- कटाई के बाद फसल को संसाधित करने में मुश्किलों से लेकर बदलते बारिश के पैटर्न और नीतिगत व संस्थागत मदद की कमी तक, मिलेट की खेती करने वाले किसानों को बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
- हालांकि मिलेट को जलवायु-अनुकूल फसल माना जाता है, लेकिन शोध से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन का असर मिलेट पर भी पड़ रहा है — तापमान बढ़ने से कुछ बाजरे की किस्मों की पैदावार घट रही है।
- इस समस्या से निपटने के लिए अनुकूल खेती के तरीकों पर विस्तार से अध्ययन करने, मिलेट की विविध किस्मों के सरंक्षण और स्थानीय स्तर पर खरीद की बेहतर व्यवस्था बनाने की जरूरत है।
2024 में, जब स्वतंत्र खाद्य शोधकर्ता और लेखिका शिवानी उनाकर ने महाराष्ट्र के सतारा में मान तालुका का दौरा किया, तो उन्हें स्थानीय मिलेट किसानों (मोटा अनाज उगाने वाले किसानों) से पता चला कि बारिश कम होने के कारण ज्वार के बीज समय पर अंकुरित नहीं हो पाए। शिवानी ने कहा, “किसान बहुत चिंतित थे। लेकिन मेरी यात्रा के आखिरी दो-तीनों दिनों में भारी बारिश हुई। इससे उनकी फसल तो बच गई, लेकिन बाद में किसानों ने बताया कि उन्हें अपनी सामान्य फसल का केवल 60% ही मिल पाया था।”
उनाकर अपने रिसर्च और पुणे स्थित ग्रेट स्टेट एलेवर्क्स के मिलेट बीयर प्रोजेक्ट की कोऑर्डिनेटर के रूप में बाजरा किसानों के साथ अक्सर मिलती रहती हैं। उनके मुताबिक, बारिश के बदलते पैटर्न के अलावा, किसान श्रम संबंधी समस्याओं और अपनी फसलों के लिए तय बाजारों की कमी से भी जूझ रहे हैं। वह कहती हैं कि ऐसी परेशानियां आमतौर पर उन बड़ी चर्चाओं का हिस्सा नहीं होतीं, जिनमें इन अनाजों पर बात होती है। उन्होंने बताया, “हम अक्सर सुनते हैं कि मिलेट सेहत के लिए अच्छा है, जमीन और मिट्टी के लिए फायदेमंद है और इसे बहुत कम पानी की भी जरूरत होती है। लेकिन आम उपभोक्ता शायद यह नहीं समझ पाता कि इसके पीछे कितनी जटिलताएं हैं।”
रिसर्च से पता चला है कि मिलेट की फसलों का कार्बन फुटप्रिंट धान और गेहूं जैसी बड़ी फसलों की तुलना में कम होता है। अपनी किस्म के आधार पर, मिलेट कई तरह के लाभ भी देता है, जैसे सूखा सहनशीलता, लवणीय और कम उपजाऊ मिट्टी में उगने की क्षमता और अधिक रोग प्रतिरोधक क्षमता। फिर भी उनाकर का मानना है कि मिलेट की खेती से जुड़ी जमीनी चुनौतियों और जलवायु परिवर्तन के असर को सही तरह से दर्ज करना बेहद जरूरी है, क्योंकि यही भविष्य में इन अनाजों की खेती के रुझान को तय करेगा।

मिलेट की खेती का रकबा कम हुआ
2023 की एक समाचार रिपोर्ट के अनुसार, कर्नाटक में मिलेट की खेती का क्षेत्रफल 2017-18 में 21 लाख हेक्टेयर था, जो 2022-23 में घटकर 16 लाख हेक्टेयर रह गया। सिर्फ इतना ही नहीं, इस अवधि के दौरान उत्पादन भी 32 लाख टन से घटकर 21 लाख टन रह गया था।
