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[साक्षात्कार] जयराम रमेशः अर्थशास्त्री से पर्यावरणविद् बनने की यात्रा

  • देश के पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश मूल रूप से अर्थशास्त्री हैं, लेकिन यूनाईटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए)-2 में पर्यावरण मंत्रालय संभालने के बाद से उन्हें एक नई पहचान मिली।
  • मोंगाबे के साथ साक्षात्कार में उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय मिलने की कहानी साझा की। उन्होंने इस दौरान रोजाना के काम में आई चुनौतियों का भी जिक्र किया।
  • नेट जीरो के लक्ष्य को लेकर जयराम रमेश का मानना है कि यह एक जुमला है। उन्होंने कहा कि वर्ष 2050 में हम क्या हासिल करेंगे, इससे बेहतर हो कि हम अगले 10 से 15 साल की अपनी कार्ययोजना तय करें।

भारत के पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश से मोंगाबे-इंडिया के मैनेजिंग एडिटर एस गोपीकृष्णा वारियर ने बातचीत की। पेश है इस बातचीत के प्रमुख अंश।

मोंगाबेः आज हमारे साथ हैं सांसद और देश के पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश। जयराम रमेश एक इंजीनियर और अर्थशास्त्री भी हैं जिन्होंने तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के साथ काम किया है। बाद में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब रमेश को वर्ष 2009 से 2011 तक पर्यावरण मंत्रालय संभालने की जिम्मेदारी मिली। रमेश फिलहाल विज्ञान, तकनीक और पर्यावरण पर बनी संसदीय समिती के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने हाल में लाइट ऑफ एशिया नामक किताब प्रकाशित की है। पर्यावरण मंत्री रहते हुए उन्होंने अपने संस्मरण को ‘ग्रीन सिग्नल’ नामक किताब में संजोया है। उनकी एक और किताब ‘लाइफ इन नेचर’ पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पर्यावरण संबंधी जीवनी पर आधारित है। मोंगाबे के इस सत्र में रमेश आपका स्वागत है।

रमेश मुझे नहीं पता कि आपको याद होगा या नहीं। तकरीबन 30 वर्ष पहले, 1993 में जब हिन्दू बिजनस लाइन अखबार शुरू हो रहा था, तब आप युवा पत्रकारों के साथ एक सत्र में शामिल हुए थे। उन युवा पत्रकारों में मैं भी शामिल था। आपने आर्थिक सुधारों की बात की थी। आप आर्थिक सुधारों के बारे में उत्साहित थे और आपने उस वक्त शायद ही पर्यावरण की बात की हो। तो ऐसा क्या हुआ? क्या आपने एक अर्थशास्त्री के तौर पर अपना मन बदल लिया जब आपने पर्यावरण संरक्षण के आर्थिक महत्व को देखा?

जयराम रमेशः यह पूरी तरह से एक हादसा था। आप जानते हैं 2009 में मुझे पर्यावरण मंत्री बनाया गया। इसे मैं नियति का खेल मानता हूं। मैं 2004 में सांसद बना था। वर्ष 2006 में मुझे वाणिज्य राज्य मंत्री बनाया गया था, और 2008 में मुझे ऊर्जा का अतिरिक्त प्रभार मिला। मैं अपने करियर के मुताबिक ही बढ़ रहा था जो कहीं न कहीं अर्थशास्त्र और आधारभूत ढांचे के विकास के इर्द-गिर्द ही था। जब कांग्रेस पार्टी 2009 में सत्ता में वापस आई तो मैं वित्त मंत्रालय पाने की उम्मीद में था। यही काम मैं पिछले पच्चीस-तीस साल से कर रहा था। मुझे पर्यावरण मंत्रालय संभालने का अप्रत्याशित प्रस्ताव यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दिया। शुरुआत में तो मैं झिझका। इस प्रस्ताव को लेकर मेरे मन में एक अनिच्छा सी थी। मैंने प्रधानमंत्री से कहा, “सर यह काम मेरे लिए नहीं है। मैं कोई पर्यावरणविद् नहीं हूं। मध्य 80 के दशक से ही मुझे कोई पर्यावरणविद् के तौर पर तो नहीं जानता, मैं आर्थिक मुद्दों पर काम करता आया हूं। मैंने अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर काम किया है। मैंने अधिकतर काम उद्योग और ऊर्जा क्षेत्र में किया है।”

मेरी बात पर प्रधानमंत्री हंस पढ़े। बोले, “नहीं, नहीं। आपको यह जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए। जलवायु परिवर्तन को लेकर होने वाले समझौते भारत के लिए काफी अहम होने वाले हैं। आपकी पृष्ठभूमि आर्थिक है और ऊर्जा से भी आपका नाता है। मुझे भरोसा है कि आप पर्यावरण मंत्रालय में खुद को स्थापित कर लेंगे।”

