- भारत सरकार ने हाल ही में वन सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2021 जारी की और दावा किया कि वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई है। हालांकि इस रिपोर्ट के बारीक अध्ययन से पता चलता है कि 15,200 वर्ग किमी वन क्षेत्र की स्थिति खराब हुई है।
- नई रिपोर्ट के गहन अध्ययन से यह जाहिर होता है कि बीते दो साल में 9,117 वर्ग किमी क्षेत्र का वन झाड़ियों में या बंजर भूमि में बदल गया है।
- सरकारी वन सर्वेक्षण की मानें तो साल 2015 से 2021 की रिपोर्टों के बीच 74,457 वर्ग किमी जंगलों की गुणवत्ता में गिरावट आई है। ये आंकड़ा तेलंगाना के कुल क्षेत्रफल का आधे से अधिक है।
भारत में जंगलों की स्थिति को लेकर 13 जनवरी का दिन अहम रहा। इस दिन केंद्र सरकार ने वन सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2021 (इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट यानी आईएसएफआर) जारी की। रिपोर्ट में देश के जंगल क्षेत्र में मामूली बढ़ोतरी (0.22 फीसदी) का दावा किया गया। यानी साल 2019 में हुए पिछले सर्वेक्षण के मुकाबले 1,540 वर्ग किलोमीटर (किमी) की शुद्ध बढ़ोतरी। लेकिन पिछली और नई रिपोर्ट का गहराई से विश्लेषण करने पर इस दावे की कलई खुल जाती है। साल 2019 से 2021 की अवधि में देश में 15,183 वर्ग किमी वन क्षेत्र की हालत खराब यानी डिग्रेडेशन हुआ है। मतलब इतने बड़े इलाके में या तो जंगल काट दिए गए या फिर उनका घनापन कम हो गया।
इस तरह नई रिपोर्ट में जंगल क्षेत्र में जिस बढ़ोतरी का दावा किया गया है, उसके मुकाबले खस्ताहाल होने वाला जंगल क्षेत्र 10 गुना बड़ा है। इसमें भी 9,117 वर्ग किमी का वो रकबा शामिल है, जिसमें कमी इतनी जबरदस्त है कि यहां या तो जंगल छोटी झाड़ियों में बदल गए हैं या फिर गैर-वन भूमि में। यानी यहां जंगल या ऐसे पेड़ नहीं है, जिनकी सैटेलाइट हाई-रिजोल्यूशन तस्वीरें उतार सके।
प्रत्येक दो साल में आईएसएफआर रिपोर्ट तैयार करने का जिम्मा भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) पर है। एजेंसी पर देश के वन क्षेत्र का आकलन करना और वन संसाधनों की निगरानी करने की जिम्मेदारी है। एजेंसी की पहली रिपोर्ट 1987 में आई थी। इसके बाद से एफएसआई हर दो साल पर जंगलों की स्थिति का पता लगाती है। एजेंसी जंगलों को मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में बांटती है।
इनमें बहुत घने जंगल यानी वेरी डेन्स फॉरेस्ट (वीडीएफ), मध्यम घने जंगल यानी मॉडरेट डेन्स फॉरेस्ट (एमडीएफ), मध्यम घने जंगल यानी मॉडरेट डेन्स फॉरेस्ट (एमडीएफ) और खुले जंगल यानी ओपन फॉरेस्ट (ओएफ) शामिल हैं।
बहुत घने जंगल यानी वीडीएफ में वैसे जंगल शामिल होते हैं जिनमें सैटेलाइट सर्वेक्षण में वनों की छतरी 70 फीसदी या उससे अधिक भूमि को ढके रहती है। वहीं मध्यम घने जंगल वैसे जंगल को कहा जाता है जिनमें सैटेलाइट सर्वेक्षण में वनों की छतरी 40-70 फीसदी जमीन को ढके रहती है। तीसरे श्रेणी यानी खुले जंगल वो होते हैं जिसमें सैटेलाइट सर्वेक्षण में वनों की छतरी 10-40 फीसदी जमीन को ढके रहती है।
