Site icon Mongabay हिन्दी

[कमेंट्री] विकास बनाम पर्यावरण: उत्तराखंड किस रास्ते पर अग्रसर है!

जिम कार्बेट नेशनल पार्क में दो एशियाई हाथी आपस में खेलते हुए। तस्वीर- अरिंदम भट्टाचार्य/फ्लिकर

जिम कार्बेट नेशनल पार्क में दो एशियाई हाथी आपस में खेलते हुए। तस्वीर- अरिंदम भट्टाचार्य/फ्लिकर

  • उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने हाल ही में शिवालिक हाथी रिजर्व को निरस्त करने के सरकार के निर्णय पर रोक लगा दी। पर्यावरण के लिहाज से यह एक अच्छा कदम माना जाएगा। अलबत्ता, यह देखने वाली बात होगी कि न्यायालय के इस हस्तक्षेप से हाथियों का यह आशियाना कबतक सुरक्षित रह पाता है!
  • उत्तराखंड सरकार ने जॉलीग्राण्ट विमानक्षेत्र के विस्तार के लिए प्रदेश के इकलौते हाथी रिजर्व को खत्म करने का निर्णय लिया था। इस वन के 87.085 हेक्टेयर भूमि को एयरपोर्ट के विस्तार में लगाने का निर्णय लिया गया था। जबकि यह मानी हुई बात है कि अगर इस वन क्षेत्र को खत्म किया जाता है तो इससे स्थानीय पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को अपूर्णीय क्षति होगी।
  • एयरपोर्ट विस्तार का यह मामला देश में चल रहे पर्यावरण कानूनों को नजरअंदाज कर विकास की दर्जनों परियोजनाओं को आगे बढ़ाने का एक उदाहरण भर है।
  • इस लेख में व्यक्त विचार लेखिका के हैं।

उत्तराखंड के इकलौते हाथियों के निवास स्थान शिवालिक हाथी रिजर्व को वहां की सरकार निरस्त करने के प्रयास में हैं। यानी राज्य सरकार वन भूमि को सामान्य भूमि में तब्दील करना चाह रही है। यह जॉलीग्रांट एयरपोर्ट के विस्तार के उद्देश्य से किया जा रहा प्रयास है। राज्य सरकार ने इससे संबंधित आदेश भी जारी कर दिए थे। पर 11 जनवरी को रीना पॉल बनाम उत्तराखंड सरकार के मामले में फैसला देते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सरकार के इस निर्णय पर रोक (स्टे) लगा दी। इससे पहले उत्तराखंड वन्यजीव बोर्ड की तरफ से 24 दिसंबर को इस बाबत प्रस्ताव दिया गया था। इस प्रस्ताव पर भी न्यायालय ने 8 जनवरी को रोक लगाया था। 

इन सारे प्रस्ताव और उसपर लगे स्टे के बीच अगर राज्य सरकार के हवाईअड्डे के विस्तार से जुड़े प्रस्ताव का विस्तृत अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि सरकार की प्राथमिकता क्या है! विकास या पर्यावरण संरक्षण। 

शिवालिक में होता रहा है हाथियों का संरक्षण

शिवालिक के जंगल को 28 अक्टूबर 2002 में हाथी रिजर्व वन का दर्जा दिया गया। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के अनुसूची-1 में शामिल अनोखे और विशाल वन्यजीव हाथी के संरक्षण के लिए 1992 में बनाये गए प्रोजेक्ट एलीफेंट के तहत यह कदम उठाया गया था।  आईयूसीएन रेडलिस्ट में एशियाई हाथी को संकटग्रस्त प्रजाति के रूप में शामिल किया गया है। देश भर में हाथियों को लेकर 32 रिजर्व बनाए गए हैं। उत्तराखंड में शिवालिक रिजर्व हाथियों के लिए इकलौता संरक्षित स्थान है। अब तक एलिफेंट रिजर्व को टाइगर रिजर्व की तरह वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 या किसी अन्य कानून के तहत मान्यता नहीं मिली है। हालांकि केंद्र सरकार इसको कानूनी जामा पहनाने का विचार कर रही है और इस संदर्भ में वर्ष 2020 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 से जुड़ा एक संशोधन भी लाया गया था।  

हाथियों के निवास स्थान को सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग ने एक एलिफेंट टास्क फोर्स बनाया था। इस टास्क फोर्स ने वर्ष 2010 में ‘गजः रिपोर्ट’ जारी किया। 