कर्नाटक के बेलगाम की तीसरी पीढ़ी की किसान लक्ष्मी लोकुर कहती हैं, “लगभग दो दशक पहले, हम नियमित रूप से छोटे बाजरे या कुटकी की खेती किया करते थे। 2008 के आसपास, हमने फसल उगाना बंद कर दिया क्योंकि इसकी कटाई के साथ-साथ अनाज को साफ करने की प्रक्रिया भी मुश्किल है। अब, हम केवल नवाने (फॉक्सटेल मिलेट) और रागी (फिंगर मिलेट) उगाते हैं, वह भी मक्के जैसी फसल के किनारे-किनारे लगाकर। हमें इससे लगभग दो से तीन बोरी अनाज मिल जाता है, जो हमारे इस्तेमाल के लिए पर्याप्त है।”
लक्ष्मी लोकुर बताती हैं कि छोटे आकार के कारण कुटकी के दाने से अवशेष, पत्थर और धूल जैसी चीजों को अलग करना बहुत मेहनत का काम है। “पहले घर की बुजुर्ग महिलाएं इस काम को कर लिया करती थीं। आज अगर मशीन का इस्तेमाल भी करें, तो भी इससे भूसी निकालने में हाथ से मेहनत करनी ही पड़ेगी। कटाई के बाद का काम करने के लिए मजदूर मिलना मुश्किल हो जाता है।”
अन्य मिलेट की किस्मों के लिए भी यही चुनौती बनी हुई है। जहां रागी, मोती बाजरा और ज्वार जैसे अनाज बिना छिलका वाले होते हैं, वहीं कंगनी (फॉक्सटेल), कुटकी (लिटिल मिलेट), कोदो, प्रोसो, सावा (बार्नयार्ड) और हरी कागनी (ब्राउनटॉप) जैसे अन्य अनाजों के बाहरी छिलकों या भूसी को हटाना पड़ता है। इसलिए इनकी कटाई के बाद की प्रक्रिया और अधिक बोझिल हो जाती है।
स्वतंत्र थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच दशकों में भारत में मिलेट की खेती का कुल क्षेत्रफल भले ही 56% तक घट गया हो, लेकिन कुल उत्पादन 11.3 मिलियन टन से बढ़कर 16.9 मिलियन टन हो गया है। उत्पादन में यह बढ़ोतरी मजबूत कृषि तकनीकों और उन्नत किस्मों के आने के कारण है। हालांकि यह आंकड़े उत्पादन बढ़ने का संकेत देते हैं, लेकिन इनसे ये पता नहीं चलता है कि कौन-सा मिलेट कितना उगाया जा रहा है—कुछ फसलों में बढ़ोतरी हुई है, तो कुछ में कमी आई है।

भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा साल 2024 में प्रकाशित एक समीक्षा लेख में बताया गया है कि 1963 से 2020 के बीच बाजरा और गेहूं की उत्पादन क्षमता (प्रति हेक्टेयर पैदावार) में लगभग समान वृद्धि हुई है—बाजरा में करीब 244% और गेहूं में 271% की बढ़ोतरी। लेकिन कम मांग और नीति सहयोग की कमी के कारण बाजरा की खेती घट गई और किसान इसकी जगह कपास, मक्का और दालें उगाने लगे हैं। वहीं ज्वार की पैदावार में अन्य फसलों की तुलना में कम बढ़ोतरी हुई है और इसका उत्पादन 1963-67 के 9.1 मिलियन टन से घटकर 2015-20 में सिर्फ 4.36 मिलियन टन रह गया है। ज्वार की खेती का रकबा भी 85% से ज्यादा घट चुका है।
कार्यकर्ता, शोधकर्ता और द मिलेट फाउंडेशन के संस्थापक, द्विजेंद्र नाथ गुरु ने कहा कि भारत में मिलेट मार्केट अभी शुरुआती दौर में है, फिर भी इसे उस तरह का संस्थागत, आर्थिक और नीतिगत सहयोग नहीं मिला है, जैसा धान, गेहूं, मक्का और सोयाबीन जैसी अन्य फसलों को उनके प्रचार के वर्षों के दौरान मिला था। उनका कहना है, “स्थापित मार्केट और प्रक्रियाओं की कमी मिलेट की खेती करने वाले किसानों के लिए मुख्य चिंता का विषय है।”
टाटा-कॉर्नेल इंस्टीट्यूट की 2024 की एक रिपोर्ट भी गुरु की इस बात का समर्थन करती नजर आती है। रिपोर्ट के मुताबिक, मिलेट किसान औसतन उतना लाभ नहीं कमा पाते, जितना गेहूं और धान के किसानों को मिलता है यानी उन्हें अपनी उपज से सिर्फ 33% और 42% ही लाभ मिल पाता है। साथ ही, मिलेट की वार्षिक उत्पादन लागत भी प्रति क्विंटल 1.2% की दर से बढ़ रही है, जिससे किसानों की परेशानियां बढ़ी हैं।
