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देश में कचरा प्रबंधन की तीन सफल मिसाल

प्लास्टिक कचरे को छांटते कर्मचारी। अक्सर कचरे के ढेर को आग के हवाले कर दिया जाता है, जिससे हानिकारक प्रदूषण होता है। तस्वीर- विश्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स

प्लास्टिक कचरे को छांटते कर्मचारी। अक्सर कचरे के ढेर को आग के हवाले कर दिया जाता है, जिससे हानिकारक प्रदूषण होता है। तस्वीर- विश्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स

  • भारत में अनेक राष्‍ट्रीय नीतियों में अनौपचारिक क्षेत्र, मुख्‍य रूप से कचरा बीनने वालों की भूमिका के महत्‍व को मान्‍यता दी गई है और कचरा प्रबंधन व्‍यवस्‍था में उन्‍हें शामिल करने का मूल्‍य समझा गया है। फिर भी उन्‍हें कचरा प्रबंधन की मौजूदा व्‍यवस्‍था में शामिल करने में अनेक चुनौतियां हैं।
  • भारत के साथ-साथ अन्य विकासशील देशों में औपचारिक एवं अनौपचारिक क्षेत्र के बीच समन्‍वय भविष्‍य में संसाधनों की रिकवरी और रिसाइक्लिंग व्‍यवस्‍था का अधिकतम उपयोग करने की कुंजी होगा और इसके माध्‍यम से हमारे महासागरों में प्‍लास्टिक का ‘रिसाव’ रोकने के समाधान खोजे जा सकेंगे।
  • औपचारिक एवं अनौपचारिक क्षेत्र के बीच के चौराहे पर कार्यरत जमीनी संगठनों से अनेक सबक सीखे जा सकते हैं।

हम में से अधिकतर लोग अपने कूड़े को कचरे के डिब्‍बों या नगरपालिका के कचरा उठाने वाली गाड़ियों में फेंक देने के बाद भूल जाते हैं। फिर सारी जिम्मेदारी नगर निगम या नगरपालिकाओं के सर होता है जो कचरा प्रबंधन की इस पूरी प्रक्रिया का एक छोटा सा अंग भर है। इसके लिए जरूरी पूंजी से लेकर प्रबंधन सब इनको करना होता है। यह जैविक, अजैविक, घरेलू, हानिकारक, बागवानी के अपशिष्‍ट और भवन निर्माण मलबे सहित हर प्रकार के कचरे के निपटान से संबद्ध है। कचरे की ढुलाई, रिसाइक्लिंग और उपयुक्‍त निपटान, सब के लिए यही जिम्‍मेदार है जो इन्हें पूरा करना होता है। खुद या किसी बाहरी संगठन की सहायता से।

आदर्श स्थिति तो यही है कि कचरे की छंटाई वही हो जाए जहां यह उत्पन्न होता है। रिसाइकिल लायक और रिसाइकिल न होने लायक कचरे को घरों में, दुकानों या अन्य व्‍यावसायिक केन्‍द्रों पर ही अलग कर दिया जाए। कागज, मेटल और कांच का कचरा तो बहुत पहले से छांटा जाता रहा है क्‍योंकि उसे रिसाइकिल करने की संभावना प्रबल होती है।

प्‍लास्टिक इस मामले में नया खिलाड़ी है। पॉलीइथाइलीन टैरीफथालेट या पीईटी की रिसाइक्लिंग की दृष्टि से अच्‍छी कीमत है जिसकी वस्‍त्र उद्योग में प्‍लास्टिक के रूप में भारी मांग रहती है। आमतौर पर इस्‍तेमाल होने वाले अन्‍य प्रकार के प्‍लास्टिक की कीमत मामूली या न के बराबर होती है इसलिए उसे अक्‍सर फेंका जाता है। इसे लैंडफिल पर जगह मिलती है जहां या तो कूड़े के ढेर में दबा दिया जाता है या जलाया जाता है। इस तरह ये प्लास्टिक, मिट्टी या आस-पास की अन्य चीजों में घुलमिल जाते हैं।

