- बिहार में हर साल बाढ़ और सूखे जैसी आपदाएं आती हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन से बढ़ती ये समस्याएं चुनावी बहस में कभी बड़ा मुद्दा नहीं बन पातीं।
- विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु के असर राजनीति को परोक्ष रूप से तो प्रभावित करते हैं, पर यह कभी अलग से चुनावी मुद्दा नहीं बनता। सरकारों की प्रतिक्रिया भी ज्यादातर आपदा के बाद की होती है, न कि कोई ठोस तैयारी की।
- मतदाताओं के लिए रोज़गार और बुनियादी ज़रूरतें ज़्यादा अहम हैं, हालांकि अब जागरूकता बढ़ने से जलवायु के मुद्दे धीरे-धीरे बिहार की राजनीति के केंद्र में आने की संभावना दिख रही है।
बिहार देश के सबसे जलवायु-संवेदनशील राज्यों में से एक है। यहां हर साल बाढ़ और सूखा आता है। फिर भी जब चुनाव होते हैं, इन मुद्दों पर राजनीति में बहुत कम बात होती है।
6 और 11 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले भी राजनीतिक बहसें जाति, अपराध, भ्रष्टाचार और नेताओं पर ही केंद्रित हैं। जबकि कई अध्ययन बताते हैं कि बिहार में जलवायु संकट लगातार बढ़ रहा है।
आईआईटी मंडी और आईआईटी गुवाहाटी के एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत के सबसे जलवायु-संवेदनशील 14 जिले बिहार में हैं। 2021 में “काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर” (CEEW) ने बिहार को देश का पांचवां सबसे संवेदनशील राज्य बताया था। इस रिपोर्ट में कहा गया कि उत्तर बिहार में बार-बार बाढ़ आती है, जबकि दक्षिण बिहार में सूखा पड़ता है।
रिपोर्ट के मुताबिक, दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर जैसे जिले बाढ़ से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। अरवल, बेगूसराय, भागलपुर, भोजपुर, बक्सर, दरभंगा, सहरसा और शिवहर जैसे जिले सूखे से जूझते हैं।
रिपोर्ट के लेखक अभिनाश मोहंती, जो अब आईपीई ग्लोबल में काम करते हैं, कहते हैं कि बिहार में बाढ़, सूखा, चक्रवात और हीटवेव सब एक साथ असर डाल रहे हैं। अब नया रुझान यह है कि कभी बाढ़ वाले इलाकों में सूखा और सूखे वाले इलाकों में बाढ़ आने लगी है।
यह अध्ययन 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित था। मोहंती का कहना है कि अब आबादी बढ़ने से खतरा और बढ़ गया है। “बिहार कृषि प्रधान राज्य है, और जलवायु परिवर्तन से खेती पर असर पड़ सकता है, जिससे लोगों का पलायन भी बढ़ सकता है,” वे कहते हैं।

बेंगलुरु स्थित थिंक टैंक “सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी” (CSTEP) के एक अध्ययन में बताया गया है कि आने वाले समय में बिहार की जलवायु कैसे बदल सकती है। अध्ययन ने दो संभावनाओं का आकलन किया, पहली, सामान्य विकास का रास्ता (जैसा अब चल रहा है) और दूसरी, अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वाला रास्ता। रिपोर्ट के अनुसार, सामान्य स्थिति में तापमान करीब 1.5°C तक बढ़ सकता है, जबकि ज्यादा उत्सर्जन होने पर यह 2°C तक जा सकता है।
अध्ययन की लेखिका इंदु के. मूर्ति कहती हैं, “जब हम इस विषय पर बात करते हैं तो आमतौर पर मानव स्वास्थ्य पर ध्यान देते हैं, लेकिन बढ़ती गर्मी के असर कई हैं। इससे पशुओं का स्वास्थ्य और कृषि उत्पादन भी प्रभावित होता है। फसलों का चक्र तापमान पर निर्भर करता है। उदाहरण के तौर पर गेहूं को लें, यह सर्दी के तापमान के प्रति बहुत संवेदनशील फसल है। अगर गर्मी बढ़ी तो इसका उत्पादन घट सकता है या फसल चक्र बदल सकता है।”
