- प्रोटीन से भरपूर एक सुपर फ़ूड के रूप में देखे जाने वाला मखाना पिछले कुछ समय में काफी प्रचलित हुआ है।
- मखाना अब दुनिया भर में लोकप्रियता हासिल कर रहा है, लेकिन भारत में यह दशकों से घरों में नाश्ते के रूप में काम आता रहा है।
- मखाना का व्यापार बढ़ने के बावजूद भी इसको बनाने की प्रक्रिया अभी भी कड़े परिश्रम वाली और मशीनों के अभाव वाली है।
मखाना या अंग्रेजी में फॉक्स नट के नाम से जाने जाने वाले कमल के बीज भारत में एक लम्बे समय से खाए जाते रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से इस मखाना को प्रोटीन से भरपूर एक सुपर फ़ूड के रूप में देखा जाने लगाया है। इस ही के चलते हाल ही में ये काफी प्रचलित भी हो गया है।
मखाना, एक प्रकार के कमल (वाटर लिली) जिसका वैज्ञानिक नाम ‘यूरीएल फेरॉक्स’ है, के पौधे के बीजों से बनता है। यह पौधा रुके हुए पानी वाले तालाबों और आर्द्रभूमि में उगता है। भले ही इसकी खेती मुख्य रूप से बिहार में की जाती है, लेकिन यह पूर्वी एशिया के कुछ और हिस्सों में भी पाया जाता है। बिहार के दरभंगा, मिथिला और मधुबनी जैसे जिलों के किसान जलभराव वाले खेतों और उथले तालाबों में मखाने की खेती करते हैं। पानी में से हाथों से निकलने के बाद इन बीजों को सुखाकर भून लिया जाता है।
प्रसाद से अंतरराष्ट्रीय प्रसार का सफर
भारत में मखाना का दशकों से सांस्कृतिक महत्व रहा है। इसे मंदिरों में प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता था, इसके साथ ही व्रत और उपवास के अनुष्ठानों में भी इसका इस्तेमाल किया जाता था। “मिथिलांचल (मिथिला क्षेत्र) में होने वाली शादियों में मखाना उपहार के रूप में भी परोसा जाता है, जो पवित्रता और समृद्धि का प्रतीक है,” बिहार के मखाना निर्माता रमनीष ठाकुर बताते हैं। ठाकुर अपने ब्रांड ‘तिरहुतवाला’ के माध्यम से मखाना की सप्लाई करते हैं।
साल 2023 में विश्व में मखाना का बाजार 44.4 मिलियन (4.4 करोड़) डॉलर का था और 2030 तक इसके 97.5 बिलियन (9,750 करोड़) डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। इस बाजार में भारत, जो इसका सबसे बड़ा उत्पादक है, महत्वपूर्ण हिस्सेदारी का योगदान देगा, जो वैश्विक राजस्व का 81% से अधिक है।
इस साल फरवरी की शुरुआत में, बिहार में एक रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सार्वजनिक रूप से मखाना का समर्थन किया था और इसके पोषण संबंधी लाभों पर ज़ोर दिया था। इसके अलावा, 2025-2026 के बजट में भी मखाना का जिक्र तब आया जब सरकार ने बिहार में मखाना बोर्ड की स्थापना की घोषणा की। इस बोर्ड की स्थापना का उद्देश्य उत्पादन को बढ़ाना, निष्पक्ष व्यापार प्रथाओं को सुनिश्चित करना और किसानों को बेहतर बाज़ार प्रदान करना है।

कभी पारंपरिक नाश्ते के रूप में इस्तेमाल होने वाला ये पोषक तत्वों से भरपूर मेवा अब दुनिया भर में केल और क्विनोआ चिप्स के साथ अपनी जगह बना चूका है। भले ही मखाना की खेती जापान, चीन, दक्षिण कोरिया और रूस जैसे देशों में भी होती है, लेकिन भारत इन देशों से उत्पादन और निर्यात में काफ़ी आगे है। दुनिया के मखाना निर्यात का लगभग 90% हिस्सा भारत से आता है।