भारत की तरह अधिकतर विकासशील देशों में, रिसाइकिल लायक कचरे को अलग करना महंगा, कठिन और बहुत अधिक मेहनत वाला काम है। कचरा प्रबंधन के इस खाई को भरने के लिए फिर अनौपचारिक क्षेत्र दृश्य में आता है जिनकी बदौलत हमारा मोहल्ला साफ दिखता है। हालांकि इस लगभग अदृश्‍य अर्थव्‍यवस्‍था को न हम स्वीकार करते हैं और न ही सराहते हैं। 

सामान्यतः अजैविक कचरा का निपटान इसी अनौपचारिक क्षेत्र के जिम्मे आता है। रिहायशी इलाकों से रिसाइकिल लायक कचरे को जमा करने और छांटने का काम कचरा बीनने वाले करते हैं। उससे उन्‍हें अपनी आजीविका कमाने का अवसर मिलता है। वे इस कचरे को कबाड़ी वालों को बेच देते हैं। कबाड़ी वाले इस कचरे की और छंटाई करते हैं और दूसरे स्‍तर पर छोटे या मध्‍यम दर्जे के कचरा एकत्र करने वालों को बेचते हैं। यहां से यह कचरा, थोक व्‍यापारी के पास पहुंचता है और अंतत: किसी रिसाइक्लिंग कारखाने में उसकी यात्रा समाप्‍त होती है।

कबड्डीवाले या कचरा बीनने वाले शहरी और ग्रामीण इलाकों में ऐसे कचरे की तलाश करते हैं, जिन्हें बेचा जा सके। इस तरह वे बहुत सारे कचरे को लैंडफिल में ले जाने से पहले बचाते है। तस्वीर- राज गोपाल सिंह वर्मा / फ़्लिकर
कबाड़ी वाले या कचरा बीनने वाले शहरी और ग्रामीण इलाकों में ऐसे कचरे की तलाश करते हैं, जिन्हें बेचा जा सके। इस तरह वे बहुत सारे कचरे को लैंडफिल में ले जाने से पहले बचाते है। तस्वीर- राज गोपाल सिंह वर्मा / फ़्लिकर

भारत में अनेक राष्‍ट्रीय नीतियों में अनौपचारिक क्षेत्र, मुख्‍य रूप से कचरा बीनने वालों की भूमिका के महत्‍व को मान्‍यता दी गई है और कचरा प्रबंधन व्‍यवस्‍था में उनकी भूमिका सराही गयी है। फिर भी कचरा बीनने वालों को औपचारिक कचरा अर्थव्‍यवस्‍था के भीतर काम करते हुए अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इनमें कचरा प्रबंधन का काम निजी कंपनियों को सौंपा जाना, रिसाइक्लिंग के विकल्‍प के रूप में प्रतिष्ठित, कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों की स्‍थापना और कचरा प्रबंधन की बुनियादी जरूरतों को शहरी क्षेत्र निर्धारण योजनाओं में स्‍थान न दिया जाना शामिल है। इतना ही नहीं अनौपचारिक क्षेत्र की अग्रिम पंक्ति में खड़े कचरा बीनने वाले अक्‍सर कठिन और अस्‍वच्‍छ परिस्थितियों में काम करते हैं जिसका असर उनके स्‍वास्‍थ्‍य पर पड़ता है। रिसाइकिल लायक कचरे के बाजार मूल्‍य में उतार-चढ़ाव भी उनके लिए अनिश्चितता पैदा करता है।

पिछले दशक में कबाड़ी वाला कनेक्‍ट (चेन्‍नई), हासिरू दाला (बेंगलुरू) और चिंतन जैसे जमीनी संगठन कचरा बीनने वालों को कचरा अर्थव्‍यवस्‍था से जोड़ने की कोशिश में, उनके साथ काम कर रहे हैं। इन तीनों संस्थाओं के अनुभव से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। 