यह रिपोर्ट कहती है कि कुल 65,000 वर्ग किलोमीटर हाथी रिजर्व इलाके का महज 40 प्रतिशत हिस्सा ही वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत संरक्षित क्षेत्र में शामिल है। इसका अर्थ यह हुआ कि बचा हुआ 60 प्रतिशत हिस्सा संरक्षित क्षेत्र के बाहर है। इसमें से बहुत सीमित क्षेत्र को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत इको सेंसेटिव जोन यानी पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र के रूप में मान्यता मिली है। इस इको सेंसेटिव जोन को भी इस कानून में परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि केंद्र सरकार पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,1986 की धारा 3(2)(v) के तहत इन क्षेत्रों को अधिसूचित करती है। इसका मकसद ऐसे क्षेत्रों में पर्यावरण की गुणवत्ता सुधारने हेतु या प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों और उपक्रमों पर रोकथाम लगाना होता है।

शिवालिक पहाड़ियों के पीछे जलक्रीड़ा करते एशियाई हाथी। एयरपोर्ट विकास के लिए एलिफेंट रिजर्व के कुछ हिस्से को डी-नोटिफाई करने की कोशिश हो रही है। तस्वीर- अथर्व दाम्बले/विकिमीडिया कॉमन्स
शिवालिक पहाड़ियों के पीछे जलक्रीड़ा करता एशियाई हाथी। हवाईअड्डे के विकास के लिए हाथी रिजर्व के कुछ हिस्से को निरस्त करने की कोशिश हो रही है। तस्वीर– अथर्व दाम्बले/विकिमीडिया कॉमन्स

 इको सेंसेटिव जोन को दो वर्गों में बांटा गया है। पहला संरक्षित क्षेत्र के आसपास का इलाका जिसकी घोषणा गजेट नोटिफिकेशन के माध्यम से होती है। और दूसरा, गजेट नोटिफिकेशन की अनुपस्थिति में संरक्षित क्षेत्र के बाद 10 किलोमीटर दायरे में आने वाला क्षेत्र। इस दूसरे वर्ग को गोवा फाउंडेशन बनाम केंद्र सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 2006 में आए फैसले के बाद जोड़ा गया था। 

एलिफेंट रिजर्व का बड़ा हिस्सा न तो संरक्षित क्षेत्र में आता है और न ही इको सेंसेटिव जोन में। ऐसे में संरक्षण का पूरा दारोमदार राज्य सरकार की नीयत पर टिका होता है। उत्तराखंड में 5405 वर्गकिलोमीटर में फैले शिवालिक एलिफेंट रिजर्व का महज 1340 वर्ग किलोमीटर इलाका ही राजाजी नेशनल पार्क, कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और सोना-नादी वन्यजीव अभयारण्य के अंतर्गत आता है। इसका मतलब यह हुआ है हाथी रिजर्व का अधिकतर हिस्सा राज्य सरकार के संरक्षण को लेकर अपनाए गए रवैये पर निर्भर करता है। इस संदर्भ में उत्तराखंड की सरकार के शिवालिक हाथी रिजर्व के स्थान पर एयरपोर्ट के विस्तार करने के हालिया फैसले को देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि इससे आने वाले समय में वन्यजीवों का आशियाना छिनने की पूरी आशंका है। 

क्या है एयरपोर्ट के विस्तार के मायने! 

एयरपोर्ट विस्तार परियोजना में एक नया टर्मिनल बनाया जाना है। साथ ही व्यावसायिक स्थानों का विस्तार और दूसरी सुविधाओं के लिए भी काफी निर्माण होना है। जनवरी के अपने फैसले में न्यायालय ने कहा कि सरकार के इस निर्णय से पर्यावरण, पारिस्थितिकी तंत्र और जंगली हाथियों को अपूर्णीय क्षति होगी। न्यायालय ने यह भी कहा कि इस डिनोटिफिकेशन से हाथी रिजर्व का इलाका और सिमट जाएगा। न्यायालय का यह आदेश केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग के उस प्रतिक्रिया पर आधारित है जो उत्तराखंड सरकार को ‘जालीग्रांट एयरपोर्ट के विस्तार’ के बाबत दिया गया था।  उत्तराखंड सरकार ने इस संदर्भ में  87.085 हेक्टेयर वन भूमि को एयरपोर्ट विस्तार में लगाने की छूट मांगी थी। इस पर 09.10.2020 को लिखे जवाब में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग ने लिखा कि यह इलाका पर्यावरण की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र के एक किलोमीटर में शिवालिक हाथी रिजर्व और 10 किलोमीटर के दायरे में  राजाजी नेशनल पार्क आता है। परियोजना में वन की क्षति पूर्ति के लिए सरकार के पास कोई और योजना भी नहीं है। यह सब देखते हुए केंद्र सरकार की तरफ से कहा गया कि राज्य सरकार को एयरपोर्ट विस्तार के लिए किसी अन्य स्थान का चयन करना चाहिए। इन सभी बातों को संज्ञान में लेते हुए कोर्ट ने शिवालिक एलिफेंट रिजर्व को निरस्त (डी-नोटिफाइ) करने के निर्णय पर रोक लगाने के आदेश दिए। 