2020 में, मोंगाबे इंडिया ने रिपोर्ट किया था कि कैसे भारत में मिलेट की खेती बढ़ाने के प्रयासों ने रागी जैसे कुछ मिलेट को लोकप्रिय बनाया है; हालांकि, प्रोसेसिंग और खेती की लागत अब भी बड़ी परेशानियां बनी हुई हैं। खाद्य एवं कृषि संगठन और संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को इंटरनेशनल मिलेट ईयर घोषित किया था, जिससे इस अनाज के बारे में दुनिया भर में जागरूकता बढ़ी। कौलिगे फूड्स प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक और सह-संस्थापक अरुण कौलिगे कहते हैं, हालांकि इससे मिलेट को लेकर पूरे देश में नई रुचि और उत्साह तो आया है, लेकिन असली जरूरत आज छोटे और सीमांत किसानों को बुनियादी ढांचा (जैसे—प्रसंस्करण के लिए मशीनें, स्थानीय स्तर पर भंडारण और मार्केट तक पहुंच) उपलब्ध कराने की है, क्योंकि ज्यादातर मिलेट की खेती यही किसान करते हैं।
अरुण कौलिगे के मुताबिक, मार्केट में मिलेट से बने उत्पाद और खेती करने वाले किसानों की असली समस्याओं के बीच एक बड़ी दूरी है। किसानों को और अधिक समर्थन चाहिए, खासकर मशीनरी और उपकरण जो उनके घर के पास ही उपलब्ध हों। अगर वे अपने अनाज का कुछ हिस्सा खुद ही आधा-प्रसंस्कृत कर सकें, तो उन्हें अपनी फसल के लिए बेहतर कीमत मिल सकती है।
मौसम का असर
किसानों के लिए मिलेट को अपनी खेतों में उगाने में सबसे बड़ी बाधाएं जमीनी स्तर पर मौजूद चुनौतियां हैं। भले ही सीमित, लेकिन बढ़ रहे शोध इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि इन ‘जलवायु-अनुकूल’ अनाजों को जलवायु में होने वाले बदलावों से कुछ सुरक्षा की आवश्यकता है।
जलवायु परिवर्तन के खाद्य उत्पादन पर प्रभावों की जांच करने वाली 2024 की एक रिपोर्ट में, ‘आवर वर्ल्ड इन डेटा’ की उप-संपादक हन्ना रिची बताती हैं, कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि, उच्च तापमान और बदलते वर्षा पैटर्न की स्थितियों में, फसलें प्रकार और स्थान के आधार पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देती हैं। उदाहरण के लिए, जहां वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि चावल और गेहूं जैसी फसलों की वृद्धि को बढ़ाती है, वहीं मिलेट और ज्वार जैसी फसलों पर इसका प्रभाव बहुत कम होता है। इन फसलों को केवल जल-तनाव (कम पानी की स्थिति) में ही लाभ होता है।
इसी तरह, कई अध्ययनों के एक मेटा-विश्लेषण से पता चलता है कि जब पानी की उपलब्धता 40-50% तक कम हो जाती है, तो गेहूं की पैदावार में गिरावट मोटे अनाज (जैसे बाजरा और ज्वार) की तुलना में बहुत कम होती है। वहीं, जब खेतों में पानी भर जाता है (जलभराव की स्थिति होती है), तो मिलेट्स और ज्वार की पैदावार में गिरावट गेहूं और मक्के की अपेक्षा ज्यादा होती है।