प्लास्टिक कचरे के निपटान में असंगठित क्षेत्र की बड़ी भूमिका

विकेन्द्रित कचरा प्रबंधन के लिए प्रयासरत चेन्‍नई स्थित कबाड़ी वाला कनेक्‍ट के सीईओ सिद्धार्थ हांडे के अनुसार, “चेन्‍नई में हर वर्ष  1,30,000 टन से अधिक कचरा पैदा होता है जिसमें प्‍लास्टिक की मात्रा 10,000-15,000 टन होती है। नगरपालिका के लिए स्रोत पर कचरा छंटाई की व्‍यवस्‍था लागू कर पाना भारी चुनौती है। इसलिए अधिकतर कचरा लैन्ड्फिल पर पहुंच जाता है जिसमें से बमुश्किल 10-15 प्रतिशत रिसाइकिल करने लायक होता है। नगर प्रशासन इस कचरे को उठाने और पास के लैंडफिल तक पहुंचाने के लिए रोज करीब 1.5 करोड़ रुपये खर्च कर्ता है।”

हांडे के अनुसार, “अगर समूचे भारत के शहर रिसाइक्लिंग को अधिकतम स्‍तर तक ले जाना चाहते हैं तो औपचारिक और अनौपचारिक कचरा क्षेत्र में समन्वय बढ़ाना पड़ेगा। इसका एक फायदा यह भी होगा कि ये कचरा बहकर नदी या समुद्र इत्यादि में नहीं जाएगा।”

हांडे का यह भी कहना था कि, “चेन्‍नई को अपना लगभग 20% रिसाकिल लायक कचरा यानी प्रति वर्ष 1 लाख टन से अधिक कचरा अनौपचारिक कचरा प्रबंधन व्‍यवस्‍था की वजह से एकत्र होता है।” उनका मानना है कि कचरा बीनने वालों और कबाड़ी की दुकान वालों के नेटवर्क को जोड़ने से उस 70 प्रतिशत कचरे को रिसाइकिल के लिए भेजा जा सकेगा जो अभी लैंडफिल पर भेजा जाता है।

रिहायशी इलाकों से रिसाइकिल लायक कचरे को जमा करने और छांटने का काम कचरा बीनने वाले या कबाड़ी वाले करते हैं। उससे उन्‍हें अपनी आजीविका कमाने का अवसर मिलता है और रिसाइकलिंग के जरिए कचरे की समस्या का समाधान भी मिलता है। तस्वीर- बिजय चौरसिया / विकिमीडिया कॉमन्स
रिहायशी इलाकों से रिसाइकिल लायक कचरे को जमा करने और छांटने का काम कचरा बीनने वाले या कबाड़ी वाले करते हैं। उससे उन्‍हें अपनी आजीविका कमाने का अवसर मिलता है और रिसाइकलिंग के जरिए कचरे की समस्या का समाधान भी मिलता है। तस्वीर– बिजय चौरसिया / विकिमीडिया कॉमन्स

कबाड़ी वाला कनेक्‍ट शहर के मौजूद अनौपचारिक नेटवर्क की मदद से कचरे के संग्रह, छंटाई एवं प्रोसैसिंग के काम में सक्रिय है। इसके लिए नई टैक्‍नोलॉजी इत्यादि का भी इस्तेमाल किया जाता है। इसका फायदा भी है। एक तो यह मॉडल समावेशी है। दूसरे ऐसा करने से लागत कम आती है। तीसरे, कचरा बीनने वालों को नई तकनीकी का फायदा मिलता है तो स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें कम होती हैं। और अधिक कचरे को रीसाइकल के उद्देश्य से अलग किया जा सकता है और सबका मुनाफा बढ़ता है।

कचरा अर्थव्यवस्था से जुड़े सबको साथ लाना जरूरी

बेंगलुरू में अनौपचारिक कचरा प्रबंधन तंत्र का भी लगभग यही हाल है। नगरपालिका के कर्मचारी या कचरा बीनने वाले घर-घर जाकर कचरा जमा करते हैं और उसे सूखा कचरा संग्रह केन्‍द्रों को सौंप देते हैं, जहां रिसाइक्लिंग के लिए उसकी छंटाई होती है। कागज, मेटल, कांच, कपड़े और प्‍लास्टिक को आमतौर पर अलग किया जाता है। टैट्रा पैक जैसे प्‍लास्टिक तकनीकी दृष्टि से रिसाइकिल लायक होते हैं किन्‍तु उनका बाजार मूल्‍य कम मिलता है। इन्‍हें कचरे से ऊर्जा बनाने वाले संयंत्रों में या सीमेंट की भ‍ठ्ठियों में जलाने के लिए भेज दिया जाता है।