शुरुआत में कुछ दिनों के लिए मैं पानी बिन मछली जैसा हो गया था। मेरे कुछ पर्यावरणविद् दोस्त थे, मैं उनके नेटवर्क का हिस्सा भी था। मैं कई लोगों को जानता था। मैं कई संस्थाओं से नजदीक से जुड़ा था, उदाहरण के लिए सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट और दूसरे संस्थान। लेकिन पर्यावरण मंत्री होना एकदम ही अलग है। जल्दी ही मैंने इस काम को समझ लिया। आज भी साल 2021 में लोग मुझे पर्यावरण मंत्री समझ लेते हैं। मेरा परिचय हमेशा एक पूर्व पर्यावरण मंत्री के तौर पर दिया जाता है, जबकि मैंने ग्राम विकास, पेयजल और दूसरे आर्थिक मंत्रालय संभाले हैं। मैं समझता हूं कि यह मेरा 2009 के बाद वाला स्वरूप है। पर्यावरण मंत्रालय छोड़ने के बाद भी लोग मुझे लिखते हैं, कहीं बोलने के लिए बुलाते हैं। इसी तरह सांसद के तौर पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन पर बनी संसदीय समिती का अध्यक्ष भी बन गया। संसद में भी जब भी कोई पर्यावरण या जलवायु परिवर्तन से संबंधित मामला सामने आता है, सभापति मुझे बोलने के लिए आमंत्रित कर देते हैं।

तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण और वन राज्य मंत्री, जयराम रमेश ने 31 अगस्त, 2010 को नई दिल्ली में भारत में हाथियों के भविष्य को सुरक्षित करने पर "गजः" नामक पुस्तक का विमोचन किया। तस्वीर- पब्लिक रिसोर्स डॉट ऑर्ग/फ्लिकर
तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण और वन राज्य मंत्री, जयराम रमेश ने 31 अगस्त, 2010 को नई दिल्ली में भारत में हाथियों के भविष्य को सुरक्षित करने पर “गजः” नामक पुस्तक का विमोचन किया। तस्वीर– पब्लिक रिसोर्स डॉट ऑर्ग/फ्लिकर

मोंगाबेः दरअसल, आप मात्र 25 महीनों के लिए पर्यावरण मंत्री के पद पर थे। देखा जाए तो यह काफी छोटा समय है। आपसे पहले कई मंत्रियों ने इससे अधिक समय तक इस पद को संभाला है। पर उनके मुकाबले आप अपने इस छोटे कार्यकाल में ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने में कामयाब रहे। पर्यावरण के लिहाज से वह काफी रोचक समय था। इसी समय देश में अर्थव्यवस्था बदल रही थी। वैश्विक स्तर पर मंदी थी लेकिन भारत ने खुद को संभाले रखा था। कोपनहेगन में इसी समय एक बड़ी जलवायु परिवर्तन की बैठक चल रही थी। आपको नहीं लगता कि इच्छा न होने के बावजूद उस पद के लिए उस समय आप सही व्यक्ति थे?

जयराम रमेशः इस काम के दो आयाम हैं, एक अंतरराष्ट्रीय और दूसरा राष्ट्रीय। एक तरफ वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति देखनी थी और दूसरी तरफ देश के भीतर पर्यावरण कानूनों को लागू कराना था। मैंने पद संभालने से पहले प्रधानमंत्री से 31 मई 2009 को मुलाकात की। जो पहली बात उन्होंने कही वह भारत को वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर चल रहे वार्ताओं में सक्रिय भूमिका को लेकर थी। उन्होंने दूसरी बात पर्यावरण के मुद्दे पर उद्योग और परिवहन मंत्रालयों से अधिक ध्यान देने को लेकर कही।

उन्होंने कहा कि दोनों ही मामले एक दूसरे से जुड़े हैं। आप वैश्विक मंच पर लीडर की भूमिका नहीं निभा सकते अगर घरेलू स्तर पर आपकी प्रतिबद्धता नहीं झलकती।

उदाहरण के लिए मैं वर्तमान सरकार की आलोचना भी इसी मुद्दे पर करता हूं। वैश्विक स्तर पर तो वह पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी जाहिर करते हैं, लेकिन घरेलू नीतियों में उनकी वह प्रतिबद्धता नहीं झलकती।

मैंने जैसा पहले भी कहा कि पर्यावरण के विषय को लेकर मैं पूरी तरह अनभिज्ञ्य नहीं था। अशोक खोसला को मैं अच्छे से जानता था, डॉ पचौरी (डॉ. आरके पचौरी, टेरी) के साथ मैंने ऊर्जा पर करीब-करीब 15 वर्षों तक काम किया था। सुंदरलाल बहुगुणा, माधव गाडगिल और चंडी प्रसाद भट्ट को मैं मंत्री बनने के पहले से जानता था।


