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[वीडियो] बिहार: कुएं तो नये हो जायेंगे, मगर क्या इनके पाटों पर लौटेगी रौनक

जमुई जिले के केड़िया गांव में 16 नये कुओं की खुदाई हुई। यह तस्वीर खुदाई के समय की है। तस्वीर- इश्तेयाक अहमद

जमुई जिले के केड़िया गांव में 16 नये कुओं की खुदाई हुई। यह तस्वीर खुदाई के समय की है। तस्वीर- इश्तेयाक अहमद

  • बिहार सरकार राज्य में मौजूद करीब सत्तर हजार सार्वजनिक कुओं का जीर्णोद्धार कराने जा रही है। इक्कसवीं सदी में जब सरकारें पाइप के जरिए पानी घरों में पानी पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं, कुओं के जीर्णोद्धार की योजना थोड़ी अजीब लगती है।
  • अधिकारी यह स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि इन कुओं का जीर्णोद्धार पेयजल उपलब्ध कराने के लिए किया जा रहा है या इसका इस्तेमाल खेती-किसानी में होना है।
  • विशेषज्ञ मानते हैं कि बिहार के हरेक गांव में कई कुएं हैं और अगर इनका इस्तेमाल पेय-जल के लिए होने लगे तो आर्सेनिक और फ्लोराईड जैसे खनिज-पदार्थ से होने वाली कई बीमारियों से आसानी से बचा जा सकता है।

बिहार सरकार के पंचायती राज विभाग ने हाल ही में तय किया है कि वह राज्य के 69768 सार्वजनिक कुओं का जीर्णोद्धार करायेगी। इनमें से 67,554 कुओं का जीर्णोद्धार जून, 2021 तक ही कर लिया जायेगा। राज्य सरकार ने अपने महत्वाकांक्षी कार्यक्रम जल जीवन हरियाली अभियान के जरिये राज्य भर के कुओं का सर्वेक्षण कराया था। इस सर्वेक्षण में बिहार में कुल 3,14,982 कुएं मिले थे। राज्य सरकार इनमें से अब उन कुओं का जीर्णोद्धार कराने की सोच रही है, जो जर्जर और क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। हालांकि इन्हें पेयजल के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जायेगा, या इनका कुछ और ही इस्तेमाल होगा यह स्पष्ट नहीं है।

बिहार जैसी सरकार के लिए यह फैसला अनूठा है। क्योंकि एक तरफ सरकार राज्य में सार्वजनिक कुओं के जीर्णोद्धार की बात भी कर रही है, तो दूसरी तरफ राज्य सरकार पाइप के जरिये हर घर में पीने का पानी पहुंचाने की योजना भी संचालित कर रही है। इसके तहत हर गांव में बोरिंग के जरिये भूगर्भ जल निकाल कर उसे शुद्ध किया जा रहा है और पाइप लाइन के जरिये घर-घर पहुंचाया जा रहा है। ऐसे में कुओं के जीर्णोद्धार की इस योजना से आमलोगों को कुछ लाभ भी होगा या इनका सिर्फ डेकोरेटिव महत्व रह जायेगा, यह देखने वाली बात होगी।

बिहार के पहले जैविक ग्राम का कुओं के प्रति रुझान

 बिहार में जब भी कुओं के वापसी की बात होती है तो सहज ही जमुई जिले का केड़िया गांव याद आ जाता है, जहां 2019 में गांव के लोगों ने सरकार से मांग कर 16 नये कुएं खुदवाये थे। केड़िया गांव की पहचान बिहार के पहले जैविक ग्राम के रूप में है। यहां सौ से अधिक परिवारों ने पिछले पांच-छह साल से पूरी तरह जैविक खेती को अपना लिया है।