हासिरू दाला 2011 से कचरा श्रमिकों और स्‍थानीय प्रशासन, नीति-निर्धारकों एवं नागरिकों के बीच की खाई पाटने का काम कर रहा है। इनका उद्देश्य यह भी है कि कचरा बीनने वालों की जिंदगी एवं आजीविका में सुधार लाया जाए। बेंगलुरू में 33,000 से अधिक कचरा बीनने वाले और कचरे के खरीददार हैं। वहां अनौपचारिक अर्थव्‍यवस्‍था में रोजाना करीब 3500 टन प्‍लास्टिक की खरीद-फरोख्‍त होती है। इससे प्‍लास्टिक कचरा लैंडफिल, नदी या तालाब में कम पहुंचता है। 2021 में हासिरू दाला ने शहर के 40  से अधिक वार्डों में बढ़-चढ़कर काम किया और उनके सूखा कचरा संग्रह केन्‍द्रों ने कुल 13,656 मीट्रिक टन कचरे की छंटाई की। इसमें से 4,097 टन कचरा रिसाइकिल लायक था और 9,559 टन कचरा रिसाइकिल लायक नहीं था।

हासिरू दाला की कम्‍युनिकेशन्‍स मैनेजर रोहिणी मालूर का कहना है, “अक्‍सर भोजन सामग्री के डिब्‍बों जैसे प्‍लास्टिक उत्‍पाद को सही ढंग से धोया नहीं जाता, इसलिए उन्‍हें फेंकना पड़ता है। स्‍थानीय निवासियों को अक्‍सर अपनी सुविधा के लिए भोजन सामग्री से संबद्ध कचरे को साफ करने के लिए प्रोत्‍साहित करना आवश्‍यक है। सफाई और छंटाई की जिम्‍मेदारी परिवारों पर डालने से कचरा प्रबंधन तंत्र की अगली कड़ी में लाभ मिलता है। इससे कम कचरा खासकर प्‍लास्टिक ऊर्जा संयंत्रों तक पहुंचता है।”

लैंडफिल पर बिना छंटा कचरा जमा हो जाने पर सड़ते गीले कचरे से अत्‍यधिक ज्‍वलनशील मीथेन गैस निकलती है। यह गैस अचानक कचरे को जलाने लगती है। तस्वीर- वोवेल चाव्स कोंडेज़ा / फ़्लिकर।
लैंडफिल पर बिना छंटा कचरा जमा हो जाने पर सड़ते गीले कचरे से अत्‍यधिक ज्‍वलनशील मीथेन गैस निकलती है। यह गैस अचानक कचरे को जलाने लगती है। तस्वीर– वोवेल चाव्स कोंडेज़ा / फ़्लिकर।

महामारी ने समूचे अनौपचारिक कचरा प्रबंधन तंत्र को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। एकल उपयोग प्‍लास्टिक की खपत बेहिसाब बढ़ने से रिकवरी और रिसाइक्लिंग उस गति से नहीं हो पाई। कचरा बीनने वाले मूल रूप से दिहाड़ी मजदूर होते हैं और आवाजाही पर रोक लगने का असर रिसाइकिल लायक प्‍लास्टिक एकत्र करने और अपनी आजीविका कमाने की उनकी क्षमता पर पड़ता है। कचरा बीनने वाले जब कम घंटे काम करते हैं तो कबाड़ी की दुकानों की आमदनी भी कम हो जाती है। महामारी की पहली लहर के दौरान कई महीने तक समूचा रिसाक्लिंग उद्योग ठप्‍प रहा। सूखा कचरा संग्रह केन्‍द्रों को तो आवश्‍यक सेवाओं के दायरे में रखा गया, लेकिन कबाड़ी की दुकानों और गोदामों को वह मान्‍यता नहीं मिली जिसके कारण उन्‍हें बंद रखना पड़ा। लॉकडाउन के दौरान 15 केन्‍द्र खुले रहे, लेकिन उनमें जमा कचरे को भेजने की कोई जगह नहीं थी जिसके कारण कचरा अर्थव्‍यवस्‍था अवरुद्ध हो गई।