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मैं प्रकृति और संरक्षण से जुड़े लोगों के भले ही करीब था, लेकिन खुद को पर्यावरण का जानकार न मानते हुए अर्थशास्त्र का जानकार ही मानता रहा। बल्कि मेरी पत्नी एक महान पर्यावरणविद् थी। वह पर्यावरण के मुद्दों पर मेरे मुकाबले कहीं अधिक संवेदनशील थीं। मेरे बड़े पुत्र भी इन मामलों में काफी संवेदनशील हैं। मैं इस तरफ काफी देरी से आया।

हालांकि, मैंने पाया कि इस पद पर रहते हुए काफी कुछ अच्छा किया जा सकता है। मेरी जिम्मेदारी प्रोजेक्ट्स पर पर्यावरणीय अनुमति दिलाने की नहीं थी, बल्कि पर्यावरण बचाने की थी।

मुझे आज भी 1983 की वह घटना याद आती है, मेरे ख्याल से दिसंबर 1983 की बात होगी। मैं उस समय ऊर्जा क्षेत्र में काम कर रहा था। एकबार अपने मंत्री केसी पंत के साथ केरल के तत्कालीन ऊर्जा मंत्री आर बालाकृष्णा पिल्लई से मिलने गया।

उस समय बालाकृष्ण पिल्लई काफी गुस्से में थे। इंदिरा गांधी ने साइलेंट वैली प्रोजेक्ट को रोक दिया था। पिल्लई ने गुस्से में पंत से कहा कि इस प्रधानमंत्री को मलयाली लोगों से अधिक बंदरों की फिक्र है।

मैं साइलेंट वैली को एमपी परमेश्वरण की वजह से जानता था। वे मेरे परम मित्र थे। मुझे चिपको आंदोलन के बारे में भी पता था। मैंने पहले भी कहा कि मंत्रालय संभालना इन सबसे अलग काम था।

मई 2009 से जुलाई 2011 तक पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश दिल्ली में जैव-विविधता को लेकर आयोजित एक कार्यक्रम में उद्घाटन भाषण देते हुए। तस्वीर- पर्यावरण और वन मंत्रालय/विकिमीडिया कॉमन्स।
मई 2009 से जुलाई 2011 तक पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश दिल्ली में जैव-विविधता को लेकर आयोजित एक कार्यक्रम में उद्घाटन भाषण देते हुए। तस्वीर– पर्यावरण और वन मंत्रालय/विकिमीडिया कॉमन्स।

मोंगाबेः राजनीतिक तौर पर आपने अपने लिए जगह कैसे तलाशी? क्योंकि, यूपीए में एक तरह की खींचतान थी। प्रधानमंत्री आर्थिक विकास की ओर ध्यान दे रहे थे तो कांग्रेस अध्यक्ष न्यायसंगत सरकार चलाने की ओर। क्या आपको कोई दिक्कत नहीं हुई?

जयराम रमेशः काफी मुश्किलें आई। हर दिन अपने आप में एक जंग थी। मैं अपने मंत्रालय के लोगों से लड़ता, राज्य के मुख्यमंत्रियों से लड़ता। इन मुश्किलों के बीच मुझे उन मूल्यों के लिए खड़ा होना था जिनमें मुझे यकीन है। मैं सिर्फ अपने देश का कानून लागू कर रहा था। हमारे पास पर्यावरण से संबंधित वन्यजीव (संरक्षण) कानून, जल प्रदूषण कानून, वन संरक्षण कानून, पर्यावरण संरक्षण कानून और वायु प्रदूषण के कानून हैं। देश में 2006 में वन अधिकार कानून भी आ चुका था। मैं इन छह कानून के दायरे में रहकर ही काम करता था। मैं कोई नया कानून नहीं ला रहा था। मेरे काम से कई लोग नाराज थे। इसकी वजह है देश में पर्यावरण कानूनों की परवाह न करना। लोग परियोजना लगाने के बाद पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति लेने आते हैं, और कोई सवाल उठे तो कहते हैं हमने पांच हजार करोड़ लगा दिए हैं। हजारों लोगों को रोजगार मिलने वाला है, इसलिए हमें स्वीकृति दीजिए। हिन्दी में इसे ‘बाद में देखा जाएगा’ वाला रवैया कहेंगे। ऐसे कई मामले आए जिसमें हमने प्रोजेक्ट को स्वीकृति नहीं दी।

