- एक नए शोध में सुझाव दिया गया है कि ऐसे कॉफी के बागानों से, जहां छाया के लिए कई तरह के देशी पेड़ों की प्रजातियां लगाई जाती हैं, किसानों द्वारा आमतौर पर फेंक दिए जाने वाले बीजों को इकट्ठा किया जा सकता है।
- सर्वे में जिन कॉफी बागानों का अध्ययन किया गया, उनमें संरक्षण और बहाली के लिए उपयोगी प्रजातियों की संख्या, स्थानीय सार्वजनिक नर्सरी में मिलने वाली प्रजातियों से ज्यादा थी।
- पौध तैयार करने के लिए नर्सरी की कमी और कॉफी किसानों के अन्य प्रतिस्पर्धी हित इसमें एक बड़ी बाधा है।
भारत में खास किस्म की कॉफी की बढ़ती मांग के साथ-साथ उसे पर्यावरण के अनुकूल तरीके से उगाने की मांग भी बढ़ रही है। वेस्टर्न घाट में हुए एक नए शोध से पता चलता है कि कॉफी बागान (एग्रोफार्म) न सिर्फ अलग-अलग तरह के पेड़-पौधे लगाकर प्रकृति को बचाने (इन-सीटू बायोडायवर्सिटी कंजर्वेशन) का काम कर सकते हैं बल्कि आसपास के जंगलों को फिर से हरा-भरा करने के लिए बीज और पौधे भी उपलब्ध करा सकते हैं।
भारत में कॉफी आमतौर पर बारिश वाले इलाकों में पेड़ों की छाया के नीचे उगाई जाती है, इसलिए वेस्टर्न घाट के वर्षावन इसे उगाने के लिए एकदम उपयुक्त जगह हैं। छाया में कॉफी उगने में ज्यादा समय लगता है और धूप में उगाई जाने वाली कॉफी की तुलना में उसकी पैदावार कम होती है। लेकिन यह अच्छी क्वालिटी का बीन (कॉफी का बीज) पैदा करता है, जिसका स्वाद काफी बेहतर होता है।
शोध में यह भी कहा गया है कि कॉफी के बागानों में, जहां छाया के लिए कई तरह की देशी पेड़ों की प्रजातियों लगाई जाती है, वहां पेड़ों की कटाई (कैनोपी प्रूनिंग) के दौरान जो बीज हटा दिए जाते हैं, उन्हें “बचाकर” वनों के संरक्षण और बहाली में मदद की जा सकती है।
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (एनसीएफ) के वैज्ञानिक और अध्ययन के प्रमुख लेखक आनंद ओसुरी ने बताया, “अतीत में, उनमें से कुछ बीज बच गए होंगे और वे पेड़ उग आए होंगे, लेकिन आज उन्हें काटा जा रहा है क्योंकि किसान नहीं चाहते कि पेड़ ऐसी जगहों पर उगे जहां उनकी फसल की उत्पादकता प्रभावित हो।” उन्होंने आगे कहा, “उन बीजों और पौधों को बचाने या इकट्ठा करने का यह काम एक तरह का बचाव कार्य है।”

सही तरीके से बीजों जुटाना
एनसीएफ के शोधकर्ताओं ने कर्नाटक के हासन और चिकमगलूर जिलों के कॉफी उत्पादकों के साथ मिलकर एक ऐसे संरक्षण मॉडल को अध्ययन किया, जिससे कॉफी के बागानों से बीज इकट्ठा किया जा सके और जंगलों को बचाया जा सके।
इन दोनों जिलों के आठ पॉलिकल्चर शेड एग्रोफॉरेस्ट (यानी ऐसे खेत जहां छाया देने के लिए देशी प्रजातियों के साथ-साथ विदेशी सिल्वर ओक जैसी प्रजातियां भी लगाई जाती है) के एक सर्वे में कुल 102 प्रजातियों के 3755 वृक्ष दर्ज किए गए। इनमें से 61 प्रजातियां वन के खुले और खराब हो चुके हिस्सों में बहाली के लिए उपयोगी पाई गईं। (जिनमें संरक्षण के नजरिए से विशेष महत्व रखने वाली 22 प्रजातियां शामिल हैं) और 29 प्रजातियां अपेक्षाकृत कम खराब हो चुके वनों की कनैपी के नीचे बहाली के लिए उपयुक्त थीं।