मालूर के शब्‍दों में, “कुछेक जमीनी संगठन इस अनौपचारिक क्षेत्र को सहारा देने के लिए बीते कुछ सालों में आगे आए। पर इस माहामारी ने इस छोटी सफलता को भी तहस-नहस कर दिया। आने वाले महीनों में हमें इस नेटवर्क को फिर खड़ा करना होगा। कुछ लोग तो टिकाऊ, छंटाईपूर्ण कचरा प्रबंधन के लिए प्रतिबद्ध हैं, किन्‍तु ऐसा लगता है कि शायद यह संदेश अभी हर घर तक नहीं पहुंचा है। सबके बीच यह संदेश पहुंचाया जाना जरूरी है कि जमीन पर ये कचरा योद्धा कितने लाचार है और कैसी मुश्किलों का सामना करते हैं। हो सकता है इससे लोग कचरे से जुड़ी चुनौती को समझेंगे।”

कचरा बीनने वाले पर्यावरण के लिहाज से निभाते हैं बड़ी भूमिका

कचरा श्रमिक आवश्‍यक सेवाएं प्रदान करने के अलावा पर्यावरण संरक्षण में भी बहुत महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

दिल्‍ली में प्रतिदिन 12,350 टन ठोस कचरा पैदा होता है जिसमें से अधिकतर गाजीपुर, भलस्‍वा और ओखला के तीन बड़े लैंडफिल पर पहुंच जाता है। दिल्‍ली में लगभग 40,000 कचरा बीनने वाले और अन्‍य रिसाइकिलकर्मी, घुमन्‍तु खरीददार, छोटे-बड़े कबाड़ी, कचरे की रिप्रोसैसिंग करने वाले और अन्‍य कचरा श्रमिक मिलाकर अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों की कुल संख्या 1,50,000 के आसपास है। ये वजन के हिसाब से दिल्‍ली के कुल कचरे का महज 15 से 20 प्रतिशत ही है और मात्रा के हिसाब से 55 प्रतिशत।  यहां करीब 2,000 टन कचरा रिसाइकिल किया जाता है। अन्‍य शहरों की तरह इसमें से अधिकतर रिसाइक्लिंग कचरा बीनने वालों की मेहनत का परिणाम है।

इसके अलावा लैंडफिल पर बिना छंटा कचरा जमा हो जाने पर सड़ते गीले कचरे से अत्‍यधिक ज्‍वलनशील मीथेन गैस निकलती है। यह गैस अचानक कचरे को जलाने लगती है। अन्‍य हानिकारक प्रदूषक सामग्री के साथ प्‍लास्टिक के कचरे में भी आग लग जाती है। कभी-कभी जमीन में गाड़ने से पहले लैंडफिल पर कचरा जलाया जाता है। दिल्‍ली में वायु प्रदूषण की समस्‍या में इसका बड़ा भारी योगदान है। इस तरह कचरा बीनने दिल्ली के प्रदूषण को कम करने में अच्छी भूमिका निभा सकते हैं अगर वे लैंडफिल तक यह कचरा जाने ही न दें।

कबाड़ीवालों के जरिए कचरा थोक व्‍यापारी के पास पहुंचता है और अंतत: किसी रिसाइक्लिंग कारखाने में उसकी यात्रा समाप्‍त होती है। तस्वीर- डेमियन नायडू / फ़्लिकर।
कबाड़ीवालों के जरिए कचरा थोक व्‍यापारी के पास पहुंचता है और अंतत: किसी रिसाइक्लिंग कारखाने में उसकी यात्रा समाप्‍त होती है। तस्वीर- डेमियन नायडू / फ़्लिकर।

