- प्लास्टिक हमारे जीवन के हर हिस्से में मौजूद है और इससे निकलने वाला कचरा अब विकराल रूप लेता जा रहा है। करीब 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक हर रोज महासागरों में जाकर मिल रहा है।
- प्लास्टिक के भौतिक जीवन चक्र को सात चरण में समझा जा सकता है जिसमें उद्योग, उपभोगकर्ता और कचरे का निष्पादन समाहित है। अगर सही से प्लास्टिक कचरे का निष्पादन न हो तो यह गुम होकर हमारे प्राकृतिक संसाधनों में जा मिलता है।
- प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए यह अध्ययन करना जरूरी है कि कौन किस मात्रा में किस तरह का कचरा पैदा कर रहा है।
प्लास्टिक हमारे जीवन में किसी बॉलीवुड फिल्म के नायक की तरह आता है। सर्वगुण संपन्न। अनेक जरूरतों के लिए सबसे उपयुक्त, कम लागत में तैयार हो जाने वाला समाधान। इससे सब्जी के थैले से लेकर जीवन रक्षक चिकित्सा उपकरण तक बनाया जा सकता है। उद्योग भी इसे समझते हैं और इसका भरपूर फायदा भी उठाते हैं। इन सबके बावजूद इसका अंत किसी फिल्मी खलनायक की तरह होता है। प्लास्टिक से बनी अधिकतर चीजों को या तो खुले में जलाया जाता है या दफनाया जाता है। या फिर इधर-उधर लावारिस फेंक दिया जाता है जहां से रिसकर यह जमीन के भीतर चला जाता है और हमारे भूजल के भंडार में मिल जाता है। नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में जा मिलता है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार इस समय तमाम समुद्री कचरे में कम से कम 85 प्रतिशत हिस्सा प्लास्टिक का है। अनुमान है कि करीब 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक हर रोज महासागरों में जाकर मिल रहा है। अगर तत्काल कार्रवाई नहीं की गई तो 2040 तक यह मात्रा 2.3-3.7 करोड़ मीट्रिक टन तक पहुंच जाएगी। इसका माने यह हुआ कि दुनिया भर में प्रति मीटर समुद्र तट पर 50 किलोग्राम प्लास्टिक बिखरा हुआ होगा।
एक सेकंड के लिए आप यह सोच सकते हैं कि आपका जीवन समुद्र से दूर है और आप इससे प्रभावित नहीं होंगे। पर ऐसा नहीं है। प्लास्टिक की यह कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। प्लास्टिक कचरा जहरीले दैत्य के रूप में मिट्टी, हवा, जल और धरती पर लौटकर सर उठाता है और जीवन का दम घोंट देता है। प्लास्टिक कचरे की समस्या से निपटने के लिए हमें उस श्रृंखला की कड़ियों को तोड़ना होगा जिनके जरिए प्लास्टिक पर्यावरण में पहुंचता है।
प्लास्टिक का भौतिक जीवन चक्र क्या है?