 उस प्रकरण को याद करते हुए गांव के किसान आनंदी यादव कहते हैं, जैविक खेती की वजह से जब गांव की चर्चा होने लगी तो 2016 में कृषि विभाग के प्रधान सचिव सुधीर कुमार यहां आये थे। उस वक्त उन्होंने हमारी खेती से खुश होकर गांव को दो स्टेट बोरिंग देने की घोषणा की थी।

मगर सुधीर कुमार यह सुनकर चकित रह गये कि गांव के किसान स्टेट बोरिंग के लिए मना कर रहे हैं और कह रहे हैं कि हमें इसके बदले कुएं दिये जायें। किसानों का कहना था कि स्टेट बोरिंग से हमारे गांव का जलस्तर नीचे चला जायेगा। हालांकि विभाग के लोग गांव वालों की इस मांग से बहुत सहमत नहीं हुए। गांव के लोगों को स्टेट बोरिंग के बदले कुओं के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी। राज्य सरकार को अपनी 80 डिसमिल (करीब 24845 वर्ग फीट) जमीन दान भी की ताकि वहां सार्वजनिक कुएं बनाये जा सकें। तब जाकर केड़िया गांव में 16 कुओं की खुदाई हुई और आज उन कुओं में 15 से 25 फीट की गहराई पर आराम से पानी मिलता है। जबकि झारखंड से सटे इस पहाड़ी जिले में इतनी कम गहराई पर पानी मिलना लगभग असंभव माना जाता है।

बिहार की राजधानी पटना में इस कुएं को मौर्यकालीन माना जाता है। इसे अगमकुआं के नाम से जाना जाता है। तस्वीर-पुष्यमित्र
पटना में इस कुएं को मौर्यकालीन माना जाता है। इसे अगमकुआं के नाम से जाना जाता है। तस्वीर-पुष्यमित्र

बिहार में कुओं की समृद्ध परंपरा

हालांकि बिहार सरकार फिलहाल जिन कुओं का जीर्णोद्धार करने की योजना बना रही है, वे ज्यादातर घरेलू इस्तेमाल के लिए उपयोग में लाये जाने वाले कुएं हैं। चार-पांच दशक पहले तक जिसके पानी का पीने और स्नान व कपड़े धोने के लिए खूब इस्तेमाल होता था। हैंडपंप के आने और घर-घर पहुंच जाने से पहले तक राज्य में कुएं ही लोगों के पीने, खाना पकाने और नहाने-धोने के लिए सबसे बड़ा सहारा थे। सरकार द्वारा कराये गये हालिया सर्वे से भी इस बात का पता चलता है कि 45 हजार के करीब गांव वाले इस राज्य में अमूमन हर गांव में सात कुएं बचे हुए हैं।

बिहार में कुओं की उपयोगिता का प्रचार प्रसार करने में जुटे एकलव्य प्रसाद भी यह मानते हैं और कहते हैं कि हैंडपंप के आने के बाद ये कुएं आउटडेटेड मान लिये गये और धीरे-धीरे इनका उपयोग बंद हो गया।

 वे बताते हैं कि राज्य में कुओं की परंपरा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजधानी पटना में अभी भी एक मौर्यकालीन कुआं मौजूद है। वे अगमकुआं का जिक्र कर रहे थे, पटना सिटी में शीतला मंदिर परिसर में स्थित है, उस कुएं को सम्राट अशोक के वक्त का माना जाता है।

 राज्य सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध कुओं के आंकड़ों को देखकर समझ आता है कि गया और जमुई जैसे दक्षिण बिहार के जिलों में अभी भी 30 हजार के करीब कुएं हैं, मगध और शाहाबाद के इलाकों में कुओं की संख्या अधिक है। क्योंकि इन इलाकों में पानी अमूमन काफी अधिक गहराई में मिलता है। हालांकि उत्तर बिहार के इलाकों में भी कुओं की संख्या कम नहीं है। ये कुएं सदियों से इन इलाकों के लोगों की प्यास बुझाते और पानी की जरूरत पूरी करते रहे हैं। मगर पिछले कुछ दशकों से इन्हें अनुपयोगी मान लिया गया है।

