- महानदी के पानी को लेकर भारत के दो राज्य ओडिशा और छत्तीसगढ़ का विवाद काफी पुराना है। वर्ष 2016 में ओडिशा ने कहा कि छत्तीसगढ़ में नदी के ऊपर बन रहे बांध और बैराज इसे पूरी तरह सुखा देगें जिससे ओडिशा के लोग, उद्योग और अन्य चीजों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा।
- पर्यावरणविद्, जागरूक नागरिक और सिविल सोसायटी संस्थाएं आरोप लगाती हैं कि दोनों राज्यों ने ही नदी के साथ न्याय नहीं किया है और अपने राजनीतिक और औद्योगिक फायदों के लिए इसका दोहन किया है।
- विद्वानों का मानना है कि दोनो राज्यों के बीच बेहतर समन्वय के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीतियों की जरूरत है। बदलावों को जल्द लागू करना होगा ताकि नदी पर समुदायों के अधिकारों की रक्षा की जा सके।
ओडिशा और छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित संबलपुर में हीराकुंड बांध का पानी दोनों राज्यों के लिए खींचतान का विषय बना हुआ है। ओडिशा का आरोप है कि महानदी पर बने बांधों में कम पानी वाले मौसम में भी पानी भरा रहता है जिससे नदी की धारा आगे रहने वाले लोगों तक नहीं पहुंच पाती। पानी के बंटवारे को लेकर बने अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद अधिनियम (आईएसआरडब्ल्यूडी), 1956 के तहत स्थापित ट्रिब्यूनल का कार्यकाल दो साल या रिपोर्ट प्रस्तुत करने तक बढ़ा दिया गया है। ट्रिब्यूनल 11 मार्च, 2021 को अपना फैसला देने वाला था, लेकिन यह तय नहीं हो पाया कि राज्य किस फॉर्मेट में जानकारी साझा करेंगे।
रिपोर्ट्स के मुताबिक राज्यों के बीच में यह विवाद जुलाई 2016 में शुरू हुआ था। उस समय ओडिशा ने आरोप लगाया था कि महानदी पर बने बांध और दूसरी परियाजनाओं से इसकी धारा प्रभावित होती है। नदी के सूखने का खतरा है जिससे ओडिशा के आम लोग, किसान, उद्योग और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होंगे।
छत्तीसगढ़ में इस नदी पर तकरीबन दो हजार बांध और बैराज हैं। पर विवाद मुख्यतः12 बड़ी परियोजनाओं को लेकर है। ये हैं रविशंकर सागर बांध, हसदेव बांगो बांध, मुरूम सिल्ली बांध, तांदुला बांध, सोंदूर बांध, दुधवा जलाशय, घोंगा बांध, खारंग जलाशय, मोंगरा बैराज, मोनियारी टैंक और कोडर जलाशय। छोटी जल परियोजनाओं के तहत सिंचाई के नाम पर इन बांधों का निर्माण किया गया पर वास्तविकता यह है कि इस परियोजनाओं से उद्योग को पानी उपलब्ध कराया जाता है। इसके अलावा छह औद्योगिक बांध जिसमें साराडीह, कलमा, बसंतपुर, मिरौनी और शिवरीनारायण शामिल हैं, राज्यों के बीच के टकराव को और बढ़ा रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इन छः बराजों से सालाना 1405.66 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) पानी उद्योग को दिया जाता है, जिससे नदी की पारिस्थितिकी तंत्र और इसके अस्तित्व को खतरा है।
छत्तीसगढ़ के बांध और बैराज से नदी के बहाव को खतरा
ओडिशा के रहने वाले इंजीनियर ललित मोहन पटनायक के मुताबिक छत्तीसगढ़ में महानदी का कैचमेंट इलाका ओडिशा की तुलना में 10 फीसदी अधिक है। छत्तीसगढ़ में 30,000 एमसीएम पानी नदी से निकाला जाता है, वहीं ओडिशा में यह आंकड़ा 27,000 एमसीएम है। ओडिशा का अनुमान है कि जब छत्तीसगढ़ के सभी दो हजार बांध और बैराज पूरी तरह चालू हो जाएंगे, तो महानदी नदी न रहकर तालाबों में बदल जाएगी। गैर मानसून वाले मौसम में नदी में मात्र 829 एमसीएम पानी ही बचेगा।
पटनायक कहते हैं कि गैर मानसून वाले मौसम में हीराकुंड बांध में एक तिहाई पानी ही बचता है। अगर छत्तीसगढ़ ने सभी बांध शुरू कर दिए तो इस बांध में पानी आएगा ही नहीं।