मैंने यह साफ कर दिया कि चाहे वह निजी परियोजना हो या सरकारी, अगर नियमों का उल्लंघन हुआ को कानून अपना काम करेगा। जुर्माना लगाया जाएगा। अगर आपके पास फॉरेस्ट क्लिरियंस नहीं है तो परियोजना शुरू नहीं हो सकती। इससे बड़े व्यापारिक घराने काफी नाराज थे। मुझे याद है नवी मुंबई के एयरपोर्ट निर्माण की परियोजना में मैंग्रोव के जंगल, पहाड़ आदि को नुकसान होना था। उन्होंने जबतक परियोजना को दुरुस्त नहीं किया उन्हें स्वीकृति नहीं मिली। उस समय शरद पवार कृषि मंत्री थे, और प्रफुल्ल पटेल विमानन मंत्री। वे दोनों मेरे काफी अच्छे मित्र हैं लेकिन इस निर्णय से काफी नाराज हुए। मैं उनका काफी आदर करता हूं, मुझे उनके साथ ही काम भी करना था, लेकिन मैं इस मामले में कुछ नहीं कर सकता था। मुझे जो जिम्मेदारी मिली थी उसे निभा रहा था।

मैं सुबह 8.15 बजे दफ्तर पहुंच जाता था और 12 घंटे काम कर शाम में 8 बजे के करीब निकलता था। मैं कह सकता हूं कि इन 12 घंटों में 75-80 प्रतिशत समय इसी में निकल जाता था। कभी ऐसा भी होता था कि सुबह मेरी प्रशंसा करने वाला व्यक्ति शाम तक किसी बात से नाराज हो जाता था। मेधा पाटकर, सुनीता नारायण और दूसरे पर्यावरणविद् मेरे काम की सराहना करते, मेरे निर्णय का स्वागत करते और कुछ ही देर में जब जैतपुर परमाणु ऊर्जा संयंत्र को मंजूरी मिल जाती तो मेरी आलोचना भी करते थे। मैंने अपने 26 महीने के कार्यकाल में किसी को खुश नहीं किया।

इस परिस्थिति से निकलने का बस एक ही तरीका था, पूरी तरह से पारदर्शी होना। मेरे पास यही एकमात्र हथियार भी है। मेरा कोई बहुत बड़ा राजनीतिक आधार नहीं है, न ही मैं कोई जननेता हूं। मैं लोकसभा नहीं राज्यसभा का सांसद हूं। मेरे पास पारदर्शिता ही एकमात्र हथियार है जिससे मैं अपना काम बेहतर कर सकता हूं।

मैंने सारे फाइल की नोटिंग सार्वजनिक कर दिए। मेरे सभी निर्णय, सभी आदेश सार्वजनिक हैं। मैंने कभी भी कोई बैठक की तो उसे सार्वजनिक किया। मेरी आलोचना करने वाले भी सार्वजनिक हुए निर्णयों के आधार पर ही मेरी आलोचना करते थे।

अंडमान द्वीप पर जयराम रमेश। तस्वीर साभार- जयराम रमेश
अंडमान द्वीप पर जयराम रमेश। तस्वीर साभार- जयराम रमेश

मोंगाबेः जीएम बैगन को लेकर आपसे कुछ सवाल हैं। जीएम पर हुए निर्णय के बारे में। यह मामला मध्य 1990 दशक में सामने आया था। लेकिन फिर यह मामला आपके सामने आया। आपने इसपर रोक लगा दी। साथ ही, आप यह भी कहते हैं कि इसपर शोध जारी रहना चाहिए। जीएम पर एक तरफ रोक हो और दूसरी तरफ शोध जारी रहे, यह थोड़ा मुश्किल लगता है। इस मामले पर आपने जो निर्णय लिए थे वही स्थिति अब भी बनी हुई है।

जयराम रमेशः मैंने जो निर्णय लिए थे उसे सार्वजनिक कर दिया था। तारीख थी 10 फरवरी 2010। इस बात को 11 साल बीत गए, लेकिन निर्णय नहीं बदला गया। इस दौरान कई सरकारें आईं और कईयों ने मंत्री पद संभाला, लेकिन किसी ने निर्णय वापस नहीं लिया। मेरा स्थगन का आदेश अस्थायी था, हालांकि इसमें अस्थायी शब्द नहीं शामिल था। पर स्थगन की प्रकृति ही अस्थायी है। यह कोई प्रतिबंध नहीं होता।

और मेरे हिसाब से मैं बीटी कपास का समर्थक रहा हूं। मैं पर्यावरण मंत्री बनने से बहुत पहले इसकी सार्वजनिक तौर पर तारीफ कर चुका था। लेकिन फिर बीटी बैगन आ गया। यह याद रखना होगा कि यह खाने की चीज है। पहली बार हमें खाने में शामिल फसल पर फैसला लेना था। मैंने पाया कि इसके लिए आम लोगों की रायशुमारी नहीं की गई है। यह जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी और तकनीक का विकास करने वाली कंपनी महिको के बीच का मामला था। मैंने अच्छी खासी संख्या में वैज्ञानिकों से संपर्क किया। मैंने चेन्नई जाकर डॉक्टर स्वामीनाथन जो कि भारतीय कृषि शोध के भीष्म पितामह माने जाते हैं, के साथ चार घंटे का समय लगाकर इस विषय को समझा। मैंने भारत और विश्व के करीब 50 वैज्ञानिकों को इसके बारे में लिखा और उनका जवाब भी आया। मैंने पाया कि राज्य सरकारों से भी राय नहीं ली गयी है।