बिहार के सुपौल जिले के शिबनगर गांव में खेतों के बीच बना एक छोटा सा खूबसूरत कुआं। फोटो-पुष्यमित्र
सुपौल जिले के शिबनगर गांव में खेतों के बीच बना एक छोटा सा खूबसूरत कुआं। तस्वीर-पुष्यमित्र

बिहार में कुओं को पुनर्जीवित करने का हो रहा कई सालों से प्रयास

एकलव्य प्रसाद कहते हैं कि चार-पांच दशक पहले सरकार और संस्थाओं ने डायरिया और ई-कोली का भय दिखा कर कुओं को खराब बताया और हैंडपंप को बढ़ावा दिया गया। मगर अब यह साबित हो रहा है कि हैंडपंप का जल स्वास्थ्य के लिए अधिक खतरनाक है। इसकी वजह से बिहार में लोग आयरन, आर्सेनिक और फ्लोराइड युक्त जल पीने के लिए विवश हैं और कई तरह की बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। जिसके सामने डायरिया और ई कोली जैसी बीमारी तुच्छ प्रतीत होती है। इसी वजह से कई आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में फिर से कुओं को अपनाने की शुरुआत हुई है।

एकलव्य प्रसाद द्वारा चलाये जा रहे मेघ पाईन अभियान के तहत उत्तर बिहार के कई जिलों में कुओं का जीर्णोद्धार कराया जा रहा है। ऐसा ही एक अभियान खगड़िया जिले के आर्सेनिक प्रभावित गांव सैधा और मदारपुर में चला। इस अभियान से पिछले दो दशक से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता प्रेम वर्मा मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए कहते हैं कि हमने दस साल पहले जिले में 11 कुओं का जीर्णोद्धार कराया था, जिनमें से 4-5 कुओं का पानी लोग आज भी पी रहे हैं।

वे कहते हैं कि जिन गांवों में हमने जीर्णोद्धार से पहले लोगों को कुओं का महत्व बताया, इस अभियान से परंपरागत ज्ञान रखने वाले बुजुर्गों और कुओं का निर्माण करने वाले लोगों को जोड़ा वहां कुओं के साथ लोगों का रिश्ता आज भी कायम है। उन्हें भरोसा है कि कुओं का पानी ही उन्हें आर्सेनिक और आयरन के दुष्प्रभाव से बचा सकता है। इसलिए अगर राज्य सरकार कुओं का जीर्णोद्धार कराने जा रही है तो उसे यह काम ठेकेदारों के जरिये नहीं कराकर स्थानीय आबादी, बुजुर्ग और स्थानीय कुआं खोदने वालों को जोड़ना चाहिए। कुओं का महत्व बताने की प्रक्रिया चलानी चाहिए। तभी यह योजना स्थायी रूप से सफल हो पायेगी।

राज्य सरकार के आंकड़ों के हिसाब से बिहार के 2411 पंचायतों की 22,261 बस्तियां या तो आर्सेनिक, या फ्लोराइड अथवा आयरन की अधिकता वाले पेयजल का सेवन कर रही हैं। इन खनिज पदार्थों की अधिकता से लोगों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ा रहा है। इनमें कैंसर से लेकर लीवर और किडनी की बीमारियां और हड्डियों के रोग की वजह से विकलांगता तक है।

हालांकि राज्य सरकार अभी भी इनका समाधान पाइप द्वारा जलापूर्ति करने की योजना में तलाश रही हैं। मगर एकलव्य प्रसाद कुओं को अधिक बेहतर समाधान मानते हैं। वे कहते हैं कि अगर कुएं के पानी को निकालने से पहले उसे थोड़ा हिला दिया जाये तो आक्सीकरण की प्रक्रिया के जरिये वह पानी खुद-ब-खुद स्वच्छ और पीने लायक हो जाता है। कुएं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें पानी की मात्रा दिखती है और इस वजह से लोग अपनी जरूरत के हिसाब से ही इसका उपयोग करते हैं।