दिल्ली यूनिवर्सिटी के फैकल्टी सदस्यों द्वारा 2020 में किए गए एक अन्य अध्ययन में 1966 और 2011 के बीच ज्वार और बाजरे की खेती पर जलवायु परिवर्तनशीलता के प्रभाव का अध्ययन किया गया था। इसमें पाया गया कि बारिश में हर 100 मिलीमीटर की बढ़ोतरी पर ज्वार की पैदावार 3 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर बढ़ी, जबकि तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी पर औसत पैदावार 45 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर कम हुई। बाजरे के लिए, 24.5 डिग्री सेल्सियस से ऊपर तापमान बढ़ने पर पैदावार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। एक हाल के डेटा सेट (1991 से 2020 के बीच मिलेट की पैदावार) के विश्लेषण में यह देखा गया कि सालाना औसत तापमान में 1% की वृद्धि पर मिलेट की पैदावार में 3.06% की कमी आई।
CIRAD (फ्रेंच एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर फॉर इंटरनेशनल डवलपमेंट) के बायोस्टैटिस्टिशियन और हैदराबाद के इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (ICRISAT) में पूर्व पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च फेलो विंसेट गरीन बताते हैं कि मिलेट्स पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पर शोध सीमित है, जबकि गेहूं या मक्का जैसे मुख्य और आर्थिक रूप से लाभकारी फसलों पर ज्यादा शोध हुआ है।
क्योंकि बाजरा जैसी मिलेट फसलें स्वभाव से ही कठिन जलवायु परिस्थितियों में भी अच्छी तरह उग जाती हैं, इसलिए इन्हें जलवायु परिवर्तन के समाधान के रूप में देखा जा सकता है। वह कहते हैं, “कई लोग यह मान लेते हैं कि मिलेट फसलें पहले से ही जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक प्रभावी तरीका हैं, इसलिए वे अपने प्रयास उन फसलों पर केंद्रित करते हैं जो कठिन परिस्थितियों में कम टिकाऊ हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन और फसलों के अनुकूलन का अध्ययन करना बहुत जटिल है — इसके लिए उन्नत प्रयोग, बड़े और विविध डेटा सेट, और डेटा विश्लेषण के लिए आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों की जरूरत होती है। अक्सर ऐसे जटिल विषयों पर अधिक शोध उन प्रमुख फसलों पर किया जाता है जिन्हें अधिक आर्थिक सहायता मिलती है।” गारिन आगे बताते हैं, “फिर भी, मिलेट फसलों पर शोध में प्रगति हो रही है, जो अन्य फसलों पर किए गए शोध से मिली नई वैज्ञानिक जानकारी से लाभ उठा रही है।”
अपने रिसर्च में, गारिन ने फसल मॉडल सिमुलेशन, कृषि और पर्यावरणीय डेटा का इस्तेमाल करके मौजूदा बाजरा की खेती वाले क्षेत्रों का विश्लेषण किया। भारत में बाजरे की खेती को बारिश और मिट्टी के प्रकार के आधार पर तीन मुख्य जोन में बांटा गया और पूर्वी राजस्थान व हरियाणा में नए खेती क्षेत्रों का प्रस्ताव दिया गया है, जो जलवायु में बदलावों का सामना करने के लिए अधिक उपयुक्त हैं।