अध्ययन में बारिश के पैटर्न में भी बड़े बदलाव का अनुमान लगाया गया है। रिपोर्ट बताती है कि बहुत तेज़ बारिश वाले दिनों की संख्या 1990 से 2019 के बीच 7 से 61 दिन थी, जो 2021 से 2050 के बीच सामान्य स्थिति में 22 से 80 दिन और अधिक उत्सर्जन की स्थिति में 47 से 98 दिन तक बढ़ सकती है।
मूर्ति कहती हैं, “ऐसे बदलाव जटिल हैं। इससे फसल का प्राकृतिक चक्र बिगड़ सकता है, जो बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय है। तेज़ बारिश की घटनाएं बाढ़ की स्थिति को और बिगाड़ सकती हैं और बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचा सकती हैं।”
वह आगे जोड़ती हैं, “लंबे सूखे के दौर भले ही तकनीकी रूप से सूखा न कहलाएं, लेकिन वे भी फसलों के चक्र को बिगाड़ सकते हैं और उपज को प्रभावित कर सकते हैं।”
राजनीति में जलवायु की चर्चा
बढ़ते सबूतों के बावजूद जलवायु का मुद्दा अब भी राजनीति के हाशिये पर है। नेता और रणनीतिकार इसे अलग-अलग स्तर पर समझते हैं।
ग्राउंड ज़ीरो नाम की एक राजनीतिक परामर्श कंपनी के सीईओ ऋत्विक श्रीवास्तव कहते हैं, “मैंने बिहार के पिछले तीन चुनावों में काम किया है और कह सकता हूं कि जलवायु परिवर्तन एक अहम मुद्दा है। यह मुख्य मुद्दा नहीं बन पाता क्योंकि लोगों के सामने और भी तात्कालिक समस्याएं होती हैं। लेकिन जलवायु से जुड़ी आपदाओं का राजनीतिक असर बहुत बड़ा होता है। लोग जानते हैं कि खेत सूखे में नहीं चलेंगे, इसलिए वे पलायन करते हैं। भारी बारिश के बाद पुल टूट जाता है। ये सब चुनाव में असर डालने वाले कारक हैं। लोग शायद ‘जलवायु परिवर्तन’ शब्द नहीं बोलते, लेकिन बाढ़ जैसी घटनाओं को मुद्दा बनाते हैं। इसी तरह नेता भले ही प्रचार में इसे न उठाएं, लेकिन जीतने के बाद वे बाढ़ नियंत्रण जैसी योजनाओं की मांग करते हैं। यानी वे भी इसे एक मुद्दा मानते हैं।”

इलेक्शनियरिंग कंसल्टिंग नाम की एक और राजनीतिक परामर्श संस्था के संस्थापक मनीष कुमार भी श्रीवास्तव की बात से सहमत हैं। वे कहते हैं, “यह एक अहम मुद्दा है। बिहार की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है और बार-बार बाढ़ और सूखे का सामना करती है। नेता भी इस चिंता को जानते हैं।”
वे आगे कहते हैं, “मेरे फील्ड दौरे में लोग बेहतर आपदा प्रबंधन की मांग करते हैं। यानी मतदाता भी इसे एक गंभीर मुद्दे के रूप में देखते हैं। मैं नेताओं को जलवायु अनुकूलन के उपाय अपनाने की सलाह देता हूं, क्योंकि इससे लोगों का भरोसा और वोट दोनों मिलते हैं। मैंने देखा है कि नीतीश कुमार सरकार पानी और मिट्टी संरक्षण पर काम कर रही है, जो जनता की मांग को मान्यता देता है। लेकिन जलवायु का मुद्दा अब भी प्रतिक्रिया वाला है, इसे पहले से सोचकर काम करने वाला बनाना होगा। इसमें मीडिया और सिविल सोसायटी की भूमिका बहुत जरूरी है।”
जनता दल (यूनाइटेड) की नेता और पूर्व मंत्री रंजू गीता बाजपट्टी विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह इलाका बाढ़-प्रवण सीतामढ़ी जिले में आता है, जो इस साल सूखे से प्रभावित हुआ। वे मोंगाबे इंडिया से कहती हैं, “बाढ़ और सूखा राजनीतिक मुद्दे हैं। लोग राहत की मांग करते हैं, लेकिन इसे लगातार सामाजिक समस्या के रूप में नहीं उठाते। सरकार उनकी जरूरत के मुताबिक कदम उठाती है। इस साल सूखे से निपटने के लिए राज्य सरकार ने बोरवेल खुदवाए। नदियों को जोड़ने की योजना और ‘हर घर नल जल’ जैसी योजनाएं भी जलवायु अनुकूलन में मदद कर रही हैं। नेपाल में होने वाली बारिश से यहां बाढ़ की स्थिति बनती है।”