मैंने पाया कि यूरोप में भी जीएम पर प्रतिबंध लगाने वाला रवैया है पर अमेरिका इसके पक्ष में नजर आता है। इधर भारत बुद्ध की धरती होने के नाते मध्यम रास्ता अपनाता है। तो मैंने न ही जीएम को अनुमति दी न ही इसपर प्रतिबंध लगाया, बल्कि इसको लेकर एहतियात बरता।

मैंने क्या कहा था? स्थगन लेकर आते हैं। यह स्थगन तीन स्थिति में हटाया जा सकता था। खासकर वैज्ञानिकों की राय जानने के बाद कि इसके लिए किस तरह के सुरक्षा उपाय किए जा रहे हैं, स्वास्थ्य पर इसका क्या प्रभाव है और तीसरा विषैला है या नहीं! राज्य सरकारों को भी इसमें शामिल किया गया। हमने स्वतंत्र नियामक बनाया। अब यह जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी का मामला नहीं था जिसमें वैज्ञानिक खुद ही आंतरिक स्तर पर निर्णय ले रहे हों। अब हम उम्मीद कर रहे थे कि पांच वर्ष के समय में सभी तीन शर्तें पूरी हो जाएं। अब तो 11 वर्ष का समय बीत चुका है।

प्रसंगवश, मैं आपको बताना चाहता हूं कि आरएसएस और स्वदेशी जागरण मंच बीटी बैगन पर स्थगन के पक्ष में थे। उन्हें इस बात से खुशी मिली थी। मेरा स्थगन सिर्फ बीटी बैगन को लेकर था, इसका मतलब यह नहीं कि जेनेटिक इंजीनियरिंग पर कोई प्रतिबंध हो। मैं इसे ट्रांस जेनेटिक्स कहता हूं, जो कि बायोटेक्नोलॉजी का महज एक हिस्सा है। और अब यह तकनीक गुजरे जमाने की हो गई है। अब आपके पास सीआरआईएसपीआर जैसी संस्थाएं हैं जहां जेनेटिक एडिटिंग हो सकती है। यह एकदम से अलग की दुनिया है। मैंने यह बात अपने स्पीकिंग ऑर्डर में नहीं लिखी लेकिन आपको बताता हूं। बायोटेक्नोलॉजी विभाग के सचिव डॉक्टर एमके भान थे। डॉ. महाराज भान। एक बेहतरीन वैज्ञानिक। दुर्भाग्य से वह कुछ महीने पहले चल बसे। मैंने उस वक्त उन्हें मिलने के लिए बुलाया और उनसे उनकी राय पूछी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने जो किया है ठीक किया है। मैं इसे सार्वजनिक तौर पर नहीं रह सकता लेकिन आपने ठीक निर्णय लिया है। मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी बात अपने तक रखूंगा।

दरअसल, डॉ. स्वामीनाथन का पत्र मेरे स्पीकिंग ऑर्डर में भी शामिल है, जिसमें इस मुद्दे को लेकर एहतियात बरतने की वजह शामिल है। उन्होंने अपने पत्र में एक और वजह दी थी, भारत की जैव विविधता। यह देश जैव-विविधता का केंद्र है, इसलिए हमें जीएम से परहेज ही करना चाहिए।

मोंगाबेः कैंपा (क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण) से जुड़े एक महत्वपूर्ण फैसले के लिए भी आपको याद किया जाता है। कैंपा फंड को राज्यों को देने के मामले में। इस वक्त इस फंड में 5300 सौ करोड़ रुपए हैं, लेकिन इसके खर्च को लेकर हमेशा शिकायतें होती रहती हैं। वन अधिकार कानून के साथ भी समस्याएं आती हैं। आपको क्या लगता है, ऐसा क्यों हो रहा है? क्या यह ढांचागत खामी की वजह से है इसे लागू करने के तरीके में कुछ गड़बड़ी है?

जयराम रमेशः मैं जंगल काटकर उसकी भारपाई के लिए पेड़ लगाने के विचार से एकदम असहमत था। मैंने यह सुप्रीम कोर्ट में भी कहा था। कुछेक प्रजाति के पेड़ लगाकर प्राकृतिक जंगल जितना फायदा लेने का विचार ही फर्जी है। हम अपने विवेक को संतुष्ट करने के लिए जंगल के बदले पेड़ लगाते हैं। जंगल का मूल्य निर्धारित कर पेड़ लगाने के लिए कैंपा फंड में पैसा जमा होता जा रहा था। यह राज्य के पास नहीं आ पा रहा था। यह मामला तभी सामने आया। मैं मुख्य न्यायधीश जस्टिस कपाड़िया से मिलने गया। मैंने उन्हें सारा मामला समझाया और हम इस मामले का हल निकाल लाए। अब पैसा कैंपा से राज्य को मिलने लगा। मैं ग्राम सभा के महत्वपूर्ण योगदान को लेकर काफी स्पष्ट था।