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विन्सेंट गारिन के रिसर्च से लिया गया एक ग्राफ, जो भारत के बाजरा की खेती के क्षेत्रों को वर्षा और मिट्टी के प्रकार के आधार पर तीन क्षेत्रों में वर्गीकृत करता है: राजस्थान में शुष्क क्षेत्रों के लिए A1, उत्तर और मध्य भारत में अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए A, और दक्षिण भारत में भारी मिट्टी वाले अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए B। A क्षेत्र को आगे तीन उप-क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: G गुजरात को कवर करता है, AE1 पूर्वी राजस्थान और हरियाणा को कवर करता है, और AE2 उत्तर प्रदेश को कवर करता है। इनमें से, AE1 को भारत के बाजरा उत्पादन का मुख्य केंद्र माना गया है, जहां मौसम और मिट्टी की अनुकूल परिस्थितियों के साथ बेहतर बाजरा किस्मों ने उपज में उल्लेखनीय वृद्धि की है। डेटा- गारिन और उनके सहयोगी (2023)
नए मौसमों के अनुकूल ढलना
किसानों ने बदलते मौसम के अनुसार अपनी खेती में भी बदलाव किए हैं। उदाहरण के लिए, बारिश के पैटर्न बदलने की वजह से कटाई और अगले बुवाई चक्र में देरी होती है, इसलिए उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों को फसलों के लिए अलग कर दिया है। लोकुर के अनुसार, “रागी और नावने उन इलाकों में उगाए जाते हैं जहां दूसरी फसल बोने की योजना नहीं होती है। इसलिए बारिश में देर होने पर भी दूसरी फसल की बुवाई पर कोई असर नहीं पड़ता है।”
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इकोलॉजी और सस्टेनेबल डवलपमेंट की प्रोफेसर रुथ डेफ्राइस ने बताया कि किसान न केवल मिलेट्स की पारिस्थितिक लाभों से अच्छी तरह परिचित हैं, बल्कि वे विभिन्न परिस्थितियों में इन फसलों को बनाए रखने का तरीका भी जानते हैं। उन्होंने कहा कि मध्य भारत के आदिवासी किसान कोदो और कुटकी को ढलान वाली जगहों पर उगाते हैं क्योंकि बहुत अधिक बारिश से इन फसलों को नुकसान हो सकता है।
मोंगाबे इंडिया ने भी रिपोर्ट किया था कि तमिलनाडु के कोल्ली हिल्स में किसान लंबे, सूखी गर्मियों वाले मौसम से निपटने के लिए कम समय में तैयार होने वाले मिलेट्स की खेती कर रहे हैं।
रुथ डेफ्राइस के अनुसार, जलवायु की अस्थिरता के लिए टिकाऊपन की कुंजी विविधता है ताकि कुछ फसलें अनुकूलित हो सकें। इसी कारण, मिलेट्स की आनुवंशिक विविधता को बीज बैंक और इन-सीटू संरक्षण के जरिए बचाना बेहद जरूरी है।
गुरु आगे कहते हैं कि मिलेट्स की खेती में केवल एक प्रकार की फसल उगाने से उसी तरह की समस्याएं होंगी जो अन्य बड़ी फसलों में देखी गई हैं, जैसे मिट्टी की पोषण शक्ति का कम होना और जैव विविधता का नुकसान। वे मिलेट्स की बाजार व्यवस्था में स्थानीयकरण की बात करते हैं: “मिलेट्स से जुड़ी प्रमुख समस्याओं को दूर करने के लिए स्थानीय खपत को बढ़ावा देना जरूरी है, ताकि किसानों की खरीदारी का स्थानीय तंत्र विकसित किए जा सके। साथ ही, खेती और बीज किस्मों के मामलों में हमें बड़े पैमाने पर उत्पादित संस्थागत बीजों की बजाय स्थानीय किस्मों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 26 मार्च 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर- ज्वार की फसल। तस्वीर- MGB CEE, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0)