।

इसी तरह, पर्यावरणीय जोखिमों पर चर्चा करने वाले लेखों में वैज्ञानिक साक्ष्यों के साथ-साथ सरकारी पक्ष और प्रतिक्रियाओं का भी उल्लेख है। यही कारण है कि पुस्तक में आलोचना और विश्लेषण के बीच एक संतुलन बना रहता है।
किताब पढ़ते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि हर लेख अपने भीतर एक चेतावनी समेटे हुए है, अगर विकास को समझदारी, विज्ञान और समुदाय की भागीदारी से नहीं जोड़ा गया, तो वह केवल विनाश का रास्ता बन जाएगा।
हालांकि कुछ लेखों में विषयों की पुनरावृत्ति दिखती है और सरकारी दृष्टिकोण को अपेक्षाकृत कम स्थान मिला है, फिर भी यह पुस्तक भारत में विकास और पर्यावरण के बीच जारी बहस को एक नया, ठोस और विचारशील दृष्टिकोण प्रदान करती है।
बैनर तस्वीरः ग्रेट निकोबार द्वीप पर ग्रेट निकोबार बायोस्फीयर रिजर्व का एक दृश्य। तस्वीर- प्रसून गोस्वामी / विकिमीडिया कॉमन्स ( CC BY-SA 4.0 )