- हिमालय क्षेत्र में ठंड में शौचालय से निकला अपशिष्ट का निपटारा मुश्किल होता है। वैज्ञानिकों ने इस समस्या से निपटने के लिए एक समाधान खोज निकाला है।
- इस समाधान में एक ऐसा सूक्ष्मजीवी की बात है जो ठंड में भी अपशिष्ट पदार्थ को खाद में बदल सकता है। इस खोज की सफलता के बाद हिमाचल के किसानों को भी लाभ होने वाला है। हिमाचल और लद्दाख के किसानों में इस तरह के जैविक खाद उपयोग करने का चलन बढ़ा है।
- मानव मल से तैयार खाद को नाइट सॉइल कहते हैं। लद्दाख ने 2025 तक जैविक खेती को बढ़ावा देने की योजना बनाई है। इसके लिए खाद के तौर पर ड्राय टॉयलेट यानी शौचालय से निकले अपशिष्ट को खाद बनाकर उपयोग किया जाएगा।
- जानकार मानते हैं कि इस तरह की पहल को नेचर बेस्ड सॉल्यूशन यानी कुदरत आधारित समाधान मान सकते हैं और इससे खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी।
सुनने में भी भले ही यह अटपटा लगे, लेकिन मानव मल का इस्तेमाल खाद के तौर पर हिमालय क्षेत्र में लंबे समय से होता आ रहा है। यहां इतनी ठंड होती है कि इसे ठंडा रेगिस्तान भी कहते हैं। ऐसे समय में यहां पानी वाले शौचालय का इस्तेमाल कम ही होता है। यहां पारंपरिक शुष्क शौचालय का प्रयोग काफी होता है। अब हिमाचल की यह परंपरा, किसानों को भी लाभ पहुंचा रही है।
यहां शुष्क शौचालय से निकले अपशिष्ट को दो स्तरों पर प्रसंस्कृत किया जाता है जो कि जैविक खाद के रूप में किसानों के काम आता है। पशुओं के गोबर, राख और लकड़ी के टुकड़ों जैसे सूखे पदार्थों के मिश्रण के साथ मानव मल को प्राकृतिक खाद में मिलाते हैं। इसे नाइट सॉइल कंपोस्ट के नाम से भी जाना जाता है। इससे स्थानीय कृषि में खाद की पूर्ति होती है।
यह खाद विशेष रूप से शुष्क ठंडे क्षेत्र जैसे हिमाचल प्रदेश की लाहौल और स्पीति घाटी और लद्दाख में बनाए जाता है।
लेकिन यहां की सामाजिक परिस्थिति, सूखे शौचालयों का स्वच्छ न होना, शहरीकरण, आधुनिकीकरण और पर्यटन में वृद्धि ने सेप्टिक शौचालयों को लोकप्रिय बनाया है। 1980 के दशक से इन पारंपरिक संरचनाओं के उपयोग में कमी आ रही है। विशेषज्ञों, सरकारी अधिकारियों और स्थानीय समुदाय के सदस्यों का कहना है नकदी फसलों के लिए रासायनिक उर्वरकों की आसान उपलब्धता से भी इस पारंपरिक तरीके को प्रभावित किया है।
हालांकि, सीएसआईआर-इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी (आईएचबीटी) के वैज्ञानिकों ने इस पारंपरिक तकनीक को सुधारों के साथ फिर लागू करने की कोशिश की है।
वे इस काम में सूक्ष्मजीवियों की मदद ले रहे हैं। ये सूक्ष्मजीवी गुड बैक्टेरिया यानी लाभदायक जीवाणु होते हैं जो कम्पोस्ट की प्रक्रिया को तेज करते हैं। लद्दाख में इस परंपरा को रखने की सरकारी कोशिशें भी हो रही है, ताकि इलाके को कार्बन न्यूट्रल बनाया जा सके।
“यह तकनीक जीवाणु की मदद से ठंड के मौसम में भी खेतों में खाद का इंतजाम करती है। इस तकनीक की खास बात है ठंड में भी जीवाणु को सक्रिय रखना। इस तरह सर्दियों में भी फसलों के लिए खाद उपलब्ध हो पाता है,” जैव प्रौद्योगिकी प्रभाग, सीएसआईआर-आईएचबीटी, पालमपुर के वैज्ञानिक रक्षक कुमार आचार्य ने कहा।
इस संस्थान के निदेशक संजय कुमार के अनुसार, “यह तकनीक पानी की बचत के साथ-साथ स्थानीय स्टार्ट-अप के लिए नए अवसर भी प्रदान कर रही है। साथ ही, जैविक खेती के सहारे खेती में पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में मदद मिल रही है।”
आचार्य और उनके सहयोगियों ने 2018 से फील्ड ट्रायल के लिए हिमाचल में घरों में खाद बूस्टर वितरित किया। हाल ही में लद्दाख के लेह में सशस्त्र बलों मे अपनी यूनिट में इस तरह के प्रयोग शुरु किए हैं। लद्दाख के अधिकारों के साथ बातचीत कर यहां के स्थानीय घरों में इस तकनीक को पहुंचाने की कोशिश हो रही है।
लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल के मुख्य कृषि अधिकारी ताशी त्सेतन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि इस तकनीक से 2025 तक लद्दाख में जैविक खेती की योजना को बल मिलेगा। केंद्र सरकार 2025 तक जैविक खेती को मुख्यधारा में लाना चाहती है। इसका उद्देश्य किसानों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाना भी है।
