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राजस्थान-गुजरात के बीच जंगल का गलियारा अब इको सेंसेटिव जोन, क्या आसान होगा भालुओं का सफर?

भालू
  • राजस्थान के माउंट आबू और गुजरात के जेस्सोर भालू अभयारण्य के बीच एक गलियारा है जो इस क्षेत्र के भालूओं के लिए बहुत जरूरी है।
  • इस गलियारे को इको सेंसेटिव जोन यानी पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया है।
  • पर इस गलियारे की स्थिति काफी नाजुक है। कहीं-कहीं इसकी चौड़ाई मात्र 100 मीटर बच गई है जिससे भालू को आने-जाने में परेशानी होती है।
  • सरकार ने इसे इको सेंसेटिव जोन तो घोषित कर दिया पर क्या इतने भर से इस गलियारे की दशा सुधरेगी?

राजस्थान और गुजरात के बीच अरावली की पहाड़ियों पर बसा इकलौता हिल स्टेशन है माउंट आबू। यहां दूर-दूर से सैलानी आते है। इस खूबसूरत हिल स्टेशन के आसपास के जंगल में कई तरह के वन्यजीव पाए जाते हैं। जैसे, तेंदुआ, धारीदार लकड़बग्घा, जंगली बिल्ली और शाही इत्यादि। यहां के जंगलों में भालू की एक प्रजाति भी पायी जाती है जिसे अंग्रेजी में स्लॉथ बियर कहते हैं। भालू विलुप्तप्राय जीवों में शामिल है।

पहाड़ी के ऊपर जब ठंड बढ़ती है तो ये भालू नीचे का रुख करते हैं। माउंट आबू से 10 किलोमीटर दूर है जेस्सोर भालू अभयारण्य जो इनका अगला ठिकाना होता है।

इस दोनों जंगलों के बीच एक गलियारा है जिसके जरिए भालू आवाजाही करते हैं। यह कहानी इसी  गलियारे की है जिसकी स्थिति क्रमशः खराब होती जा रही है। कहीं-कहीं तो इसकी चौड़ाई महज 100 मीटर रह गई है। पर्यटन के लिए बन रहे बड़े रिजॉर्ट और दूसरे निर्माण इसकी मुख्य वजह है।

इसके मद्देनजर नवंबर, 2020 में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य (डब्लूएलएस) के आसपास के इलाके को इको सेंसेटिव जोन यानी पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया। इस कदम के बाद इस इलाके में इंसानी गतिविधियों को रोकने की कोशिश होगी ताकि यह वन्यजीवों के लिए सुरक्षित रह सके।

वर्ष 1960 में माउंट आबू के पहाड़ी जंगल के 326 वर्ग किलोमीटर इलाके को संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया था। राजस्थान के सिरोही जिले स्थित इस जंगल को माउंट आबू वन्यजीव अभयारण्य के नाम से जाना जाता है। यह राजस्थान के 10 संरक्षित वनों में शामिल है। समुद्र तल से 300 मीटर से लेकर 1722 मीटर की उंचाई के साथ यह पहाड़ी जंगली जीवों की पसंदीदा जगह है।

इन दोनों जंगल के बीच गलियारे को हरा-भरा रखना काफी महत्वपूर्ण है। सरकार द्वारा इको सेंसेटिव जोन बनाने के बाद इंसानी गतिविधियों पर लगाम लगने की उम्मीद है जिससे भालू संरक्षण में काफी मदद मिल सकती है।

सिरोही के जिला वन अधिकार वीएस पांडे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि दक्षिण-फश्चिम में 100 मीटर का ही गलियारा बचा है, जिसे इको सेंसेटिव जोन में शामिल किया गया है। “वन्यजीवों के संरक्षण का प्रयास इको सेंसेटिव जोन के बाहर वन विभाग की जमीन पर अनवरत चलता रहेगा। निम्बज और असावा तालुक के इलाकों में भी वन्यजीव पाए जाते हैं जो कि इको सेंसेटिव जोन से बाहर हैं,” वह कहते हैं।

इको सेंसेटिव जोन का नक्शा। हीं-कहीं इसकी चौड़ाई मात्र 100 मीटर तक कम है।
इको सेंसेटिव जोन का नक्शा। कहीं-कहीं इसकी चौड़ाई मात्र 100 मीटर रह गयी है।

क्या नियमों का हुआ उल्लंघन?

जब किसी इलाके को इको सेंसेटिव जोन में बदला जाता है तो वहां व्यवसायिक निर्माण की अनुमति नहीं होती है। माउंट आबू के अभयारण्य के मामले में ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि यहां नियमों का उल्लंघन हुआ। आरोप लगाया जा रहा है कि दक्षिण-पश्चिम की तरफ के कम क्षेत्र को इको सेंसेटिव जोन में बदला गया। किसी दबाव में।

वर्ष 2016 में जब इससे संबंधित ड्राफ्ट नोटिफिकेशन सामने आया था तो जानकारों ने इसकी काफी आलोचना की थी। माना जा रहा था कि कुछ व्यवसायी और स्थानीय धनाढ्य के दबाव में सरकार ने कुछ हिस्सों को संवेदनशील क्षेत्र में शामिल ही नहीं किया।

इस ड्राफ्ट पर सहमति या आपत्तियों को दर्ज कराने के लिए सरकार ने दो महीने का समय दिया। अपनी आपत्ति दर्ज कराने वाले रुस्तम कामा भी शामिल थे। कामा के खेत अभयारण्य से सटे हुए हैं।