सबसे अहम बात यह रही कि जिन कॉफी बागानों का सर्वे किया गया, उनमें वनों की बहाली और संरक्षण के लिए उपयोगी प्रजातियों की संख्या उन स्थानीय सरकारी नर्सरियों से कहीं ज्यादा थी, जो आम तौर पर इन इलाकों और भारत के अन्य हिस्सों में पेड़ उपलब्ध कराती हैं।

इसकी एक वजह यह है कि जिन कॉफी स्टेट को चुना गया, उन्होंने अलग-अलग देशी प्रजातियों को उगाने के लिए ठोस प्रयास किए हैं। पेपर के सह-लेखक और चिकमंगलूर में सत्यनारायण प्लांटेशन, नर्मदा एस्टेट के मालिक सोहन शेट्टी ने कहा, “हमने उसी बीज आपूर्तिकर्ता से संपर्क किया जिससे वन विभाग बीज खरीदता है और हमने अपने एस्टेट को ऑर्गेनिक बनाने के बाद उन पेड़ों को लगाना शुरू कर दिया।” उन्होंने आगे कहा, “जब एनसीएफ ने हमसे संपर्क किया, तब तक हम उन पेड़ों के 1.2 लाख पौधे लगाकर अपनी नर्सरी तैयार कर चुके थे।”
ओसुरी ने बताया कि कॉफी के बागान नैतिक तरीके से बीज और पौधे इकट्ठा करने का एक अच्छा मौका भी देते हैं। “कॉफी के एग्रोफोरेस्ट में, आपको न सिर्फ बहुत सारे ऐसे बीज और पौधे मिलते हैं जो अगर वहीं छोड़ दिए जाते तो मर जाते, बल्कि ये उस इलाके के यानी स्थानीय भी होते हैं। ये एक ही जगह से आते हैं, और इसलिए ये पौधे स्थानीय मिट्टी और स्थानीय जलवायु के मुताबिक ढले हुए होते हैं, जो जंगलों को फिर से हरा-भरा करने के लिए बहुत जरूरी हैं।”
जंगलों (जहां ज्यादा मात्रा में बीज निकालने का खतरा होता है) या सड़क किनारे और जंगल के किनारों से (जहां मनचाही किस्में नहीं मिल पातीं) से बीज लेने के विपरीत, विविध प्रजातियों वाले कॉफी एग्रोफोरेस्ट एक बेहतर विकल्प हैं क्योंकि उनमें कई प्रजातियां होती हैं और बीज प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। अध्ययन के दौरान, शोधकर्ताओं और कॉफी किसानों ने 25 और 50 देशी प्रजातियों के 14,000 बीज और 4200 पौधे बचाए।
शेट्टी ने कहा, “नैतिक तरीके से बीज लेने के लिए, हमने देशी पेड़ों पर रिबन बांधे और खरपतवार निकालते समय बीज और पौधे इकट्ठा किए। हमने एनसीएफ के साथ मिलकर ऐसे पेड़ों के आसपास जाल भी लगाए, जिनपर अक्सर कुछ खास पक्षी आते थे, ताकि उनके मल में मौजूद बीजों को वहां से बचाया जा सके।

चुनौतियां भी कम नहीं
कॉफी के बागानों को बीज स्रोतों के रूप में इस्तेमाल करने वाले मॉडल बड़े पैमाने पर अपनाना किसानों के लिए एक चुनौती साबित हो सकता है क्योंकि इसमें कुछ समझौते करने पड़ते हैं। शोध में पाया गया है कि देशी पेड़ों की प्रजातियां उगाने से समय के साथ कीटों का प्रकोप कम होता है और पैदावार बढ़ती है, लेकिन विदेशी सिल्वर ओक जैसी विदेशी प्रजातियां बिना अधिक रखरखाव और निराई के वांछित स्तर की छाया प्रदान करने में सक्षम हैं, जिससे लागत में बचत होती है।