वर्ष 2018 में हुए एक अध्ययन ‘महानदी: कोल रिच वाटर स्ट्रेस्ड’ के अध्ययनकर्ता रंजन पांडा ने पाया कि ओडिशा सरकार ने जो आंकड़े जमा किए हैं उससे नदी को लेकर काफी निराशाजनक स्थिति दिखती है। छत्तीसगढ़ से ओडिशा में 19,237 एमसीएम पानी नदी से बहकर आता है, लेकिन भविष्य में पानी की मांग 23,651 एमसीएम होगी। इसका मतलब छत्तीसगढ़ कैचमेंट क्षेत्र से 4,414 एमसीएम पानी कम आएगा।
हीराकुंड बांध में ओडिशा के कैचमेंट इलाके से 2,119 एमसीएम पानी आता है। अगर छत्तीसगढ़ ने बांधों के जरिए पानी रोक लिया तो ओडिशा को अपने कैचमेंट इलाके के पानी पर ही निर्भर रहना होगा। इस अध्ययन में पाया गया कि छत्तीसगढ़ के बांध की वजह से ओडिशा के हीराकुंड स्थित बांध में पानी नहीं बचेगा।
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राजनीतिक विवाद
राज्यों के बीच पानी के विवाद ने राजनीतिक रूप ले लिया है। ओडिशा में बीजू जनता दल की सरकार और छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक रही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के बीच यह खींचतान चली। आरोप है कि दोनों पार्टियों ने इस विवाद का इस्तेमाल स्थानीय भावनाओं को हवा देने के लिए किया।
छत्तीसगढ़ में वर्तमान में कांग्रेस का शासन है। वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के योजना, नीति, कृषि और ग्रामीण विकास मामलों के सलाहकार प्रदीप शर्मा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि सरकार पानी बचाने के सभी प्रयास कर रही है, जिससे नदी में पानी बढ़ेगा। शर्मा ने ओडिशा पर पानी का इस्तेमान न कर पाने का आरोप लगाया।
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह ने वर्ष 2017 में एक बयान देते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ मात्र 4 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल करता है, जबकि ओडिशा 14 प्रतिशत पानी का इस्तेमाल करता है। बचा हुआ 82 प्रतिशत पानी समुद्र में जाकर बेकार हो जाता है।
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने उस समय कहा था कि रमन सिंह विवाद को सुलझाने में सहयोग नहीं कर रहे हैं। पटनायक ने विवाद सुलझाने के लिए ट्रीब्यूनल की मांग को जायज बताते हुए वर्ष 2018 में कहा था कि विवाद जारी है और दोनों राज्यों के बीच बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है।
इसके बाद ओडिशा सरकार ने एक हलफनामे के माध्यम से तर्क दिया था कि केंद्र, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बीच महानदी जल बंटवारे पर त्रिपक्षीय समझौते के अनुसार, गैर-मानसून मौसम के दौरान ओडिशा को 1.74 मिलियन एकड़ फीट पानी छोड़ना चाहिए।
इस विवाद के बीच पर्यावरणविद् और जानकार मानते हैं कि किसी भी राज्य ने नदी को अविरल रखने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। उनका आरोप है कि राज्यों ने न अपने नागरिक के साथ न्याय किया न ही नदी के साथ।
नदी पर विद्युत संयंत्र, खदान और उद्योगों का प्रभाव
दोनों राज्यों में खनन और औद्योगिकरण को बढ़ावा मिला है। विकास के लिए निवेश पाने के लिए दोनों राज्यों ने महानदी के पानी का इस्तेमाल किया। नदी में पानी का बहाव कम होने के बावजूद राज्यों ने इसकी वजह उद्योग, खनन या बिजली उत्पादन को नहीं माना। पर्यावरण कार्यकर्ता अजीत पांडा कहते हैं कि दोनों राज्यों ने 120 एमओयू पर हस्ताक्षर किए हैं जिसमें नदी के पानी की जरूरत होगी।
हीराकुंड के पास ताप विद्युत संयंत्रों की भरमार है जो कि पानी सोखने वाले विशाल संयंत्र हैं। इस वजह से हीराकुंड के पानी पर काफी दबाव है।
बिजली उत्पादन के संयंत्र न सिर्फ पानी सोखते हैं बल्कि इसकी वजह से गर्मी और प्रदूषण में भी काफी इजाफा होता है। इससे यहां की खेती भी प्रभावित हुई है, अध्ययन का कहना है। अध्ययन में सामने आया कि बिजली घरों से निकलने वाला फ्लाई ऐश या कोयले की राख से कई खेत खराब हो गए हैं।
नदी की कछार के निवासी संकट में
