- विकासशील देशों को 2035 तक हर साल 310 से 365 अरब डॉलर की जरूरत होगी ताकि वे जलवायु बदलाव के अनुकूल कदम उठा सकें। यह मौजूदा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सहायता से लगभग 12 गुना ज़्यादा है।
- 2025 तक वैश्विक अनुकूलन वित्त को दोगुना कर करीब 40 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य शायद पूरा न हो पाए, जिससे बाढ़, हीटवेव और अन्य जलवायु प्रभावों का खतरा बढ़ जाएगा।
- 197 देशों में से 172 के पास राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाएं हैं, लेकिन इनमें से 36 पुरानी हो चुकी हैं, जिससे गलत या अप्रभावी अनुकूलन का जोखिम बढ़ता है।
- स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्रों में अब भी पर्याप्त निवेश नहीं हो रहा है, जबकि आपदाओं और बीमारियों के प्रकोप से खतरे लगातार बढ़ रहे हैं।
भारत इस समय बढ़ती गर्मी, अनियमित बारिश और तटीय बाढ़ जैसी जलवायु चुनौतियों का सामना कर रहा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट ने चेतावनी दी है कि दुनिया के पास अब जलवायु संकट से निपटने के लिए जरूरी पैसा खत्म होता जा रहा है। कमजोर समुदायों और अर्थव्यवस्थाओं की रक्षा के लिए पर्याप्त वित्त नहीं है।
UNEP की रिपोर्ट ‘एडेप्टेशन गैप रिपोर्ट 2025’ के मुताबिक, भारत समेत विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए 2035 तक हर साल कम से कम 310 अरब डॉलर की जरूरत होगी। यह मौजूदा अंतरराष्ट्रीय सहायता से करीब 12 गुना ज्यादा है। रिपोर्ट कहती है कि जलवायु जोखिम बढ़ रहे हैं लेकिन अनुकूलन के लिए धन की कमी और बढ़ती जा रही है, जिससे लोगों की जिंदगी, रोजगार और स्वास्थ्य खतरे में हैं।
अनुकूलन का मतलब है ऐसे कदम उठाना जिससे समाज जलवायु बदलाव के असर को झेल सके, जैसे पानी का बेहतर प्रबंधन, समुद्री किनारों की सुरक्षा और गर्मी झेलने वाले शहर बनाना। एडेप्टेशन गैप यानी वह कमी जो देशों की मौजूदा तैयारियों और असल जरूरतों के बीच है।
रिपोर्ट के अनुसार, ग्लासगो क्लाइमेट पैक्ट में 2025 तक अनुकूलन वित्त को करीब 40 अरब डॉलर तक बढ़ाने का जो लक्ष्य था, वह पूरा नहीं हो पाएगा। UNEP ने कहा है कि यह वित्तीय कमी ऐसे समय में हो रही है जब दुनिया में घातक गर्मी की लहरें, बाढ़ और संक्रामक बीमारियां बढ़ रही हैं।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेस ने कहा, “जलवायु संकट तेज़ी से बढ़ रहा है, लेकिन अनुकूलन के लिए पैसा पर्याप्त नहीं है। इससे सबसे कमजोर लोग बढ़ते समुद्र, खतरनाक तूफानों और झुलसाने वाली गर्मी का सामना कर रहे हैं। अनुकूलन कोई खर्च नहीं, बल्कि जीवन बचाने का तरीका है।”
रिपोर्ट ने स्वास्थ्य क्षेत्र की कमजोर स्थिति पर भी चिंता जताई है।
AIIMS दिल्ली के डॉ. हर्षल साल्वे ने कहा, “भारत जैसे देश बढ़ती गर्मी, पानी की कमी, ज्यादा नमी और वायु प्रदूषण जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ये खतरे हमारे लिए नई स्वास्थ्य चुनौतियां पैदा कर रहे हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए अनुकूलन फंड बहुत कम है, और महामारी के बाद की दुनिया में यह केवल आर्थिक नहीं बल्कि गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बनता जा रहा है।”

अनुकूलन फंड की कमी बढ़ी, प्रगति रुकी
