- पंजाब में कुछ पवित्र वन मान्यताओं की वजह से बच पाए हैं। जैव विविधता के लिहाज से ये वन काफी महत्वपूर्ण हैं।
- खेती के लिए जमीन की जरूरत और इंसानों की दखलअंदाजी बढ़ने की वजह से इन वनों के संरक्षण की तत्काल जरूरत है। इंसानी गतिविधियों की वजह से जंगल में घुसपैठिए पौधों का भी अतिक्रमण बढ़ रहा है।
- इन वनों को बचाने का एक तरीका हो सकता है कि वनों में मौजूद जैव-विविधता का ब्यौरा रखा जाए। इन जंगलों के साथ जुड़े पारंपरिक ज्ञान को सहेजकर भी इनकी रक्षा की जा सकती है।
खेती-बाड़ी के मामले में देश में अव्वल पंजाब जंगल के मामले में कमजोर पड़ जाता है। यहां छिटफुट इलाकों में ही जंगल बच गए हैं। ये भी जंगल इसलिए बचे रह गए क्योंकि स्थानीय लोगों की धार्मिक मान्यताएं इससे जुड़ी हुई हैं। ये जंगल जैव-विविधता के केंद्र हैं और यहां कई स्थानीय प्रजाति के पेड़-पौधे लगे हुए हैं।
पंजाब के इन वनों को अक्सर किसी देवी-देवता से जोड़कर देखा जाता है। इन मान्यताओं में पेड़-पौधों का महत्व बताया गया है। इन वनों का जिक्र स्थानीय किंवदंतियों और कहानियों में है। यहां उल्लू, सांप, कई प्रकार के पक्षी और सूक्ष्म जीवों का वास है।
उदाहरण के लिए भैनी साहिब गुरुद्वारा में पीलू के पेड़ बहुतायत में हैं। यह वन मालवा के इलाके में है। ढाकी साहिब के पास जंगल में ढाक (पलाश) के पेड़ मिलते हैं। राज्य के पठानकोट जिले में पश्चिमी हिमालय की तलहटी में बसा चटपट बनी एक ऐसा जंगल है जिसके बारे में माना जाता है कि यह रातों-रात उग आया था। इसलिए इसे ‘चटपट’ या तेजी से उगने वाला नाम दिया गया। स्थानीय लोग 30 एकड़ के इस जंगल में लकड़ी का उपयोग करने से परहेज करते हैं। उनका मानना है कि इससे वे शापित हो जाएंगे।
खेती के क्षेत्र का विस्तार, मवेशियों द्वारा अधिक चराई करने, एक ही तरह के पौधे लगाने की वजह से जंगल का अस्तित्व संकट में है। इसके अलावा बाहरी प्रजाति के घुसपैठिए वनस्पति भी चिंता का विषय बने हुए हैं।
पर्यावरणविद् बलविंदर सिंह लखेवाली कहते हैं कि जिन जगहों पर पेड़ों से किसी प्रकार की मान्यता जुड़ी होती है, वे आमतौर पर बचे रहते हैं। “लेकिन जिन जगहों पर जहां ऐसी मान्यताएं मौजूद नहीं हैं, लोग आमतौर पर अवैध रूप से जमीन का अतिक्रमण कर लेते हैं और यह एक बड़ी समस्या बन जाती है,” उन्होंने कहा।
पर्यावरणविद् और वृक्ष विशेषज्ञ बृज मोहन भारद्वाज कहते हैं कि यहां बिलायती बबूल (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) का अतिक्रमण है। यह पेड़ भयानी साहिब से सटे जंगल में फैलता जा रहा है। इससे यहां के स्थानीय प्रजाति के पेडों को खतरा है।
“इसी तरह पहाड़ी कीकर का एक पेड़ किसी और वनस्पति को बढ़ने नहीं देता है। चार से पांच साल के भीतर पूरे जंगल पर पहाड़ी कीकर का आधिपत्य हो जाता है। इस तरह पुराने जंगल का अस्तित्व खत्म होने लगता है,” उन्होंने कहा।
“यहां ऐसे कई स्थान हैं जो इस आक्रामक प्रजातियों की चपेट में हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा, तो पहाड़ी कीकर की वजह से जल्द ही यह पूरा वन और उसके मूल वृक्ष नष्ट हो जाएंगे। इस आक्रामक पौधे को इस वन को नष्ट करने से रोकना समय की जरूरत है,” भारद्वाज ने जोर देकर कहा।
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भैनी साहिब से जुड़े मंदिर के एक पुजारी बताते हैं कि देसी पेड़ों के पौधों को बकरियों के चरने का खतरा रहता है, लेकिन पहाड़ी कीकर को कोई नहीं खाता। इसलिए वे फल-फूल रहे हैं।
बलविंदर सिंह लखेवाली ने पीपल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर्स (पीबीआर) के माध्यम से पवित्र वन (सेक्रेड ग्रोव्स) में जैव विविधता के दस्तावेजीकरण को मजबूत करने के लिए अधिक धन की व्यवस्था करने पर जोर दिया।
पीबीआर एक कानूनी दस्तावेज है जिसमें जैव विविधता प्रबंधन समिति (बीएमसी) के तहत क्षेत्राधिकार के संबंधित पारंपरिक ज्ञान और प्रथाओं के साथ-साथ स्थानीय जैव-संसाधनों का व्यापक विवरण होता है। पीबीआर और बीएमसी बनाना जैविक विविधता पर कन्वेंशन (सीबीडी) के अनुसरण में भारत द्वारा 2002 में आए जैविक विविधता अधिनियम के तहत आता है।
राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, पंजाब में अब तक 13599 पीबीआर हैं। एनबीए की स्थापना अधिनियम और जैविक विविधता नियम, 2004 के कार्यान्वयन से संबंधित सभी मामलों से निपटने के लिए की गई थी।
बैनर तस्वीर- चटपट बानी, पठानकोट। तस्वीर- जसकरण सिंह