दुर्भाग्य से वर्ष 2016 में जिस तरह कैंपा के नियम बदले, उसमें अब स्थानीय लोगों का कोई योगदान नहीं बच जाता। मैंने कहा था कि कैंपा फंड का इस्तेमाल जंगल को पुनर्जीवित करने में होना चाहिए। वृक्षारोपण में पौधों के बचने की संभावना काफी कम होती है। हमने यह भी पाया कि पौधा लगाने के नाम पर बबूल और यूकेलिप्टस के पेड़ लगा दिए जाते हैं। भारतीय जंगल खोकर हम न सिर्फ पेड़ बल्कि जमीन भी खराब कर रहे हैं। कार्बन सोखने के लिहाज से यह महत्वपूर्ण है। जंगल काटकर पेड़ लगाने की वजह से काफी नुकसान हो चुका है। उम्मीद है लोगों को यह बात जल्द समझ आएगी।

यूकेलिप्टस की प्रतीकात्मक तस्वीर। जयराम रमेश कहते हैं, "मैंने कहा था कि कैंपा फंड का इस्तेमाल जंगल को पुनर्जीवित करने में होना चाहिए। वृक्षारोपण में पौधों के बचने की संभावना काफी कम होती है। हमने यह भी पाया कि पौधा लगाने के नाम पर बबूल और यूकेलिप्टस के पेड़ लगा दिए जाते हैं। भारतीय जंगल खोकर हम न सिर्फ पेड़ बल्कि जमीन भी खराब कर रहे हैं।" तस्वीर- आनंद उरुस/विकिमीडिया कॉमन्स
यूकेलिप्टस की प्रतीकात्मक तस्वीर। जयराम रमेश कहते हैं, “मैंने कहा था कि कैंपा फंड का इस्तेमाल जंगल को पुनर्जीवित करने में होना चाहिए। वृक्षारोपण में पौधों के बचने की संभावना काफी कम होती है। हमने यह भी पाया कि पौधा लगाने के नाम पर बबूल और यूकेलिप्टस के पेड़ लगा दिए जाते हैं। भारतीय जंगल खोकर हम न सिर्फ पेड़ बल्कि जमीन भी खराब कर रहे हैं।” तस्वीर– आनंद उसूरी/विकिमीडिया कॉमन्स

मोंगाबेः मैंने पर्यावरण पर आपकी दूसरी किताब को काफी रुचि से पढ़ा, जो कि इंदिरा गांधी के जीवन का पर्यावरण से संबंधित पहलू दिखाती है। दरअसल मेरे जैसे लोग, जो कि पर्यावरण के विद्यार्थी हैं और पर्यावरण आंदोलन के आधुनिक इतिहास को समझने की कोशिश कर रहे हैं, इसकी शुरुआत चिपको आंदोलन से मानते हैं। हालांकि, आपने अपनी किताब में 60 के दशक से ही इसकी शुरुआत मानी है। इस किताब को लिखने के पीछे आपकी क्या प्रेरणा थी?

जयराम रमेशः चिपको आंदोलन से पहले ताज महल बचाने के लिए हुआ आंदोलन भी काफी महत्वपूर्ण है। इसी वजह से वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने वाले कानून हमें मिले। गंगा का रासायनिक प्रदूषण भी एक महत्वपूर्ण घटना है। तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी ही थीं। 67-68 में यह काफी बड़ा मामला बन गया था, विशेषकर बिहार में। मैं इंदिरा गांधी से लंबे समय से काफी प्रभावित रहा हूं। उनकी दो छवि हमारे मानस में है, एक तो दुर्गा की छवि जो कि उन्हें शक्तिशाली दर्शाती है। उन्होंने इसी छवि के साथ बंगलादेश को आजाद कराया। उनकी दूसरी छवि आपातकाल से जुड़ी हुई है। उन्होंने कई कानून थोपे। वह नेहरू के आदर्शों को पार कर पार्टी डेमोक्रेसी से खुले डेमोक्रेसी की तरफ बढ़ीं। मैंने इन दो छवियों के बीच उनके प्रकृति के प्रेम को भी देखा। मंत्री बनने से काफी पहले मैंने उनके इस रूप के बारे में जाना। उदाहरण के लिए सलीम अली ने उनपर काफी प्रभाव छोड़ा। पचास के दशक के शुरुआत में पर्यावरण में वह बर्डवाचिंग के जरिए आईं। नेहरु खुद भी बड़े प्रकृति प्रेमी थे। लेकिन जब बात बांध और जंगल में किसी को चुनना हो तो उन्होंने बांध चुना। इंदिरा गांधी बड़े बांधों पर रोक लगाना चाहती थीं। नेहरू ने ऐसा नहीं किया। हालांकि, नेहरु पर्यावरण को लेकर काफी संवेदनशील थे और इंदिरा गांधी में यह संवेदनशीलता उनसे ही मिली थी। नेहरू काफी स्पष्ट थे कि देश को बड़ी परियोजनाएं चाहिए। सलीम अली के प्रभाव की वजह से इंदिरा गांधी ने अपना काफी वक्त शांतिनिकेतन में बिताया।