UNEP की रिपोर्ट के मुताबिक, विकासशील देशों को 2035 तक जलवायु बदलाव से निपटने के लिए हर साल 310 से 365 अरब डॉलर की जरूरत होगी। फिलहाल उन्हें केवल करीब 26 अरब डॉलर ही मिल रहे हैं। यानी जरूरत और मदद के बीच 12 से 14 गुना का अंतर है। यहां तक कि अगर नया लक्ष्य न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (NCQG) पूरा भी हो जाए, जिसमें 2035 तक हर साल 300 अरब डॉलर देने की बात है, तब भी यह दुनिया की असली जरूरतों को पूरा नहीं करेगा। महंगाई बढ़ने पर यह लागत हर साल 440 से 520 अरब डॉलर तक पहुंच सकती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुकूलन के लिए फंड की जरूरत बहुत बढ़ गई है, लेकिन अमीर देशों की मदद लगभग रुकी हुई है। अब गरीब और कमजोर देशों को यह तय करना पड़ रहा है कि वे जलवायु से बचाव पर खर्च करें या शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जरूरी कामों पर।
UNEP की निदेशक इंगर एंडरसन ने कहा, “दुनिया का हर इंसान अब जलवायु परिवर्तन के असर महसूस कर रहा है, जंगलों में आग, तेज गर्मी, सूखा, बाढ़ और बढ़ती कीमतें। अगर ग्रीनहाउस गैसें कम करने की रफ्तार धीमी रही, तो हालात और बिगड़ेंगे। हमें अमीर और गरीब दोनों देशों से मिलकर अनुकूलन के लिए ज्यादा फंड जुटाना होगा, लेकिन कमजोर देशों पर कर्ज का बोझ नहीं डालना चाहिए। अगर हम अभी निवेश नहीं करेंगे, तो हर साल नुकसान बढ़ता जाएगा।”
सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन के संस्थापक हरजीत सिंह ने कहा, “यह रिपोर्ट दिखाती है कि अमीर देशों ने अपना वादा पूरा नहीं किया। अनुकूलन फंड की यह कमी उन लोगों के लिए मौत जैसी स्थिति है जो जलवायु संकट की पहली मार झेल रहे हैं। 172 देशों ने अनुकूलन की योजनाएं बना ली हैं, लेकिन अमीर देशों ने केवल बातें की हैं। यह कमी ही जान, घर और रोजगार के नुकसान की सबसे बड़ी वजह है। यही असली जलवायु अन्याय है।”
पुरानी रणनीतियाँ और अधूरी योजनाएँ
UNEP की रिपोर्ट में पाया गया है कि अब 172 देशों के पास कम से कम एक राष्ट्रीय अनुकूलन नीति, रणनीति या योजना है, जिनमें भारत भी शामिल है। लेकिन इनमें से 36 योजनाएँ या तो पुरानी हो चुकी हैं या लागू नहीं की गई हैं, जिससे देशों में गलत या अधूरी अनुकूलन नीतियों का खतरा बढ़ गया है।
भारत की राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय योजनाएँ वैश्विक रुझानों के अनुरूप हैं, लेकिन सीमित बजट और वित्तीय क्षमता के कारण इनकी प्रगति धीमी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश अब जलवायु अनुकूलन के कदमों पर अधिक रिपोर्टिंग तो कर रहे हैं, लेकिन इन उपायों के असर या नतीजों की जानकारी अभी भी बहुत कम है। कुल मिलाकर देशों ने जैव विविधता, कृषि, जल और बुनियादी ढांचे से जुड़े 1600 से ज़्यादा अनुकूलन कार्यों की सूचना दी है, परंतु बहुत कम देशों ने इनके परिणामों को मापा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ “अनुकूलन की सीमाओं” का सामना कर रही हैं। इसका मतलब है कि वित्त, तकनीक और संस्थागत ढांचे की कमी के कारण समुदाय बढ़ते जलवायु जोखिमों से पूरी तरह निपट नहीं पा रहे हैं।
2024 में ग्रीन क्लाइमेट फंड, ग्लोबल एनवायरनमेंट फैसिलिटी और एडेप्टेशन फंड से मिले नए अनुकूलन प्रोजेक्ट्स की राशि बढ़कर 920 मिलियन डॉलर हो गई है, लेकिन UNEP ने चेताया है कि यह वृद्धि एक बार की हो सकती है, न कि स्थायी रुझान का संकेत।

भारत में अनुकूलन फंड की ज़रूरत
भारत को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए अपने GDP का लगभग 2.4%, यानी औसतन प्रति व्यक्ति 62 डॉलर की अनुकूलन फंडिंग की आवश्यकता है। वर्तमान में दुनिया भर में केवल 5% अनुकूलन जरूरतें घरेलू स्रोतों से पूरी होती हैं, जिससे भारत जैसे देशों को अंतरराष्ट्रीय वित्त पर भारी निर्भर रहना पड़ता है।