इसके अलावा छोटी झाड़ियों वाली भूमि होती है। यहां बड़ी झाड़ियों और पेड़ नहीं होते हैं, इसलिए इसे गैर-वन भूमि यानी नॉन-फोरेस्ट (एनएफ) कहा जाता है।
अब बात 15,183 वर्ग किमी की जंगल की जिस पर सवाल उठ रहा है। साल 2019 की शुरुआत में इनमें से 1508 वर्ग किमी बहुत घना जंगल था। लेकिन रिपोर्ट के अध्ययन से पता चलता है कि पिछले दो साल में इनका घनापन खत्म हो गया और 150 वर्ग किमी भूमि बंजर हो गई। अब इसे गैर-वन भूमि में रखा गया है। जबकि 28 वर्ग किमी क्षेत्र छोटी झाड़ियों और 348 वर्ग किमी निम्न स्तर के खुले वन में तब्दील हो गया है।
विश्लेषण से कई और बातें सामने आई हैं। मसलन, 4560 वर्ग किमी के सामान्य या मध्यम घने जंगल अनाच्छादित हो गए। 2021 के लिए तैयार रिपोर्ट के मुताबिक इसका 60 फीसदी हिस्सा कम घने जंगल में बदल गया है यानी अब यहां कही-कहीं पेड़ हैं जबकि बाकी हिस्सा या तो पूरी तरह अनाच्छादित हो गया है या फिर छोटी झाड़ियों वाले क्षेत्र में बदल चुका है। कुल मिलाकर, दोनों रिपोर्टों की बीच की अवधि के दौरान अलग-अलग तरह का 9,117 वर्ग किमी जंगल पूरी तरह अनाच्छादित होकर गैर-वन भूमि में बदल गया है।
हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। दो साल पर आने वाली पिछली चार रिपोर्टों (2015-2021) के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में लगातार मौजूदा जंगल कम होते जा रहे हैं या फिर उनकी गुणवत्ता खराब हो रही है। ऐसा तब हो रहा है, जब सरकार पेड़ गिनकर और नए पेड़ लगाकर इसे छिपाने की कोशिश कर रही है।
सरकारी आंकड़ों से जंगलों की गिरती गुणवत्ता की भयानक तस्वीर उभरती है। मसलन, साल 2015 से 2021 की रिपोर्टों के बीच 74,457 वर्ग किमी जंगलों की गुणवत्ता में गिरावट आई है। ये आंकड़ा तेलंगाना के कुल क्षेत्रफल का आधे से अधिक है। इनमें 31,367 वर्ग किमी बहुत घने और मध्यम घने वन शामिल हैं। इनमें से 10,979 वर्ग किमी वाले बहुत घने और मध्यम घने जंगलों को पूरी तरह काटकर छोटी झाड़ियों और गैर-वन भूमि में तब्दील कर दिया गया है।
साल 2019 में एक अन्य रिपोर्ट ने सरकार की द्विवार्षिक फॉरेस्ट कवर रिपोर्ट्स के आंकड़ों पर सवाल खड़े किए थे।
हरित पट्टी में इजाफा
आईएसएफआर, 2021 के मुताबिक वन आच्छादित क्षेत्रों में बहुत घने जंगलों के रकबे में 501 वर्ग किमी का शुद्ध इजाफा हुआ है। ये बढ़ोतरी पिछली रिपोर्ट के मुताबिक बताई गई है। लेकिन इनमें से 93 फीसदी की बढ़ोतरी महज दो राज्यों में हुई है। असम में 222 वर्ग किमी और ओडिशा में 243 वर्ग किमी। दस अन्य राज्यों ने बहुत घने जंगलों (गुणवत्तापूर्ण वन) में मामूली बढ़ोतरी दर्ज की है। बाकी राज्यों में या तो स्थिति खराब हुई है या इन्हें काट दिया गया है।
