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दुनिया को चलाने वाले छोटे-छोटे कीटों के लिए अनोखा रिसर्च सेंटर

लैब में तितली के नमूने। इस लैब की स्थापना 25 साल पहले बेंगलुरु स्थित अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) में की गई थी। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा।

लैब में तितली के नमूने। इस लैब की स्थापना 25 साल पहले बेंगलुरु स्थित अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) में की गई थी। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा।

  • बेंगलुरु की इंसेक्ट बायोसिस्टमेटिक्स एंड कंजर्वेशन लैब में आपको चींटियों और गुबरैला या गोबर का कीड़ा (डंग बीटल) से लेकर टिड्डियों और परजीवी ततैयों तक, कीटों का एक विशाल संग्रह मिलेगा।
  • यह लैब कीटों की पहचान (बायोसिस्टमेटिक्स), संरक्षण जीवविज्ञान और खाद्य कीटों का अध्ययन करती है, साथ ही लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने और उन्हें इस बारे में शिक्षित करने पर भी ध्यान दे रही है।
  • शहरी क्षेत्रों में प्राकृतिक हरे-भरे क्षेत्रों की सुरक्षा सहित बेहतर संरक्षण रणनीतियां कीट आबादी और उनकी विविधता के दीर्घकालिक संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं।

बेंगलुरू स्थित अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के पारिस्थितिकीविद् और सीनियर फेलो प्रियदर्शनन धर्म राजन कहते हैं, “बचपन में हमें पहली बार दर्द तब होता है जब कोई कीड़ा काट लेता है जैसे मच्छर या चींटी, जिनसे हमारी मां हमें बचाने की कोशिश करती थीं। तभी से हमारे मन में यह बात बैठ जाती है कि कीड़े नुकसान पहुंचाते हैं।” कीटों के इस निराधार डर का एक अनुमानित परिणाम निकला, कीटनाशक बाजार का तेजी से बढ़ना। कीटों पर होने वाले अध्ययन अक्सर उन्हें हानिकारक बताने और खत्म करने पर केंद्रित होते हैं। वह आगे कहते हैं, “हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि कीट हमें कितनी पारिस्थितिकी सेवाएं देते हैं जैसे परागण, अपघटन और कई जानवरों के लिए भोजन के रूप में उनकी भूमिका।”

2017 के एक रिसर्च पेपर में प्रियदर्शनन और उनकी टीम ने कीटों की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के बारे में विस्तार से बताया है, “लगभग 90% फूल वाले पौधे परागण के लिए कीटों पर निर्भर करते हैं। कीट अन्य सभी शाकाहारी जीवों की तुलना में अधिक वनस्पति खाते हैं। शिकार, परजीविता और सड़े-गले जीवों को साफ करने की प्रक्रिया में, वे किसी भी अन्य मांसाहारी जीव की तुलना में अधिक जानवरों को मारते हैं। और वे मनुष्यों के साथ-साथ कई प्रजातियों के लिए एक महत्वपूर्ण शिकार आधार हैं। लंबे समय से चले आ रहे उनके शारीरिक, पर्यावरणीय और व्यवहारिक बदलावों और फूलदार पौधों के साथ सह-विकास (को-एवोल्यूशन) की वजह से कीट आज पृथ्वी पर सबसे अधिक संख्या और प्रजातियों वाले जीव बन गए हैं।”

कीटों के महत्वपूर्ण कार्यों के बारे में लोगों को जागरूक करने और उनमें दिलचस्पी बढ़ाने के लिए, प्रियदर्शनन ने 25 साल पहले एटीआरईई में इंसेक्ट बायोसिस्टमेटिक्स एंड कंजर्वेशन लैब की स्थापना की थी। यह लैब एक रिसर्च सेंटर है जो कीटों के अध्ययन और उनके संरक्षण पर काम करती है ताकि इंसानी जीवन को लाभ मिल सके। लैब की वेबसाइट के अनुसार, “लैब एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाती है और कीट जैव-प्रणाली, संरक्षण जीव विज्ञान और खाद्य कीटों पर अध्ययन सहित अनुसंधान के कई प्रमुख क्षेत्रों पर काम करती है।”

एटीआरईई में इंसेक्ट बायोसिस्टमेटिक्स एंड कंजर्वेशन लैब कीट रिसर्च सेंटर के रूप में काम करती है, जहां गुबरैला की 450 प्रजातियों समेत भारत की अधिकांश प्रजातियां पाई जाती है। तस्वीर: अभिषेक एन. चिन्नप्पा
एटीआरईई में इंसेक्ट बायोसिस्टमेटिक्स एंड कंजर्वेशन लैब कीट रिसर्च सेंटर के रूप में काम करती है, जहां गुबरैला की 450 प्रजातियों समेत भारत की अधिकांश प्रजातियां पाई जाती है। तस्वीर: अभिषेक एन. चिन्नप्पा