आज के जमाने में क्या स्वच्छ पेयजल के लिए कुओं पर निर्भरता होनी चाहिए!  मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए आईआईटी खड़गपुर के प्रोफेसर अभिजीत मुखर्जी कहते हैं कि हमलोगों ने 30 लाख लोकेशन का अध्ययन किया है। इस अध्ययन में हमने पाया कि कुओं का पानी ज्यादातर लोकेशन पर साफ है। इसके विपरीत ज्यादातर ट्यूबवेल के पानी में आर्सेनिक पाया गया। खास तौर पर उस पानी में जो ज्यादा गहराई से ऊपर आता है। कुएं का पानी तो उतना गहरा नहीं होता है। ज्यादातर 20 से 30 फीट में पानी मिल जाता है। हमने पाया है कि आर्सेनिक अमूमन 40 फीट से अधिक गहराई वाले पानी में मिलता है। हमारा मानना है कि कुएं के पानी में आयरन की मात्रा भी कम रहती है, हां फ्लोराइड मिल सकता है।

कुओं को आर्सेनिक और फ्लोराईड से निजात का सुलभ विकल्प मानने वाले वाराणसी स्थित इनरवॉयस फाउंडेशन के संयोजक सौरभ सिंह कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने हर गांव में ऐसा इन्फ्रस्ट्रक्चर खड़ा किया है जो सरकार चाहकर भी नहीं कर सकती। पूर्वांचल और बिहार के कुछ जिलों में इस कार्य के प्रति सक्रिय रहे सौरभ सिंह कहते हैं कि एक कुएं को बनाने में करीब 25 से 30 लाख रुपये खर्च होते हैं। इसके मुकाबले एक कुएं के जीर्णोद्धार करने में बमुश्किल 25 से 50 हजार रुपये की लागत आती है। पूर्वजों के द्वारा तैयार इस इन्फ्रस्ट्रक्चर को बचा लेने भर से और थोड़ी जागरूकता से आर्सेनिक जैसी बीमारी से आसानी से निपटा जा सकता है।

बिहारः पूर्णिया जिले के धमदाहा गांव में एक व्यक्ति के दरवाजे पर एक जर्जर कुआं। तस्वीर- पुष्यमित्र
पूर्णिया जिले के धमदाहा गांव में एक व्यक्ति के दरवाजे पर एक जर्जर कुआं। तस्वीर- पुष्यमित्र

कुओं की निरंतर सफाई की जरूरत

 एकलव्य प्रसाद कहते हैं कि कुएं के पानी से संक्रमण के खतरे की बात कही जाती है, मगर वह संक्रमण कुएं के आसपास गंदे पानी के जमे होने की वजह से होता है। अगर उसे साफ सुथरा रखा जाये तो यह खतरा खुद ही खत्म हो जाता है। इसलिए हमने जहां कुओं का जीर्णोद्धार कराया वहां आसपास में साफ-सफाई का इंतजाम किया है।

 खुद राज्य सरकार भी जिन कुओं का जीर्णोद्धार कराने की बात कर रही है, उसके आसपास सोख्ता बनाने की योजना भी है। इसके अलावा कुएं को लोहे से ढ़कने और सिर्फ पानी निकालने वाली जगह को खुला रखने की योजना है।

 एकलव्य प्रसाद मानते हैं कि अगर सरकार इन कुओं को नल का जल योजना से जोड़ दे तो यह ज्यादा कारगर साबित हो सकता है। क्योंकि ये कुएं खुद ही स्वच्छ और आर्सेनिक-फ्लोराइड-आयरन मुक्त जल उपलब्ध कराते हैं। इसे अलग से साफ करने की जरूरत नहीं है। मगर इसके लिए जरूरी है कि इन कुओं के साथ जो मोटर लगे उसके नीचे एक चकरी भी लगाया जाये जो पानी निकालने से पहले कुएं के पानी को घुमाकर साफ कर दे। बंगाल में मोटरों में ऐसी चकरियां लगायी जाती हैं।