उनके मामा कैलाश नाथ कौल एक वनस्पति वैज्ञानिक थे। वह अपने घर में अजगर पालते थे। इंदिरा इस माहौल में बड़ी हुईं थी। उन्होंने उनके साथ अपने पिता के मुकाबले अधिक समय बिताया था, इसकी वजह थी नेहरू जेल के अंदर-बाहर होते रहते थे। उनके बचपन और जवानी का बड़ा समय पहाड़ों में बीता है। इंदिरा की मां बीमार थीं तो उन्होंने उन्हें अल्मोड़ा, नैनीताल, मसूरी और रानीखेत और फिर स्विट्जरलैंड में रखा था। वह खुद भी सांस की मरीज थीं।

वर्ष 1972 को ही लें, यूएन कॉन्फ्रेंस जिसकी पचासवीं वर्षगांठ हम अगले साल मनाने वाले हैं। वहां ओलोफ़ पाल्मे के अलावा इंदिरा एकलौती नेता थी जो कि किसी देश का नेतृत्व कर रही थी और संयुक्त राष्ट्र में वक्ता के तौर पर उन्हें आमंत्रित किया गया था। ओलोफ का वहां रहना वाजिब था क्योंकि वह मेजबान देश से थे। पेरिस में 2015 में हुए सम्मेलन के मुकाबले इसे देखें तो समझ में आता है। पेरिस में 90 से अधिक देश के नेता शामिल हुए। लेकिन स्टॉकहोल्म के वक्त इंदिरा इकलौती थीं। उनका वहां दिया गया भाषण आज भी वैश्विक पर्यावरण के संवादों में मील का पत्थर माना जाता है।

मुझे सलीम अली के शोध पढ़ने का मौका मिला। मैंने दुनिया के दूसरे शोधकर्ताओं के पेपर भी पढ़ें। इससे मेरी एक समझ बनी और मैंने उनकी एक जीवनी पर्यावरण की दृष्टि से लिखी। जब 1971 में पाकिस्तान के साथ लड़ाई की तैयारियां चल रही थी तब सलीम अली, बिली अर्जन सिंह और जफर फतेहली के साथ वे वन्यजीव संरक्षण कानून पर चर्चा कर रही थीं। वन्यजीव को कैसा बचाया जाए इसकी नीतियां बना रही थीं। प्रोजेक्ट लायन, प्रोजेक्ट टाइगर, प्रोजेक्ट क्रोकोडाइल जैसे बड़े राष्ट्रीय कार्यक्रम तभी बने थे। ओडिशा में ओलिव रिडली टर्टल बचाने का काम भी तब शुरू हुआ था। भारत में व्हेल नहीं मिलता था बावजूद इसके भारत अंतरराष्ट्रीय व्हेलिंग कमिशन का हिस्सा था। इंदिरा गांधी इसके बारे में काफी सजग थीं। जापान के लोग इस बात से काफी नाराज भी थे, क्योंकि जापान के लोग व्हेल को मारने पर किसी तरह के नियंत्रण के खिलाफ थे। मैंने जैसा कहा कि वन्यजीव संरक्षण कानून, जल प्रदूषण कानून, वन संरक्षण कानून, वायु प्रदूषण जैसे महत्वपूर्ण कानून उनके समय में आया। वह 1980 में बने मंत्रालय में पहली पर्यावरण मंत्री थीं और 1984 में मृत्यु से पहले तक बनी रहीं। उन्होंने जो कहा सो किया। मुझे लगता है मेरे पर्यावरण मंत्री रहते वक्त वो मेरी आदर्श थीं।

मेरे ख्याल से वह भारत की पहली और आखिरी प्रधानमंत्री थी जिन्होंने जो कहा वह लागू करके दिखाया।

साइलेंट वैली की परियोजना एक राजनीतिक मांग थी। राज्य के कांग्रेस नेता करुणाकरण इसके पक्ष में थे। सीपीएम, नैनार, वहां के स्थानीय सांसद वीएस विजयराघवन, सभी इसकी मांग कर रहे थे। विजयराघवन कांग्रेस पार्टी के ही थे। लेकिन श्रीमति गांधी ने इस परियोजना को मंजूरी नहीं दी।