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और जापान सरकार के संयुक्त प्रयास काउंटरमेजर के अनुसार प्लास्टिक के भौतिक जीवन चक्र के सात चरण हैं। काउंटरमेजर कार्यक्रम का उद्देश्य एशिया की नदियों में प्लास्टिक का रिसाव कम करने के लिए उसकी पहचान, सर्वेक्षण और समाधान करना है।
प्लास्टिक के भौतिक जीवन चक्र का पहला चरण मैटीरियल इंजीनियरिंग से जुड़ा है जब प्लास्टिक से सामान बनाने वाले तय करते हैं कि कच्चा माल क्या लिया जाए — पेट्रोलियम आधारित या पेट्रोलियम रहित, रिसाइकिल की हुई सामग्री अथवा नई सामग्री या दोनों का मिश्रण। दूसरे चरण में उत्पादन और व्यवसाय का मॉडल तय करता है कि उससे क्या बनाना है। इन्हीं दोनों चरणों में यह तय हो जाता है कि प्लास्टिक से बनी चीज की रिसाइक्लिंग क्षमता कितनी है।
तीसरे चरण में उपभोक्ता का प्रवेश होता है। वह तय करता है कि प्लास्टिक से बनी उस चीज को कैसे इस्तेमाल करना है, कितनी बार इस्तेमाल करना है और फिर उसका क्या करना है। जैसे कुछ लोग प्लास्टिक से बने बोतल को फेंकने से पहले कई बार इस्तेमाल कर लेते हैं।
चौथे, पांचवें और छठे चरण में क्रमश: प्लास्टिक के कचरे का संग्रह, रिसाइक्लिंग/दोबारा इस्तेमाल और उसका रूप बदलना या निपटान शामिल है। इन चरणों से तय होता है कि कितना प्लास्टिक पर्यावरण में घुलने-मिलने वाला है। यदि संग्रह कुशलता से किया जाता है तो दोबारा इस्तेमाल की संभावना कम होती है और निपटान की व्यवस्था अकुशल होने पर प्लास्टिक नदियों और सीवर के जरिए बहता हुआ या सीधे ही जलाशयों में पहुंच जाता है। इस रिसाव को कम से कम करने के लिए सातवें चरण में उन इलाकों में सफाई अभियान चलाए जाते हैं जहां यह प्लास्टिक का कचरा जमा होता है ताकि पर्यावरण से प्लास्टिक कचरे को निकाला जा सके।
किन्तु बहुत सारा प्लास्टिक इस चक्र के चंगुल से निकल भागता है और पर्यावरण में ‘गुम’ हो जाता है।
यह ‘गुम‘ प्लास्टिक क्या है?
भारत में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार वर्ष 2019-2020 में करीब 35 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा हुआ। इसमें से करीब 60 प्रतिशत के रिसाइकिल किए जाने की सूचना मिली, जबकि शेष 40 प्रतिशत इधर उधर फेंक दिया गया या ”गुम” हो गया। भारत में अनेक शहरी, ग्रामीण और संरक्षित क्षेत्र भी, झीलों, नदियों और सागरों की तरह इस ”गुम” प्लास्टिक कचरे से बुरी तरह दूषित हैं।
मुंबई, हरिद्वार, प्रयागराज और आगरा में हाल में चलाए गए सफाई अभियानों के अनुमान बताते हैं कि दस से एक सौ मीट्रिक टन तक प्लास्टिक कचरा आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र में विलीन हो जाता है। आईफॉरेस्ट (इंटरनेशनल फोरम फॉर इन्वायरमेंट सस्टेनेबिलिटी एंड टैक्नोलॉजी) की रिपोर्ट के अनुसार हरिद्वार और ऋषिकेश में पैदा होने वाले कुल प्लास्टिक कचरे में से करीब 35 प्रतिशत सीधा गंगा नदी में प्रवाहित होता है। इन सफाई अभियानों से मिली जानकारी से पता चलता है कि अधिकतर गुम प्लास्टिक हल्का और एकल उपयोग प्लास्टिक होता है, जैसे, पॉलिथीन की महीन चादरें, टॉफी के रैपर, स्ट्रा, बोतलों के ढक्कन, इस्तेमाल के बाद फेंके जाने वाले छुरी, कांटे और चम्मच, थैलियों और भोजन के पैकेटों में इस्तेमाल होने वाली बहुपरती पैकेजिंग।