कूर्ग वन्यजीव सोसायटी के सचिव और एक कॉफी उत्पादक सी.पी. अयप्पा, जो इस रिसर्च में शामिल नहीं थे, ने कहा कि सिल्वर ओक काली मिर्च उगाने के लिए भी आदर्श परिस्थितियां देता है, जिससे किसानों को अन्य प्रजातियों की तुलना में अच्छी कीमत मिल सकती है। उन्होंने आगे कहा, “जब किसान अधिक देशी पौधे लगाते हैं तो उन्हें समर्थन देने के लिए पेमेंट फॉर इकोसिस्टम जैसा मॉडल होना चाहिए। क्योंकि ये पेड़ हमेशा किसान के लिए व्यावसायिक रूप से लाभकारी नहीं होते, खासकर छोटे और मध्यम समय में।
2007 और 2011 के बीच, मध्य अमेरिका, पूर्वी अफ्रीका और भारत में कॉफी एग्रोफोरेस्ट्री का अध्ययन करने वाली यूरोपीय संघ द्वारा वित्त पोषित परियोजना, CAFNET के एक अध्ययन में पाया गया कि कर्नाटक के कोडागु क्षेत्र में सिल्वर ओक के कारण कॉफी एग्रोफोरेस्ट्री में पक्षियों की विविधता में आम तौर पर कमी आई है। हालांकि, “यह प्रवृत्ति तभी देखी जाती है जब सिल्वर ओक का अनुपात स्थानीय पेड़ों के अनुपात में 20-30% से अधिक हो जाता है।” अध्ययन में कहा गया है, “इससे पता चलता है कि सिल्वर ओक को एक तय सीमा के अंदर रखा जाए, तो उसे एस्टेट में बनाए रखना संभव है, क्योंकि यह जैव विविधता को नुकसान पहुंचाए बिना किसान की आय में सुधार करता है।”
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ओसुरी के अनुसार, एक और बड़ी चुनौती बीजों और पौधों को तैयार करने के लिए पर्याप्त नर्सरियों की कमी है। खास किस्म की कॉफी में बढ़ती रुचि से ऐसे ब्रांड को बढ़ावा मिल रहा है जो जैव विविधता का समर्थन करने वाले खेतों को दिखा सकें। उन्होंने कहा, “लेकिन यह ध्यान खेतों पर ही केंद्रित है, न कि ‘बचाव’ और ‘बहाली’ पर।”
उन्होंने कहा, “इन बचाई गई प्रजातियों में से कई के लिए, नर्सरियों में कुछ समय बिताने से उनके जीवित रहने की संभावना काफी बढ़ जाती है, जहां उन्हें एक विशेष आकार तक पाला जाता है, लेकिन हमारे पास पर्याप्त संख्या में नर्सरियां नहीं हैं। इस मॉडल के साथ हम जो हासिल करना चाहते हैं, वह है संरक्षण और बहाली को न केवल खेत के भीतर, बल्कि उसके आसपास के क्षेत्रों तक भी फैलाना है।”
यह खबर मोंगाबे इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 12 मार्च 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर- कॉफी एग्रीफार्म से इकट्ठा कई देशी वृक्ष प्रजातियों के पौधों को एक नर्सरी में लगाया जा रहा है। किसान आमतौर पर कैनोपी प्रूनिंग के दौरान जिन बीजों को हटा देते हैं, उन्हें जंगलों को फिर से हरा-भरा करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। तस्वीर- विजय कुमार।