आज, यह लैब कीट एक रिसर्च सेंटर है, जहां हजारों कीटों के नमूने एक व्यवस्थित संग्रह में रखे गए हैं। आप इसे कुछ इस तरह समझ सकते हैं: भारत में पाई जाने वाली चींटियों की 800 प्रजातियों में से 600 से अधिक और गोबर के कीड़ों की 500 प्रजातियों में से 450 इस लैब के संग्रह का हिस्सा हैं। इसके अलावा, लैब में 60 से अधिक टिड्डों की प्रजातियां, 30 भौंरों की प्रजातियां और परजीवी ततैया का एक विशाल संग्रह भी मौजूद है।

प्रियदर्शनन की एक सहयोगी कीट विज्ञानी सहानाश्री रामकृष्णन बड़े ही उत्साह से एक नई प्रजाति- अरुणाचल प्रदेश में सियांग घाटी की धातुई नीली चींटी – की खोज के बारे में साझा करती हैं, “हमने इसका नाम नीला रखा है।” पैरापैराट्रेचिना प्रजाति की यह नीला चींटी काफी छोटी है (2 मिमी से भी कम) इसकी इसकी खोज पूरी तरह से संयोगवश हुई। वह समझाते हुए कहती है, “यह दुनिया की केवल छह ज्ञात नीली चींटियों में से एक है और हमें सिर्फ दो ही नमूने मिले हैं।”

प्रियदर्शनन ने आगे बताया, “हमने 10 से अधिक नए वंशों सहित, कीटों की 100 से ज्यादा नई प्रजातियों का वर्णन किया है।”

आईआईएसईआर तिरुवनंतपुरम में जीव विज्ञान की प्रोफेसर हेमा सोमनाथन का मानना ​​है कि कीट लैब जैसी पहल महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये कीटों के बारे में लोगों की धारणा बदल सकती हैं। उन्होंने कहा, “एक आम धारणा है कि कीट हानिकारक होते हैं और उन्हें खत्म कर देना चाहिए। उनके फायदों को सबके सामने लाने की जरूरत है और ऐसा करने का एक प्रमुख तरीका यह सुनिश्चित करना है कि संग्रह अधिक से अधिक लोगों के लिए सुलभ हो।”

लैब में शिक्षा और जागरूकता को गंभीरता से लिया जाता है। प्रियदर्शनन बताते हैं, “हम स्कूली बच्चों और आम जनता के साथ एजुकेशनल वॉक सहित आउटरीच कार्यक्रम आयोजित करते हैं। हम ग्रुप को छोटा रखने की कोशिश करते हैं (40 से 50 लोग) ताकि हर कोई कीड़ों को करीब से देख सके। इन कार्यक्रमों ने लोगों में दिलचस्पी जगाई है और कीट संरक्षण के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी ली है।”

इंसेक्ट बायोसिस्टमेटिक्स एंड कंजर्वेशन लैब में प्रदर्शित विभिन्न कीट नमूने। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा।
इंसेक्ट बायोसिस्टमेटिक्स एंड कंजर्वेशन लैब में प्रदर्शित विभिन्न कीट नमूने। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा।

कीटों की दुनिया के कुछ अनछुए पहलू

गुबरैला को बहुत कम लोग अध्ययन का विषय बनाते है। अब लैब में यह कीट फिर से ध्यान का केंद्र बना है। प्रियदर्शनन बताते हैं, “मवेशी उत्सर्जन दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 8 से 8.5% हिस्सा होता है। और इसका एक बड़ा हिस्सा गुबरैला द्वारा कम किया जाता है, जो गोबर को जमीन के नीचे दबा देते हैं। अगर ये कीट न हों, तो दुनिया एक विशाल गोबर के ढेर में बदल जाएगी।”

पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को बनाए रखने में गुबरैला के इस्तेमाल की कई पुरानी मिसाल मौजूद हैं। एक बड़ा उदाहरण 18वीं शताब्दी में ऑस्ट्रेलिया का उपनिवेशीकरण था, जब यूरोपीय लोग नए अधिग्रहीत क्षेत्र में बसने के लिए अपने मवेशी साथ लेकर आए थे। जैसे-जैसे कीटों से होने वाले रोग बढ़ने लगे, इस समस्या की जांच कर रहे कीट वैज्ञानिकों ने पाया कि स्थानीय गुबरैला केवल कंगारू के गोबर पर ही प्रजनन कर सकते हैं। प्रियदर्शनन कहते हैं, “इस समस्या के समाधान के लिए, एशिया और अफ्रीका से गुबरैला की लगभग 40 प्रजातियां लाई गईं। उनमें से पैंतीस प्रजातियां वहां के माहौल में ढल गईं, जिससे समस्या का समाधान हो गया। अमेरिका की नई कॉलोनियों में भी इसी तरह के उपाय अपनाए गए।”