रिपोर्ट में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की 2022 की रिपोर्ट “क्लाइमेट रिस्क एंड सस्टेनेबल फाइनेंस” का उदाहरण दिया गया है, जिसने राष्ट्रीय नीतियों में जलवायु जोखिमों को शामिल करने की शुरुआती कोशिश की थी। लेकिन UNEP ने चेताया है कि अनुकूलन के लिए दिए गए 89% गैर-रियायती कर्ज (non-concessional loans) मध्यम आय वाले देशों जैसे भारत को गए हैं, जिससे कर्ज का बोझ और वित्तीय अस्थिरता बढ़ने का खतरा है।
मलेशिया के सनवे सेंटर फॉर प्लानेटरी हेल्थ की निदेशक डॉ. जेमिला महमूद ने कहा, “हम जलवायु अनुकूलन में बेहद कम निवेश कर रहे हैं। यह फंड की कमी सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि लोगों के स्वास्थ्य, सुरक्षा और गरिमा पर बढ़ते खतरे का संकेत है। हीटवेव से स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव बढ़ रहा है, बाढ़ से पानी दूषित हो रहा है और इन सबका सबसे बड़ा असर कमजोर वर्गों पर पड़ रहा है।”
निजी क्षेत्र की भूमिका और बेलेम की दिशा
UNEP का अनुमान है कि यदि सरकारें सहायक नीतियाँ और ब्लेंडेड फाइनेंस (मिश्रित वित्त) जैसी व्यवस्थाएँ अपनाएँ, तो निजी निवेश 5 अरब डॉलर से बढ़कर 50 अरब डॉलर प्रति वर्ष तक पहुँच सकता है। लेकिन रिपोर्ट ने चेताया है कि निजी निवेश सार्वजनिक फंड का विकल्प नहीं हो सकता, खासकर स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और आपदा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2035 तक हर साल 1.3 ट्रिलियन डॉलर के जलवायु वित्त लक्ष्य को हासिल करना जरूरी है, जो “बाकू से बेलेम रोडमैप” का हिस्सा है। इससे विकासशील देशों को जलवायु झटकों से समुदायों की रक्षा करने में मदद मिलेगी।
भारत की अनुकूलन प्राथमिकताएँ जैसे सूखा सहनशीलता, तटीय सुरक्षा, जल प्रबंधन और शहरी गर्मी से निपटना UNEP द्वारा बताई गई वैश्विक प्राथमिकताओं के अनुरूप हैं। ये प्राथमिकताएँ भारत की राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना (2008) और संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) को सौंपी गई तीसरी राष्ट्रीय रिपोर्ट (2023) में शामिल हैं। रिपोर्ट कहती है कि स्थानीय स्तर पर और पर्यावरण आधारित अनुकूलन सबसे अधिक लाभ दे सकता है, लेकिन इसके विस्तार के लिए नए और रियायती फंड की जरूरत है।
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रिपोर्ट के निष्कर्षों से उम्मीद है कि वे आने वाले क्लाइमेट सम्मेलन COP30 (बेलेम) में होने वाली चर्चाओं को दिशा देंगे, जहाँ देश अनुकूलन फंड की कमी को कैसे दूर किया जाए और “बाकू से बेलेम रोडमैप” को कैसे लागू किया जाए, इस पर विचार करेंगे। UNEP ने देशों से आग्रह किया है कि वे रियायती फंड बढ़ाएँ, पारदर्शिता की व्यवस्था मजबूत करें और नई वैश्विक वित्तीय रूपरेखा में कमजोर समुदायों को प्राथमिकता दें।
COP30 से ठीक पहले आई यह रिपोर्ट एक सख्त चेतावनी देती है कि अनुकूलन की रफ्तार जरूरतों से काफी पीछे है। अगर जल्द वित्तीय और राजनीतिक कदम नहीं उठाए गए, तो भारत जैसे देशों को बढ़ते जलवायु खतरों से निपटना और मुश्किल हो जाएगा।
हरजीत सिंह ने कहा, “यह सिर्फ पैसों की बात नहीं है। यह न्याय, एकजुटता और राजनीतिक इच्छा की बात है ताकि कोई भी देश उस संकट का अकेले सामना न करे, जिसे उसने पैदा नहीं किया।”
बैनर तस्वीर: पंजाब के फाज़िल्का जिले में बाढ़ में डूबा एक घर। 1988 के बाद से आई सबसे भीषण बाढ़ में राज्य के 1,900 गाँव जलमग्न हो गए, 51 लोगों की जान चली गई, 4,00,000 एकड़ फसलें बर्बाद हो गईं, 3,84,000 लोग प्रभावित हुए, और शहर अपने ही घरों और उद्योगों से निकलने वाले गंदे पानी में डूब रहे हैं। तस्वीर -सुखजिंदर महेसरी।