असम सहित पूर्वोत्तर के अन्य राज्य झूम खेती के लिए जाने जाते हैं। इन राज्यों में ये खेती पहाड़ी इलाकों में होती है। झूम खेती में जंगल भूमि को खेती लायक बनाया जाता है और फिर यहां छोटी अवधि के लिए खेती की जाती है। फिर इन्हें खाली छोड़ दिया जाता है। इस दौरान यहां फिर से जंगल उगता है और फिर खेती की जाती है।
रिपोर्ट कहती है कि इस गतिविधि के चलते “पूर्वोत्तर राज्यों में वन आच्छादित क्षेत्र में उतार-चढ़ाव होता है। इस कारण वन क्षेत्र में 1,020 किमी की कुल कमी आई है। इसमें से 16 वर्ग किमी की कमी असम में देखी गई है।”
ओडिशा की बात करें तो वहां 2019 में 6,970 वर्ग किमी घना जंगल था। इसमें से अब 5,984 वर्ग किमी ही बचा है जबकि 986 वर्ग किमी क्षेत्र में स्थिति खराब हुई है।
घने जंगल से जुड़े आंकड़ों में बढ़ोतरी मुख्य रूप से मध्यम घने, खुले, झाड़ियों और गैर-वन भूमि का जंगल में परिवर्तन की वजह से है।
क्या भारत में जंगलों की गुणवत्ता बेहतर हुई है?
पिछले एक दशक में जब भी आईएसएफआर जारी हुई है, तब की सरकार ने नई हरित पट्टी के विकास को उपलब्धि के तौर पर दिखाया। भले ही सच्चाई इससे कोसों दूर हो।
13 जनवरी को, आईएसएफआर 2021 को जारी करते हुए, भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि उनकी सरकार का ध्यान “न केवल जंगल के रकबे का संरक्षण करना है बल्कि इसकी गुणवत्ता बढ़ाना भी है।”
लेकिन विश्लेषण से जो तथ्य सामने आते हैं वे चौंकाने वाले हैं। भारत अपने मौजूदा प्राकृतिक वन आवरण को खोता जा रहा है और महज वृक्षारोपण से इसकी भरपाई करने की कोशिश की जा रही है। घने जंगल के एक हिस्से को हफ्तों या महीनों में काटा जा सकता है। ऐसा खनन और अन्य गैर-वन गतिविधियों के लिए किया जाता है। लेकिन घने या मध्यम गुणवत्ता वाले जंगलों को वापस उगाने में – जिसे वैज्ञानिक पारिस्थितिक बहाली कहते हैं – सालों लग जाते हैं।
गैर-वन भूमि से जंगलों की पहचान करने के लिए सैटेलाइट तस्वीरों की समीक्षा करते समय, सरकार वृक्षारोपण को पूरी तरह से बहाल वन भूमि या लंबे समय से मौजूद जंगलों से अलग नहीं करती है। जबकि ये गहने जंगल सदियों से पारिस्थितिकी को बनाए रखने में महती भूमिका अदा करते आ रहे हैं।
जानकारों के मुताबिक, तेजी से बढ़ने वाले पेड़ जमीन के एक हिस्से में लगाना संभव है। दो साल बाद जब ऊपर से देखा जाएगा, तो ये पेड़ आभास देंगे कि क्षेत्र हरित पट्टी में बदल गया है। हालांकि, पारिस्थितिकीविदों का कहना है कि बंजर भूमि पर दो साल में घने जंगल उगाना असंभव है।
राजस्थान के जोधपुर में शुष्क वन अनुसंधान संस्थान से हाल में सेवानिवृत्त हुए वैज्ञानिक गेंदा सिंह ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा, “बंजर भूमि को वन भूमि बनने में जलवायु परिस्थितियों और भूमि के प्रकार के आधार पर कम से कम 10 साल लगेंगे।”
फिर भी, आईएसएफआर 2021 का दावा है कि महज दो वर्षों में 549 वर्ग किमी बंजर भूमि पर मध्यम और बहुत घने जंगल उग गए। वहीं 272 वर्ग किमी छोटी झाड़ियों वाली भूमि भी मध्यम और बहुत घने जंगलों में तब्दील हो गई।