अपने घर के पास बेंगलुरु में, प्रियदर्शनन और उनके सहयोगियों ने गुबरैला की आबादी में बदलाव देखे हैं। उन्होंने बताया, गुबरैला को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है: रोलर, टनलर और डवेलर। उदाहरण के लिए, 2009 तक, हमारी लैब के आस-पास के क्षेत्र में रोलर थे जो भेड़ों के गोबर से भोजन प्राप्त करते थे। हालांकि, अगले दशक में, जैसे-जैसे भेड़ों की जगह मवेशियों ने ले ली, हमने एक बदलाव देखा, छोटे रोलर की जगह टनलर ने ले ली, जो बड़े गोबर के ढेर में बिल बनाना पसंद करते हैं। मवेशियों के चारे में एंटीबायोटिक दवाओं की मौजूदगी गुबरैला को प्रभावित करने वाला एक और कारक है। जैसे-जैसे एंटीबायोटिक्स गोबर की संरचना में बदलाव ला रहे हैं, गुबरैला की विविधता कम होती जा रही है।

एटीआरईई में पारिस्थितिकीविद् और सीनियर फेलो प्रियदर्शनन धर्म राजन ने कीटों की बहुमूल्य सेवाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने और उनमें अधिक रुचि पैदा करने के लिए कीट लैब की शुरुआत की। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा।
एटीआरईई में पारिस्थितिकीविद् और सीनियर फेलो प्रियदर्शनन धर्म राजन ने कीटों की बहुमूल्य सेवाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने और उनमें अधिक रुचि पैदा करने के लिए कीट लैब की शुरुआत की। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा।

जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन

लैब का ध्यान कीट परजीवियों और खाद्य कीटों पर भी है, जो दुनिया भर में खाए जाते हैं और प्रोटीन का अच्छा और सस्ता स्रोत हैं। लैब कीट आबादी और विविधता पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का भी अध्ययन करती है। अरुणाचल प्रदेश के ईगलनेस्ट वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी में 2020 किए गए एक अध्ययन में, प्रियदर्शनन और उनकी टीम ने पाया कि चींटियों की विविधता और प्रजातियों की संख्या ऊंचाई के साथ बदलते मौसम और पूर्वी हिमालय के भौगोलिक स्वरूप, खासकर मैदानी इलाकों से इसके जुड़ाव से प्रभावित होती है। उन्होंने बताया, “तापमान चींटियों की विविधता का सबसे बड़ा कारण है। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, चींटियों की विविधता घटती जाती है। अगर मौसम गर्म होता है, तो निचले इलाकों की प्रजातियां ऊपर की ओर जाएंगी, लेकिन ऊंचाई वाले खास माहौल में ढली प्रजातियां सबसे पहले प्रभावित होंगी, क्योंकि वे उन्हीं परिस्थितियों में जीने के लिए अनुकूलित हैं।”

उन्होंने जोर देकर कहा कि कीट संरक्षण लैब का सबसे प्रमुख केंद्र है। संरक्षण कार्यों की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि देश में अब भी एक ‘संरक्षणवादी तरीका’ अपनाया जाता है, जो ज्यादातर कुछ ही आकर्षक या प्रसिद्ध प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित करता है। वह कहते हैं, “हमें एक व्यापक संरक्षण रणनीति की जरूरत है, जिसमें पूरे परिदृश्य का संरक्षण शामिल हो जहां हरियाली का हर टुकड़ा, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, संरक्षित किया जाए,” वह आगे बताते हैं, “बेंगलुरु में हमने शहरी कीट विविधता का अध्ययन किया और पाया कि छोटे-छोटे इलाके भी कीट आबादी को सहारा दे सकते हैं। लेकिन कई शहरी बाग-बगीचे जरूरत से ज्यादा सजे-संवरे होते हैं, जिससे वहां विविध कीट जीवों के रहने की संभावना घट जाती है। हमें देशी पौधों को बढ़ावा देना चाहिए और शहरों में छोटे-छोटे ‘मिनी जंगल’ बनाने चाहिए ताकि कीट जीवन को बेहतर समर्थन मिल सके।”


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सोमनाथन भी इस तरह की परियोजनाओं को जारी रखने के महत्व पर जोर देती हैं, क्योंकि नमूना संग्रह लंबी अवधि के शोध में मदद कर सकता है। हालांकि, प्रियदर्शनन का मानना है कि कीटों के अध्ययन और उनके वर्गीकरण (बायोसिस्टमेटिक्स) में लोगों की अधिक रुचि होना जरूरी है, ताकि ऐसे प्रयास लंबे समय तक चल सकें। वह अमेरिकी कीट-विशेषज्ञ ई.ओ. विल्सन के एक कथन का जिक्र करते हुए कहते हैं, “कीट वो छोटे-छोटे जीव हैं, जो दुनिया को चलाते हैं।”


यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 18 मार्च, 2025 को प्रकाशित हुई थी।


 

बैनर तस्वीर: लैब में तितली के नमूने। इस लैब की स्थापना 25 साल पहले बेंगलुरु स्थित अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) में की गई थी। तस्वीर- अभिषेक एन. चिन्नप्पा।

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