हालांकि, इस बढ़ती लोकप्रियता के साथ कई चुनौतियां भी जुड़ी हुई हैं।
कड़ी मेहनत और कम पैसा
मखाना बनाना एक कड़ी मेहनत का काम है जिसमें घुटनों तक कीचड़ भरे पानी में चलकर तालाब की तलहटी से बीज इकट्ठा करने पड़ते हैं। बीज निकालने वाले मजदूरों को इन पौधों को हिलाने के लिए इसके कंटीली तने को हाथों से पकड़ना पड़ता है। यह पौधे कम से कम एक महीने तक कीचड़ में डूबे रहते हैं। फिर इन बीजों को अच्छी तरह से साफ किया जाता है, धूप में सुखाया जाता है, और फिर भूना जाता है।
पहली नज़र में यह पौधा कमल जैसा दिखता है, लेकिन करीब से देखने पर इसमें नुकीले काँटे नज़र आते हैं। इन कांटों के कारण बीजों को इकट्ठा करना शारीरिक रूप से मुश्किल हो जाता है। “ये कांटे कभी-कभी किसानों को नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन उनकी कमाई इसी पर निर्भर करती है,” मिथिला क्षेत्र के मखाने की खेती करने वाले राकेश झा बताते हैं।
ऐसा कई बार हुआ है जब जमींदारों ने मखाना की खेती के लिए अपने तालाब मजदूरों को पट्टे पर दिए हों। “हालांकि, वे मुनाफे का 50% हिस्सा ले लेते थे, जिससे किसानों को उनकी मेहनत की कमाई का एक छोटा सा हिस्सा ही मिलता था,” झा ने बताया।
इस प्रक्रिया के बारे में बताते हुए, झा कहते हैं कि लगभग 10 मजदूर 100 किलो से ज्यादा बीज भूनते हैं, जिनमें से केवल 30-35 किलो ही पककर फूट पाते हैं।

चावल या गेहूं की खेती, जहां मशीनीकरण ने प्रक्रिया को आसान बना दिया है, के विपरीत मखाना की फसल की खेती अभी भी काफी हद तक हाथों वाली प्रक्रिया पर निर्भर करती है। इससे यह शारीरिक रूप से थका देने वाला और समय लेने वाला हो जाता है।
“इस प्रक्रिया में शारीरिक श्रम बहुत थका देने वाला है और उपकरणों में कोई नयापन नहीं आया है। शरीर की सुरक्षा के लिए भी कोई मशीनरी उपलब्ध नहीं है और इससे किसानों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, क्योंकि उन्हें कटने और डंक लगने का ख़तरा रहता है जिससे संक्रमण हो सकता है, और इतनी मेहनत वाले काम से लंबे समय तक शारीरिक तनाव बना रहता है,” ठाकुर कहते हैं।
बिहार के दरभंगा जिले में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मखाना की प्रति हेक्टेयर खेती की औसत लागत लगभग 1,09,395.70 रुपए है, जबकि औसत उपज 2,037.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है।
हालांकि, कुल खेती की लागत में मानव श्रम का योगदान लगभग 35.75% है, जो मखाना की खेती की श्रम-प्रधान प्रकृति को दर्शाता है। बेहतर लाभ के बावजूद, बिहार के किसानों को हाल के वर्षों में कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ रहा है।
साल 2022 में जमाखोरी के कारण मखाना की कीमतों में भारी गिरावट आई। जब बिक्री कम थी उन दिनों में कई किसानों ने पिछले सीजन का स्टॉक बचाकर रखा था। इससे पुरानी स्टॉक अचानक बाज़ार में आने से सप्लाई ज़रूरत से ज़्यादा हो गई। इसकी वजह से कीमतें 400-500 रुपए प्रति किलोग्राम से गिरकर 250-300 रुपए प्रति किलोग्राम हो गईं। “पहले किसानों के लिए यह दर लगभग 300 रुपए प्रति किलोग्राम और ज़्यादा से ज़्यादा 500 रुपए प्रति किलोग्राम थी। अब, किसान हमें लगभग 1,000 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बेच पा रहे हैं,” ठाकुर ने बताया।