भारत के प्रायद्वीपीय समुद्री क्षेत्र में कोच्चि, रत्नागिरी, मुंबई, वैरावल और विशाखापत्तनम तट के पास मछली पकड़ने वाले प्रमुख क्षेत्रों में प्लास्टिक का कचरा एक बड़ी समस्या है। यह जानकारी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-सेंट्रल मरीन फिशरीज रिसर्च इंस्टिट्यूट की 2020 की रिपोर्ट से मिली है। इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर मछली पकड़ी जाती है और मछुआरी नौकाओं को आमतौर पर 2 से 55 किलोग्राम प्रति वर्ग किलोमीटर प्लास्टिक कचरा मिलता है जिसमें पॉलिथीन की चादरें, पैकेजिंग का कपड़ा और मछली पकड़ने के उपकरण शामिल होते हैं। पकड़ी गई मछली के कुल वजन का औसतन 0.3-3.8 प्रतिशत समुद्री प्लास्टिक कचरा होता है। प्लास्टिक का वजन मछली की तुलना में बहुत कम होता है, इसलिए हो सकता है कि वजन के इस कम प्रतिशत से सही ढंग से पता न लग पाए कि मछुआरी नौकाओं के जालों में कितने परिमाण में प्लास्टिक पकड़ा जाता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ फिशरीज एजुकेशन ने 2021 में मछुआरी नौकाओं के एक अध्ययन में पता लगाया कि अरब सागर के तट पर जितनी मछली पकड़ी जाती है उसमें से करीब 5.5 प्रतिशत समुद्री कचरा होता है जिसमें प्लास्टिक की हिस्सेदारी 90 प्रतिशत होती है।
2017-18 में कोचीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद- सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ फिशरीज टैक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने केरल में छ: समुद्री तटों के सर्वेक्षण में पाया कि वहां फैला करीब 70 प्रतिशत कचरा प्लास्टिक है। उसमें से भी करीब आधा कचरा मछली पकड़ने में इस्तेमाल होने वाली रस्सियां, जाल, तैरते हुए गुब्बारों आदि का है और बाकी फोम प्लास्टिक, जूते-चप्पल, पैट बोतल और भोजन के डिब्बों का है।
यह गुम प्लास्टिक आखिर ‘गुम‘ कैसे हो जाता है?
कचरे के दोबारा इस्तेमाल/रिसाइकिल चक्र से प्लास्टिक के बच निकलने का सबसे मुख्य कारण है जागरूकता की कमी। मुंबई में लोगों की जानकारी के सर्वेक्षण से पता चलता है कि सर्वेक्षण में शामिल केवल 30 प्रतिशत लोगों को ही मालूम था कि कितना प्लास्टिक कचरा पैदा होता है और केवल 44 प्रतिशत को शहर में एकल उपयोग प्लास्टिक के चलन पर प्रतिबंध की जानकारी थी। हरिद्वार और ऋषिकेश में तो हर चार में से केवल एक व्यक्ति को यह जानकारी थी कि कचरे का सुरक्षित निपटान कैसे किया जाता है और अधिकतर परिवारों में कचरे को अलग करने का चलन ही नहीं था।
इसके अलावा, काउंटरमेजर प्रोजेक्ट के पिछले काम और कुछ प्रारंभिक जानकारी से संकेत मिलता है कि अनेक मछुआरे मछली पकड़ने के उपकरण और जाल नदी किनारे या गंगा नदी में यूं ही छोड़ देते हैं या वे बह जाते हैं। अच्छी बात यह है कि वो यह जानते हैं कि इससे क्या समस्याएं पैदा होती है और गांगेय डालफिन को बचाने के अभियानों में शामिल होना चाहते हैं। नदी में पड़े जालों में उलझकर इस डालफिन के डूबने या दम घुटकर मर जाने का खतरा बहुत अधिक है।
धार्मिक आचार-व्यवहार के कारण भी प्लास्टिक के गंगा में प्रवेश की पड़ताल राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद ने की है। हरिद्वार में श्रद्धालु अक्सर गंगा जल ले जाने के लिए गंगा तट पर प्लास्टिक के डिब्बे खरीदते हैं। इन प्लास्टिक के डिब्बों को गंगा जल की तरह ही पवित्र माना जाता है, इसलिए नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।
पहाड़ों जैसे अन्य इलाकों में प्लास्टिक बहुत अलग तरह की समस्या पैदा करता है। यह कचरे का स्वरूप बदल देता है और कचरा जमा करने की कोई पक्की व्यवस्था न होने के कारण हर जगह बिखरा पड़ा रहता है।