देहरादून एयरपोर्ट की वर्ष 2014 की एक तस्वीर। सरकार एयरपोर्ट के विकास के लिए जंगल की जमीन का उपयोग करना चाह रही है। कोर्ट के निर्णय के बाद एयरपोर्ट विस्तार की राह मुश्किल लग रही है। तस्वीर- पॉल हेमिल्टन/विकिमीडिया कॉमन्स
देहरादून एयरपोर्ट की वर्ष 2014 की एक तस्वीर। सरकार एयरपोर्ट के विकास के लिए जंगल की जमीन का उपयोग करना चाह रही है। कोर्ट के निर्णय के बाद एयरपोर्ट विस्तार की राह मुश्किल लग रही है। तस्वीर– पॉल हेमिल्टन/विकिमीडिया कॉमन्स

चुनौतियों से भरी एयरपोर्ट विस्तार की राह

जॉलीग्रांट एयरपोर्ट के विस्तार के लिए कानूनी तौर पर सरकार को पर्यावरण संबंधी मंजूरी (ईसी), वन संबंधी मंजूरी (एफसी) और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत मंजूरी चाहिए। 

इस परियोजना के लिए पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन नोटिफिकेशन 2006 के आइटम 7 (अ) के अनुसूची I से जुड़े ‘एयरपोर्ट’ संबंधी मंजूरी लेना अनिवार्य है। इसमे प्रावधान है कि सारे प्रोजेक्ट जिसमें व्यवसायिक उपयोग के लिए हवाई पट्टी भी शामिल है-  को ‘ए’ श्रेणी के प्रोजेक्ट के तहत पर्यावरण संबंधी छूट लेना अनिवार्य है।  जॉलीग्रांट एयरपोर्ट विस्तार ईआईए अधिसूचना 2006 के धारा 2 के अंतर्गत आता है। इसके तहत सूचीबद्ध नई परियोजनाओं को नए पर्यावरणीय मंजूरी लेना अनिवार्य है। इस परियोजना की अनुमित के लिए ऐसा नहीं किया गया था। 

इसके अलावा, परियोजना के विस्तार के लिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 की धारा 2 के तहत भी वन विभाग की अनुमति लेना अनिवार्य है। क्योंकि इस परियोजना में 87.085 हेक्टेयर वनभूमि को किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाना है। प्रस्तावित स्थान हाथी रिजर्व के साथ-साथ थानो आरक्षित वन के अंतर्गत भी आता है। वन विभाग की अनुमति के लिए 14 मई 2020 में दिए आवेदन में यह बात स्वीकारी गई है कि इस इलाके में वन्यजीव और इंसानों के बीच टकराव की पूरी आशंका है। 

हालांकि, आश्चर्य की बात यह है कि जिला वन अधिकारी के द्वारा 20 अगस्त 2020 में स्थान का निरीक्षण कर प्रस्तुत रिपोर्ट में कहा गया है कि इस स्थान पर कोई महत्वपूर्ण या संकटग्रस्त जीव या पेड़-पौधे मौजूद नहीं हैं। यह रिपोर्ट लोकहित में इस परियोजना को मंजूर करने की अनुशंसा करती है। इसी तरह, 4 सितंबर 2020 और 8 सितंबर 2020 को सीसीएफ और पीसीसीएप के द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में भी परियोजना को मंजूरी देने की अनुशंसा की गई है। जबकि इनके द्वारा चिन्हित स्थान का कोई मुआयना भी नहीं किया गया था। 