इनका आरोप है कि ड्राफ्ट नोटिफिकेशन की प्रक्रिया के दौरान ही कृषि योग्य जमीनों को व्यवसायिक इस्तेमाल की अनुमति भी दी गयी। उन्होंने लिखा कि ऐसा करना नियम विरुद्ध है और ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।

भारतीय वन्य सेवा में अधिकारी के रूप में कार्य कर चुके मनोज मिश्रा भी कामा की वात से सहमत हैं। “नोटिफिकेशन की प्रक्रिया के दौरान ऐसा करना गलत है,” वह कहते हैं।

नोटिफिकेशन में इको सेंसेटिव जोन के आसपास कुछ गतिविधियों की अनुमति मिलती है जिन्हें ‘रेगुलेटेड’ या कहें नियंत्रित की श्रेणी में रखा गया है। सरकार का दावा है कि इससे संरक्षण कार्य में बाधा नहीं आएगी। इसमें छोटे उद्योग शामिल हैं जो अधिक प्रदूषण नहीं फैलाते।

इस स्थान पर बिजली के पोल और मोबाइल टावर लगाने की भी अनुमति दी गई है। यहां तक की भूमिगत जल को भी व्यसायिक इस्तेमाल के लिए निकाला जा सकता है।

सड़क का चौड़ीकरण, नए सड़कों का निर्माण जैसे विकास कार्य भी इको सेंसेटिव जोन के भीतर संभव हैं। यहां नए पेट्रोल पंप भी स्थापित किए जा सकते हैं।

जानकारों को डर है कि इतने तरह की गतिविधियों की वजह से इस नोटिफिकेशन का संरक्षण पर कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा।

गुजरात में जंगल के करीबी इलाकों में भालू इस तरह सड़कों पर आ जाते हैं। फोटो- विक्की चौहान/विकिमीडिया कॉमन्स
गुजरात में जंगल के करीबी इलाकों में भालू इस तरह सड़कों पर आ जाते हैं। तस्वीर – विक्की चौहान/विकिमीडिया कॉमन्स

जंगल के गलियारे को चाहिए कानूनी संरक्षण

भालू ठंड बढ़ने पर पहाड़ी से नीचे उतरकर गुजरात का रुख करते हैं। इस नजर से यह गलियारा महत्वपूर्ण हो जाता है। वर्ष 2016 में हुए गणना से पता चलता है कि दोनों जंगल में 350 से अधिक भालू रहते हैं, लेकिन ये भालू गुजरात की अपेक्षा अधिकतर माउंट आबू में रहना पसंद करते हैं।

नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज, बैंगलुरु की प्राची थाटे कहती हैं कि उन्होंने इस इलाके के भालुओं पर शोध कर पाया कि यह गलियारा उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

भालू इंसानों से टकराव पसंद नहीं करते, लेकिन जब इनकी उम्र कम होती है तो गलियारा छोड़कर यह आसपास भटक सकते हैं। माउंट आबू के रहवासी और चिकित्सक अरुण शर्मा ने कहा कि उन्होंने एकबार भालू के हमले से घायल महिला का इलाज किया था।

शर्मा इको सेंसेटिव जोन के लिए सरकार द्वारा बनाई पहली कमेटी में भी सदस्य के तौर पर शामिल थे। वह कहते हैं, “पहले हाथी और बाघ के लिए ही जंगल के गलियारे हुआ करते थे। अब ये नौबत आ गई है कि भालुओं के लिए गलियारा जरूरी हो गया है।  अब माउंट आबू में कोई नया निर्माण नहीं होता चाहिए और सिर्फ पुरानी इमारतों का जीर्णोद्धार की अनुमति होनी चाहिए। यहां तक की धार्मिक स्थल और अस्पताल का निर्माण भी नहीं किया जाना चाहिए।”

अतिक्रमण से बढ़ता इंसान और जानवरों का टकराव?

पिछले कुछ वर्षों में गुजरात और राजस्थान में इंसान और जंगली जीवों के बीच टकराव के मामले बढ़े हैं। मार्च 2017 में तीन लोगों ने मिलकर एक मादा भालू को मार दिया। इसके एक दिन बाद ही दूध-पीते नन्हे भालू की मां को किसी ने गोली मार दी। इसी साल दिसंबर में गुजरात के जेस्सोर में इको सेंसेटिव जोन के इलाके को कम कर दिया गया।

सरकार की दूसरी नीतियां भी अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण की कोशिशों में रोड़ा बन रही हैं। एक उदाहरण शराबबंदी का लेते हैं। गुजरात में यूं तो 1949 से (1960 में गुजरात अलग राज्य बना था) ही बॉम्बे प्रोहिबिशन एक्ट लागू है। वर्ष 2018 के बाद इस कानून को और सख्त किया गया। सीमावर्ती इलाके के लोग शराब का लुत्फ लेने माउंट आबू आते हैं। हर साल यहां 15 लाख सैलानियों का आना होता है। यहां के जमीनों पर विकास का अत्यधिक दबाव है और सरकार को निर्माण की अनुमति देनी पड़ती है। राजस्थान वन विभाग के सेवानिवृत्त प्रमुख जीवी रेड्डी कहते हैं कि इको सेंसेटिव जोन का मतलब होता है इंसानी इलाके और जंगल के बीच एक स्तर जो दोनों को सुरक्षा प्रदान करता हो। अगर इस उद्देश्य को ध्यान में नहीं रखा गया तो ऐसे नोटिफिकेशन महज कागजी कार्रवाई भर हैं।


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बैनर तस्वीरः राजस्थान के रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान में विचरण करते भालू। फोटो – हर्ष जयरमैया/विकिमीडिया कॉमन्स

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