जीरो वेस्ट हिमालय और इंटीग्रेटिड माउंटेन इनिशिएटिव (आईएमआई) ने 2018 में हिमालयन क्लीनअप नाम से एक संयुक्त प्रयास शुरू किया था जिससे पता चला कि यह स्थिति कैसे पैदा होती है। आईएमआई की सचिव और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया कंचनजंगा लैंडस्केप की टीम लीडर प्रियदर्शनी श्रेष्ठा ने बताया कि, ”पहाड़ी राज्यों में कचरा प्रबंधकों के सामने बड़ी भारी चुनौती आ रही है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में कचरे का स्वरूप बहुत बदल गया है। अब ऐसे कचरे की मात्रा बहुत अधिक है जो न तो जैवक्षयकारी है और न ही रिसाइकिल किया जा सकता है। इस कचरे की मात्रा जितनी अधिक है, उसे देखते हुए कचरा प्रबंधन के पारंपरिक तरीके बिल्कुल नाकाम हैं।”
आईएमआई के एक सदस्य और दार्जिलिंग स्थित एनजीओ डीएलआर प्रेरणा में विकास कार्यकर्ता रोशन रॉय ने बताया कि पहाड़ों का भूगोल और बिखरी हुई मानवीय आबादी रोजाना कचरा इकट्ठा करने और उसके निपटान के इंतजाम और लागत के लिए बहुत बड़ी समस्या है। रॉय ने बताया, ”पर्यटन से पहाड़ों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा तो बढ़ती है, पर केवल वही इसका कारण नहीं है। हमारी समूची उत्पादन व्यवस्था कचरा पैदा करने वाली है। उत्पादन व्यवस्था की इस खामी के कारण ही पहाड़ों में निवास करने वाली शहरी और ग्रामीण आबादी भी हमारी निपटान क्षमता से कहीं अधिक प्लास्टिक कचरा पैदा कर रही है।”
हिमालय का प्राकृतिक सौंदर्य अब कहीं खो गया है। पहाडों में ”गुम” प्लास्टिक कचरा हिमालय से फूटते अनेक झरनों और नदियों के रास्ते वापस हमारे बीच आ जाता है। हिमालयी क्षेत्रों में गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदियों के अध्ययनों से पता चला है कि सूक्ष्म मात्रा में प्लास्टिक के कण नदी के जल और गाद में मौजूद हैं।
अब प्लास्टिक कचरे से कैसे निपटा जाए?
प्लास्टिक कचरे से निपटने का तरीका तय करने के लिए यह जानना जरूरी है कि किस प्रकार का प्लास्टिक कचरा पैदा हो रहा है यानी यह अध्ययन करना जरूरी है कि कौन किस मात्रा में किस तरह का कचरा पैदा कर रहा है। विभिन्न क्षेत्रों, आर्थिक/औद्योगिक क्षेत्रों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में पैदा होने वाले कचरे में बहुत भिन्नता हो सकती है, इसलिए परिस्थिति विशेष में कचरा प्रबंधन के तरीके तय करने में यह जानकारी बहुत महत्वपूर्ण है।
भारत में प्लास्टिक कचरे को पर्यावरण में गुम होने से रोकने के लिए कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इनमें बड़े पैमाने पर सफाई अभियान, प्लास्टिक के बदले भोजन देने वाले कचरा कैफे, स्कूलों में फीस के रूप में प्लास्टिक लाने, भारतीय रेलवे द्वारा प्लास्टिक बोतलों के बदले फोन रिचार्ज की सुविधा देने जैसी प्लास्टिक जमा करने की अनेक योजनाएं चल रही हैं। इनके साथ-साथ भारत सरकार इस तरह जमा प्लास्टिक का इस्तेमाल सड़कें बनाने, सीमेंट भट्टियों में ईंधन और पाइरोलाइसिस विधि से डीजल उत्पादन में करने को बढ़ावा दे रही है।
ऐसे प्रयास सराहनीय तो हैं किन्तु अभी वक्त की कसौटी पर परखे नहीं गए हैं, विशेषकर उनके आर्थिक रूप से लाभकारी होने, इंतजाम और टिकाऊ होने के बारे में अनेक प्रश्नों के उत्तर मिलने बाकी हैं।
इस बीच, भारत में अनेक राज्यों ने प्लास्टिक के इस्तेमाल पर कई तरह के प्रतिबंध लगा तो रखे हैं पर यह प्रतिबंध कितना कारगर है इसपर बात होना बाकी है।
क्या प्लास्टिक मुक्त जीवन संभव है?