टेहरी के मामले में भी उन्होंने बेहद आदर्श निर्णय लिया। गुजरात के लालपुर परियोजना पर भी उन्होंने यही किया। उन्होंने वन्यजीवों के मुद्दों पर भी काफी काम किया। इस मामले में उनके राजनीतिक साथी ही उनके विरोध में थे पर उन्हें पता था इन लोगों को कैसे संभालना है। उन्हें यह पता था कि उनके कुछ अपने ही राजनीतिक साथी शिकार कंपनी चलाते हैं, जैसे शुक्ला बंधु बाघ शिकार की कंपनी चलाते थे। तब भी उन्होंने बाघ के शिकार पर 1972 में रोक लगा दी। 1970 में इसपर स्थगन आया था।

तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री के तौर पर एक कार्यक्रम में भागीदारी करते जयराम रमेश। तस्वीर- बारबरा श्नेट्ज़लर/फ्लिकर
तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री के तौर पर एक कार्यक्रम में भागीदारी करते जयराम रमेश। तस्वीर– बारबरा श्नेट्ज़लर/फ्लिकर

मोंगाबेः मैं अंत में एक सवाल नेट जीरो के ऊपर पूछना चाहूंगा। संसदीय समिति के अध्यक्ष के तौर पर क्या नेट जीरो के लक्ष्य में भारत की व्यावहारिक स्थिति के बारे में आपका क्या सोचना है?

जयराम रमेशः मेरे विचार से नेट जीरो शब्द अपने आप में ही एक भ्रम में डालने वाला नारा है। भारत निकट भविष्य जीवाश्म ईंधन को पूरी तरह से खत्म करने की स्थिति में नहीं है। भारत इसे कम कर सकता है लेकिन वर्तमान में ऊर्जा संग्रहन करने की तकनीक के साथ ऐसा होता नहीं दिख रहा है। हमें जिस तरह की ऊर्जा की जरूरत है, वह या तो कोयले से पूरा की जा सकती है या परमाणु ऊर्जा से। ये कहना काफी आसान है कि भारत 2050 तक यह कर लेगा, लेकिन उस वक्त न हम वहां रहेंगे न आप। मेरे ख्याल से बेहतर ये हो कि हम कहें कि 2025 तक हम क्या करने वाले हैं? 2030 तक हम क्या करेंगे। मेरा मतलब 10 से 15 साल की कार्ययोजना से है।

हमें कोयला और परमाणु ऊर्जा की जरूरत पड़ने वाली है। अगर ऊर्जा संग्रहण की तकनीक में मोबाइल तकनीक जैसी कोई क्रांति हुई तो स्थिति कुछ और हो सकती है।

मैं सरकार के कुछ निर्णय का स्वागत कर सकता हूं। जैसे अगर सरकार कहे कि 2035 तक सड़क पर पेट्रोल और डीजल चलित कार नहीं दिखेगी। ऐसा करना संभव है। इलेक्ट्रिक कार चलाने के लिए बिजली सिर्फ सौर या पवन ऊर्जा से नहीं मिलेगी। इसके लिए कोयला और परमाणु ऊर्जा को भी शामिल करना होगा।

हमें परमाणु के क्षेत्र में और अधिक तेजी से बढ़ना होगा। फिलहाल परमाणु से करीब साढ़े तीन प्रतिशत बिजली मिल रही हैं, इसे कम से कम 10 प्रतिशत करना होगा। अगर 5-7 प्रतिशत भी कर लिया तो बड़ी उपलब्धि होगी। परमाणु से भी पर्यावरणविदों को समस्या है, लेकिन कार्बन उत्सर्जन की दृष्टि से देखें तो यह ऊर्जा साफ मानी जा सकती है।

मोंगाबे- एक आखिरी सवाल। क्या पर्यावरण को लेकर आपकी कोई किताब आ रही है।

जयराम रमेशः पर्यावरण पर तो नहीं, लेकिन बुद्ध पर मैंने एक किताब लिखी है।

मोंगाबेः  मुझे इस किताब का किंडन वर्जन मिला है। किताब मेरे पास पहुंचने में समय लगेगा।

जयराम रमेशः यह किताब बिल्कुल ही अलग है। इस समय में भारतीय विज्ञान पर एक जीवनी लिखना चाहता हूं। मैं ओबैद सिद्दिकी के ऊपर काम कर रहा हूं। वे भारत में कई चीजों के जनक थे, जैसे मॉलीकुलर बायोलॉजी। उन्होंने मॉलीकुलर बायोलॉजी पर टीआईएफआर नामक संस्थान की स्थापना की थी। नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंस की स्थापना उन्होंने बैंगलुरु में की थी।


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बैनर तस्वीरः वर्ष 2010 में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत रोमर ने तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की नई दिल्ली में एक समारोह में मेजबानी की। यह कार्यक्रम बाघ संरक्षण के लिए अमेरिका और भारत के बीच चल रहे सहयोगात्मक प्रयासों को उजागर करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया था। तस्वीर– अमेरिकी दूतावास,नई दिल्ली/फ्लिकर 

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