‘लोकहित’ के नाम पर राज्य सरकारों का पर्यावरण के लिए संवेदनशील योजनाओं को इस तरह हरी झंडी देना कई गंभीर सवाल खड़े करता है। इस परियोजना में आगे 9,745 पेड़ों को गिराने की अनुमति भी मांगी गयी है। मजेदार यह है कि राज्य सरकार ने ‘लागत-मुनाफे’ के अध्ययन की जरूरत भी नहीं समझी क्योंकि यह परियोजना ‘लोकहित’ में हैं। सरकार का यह रुख केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलावायु परिवर्तन मंत्रालय के दिशानिर्देशों के विपरीत है जिसमें वन क्षेत्र में नई परियोजनाओं के लिए ‘लागत और मुनाफा’ के विश्लेषण की बात की गयी है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि वास्तव में नई परियोजना लोकहित में है कि नहीं। वन विभाग की मंजूरी के लिए दिए गए आवेदन में इसका जिक्र ही नहीं किया गया है। इस परियोजना को पास फिलहाल वन विभाग की मंजूरी नहीं मिली है।

 राजाजी नेशनल पार्क के 10 किमी दायरे में आने की वजह से परियोजना को वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के तहत मंजूरी लेना आवश्यक है। जैसा कि स्पष्ट है कि स्थानीय वन्य जीवों के लिए यह बफर जोन में पर्यावरण संबंधी मंजूरी के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिया हुआ है। इसके अंतर्गत अगर इको सेन्सिटिव जोन को अधिसूचित नहीं किया गया है तो नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्डलाइफ से अनुमति लेना अनिवार्य है। इस मामले में राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के इको सेंसीटिव जोन का ड्राफ्ट नोटिफिकेशन मई 22, 2018 को आ चुका है पर अभी लंबित है। इसको देखते हुए उत्तराखंड सरकार को पर्यावरण संबंधी अनुमति के साथ साथ नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्डलाइफ की अनुमति लेना भी अनिवार्य है। परियोजना के तहत इस मंजूरी के लिए आवेदन अभी तक लंबित है। इन्हीं सब बातों के मद्देनजर न्यायालय ने इस परियोजना पर रोक लगाने का आदेश दिया। 


और पढ़ेंः खाने की खोज में आ गए छत्तीसगढ़ के हाथी मध्यप्रदेश के बाघ वाले इलाके में


हाथी के आशियाने पर खतरा टला नहीं

प्रस्तावित एयरपोर्ट विस्तार भारत में चल रही कई दूसरी विकास परियोजनाओं का एक उदाहरण भर है, जहां पर्यावरण संबंधी नियम-कानून की अनदेखी की जा रही है। ये कानून विकास के साथ-साथ पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए बने हैं। अति संवेदनशील क्षेत्र के मद्देनजर इन कानूनों का महत्व बढ़ जाता है। पर्यावरण को संरक्षित और सतत विकास के मुद्दे को अक्सर ‘लोकहित’ के सामने नजरंदाज किया जाने लगा है। अक्सर बिना अध्ययन किये हुए ही बड़ी परियोजनाओं की शुरुआत कर दी जाती है और बाद में इन कानूनों के अंतर्गत अनुमति के लिए आवेदन किया जाता है।  इससे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों, वनभूमि और जैव विविधता को बड़े पैमाने पर काफी नुकसान होता है। 

कई बड़ी परियोजनाओं को बिना अनुमतियों के शुरू किया जाता है और इसमें जब करोड़ो रुपए लग जाते हैं तो लोकहित के नाम पर इसे मंजूरी भी दे दी जाती है। जॉलीग्रांट एयरपोर्ट विस्तार भी इसी का एक उदाहरण है जहां बिना जरूरी अनुमति के ही पहले चरण का 80 फीसदी काम पूरा किया जा चुका है। हालांकि, न्यायालय का यह आदेश पर्यावरण की दृष्टि से एक छोटी पर महत्वपूर्ण सफलता है। खासकर ‘विकास’ और पर्यावरण को लेकर चल रहे सतत बहस में। पर आने वाला समय ही बताएगा कि एशियाई हाथी के आशियाने को कोर्ट का यह फैसला कबतक सुरक्षित रख पाता है!

लेखिका सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण से जुड़े कानून की विशेषज्ञ हैं। 

बैनर तस्वीरः जिम कार्बेट नेशनल पार्क में दो एशियाई हाथी क्रीड़ा करते हुए। तस्वीर– अरिंदम भट्टाचार्य/फ्लिकर

Exit mobile version