“अगर हम साफ-सफाई की दृष्टि से कुछ बदलाव कर सकें तो सूखे शौचालयों का बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित कर सकते हैं। हम भविष्य के लिए सिस्टम को मजबूत करने के लिए पारंपरिक ज्ञान का उपयोग कर सकते हैं। लेह जिले में किसान परिवारों में, विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में अभी भी गर्मी और सर्दियों में सूखे शौचालयों का उपयोग होता है। वजह है यहां की भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियां। यहां इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। बाहर से आए पर्यटकों के लिए शहरों में आधुनिक फ्लश शौचालय हैं। कई पर्यटक पर्यावरण के प्रति जागरूक हैं और वे पानी के संरक्षण के लिए पारंपरिक प्रणाली का उपयोग करना पसंद करते हैं, ” त्सेटन ने मोंगाबे-इंडिया को बताया।
लेह में कुल फसल का रकबा 10,223 हेक्टेयर है और भौगोलिक क्षेत्र का केवल 0.2 प्रतिशत ही है जहां खेती होती है। सर्दियों में तापमान माइनस 30 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है।
“यहां सिर्फ गर्मियों में कुछ समय के लिए खेती होती है। बर्फ पिघलने और बर्फबारी के शुरुआत होने के बीच जो थोड़ा समय मिलता है उसी में खेती करते हैं। गेहूं और जौ के साथ अन्य जरूरत की चीजें उपजाते हैं। हम अनुमान लगाते हैं कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और ग्लेशियरों के पिघलने के साथ, हमें अपने जल संरक्षण उपायों को वैज्ञानिक तरीके से मजबूत करने की आवश्यकता होगी। इसमें पारंपरिक उपायों जैसे कि सूखे शौचालय जैविक खेती में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, ”त्सेटन ने कहा।
कृषि में संतुलन
अंतरराष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र, मेक्सिको में कृषि प्रणाली और जलवायु परिवर्तन वैज्ञानिक टेक बहादुर सपकोटा बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन को देखते हुए बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए जैविक खेती को एक नेचर बेस्ड सॉल्यूशन या प्रकृति-आधारित समाधान के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि, इसके लिए भोजन उगाने के लिए पर्याप्त भूमि होना जरूरी है।
“मिट्टी को कम से कम क्षति पहुंचाते हुए अगर जैविक खेती हो तो यह कार्बन सोख सकता है। जैविक खेतों पर रसायनों की आवश्यकता नहीं होती जिससे न केवल क्षेत्र से रासायनिक प्रक्रिया की वजह से होने वाला उत्सर्जन रुकता है बल्कि ऐसे रसायनों के उत्पादन और परिवहन से जुड़े उत्सर्जन भी नहीं होता। खेत में इन रसायनों से कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे ग्रीनहाउस गैस बनते हैं,” सपकोटा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
जलवायु परिवर्तन से बचने की कार्रवाई और खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जैविक खेती का उद्देश्य होना चाहिए पर्याप्त भोजन का उत्पादन। रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल न करते हुए पर्याप्त भोजन का उत्पादन करना एक चुनौती है।
“अगर जैविक खेती के लिए गोबर खाद का इस्तेमाल बढ़ा तो भी ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन बढ़ेगा। पशुपालन से भी उत्सर्जन बढ़ता है,” सपकोटा कहते हैं।
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के गोशाल में एक सेवानिवृत्त स्कूल प्रिंसिपल जगदेव कटोच 2019 से अपने घर के सूखे शौचालय में सीएसआईआर-आईएचबीटी के कंपोस्ट बूस्टर का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। वह कहते हैं कि उनके गांव में नाइट सॉयल की खाद की कमी है। इस वजह से खेत के कुछ ही हिस्से में इस खाद का इस्तेमाल हो पाता है। बाकी खेती के लिए गोबर खाद और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भर रहना पड़ता है। मुख्य रूप से सब्जियां जैसे आलू और फूलगोभी की खेती में।
“लेकिन नाइट सॉयल की खाद पौधों के लिए गोबर खाद से अधिक प्रभावी होती है। यही वजह है कि इसे किसान अधिक पसंद करते हैं। हम गर्मियों में फ्लश आधारित शौचालयों का उपयोग करते हैं लेकिन सर्दियों के लिए हमें सूखे शौचालयों पर निर्भर रहना पड़ता है, खासकर दिसंबर, जनवरी और फरवरी के महीनों में। गर्मियों में पुरानी पीढ़ी के कई लोग सूखे शौचालयों का उपयोग करते हैं लेकिन युवा आधुनिक शौचालयों को पसंद करते हैं। आधुनिक प्रणालियों को साफ करना भी आसान है जो कि इसके उपयोग बढ़ने की एक वजह है,” 66-वर्षीय कटोच ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया।