ओडिशा के झारसुगुड़ा जिले के दरलीपाली गांव में तीन कोयला खदान स्थित है। यह इलाका नदी के किनारे स्थित है। गांव के निवासी गोविंदा करली कहते हैं कि यहां के 93 परिवार को खनन कंपनी ने पुनर्वास का झूठा वादा कर विस्थापित कर दिया। “हम यहीं रहे और पुनर्वास की मांग करते रहे, लेकिन हमारी कोई नहीं सुन रहा है,” करली ने बताया।
“यहां हम दोयम दर्जे के इंसान की तरह जीवन बिता रहें हैं। हवा और पानी प्रदूषित है और पीने के पानी का घोर संकट है। खनन ने हमारे पानी के एकमात्र स्रोत आठ एकड़ में फैला एक तालाब भी लील लिया। फूलझोरी नाला भी खनन की भेंट चढ़ गया और लिलारी नाले का पानी इतना बदबूदार और गंदा हो गया है कि उपयोग के लायक नहीं। अब पानी का टैंकर ही हमारी आखिरी उम्मीद है। अगर वह नहीं आता तो लिलारी नाले का गंदा पानी उपयोग करना पड़ता है जिससे कई तरह की बीमारियां हो रही हैं,” करली कहते हैं।
महानदी की सहायक नदी केलो पर बने बांध ने इस समस्या को और गहरा कर दिया। इससे नदी के तट पर बसर करने वाले लोगों का जनजीवन प्रभावित हुआ। ओडिशा के अधिकारियों के एक समूह ने वर्ष 2016 में छत्तीसगढ़ का दौरा किया था। उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य में गैर कानूनी तरीके से सिंचाई परियोजना का पानी उद्योग को दिया जा रहा है।
रायगढ़ के पर्यावरणविद् रमेश अग्रवाल ने ओडिशा के आरोपों से सहमति जताई। वह कहते हैं कि बांध के लिए हजारो एकड़ में फैले जंगल को बर्बाद किया गया।
इस परियोजना से छत्तीसगढ़ के नागरिक भी नाराज हुए। दोनों राज्यों में पानी की कमी से फसल खराब हो रही है, रायगढ़ निवासी राजेश त्रिपाठी कहते हैं। त्रिपाठी केलो नदी से मात्र 500 मीटर की दूरी पर रहते हैं। उन्होंने पाया कि मिनूपाड़ा के पास मानसून के बाद नदी का बहाव खत्म हो गया। इस बांध से 35 उद्योगों को पानी दिया जाता है।
त्रिपाठी ने बताया रकि नदी के कछार में हैंडपंप, तालाब और कुएं भी सूखने लगे हैं। साथ ही, कोयले की धूल से पानी और हवा खराब हो रही है। मछली की 26 प्रजाति में से 15 विलुप्त हो चुकी हैं।
महानदी बचाओ जिविका बचाओ संस्था से जुड़े गणेश कछवाहा कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में 30,000 किसान और 10,000 मछुआरा परिवार का रोजगार इन परियोजनाओं की वजह से खत्म हो गया है।
“वर्ष 2017 में छत्तीसगढ़ सरकार ने एक सर्कुलर जारी कर किसान से कहा कि पानी की कमी को देखते हुए वे रबी की फसल न उगाएं, लेकिन उद्योग को पानी देना जारी रहा,” वह कहते हैं।
पश्चिम ओडिशा कृषक सुरक्षा समन्वय समिति के अशोक प्रधान ने कहा कि उद्योग को पानी देने की वजह से सिंचाई के लिए बने नहर सूख गए। वर्ष 2003-04 के बाद हीराकुंड बांध पर बने सासन नहर में पानी नहीं है। इससे 70,000 एकड़ इलाका प्रभावित हुआ है। यहां पहले सिंचाई की अच्छी व्यवस्था थी।
इस संस्था के अनंता पांडे के मुताबिक पहले किसान बिना रासायनिक खाद के खेती करते थे, लेकिन अब पानी की कमी की वजह से उन्हें हायब्रिड खेती की तरफ जाना पड़ रहा है।
नदी पर अधिकार के लिए अंतरराज्यीय समन्वय
“यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि दोनो राज्य नदी को एक वस्तु की तरह देख रहे हैं, न कि प्राकृतिक संसाधन की तरह,” रंजन पांडा कहते हैं। उन्होंने दोनों राज्यों के बीच विवाद सुलझाने के लिए एक कमेटी बनाने पर जोर डालते हुए कहा कि यह समय नदी पर निर्भर लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने का है। “बदलावों को जल्दी लागू किया जाना चाहिए ताकि लोगों के अधिकार सुनिश्चित किए जा सकें,” वह कहते हैं। नदी घाटी मोर्चा के गौतम बंदोपाध्याय कहते हैं कि गंगा की तरह महानदी बचाने के लिए भी केंद्रीय स्तर पर कोशिश होनी चाहिए।
बैनर तस्वीर: महानदी के कछार पर ताप विद्युत गृह और साथ में धान के खेत। यहां पानी का बेतहाशा इस्तेमाल होता है। तस्वीर- रंजन पांडा