इसी तरह, रिपोर्ट 245 वर्ग किमी खुले वन क्षेत्र का दावा करती है। इसके मुताबिक इस इलाके में 2019 की शुरुआत में 10-40 प्रतिशत वन आच्छादन ही था। अब दो साल के भीतर ही 70 प्रतिशत से अधिक आच्छादन के साथ घने जंगलों में बदल गया है।
यह विश्लेषण उस चार्ट से किया जा सकता है जो भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) अपनी 2021 की रिपोर्ट में दिया है। एफएसआई इसे वन आवरण परिवर्तन मैट्रिक्स कहता है। नीचे दिया गया चार्ट बताता है कि इसने पहले कितने क्षेत्र को वनों की विशिष्ट श्रेणियों में मैप किया था, जो कि बाद के सर्वेक्षण में बदल गया।
प्राकृतिक जंगलों का नुकसान
आईएसएफआर 2021 को जारी होने के बाद से कई विशेषज्ञ इसकी आलोचना कर रहे हैं।
वन्यजीव जीवविज्ञानी और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “आईएसएफआर रिपोर्ट में दिए गए आंकड़े पूरी तरह से असत्यापित हैं जब तक कि सैटेलाइट मैप सार्वजनिक रूप से उपलब्ध न हों।” उन्होंने आईएसएफआर रिपोर्ट में किए गए दावों का विश्लेषण करते हुए ट्विटर पर एक लंबा पोस्ट कर बताया कि सैटेलाइट तस्वीरें कैसे उन दावों की असलियत उजागर करती हैं।
एफएसआई के मुताबिक, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के उपग्रह डाटा का उपयोग करके वनों की मैपिंग की गई थी। वन आवरण के आकलन के लिए, उन्होंने एक हाइब्रिड दृष्टिकोण पर भरोसा किया, जिसमें राज्य के वन विभागों द्वारा जमीनी सच्चाई और सत्यापन के बाद आंकड़ों का वर्गीकरण शामिल था।
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केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि यह जानकर संतोष हुआ कि वन क्षेत्र में बढ़ोतरी हुई है। उन्होंने कहा कि उनका मंत्रालय “अधिकतम वृक्षारोपण” सुनिश्चित करने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की योजना पर काम कर रहा है। हालांकि जानकार चेतावनी देते हैं कि यही समस्या की जड़ हो सकती है।
मधुसूदन ने कहा, “कुदरती जंगल और मानवजनित जंगल के बीच अंतर के बिना वन आवरण का एफएसआई मूल्यांकन सरकार की मूलभूत गलती है। एक तरफ, हम प्राकृतिक वनों को दूसरे कामों के लिए खत्म करते जा रहे हैं। दूसरी ओर, एफएसआई वृक्षारोपण द्वारा वृक्ष आवरण में बढ़ोतरी की गणना करके वन आवरण में वृद्धि करने का दावा भी है। लेकिन प्राकृतिक वनों के नुकसान की भरपाई मानव निर्मित वनों से नहीं की जा सकती है।”
लेखक लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच से जुड़े भूमि और वन अभिशासन शोधकर्ता हैं। लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच ,भारत में भूमि संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधन से जुड़े विषयों पर काम कर शोधकर्ताओं का एक स्वतंत्र नेटवर्क है।
बैनर तस्वीरः रिपोर्ट के मुताबित पूर्वोत्तर में 1,69,521 वर्ग किलोमीटर जंगल है, जो कि पिछली सर्वेक्षण रिपोर्ट 2019 के मुताबले 1,020 वर्ग किमी कम है। तस्वीर- सौरभ सावंत/विकिमीडिया कॉमन्स