वह आगे कहती हैं कि उन्होंने सरकार से पुराने बैराजों को सुधारने और नए बनाने की मांग की है। “भारत-नेपाल सीमा पर बने बांध अंतरराष्ट्रीय मसला हैं। जलवायु परिवर्तन राजनीतिक मुद्दा है, भले ही यह चुनावी मुद्दा न हो।”
गीता आगे जोड़ती हैं, “बिहार में अब शिक्षा बढ़ रही है। अब ज़्यादा छात्र यहीं रहकर पढ़ाई कर रहे हैं, बाहर नहीं जा रहे। जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ेगी, वैसे-वैसे जलवायु परिवर्तन पर ध्यान भी बढ़ेगा और हम जनप्रतिनिधियों को इस दिशा में काम करने की प्रेरणा मिलेगी।”
मतदाताओं की नज़र से
जमीनी स्तर पर जलवायु संकट शायद ही कभी चुनावी मुद्दा बन पाता है। पटना की बोरिंग रोड पर एक चाय की दुकान पर सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे छात्र बताते हैं कि उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा रोज़गार है। वे बिहार की जलवायु समस्याओं से वाकिफ हैं, क्योंकि वे संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की तैयारी करते हैं और यह विषय उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा है, लेकिन आर्थिक दबाव के कारण नौकरी ही उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी रहती है।
चाय की दुकान चलाने वाले पप्पू कुमार छात्रों की बात से सहमत हैं। वे कहते हैं, “गर्मी में मेरी लोहे की दुकान बहुत गर्म हो जाती है और सर्दियों में जम जाती है, फिर भी मैं इसे खुला रखता हूं ताकि मेरे बच्चे पढ़ाई कर सकें। हमारे लिए सबसे ज़रूरी चीज़ शिक्षा और रोज़गार है।”

पटना हाईकोर्ट के वकील श्रीअंश प्रकाश कहते हैं, “पर्यावरण से जुड़े अधिकार तीसरी पीढ़ी के अधिकार हैं। यहां के लोग अभी भी अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।”
वे आगे कहते हैं, “आपदा के समय की सरकारी प्रतिक्रिया भी राजनीतिक हो जाती है, क्योंकि यह सीधे तौर पर प्रभावित लोगों के अधिकारों से जुड़ी होती है। राहत मांगना और सरकार से कार्रवाई की अपेक्षा रखना अपने आप में एक राजनीतिक प्रक्रिया है।”
फिर भी कुछ लोग बदलाव देख रहे हैं। बेंगलुरु में रहने वाली लेखिका दीक्षा सिंह, जो दिवाली पर अपने घर पटना आई हैं, कहती हैं, “जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ता है। अब जागरूकता बढ़ रही है। पटना को ही देखिए, ज्यादा कंक्रीट, कम पेड़, बढ़ती गर्मी और घटता भूजल स्तर। ये बातें अब लोगों की रोजमर्रा की बातचीत का हिस्सा बन गई हैं। इसका मतलब है कि जलवायु अब एक राजनीतिक मुद्दा बन रहा है।”
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मोंगाबे इंडिया से बात करने वाले जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि अब जलवायु परिवर्तन कोई दूर की बात नहीं रह गया है, यह बिहार की ज़मीनी हकीकत है। उनका कहना है कि अगर राजनीति में आज इसे पहचाना गया, तो यही आने वाले कल में राज्य की स्थिरता तय करेगा।
बैनर तस्वीर: पटना में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के कार्यालय के बाहर बना एक ग्रैफिटी, जो लोगों से मतदान की अपील करता है। तस्वीर – श्रीअंश प्रकाश