वर्तमान में किसानों को खाद बूस्टर के लिए शोध संस्थानों पर निर्भर रहना पड़ता है। लाहौल घाटी में इस तकनीक का इस्तेमाल कर उत्पादन के लिए कोई स्थानीय उद्यमी आगे नहीं आया है। सीएसआईआर-आईएचबीटी के आचार्य ने कहा, “हम सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम समूहों के साथ उनकी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही, बेरोजगार युवाओं को इस उद्यम को अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं।”
इसके अलावा, अत्यधिक सर्दियों के दौरान बर्फबारी और परिवहन में कठिनाई के कारण कंपोस्ट बूस्टर की नियमित आपूर्ति बाधित होती है।
आचार्य का सुझाव है कि तापमान में वृद्धि खाद बनाने की प्रक्रिया को आसान बना सकती है क्योंकि गर्म तापमान मानव मल से बने खाद में जीवाणु की सक्रियता को तेज कर सकता है। “ठंडे क्षेत्रों में, सूक्ष्मजीवों की कम संख्या होने के कारण खाद बनाने में दिक्कत आती है। इस समस्या के समाधान के लिए ठंड के लिहाज जीवाणु तैयार किए गए हैं, “उन्होंने कंपोस्ट बूस्टर के बारे में बताते हुए कहा।
सेंटर फॉर एनवायर्नमेंटल असेसमेंट एंड क्लाइमेट चेंज, जी.बी. पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरनमेंट, उत्तराखंड के जे.सी. कुनियाल ने भी नाइट सॉयल खाद सहित अन्य पारंपरिक कृषि पद्धतियों पर काम किया है। वह कहते हैं कि शुष्क और ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में यह खाद मिट्टी में फसल के विकास के लिए आवश्यक नमी सुनिश्चित करती है। ठंडे जलवायु में सीमित वनस्पति के कारण पशुपालन भी मुश्किल होता है। इससे पर्याप्त खाद के गोबर की भी कमी होती है। ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में किसान अब पारंपरिक फसलों को छोड़ नकदी फसलों को अपना रहे हैं। इस बदलती कृषि की पद्धति में कीटों से मुक्ति के लिए किसान रासायनों पर निर्भर हो चले हैं। इससे कृषि में जैवविविधता खत्म हुई है।
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“1960 के दशक में आलू और 1980 के दशक में मटर और हॉप्स की अच्छी पैदावार देने वाली किस्मों की वजह से भी खेती में जैव-विविधता प्रभावित हुई है। खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए रासायनिक उर्वरकों और जैविक खाद के उपयोग के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। हालांकि, इन क्षेत्रों में सूखे शौचालय जैसी स्थानीय ज्ञान में रुचि फिर से बढ़ी है। इससे आधुनिक विज्ञान और नवाचार के साथ मिलकर पारंपरिक कृषि जैव विविधता को पुनर्जीवित करने में भी मदद मिल सकती है,” कुनियाल ने कहा।
कमजोर तबके के लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के लिए खेती का टिकाऊ मॉडल अपनाने की सलाह दी जाती है। हिंदू कुश के हिमालयी क्षेत्र में हरित क्राति का सीमित असर ही हुआ। यह ग्रामीण क्षेत्रों में जैविक खेती को बढ़ाने का एक अच्छा मौका है। संयुक्त राष्ट्र की 2019 में आई एक रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है।
इस रिपोर्ट में भारत, नेपाल और भूटान में जैविक खेती के लिए मौजूदा राजनीतिक समर्थन का भी जिक्र किया गया है।
हिमालय में कई बाधाएं मुंह बाए खड़ी है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, 21 वीं सदी की शुरुआत से बर्फ का आवरण कम हो गया है, और काराकोरम ग्लेशियरों को छोड़कर एशिया के ऊंचे पर्वत (हिमालय सहित) में बर्फ का स्तर कम हुआ है। 1970 के दशक के मुकाबले। 21 वीं सदी के दौरान बर्फ से ढके क्षेत्रों और बर्फ की मात्रा में कमी आएगी।
आईपीसीसी ने कहा कि हिमालय सहित ऊंचे पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जल आपूर्ति, ऊर्जा उत्पादन, पारिस्थितिकी तंत्र, कृषि और वानिकी उत्पादन, आपदा की तैयारी और पर्यटन के लिए चुनौतियां पैदा होंगी। 2019 के एक अध्ययन में जोर दिया गया है कि हिमालय में तेजी से विकसित होते पर्यटन की वजह से शहरीकरण बढ़ रहा है और जल सुरक्षा को खतरा बढ़ा है।
बैनर तस्वीर: सूखे शौचालय से निकला खाद। तस्वीर- रक्षक कुमार आचार्य