संयुक्‍त राष्‍ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जापान की वित्‍तीय सहायता से चलाए जा रहे काउंटरमेजर प्रोग्राम के भागीदार के रूप में चिंतन एन्‍वायरनमेंटल रिसर्च एंड एक्‍शन ग्रुप स्रोत से लेकर लैंडफिल के बीच कचरे की बेहतर रिकवरी के लिए प्रयत्‍नशील है। कचरा बीनने वालों के साथ उनकी मेहनत के परिणामस्वरूप कम मात्रा में प्‍लास्टिक यमुना और आगे जाकर गंगा में तथा बंगाल की खाड़ी में पहुंचता है। वर्ष 2018 में चिंतन ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी ‘वेस्‍ट पिकर्स : डेल्‍हीज़ फॉर्गाटन एन्‍वायरनमेंटलिस्‍ट’। इस रिपोर्ट में कचरा प्रबंधन एवं प्‍लास्टिक प्रदूषण की सुरसा-सी विकराल होती समस्‍या से निपटने में अनौपचारिक क्षेत्र की भूमिका को उजागर किया गया था।

चिंतन में पॉलिसी एंड आउटरीच मैनेजर श्रुति सिन्‍हा के अनुसार, ‘विडम्‍बना यह है कि दिल्‍ली के मास्‍टर प्‍लान 2041 में ठोस कचरा प्रबंधन एवं पर्यावरण प्रदूषण की विस्‍तार से चर्चा की गई है। पर न तो उसके लिए श्रमिकों की कोई व्‍यवस्‍था है न ही जरूरी जगह एवं बुनियादी सुविधाओं की। 2021 में चिंतन के एक अध्‍ययन से पता चला कि 73.8 प्रतिशत कचरा बीनने वालों के पास कोई छत वाली बंद जगह नहीं है जिसके कारण बरसात और सर्दी में काम करना कठिन होता है।

चिंतन की रिपोर्ट में अनौपचारिक और निजी क्षेत्र तथा जनता के बीच भागीदारी स्‍थापित की जरूरत पर बल दिया गया है। इसके साथ ही अनौपचारिक श्रमिकों को कानूनी मान्‍यता देने की जरूरत पर भी जोर है। इस रिपोर्ट की अन्य अनुसंशा में कचरा प्रबंधन नियमावली विकसित करना और कचरा श्रमिकों के प्रशिक्षण एवं निगरानी का जिक्र है। ताकि वे अपने विशेष कार्य क्षेत्र में असरदार ढंग से काम कर सकें और पर्यावरण संरक्षण की प्रमुख भूमिका निभा सकें।


और पढ़ेंः कैसे होगा प्‍लास्टिक पर पलटवार!


कचरा प्रबंधन व्यवस्था की रूपरेखा

काउंटरमेजर का प्रयास है कि प्‍लास्टिक प्रदूषण के स्रोतों और मार्गों की पहचान की जाए और उसे नदियों या महासागर में बहने से रोका जाए। जमीनी स्तर पर कचरा अर्थव्‍यवस्‍था में सक्रिय लोगों के साथ जुड़कर बेहतर जागरूकता फैलाई जा सकती है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एन्‍वायरनमेंट और नीति आयोग ने ‘वेस्‍ट वाइस सिटीज’ के नाम से 2021 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसमें 28 शहरों का अध्ययन किया गया ताकि यह समझ में कि इस कचरे से निपटने के लिए सबसे बेहतर नीति क्या है। इसमें स्पष्ट हुआ कि अनौपचारिक एवं औपचारिक क्षेत्रों के बीच समन्‍वय, कचरा प्रबंधन के लिए कारगर समाधान है। रिपोर्ट में देखा गया कि विकेन्द्रित प्रणालियां और सार्वजनिक-निजी भागीदारी हमारे ‘स्‍मार्ट सिटीज़’ उद्देश्‍यों को हासिल करने के लिए बहुत उपयुक्‍त होंगी।

अब समय आ गया है कि नगर नियोजक और नगरपालिकाएं कचरा प्रबंधन तंत्र में समन्‍वय की जरूरत को समझें और उसके रास्‍ते तलाश करें।

अनुवाद: अखिल मित्तल

 

बैनर तस्वीरः प्लास्टिक कचरे को छांटते कर्मचारी। अक्सर कचरे के ढेर को आग के हवाले कर दिया जाता है, जिससे हानिकारक प्रदूषण होता है। तस्वीर- विश्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स

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