विशेषज्ञ कुओं की नियमित सफाई को भी महत्वपूर्ण मानते हैं। सबका यह मानना है कि कुओं को जीर्णोद्धार- सरकार के लिए बस एक बार का काम नहीं होना चाहिए। कुओं के निरंतर सफाई की कोशिश भी होती रहनी चाहिए।

हालांकि राज्य में परंपरागत जल प्रबंधन से जुड़ा हर व्यक्ति इस राय से सहमत नहीं है। बिहार की जल संपदा पर गंभीर शोध करने वाले गजानन मिश्र जो राज्य के जल संसाधन विभाग में सचिव रह चुके हैं, कहते हैं, जब सरकार ऐसी योजना सामने लाती है तो लगता है व्यवस्था में बैठे लोगों को सदबुद्धि आयी है। मगर जब यह पता चलता है कि इस कुओं को ढक कर रखने की योजना है, तो लगता है अभी लोगों को पारंपरिक ज्ञान का उतना अनुभव नहीं है।

वे कहते हैं, कुओं की खूबी ही यह है कि उसके जल पर सूरज की किरणें और ताजी हवा का स्पर्श होता है। अगर कुएं के जल को ढक दिया जाये तो वह दूसरे भूजल स्रोतों की तरह ही दूषित हो जायेगा। कुओं में गिरने वाला ऑर्गेनिक कचरा उतना खतरनाक नहीं है, जितना कुओं के जल का स्थिर रहना और अंधेरे में रहना। इसलिए अगर सरकार इसे ढकना भी चाहती है तो यह कोशिश करे कि ढक्कन जालीदार हो, ताकि उसमें हवा और सूरज की रोशनी पहुंच सके।

खुद गजानन मिश्र के दरवाजे पर दरभंगा शहर में एक काफी पुराना कुआं है, जिसके जल का उनके परिवार के लोग आज भी सेवन करते हैं। वे कहते हैं कि यह कुआं 1740-50 ईस्वी का बना हुआ है।

 हालांकि बिहार सरकार के जल जीवन हरियाली अभियान से जुड़े लोग अभी इस परियोजना के महत्व को लेकर बहुत गंभीर नजर नहीं आते। उनके लिए यह भी एक योजना भर है। मोंगाबे-हिन्दी के इस अभियान के दफ्तर अधिकारियों से बातचीत करने के बावजूद यह जानकारी नहीं मिल पायी कि इनमें से कितने कुएं सिंचाई वाले हैं, कितने घरेलू उपयोग वाले। पूछने पर हर बार एक संक्षिप्त जवाब मिल कि ये सभी कुएं सार्वजनिक हैं।

हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि ये कुएं सिंचाई कूंप हो या घरेलू कुएं दोनों स्थिति में लोगों के लिए लाभदायक ही होंगे। एकलव्य प्रसाद कहते हैं कि हाल में हुए शोध में बिहार की फसलों में भी आर्सेनिक के तत्व मिले हैं। इसकी वजह आर्सेनिक युक्त भूजल से फसलों की सिंचाई है। अगर कुओं के पानी से सिंचाई होगी तो यह खतरा भी खत्म होगा। अगर लोग पीने में, खाना पकाने में या नहाने-कपड़े धोने में इस पानी का इस्तेमाल करें, तब भी यह फायदेमंद ही है। 

बैनर तस्वीरः जमुई जिले के केड़िया गांव में 16 नये कुओं की खुदाई हुई। यह तस्वीर खुदाई के समय की है। तस्वीर- इश्तेयाक अहमद

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