साल 2023 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार में गरीबी दर लगभग 33% है। राज्य की एक बड़ी आबादी शिक्षा, बुनियादी स्वच्छता और स्वास्थ्य सुविधाओं और रोजगार तक पहुँच से वंचित है। ये सभी बिहार के लोगों में पलायन के बड़े कारण हैं। ज्यादातर किसान पारंपरिक रूप से चावल और गेहूँ की खेती से कमाई करते हैं, जो जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं है।

मखाना की खेती करने वाले किसान अक्सर व्यापार से जुड़ी शिक्षा और जागरूकता की कमी से जूझते हैं, जिसके कारण बिचौलियों को कीमतें तय करने का मौका मिल जाता है।
“हममें से ज्यादातर लोगों के पास शिक्षा का अभाव है और हमें यह भी नहीं पता कि हमें मखाना कितने में बेचना चाहिए,” बिहार के दरभंगा में एक दशक से मखाना की खेती कर रहे कुमार कहते हैं। “बिचौलिए दाम तय करते हैं, हमारी बात ज्यादा नहीं सुनी जाती। कभी-कभी तो फसल के दौरान हम जो खर्च करते हैं, उसकी भरपाई भी नहीं कर पाते, लेकिन उम्मीद है कि अब माँग और जागरूकता बढ़ने के साथ स्थिति बदलेगी,” उन्होंने आगे कहा।
“मखाना की सबसे बड़ी चुनौती बीजों को इकट्ठा है, जिसमें बहुत ज्यादा मेहनत लगती है,” मखाना बनाने वाली कंपनी मिथिला नेचुरल्स के संस्थापक मनीष आनंद कहते हैं। “प्रगति हो रही है और अगले दो सालों में कुछ मशीनें आ जाएंगी। बिहार में मौसमी मजदूरों का पलायन भी होता है,” उन्होंने बताया।
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बाजार का विकास एक चुनौती
वैश्विक बाजारों में चीन के बढ़ते प्रभाव ने मखाना उद्योग में प्रतिस्पर्धा को लेकर चिंता बढ़ा दी हैं। ‘कियान शी’ नामक एक विशेष प्रकार का मखाना, अपने औषधीय गुणों के दावों के कारण चीन में काफी लोकप्रिय हो गया है।
प्रसाद जैसे कई लोग इस बाजार में भारत की मजबूत स्थिति को लेकर आश्वस्त हैं। वे आगे कहते हैं, “हम इस क्षेत्र में कई नए आविष्कार लाने की योजना बना रहे हैं।”
बाजार में हेरफेर, कुछ लोगों द्वारा उद्योग का शोषण करने की एक और बड़ी बाधा है। प्रसाद कहते हैं, “वे [प्रतिस्पर्धी] हमारे पैकेट की नकल करते हैं और नाम बदल देते हैं।” “फॉक्स नट की बढ़ती वैश्विक उपस्थिति के कारण अब स्थापित ब्रांडों की जालसाजी बढ़ रही है।”
इस तरह की लगातार हेराफेरी से अक्सर उपभोक्ता भ्रमित हो जाते हैं और उद्योग में रुकावट पैदा होती है, जिससे मूल्य निर्धारण और उपलब्धता में अस्थिरता पैदा होती है, जिससे किसान प्रभावित होते हैं।
यह खबर मोंगाबे-इंडिया टीम द्वारा रिपोर्ट की गई थी और पहली बार हमारी अंग्रेजी वेबसाइट पर 22 अप्रैल 2025 को प्रकाशित हुई थी।
बैनर तस्वीर: मखाना की खेती भले ही मुख्य रूप से बिहार में की जाती है, लेकिन यह पूर्वी एशिया के कुछ और हिस्सों में भी पाया जाता है। बिहार के दरभंगा, मिथिला और मधुबनी जैसे जिलों के किसान जलभराव वाले खेतों और उथले तालाबों में मखाने की खेती करते हैं। पानी में से हाथों से निकलने के बाद इन बीजों को सुखाकर भून लिया जाता है। तस्वीर – FacetsOfNonStickPans, विकिमीडिया कॉमन्स (CC BY-SA 4.0) द्वारा।