1991 में जब भारत ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की, तब देश ने विकास की एक नई रफ्तार पकड़ी। लेकिन इस तेज़ी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ क्या पर्यावरण भी तालमेल बिठा पाया? Mongabay India के पॉडकास्ट Environomy के इस एपिसोड में, एडिटोरियल डायरेक्टर एस. गोपीकृष्ण वारियर बताते हैं कि इन सुधारों का असर सिर्फ उद्योगों या व्यापार तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसने खेती, पहाड़ और जलवायु तक को गहराई से प्रभावित किया।
वारियर समझाते हैं कि कैसे हरित क्रांति से लेकर 1991 के बाद के उदारीकरण ने कृषि में रासायनिक खादों और कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ाई। भले ही खाद्य सुरक्षा में सुधार हुआ, लेकिन इसका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ा। सुधारों के बाद आयात-निर्यात तो बढ़ा, लेकिन यह असंतुलन किसानों के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। इसी दौर में खेतों का टुकड़ों में बँटना और मशीनीकरण बढ़ा, जिससे किसानों की आमदनी और ज़मीन से जुड़ाव दोनों पर असर पड़ा। साथ ही, कृषि का तीव्र व्यावसायीकरण छोटे किसानों और पारिस्थितिकी दोनों के लिए चुनौती बन गया।
इस बातचीत में नीलगिरि जैसे पहाड़ी इलाकों की स्थिति पर भी ध्यान दिया गया है, जहां 1991 के बाद पर्यटकों की बाढ़ ने पारंपरिक पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाया। शोला जंगल और घास के मैदान, जो दक्षिण भारत की नदियों के जलस्रोत हैं, अब अवैज्ञानिक निर्माण और वनों की कटाई की वजह से संकट में हैं। वारियर बताते हैं कि कैसे यह क्षेत्र अब जल संरक्षण की अपनी क्षमता खोता जा रहा है। साथ ही, वे यह भी बताते हैं कि वनाधिकार अधिनियम (FRA) जैसे कानूनों में बदलाव से इन इलाकों की सुरक्षा कैसे कमजोर हो रही है।
एपिसोड के अंतिम हिस्से में जलवायु परिवर्तन के बड़े संकेतों पर बात होती है। वारियर बताते हैं कि एयरोसोल प्रदूषण की वजह से मानसून का पैटर्न बदल सकता है और अरब सागर के गरम होने से तूफान ज़्यादा ताक़तवर होते जा रहे हैं। इन बदलते मौसमीय रुझानों का असर नीलगिरि जैसे संवेदनशील क्षेत्रों पर साफ दिख रहा है।