देहरादून में टिकाऊ जीवन शैली अपनाने और प्लास्टिक मुक्त जीवन को बढ़ावा देने के प्रति समर्पित संगठन डू नोट ट्रैश की संस्थापक सौम्या प्रसाद का कहना है, ”फिलहाल बहुत से लोगों के लिए पूरी तरह प्लास्टिक मुक्त जीवन संभव नहीं लगता है। फिर भी हम प्लास्टिक की खपत कम करने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं।” इस संगठन के 30 दिन प्लास्टिक मुक्त चुनौती अभियान में हमारी दिनचर्या में प्लास्टिक का उपयोग कम अथवा खत्म करने के लिए कुछ सरल समाधान दिए जाते हैं। डू नोट ट्रैश इको स्टोर में दातुन और टोकरियों जैसे अनेक प्रकार की पर्यावरण अनुकूल चीजें उपलब्ध हैं जो लोगों को ऐसी जीवन शैली अपनाने में मदद कर सकते हैं जिसमें प्लास्टिक का इस्तेमाल कम हो। सौम्या प्रसाद ने बताया, ”हम सुन रहे हैं कि देहरादून में ऐसी और भी दुकानें खुली हैं जहां इसी तरह की चीजें मिलनी शुरू हो गई हैं और यह बहुत अच्छी बात है। मुझे यह देखकर खुशी हो रही है कि प्लास्टिक रहित उत्पादों की बाजार में खपत है क्योंकि उपभोक्ता को ऐसी चीजें मिलना प्लास्टिक से मुक्त होने की दिशा में पहला कदम है।”
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कटलरी बैंक और क्राकरी बैंक जैसे अन्य प्रयास भी बड़े आयोजनों और सार्वजनिक समारोहों में भोजन और पेय पदार्थ परोसने के लिए प्लास्टिक मुक्त विकल्प के रूप में लोकप्रिय हो रहे हैं, पर अहम सवाल यह है कि उपभोक्ता प्लास्टिक कचरा कम करने का बोझ कहां तक उठा सकता है? हिमालयन क्लीनअप प्रोजेक्ट की प्रियदर्शनी श्रेष्ठा का कहना है, ”जब तक उत्पादकों की ओर से व्यवस्थित समाधान और बेहतर डिजाइन उपलब्ध नहीं कराए जाएंगे प्लास्टिक कचरे की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। यह प्रोजेक्ट ऐसे पहले प्रयासों में से एक था जिसने प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियम, 2016 के अंतर्गत उत्पादक के विस्तारित दायित्व की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया।”
उद्योग जगत धीरे-धीरे ही सही इस सच्चाई को समझने लगा है। बहुत सी कंपनियां कम पैकेजिंग सामग्री का इस्तेमाल करने और पैकेजिंग के लिए रिसाइकिल किए हुए प्लास्टिक को शामिल करने की कोशिश कर रही हैं।
इसके अलावा, सबसे आम एकल उपयोग प्लास्टिक की जगह अन्य विकल्पों जैसे बायो-डीग्रेडेबल प्लास्टिक के उपयोग की संभावना तलाशी जा रही है।
इन समस्याओं के बावजूद उद्योग और उपभोक्ता दोनों को व्यवसाय के पारंपरिक आर्थिक मॉडलों के बारे में दोबारा सोचना होगा और उसमें कचरे का उत्पादन प्रमुख मुद्दा होगा।
अनुवाद: ए के मित्तल
बैनर तस्वीरः अधिकतर विकसित देश अपना प्लास्टिक कचरा रिसाइकलिंग के लिए बांग्लादेश भेजते हैं। इस कचरे का बड़ा हिस्सा खुले में या फिर नदियों में जा मिलता है। तस्वीर- मारूफ रहमान/पिक्साबे