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[कमेंट्री] जैव विविधता अधिनियम में संशोधन: किसके हित और किसका संरक्षण?

भारत में जंगलों में पारंपरिक तौर से निवास करने वाले लोग वन पर निर्भर हैं। जैव विविधता अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव उनके अधिकारों को कमजोर कर सकता है। तस्वीर- इंडिया वाटर पोर्टल/फ्लिकर

भारत में जंगलों में पारंपरिक तौर से निवास करने वाले लोग वन पर निर्भर हैं। जैव विविधता अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव उनके अधिकारों को कमजोर कर सकता है। तस्वीर- इंडिया वाटर पोर्टल/फ्लिकर

  • केंद्र सरकार की तरफ से हाल ही में जैव विविधता अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव आया है। इसके बारीक अध्ययन से पता चलता है कि इससे प्राकृतिक संपदा पर स्थानीय समुदाय की पकड़ कमजोर होगी।
  • इस संशोधन को अगर तमाम अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय समझौते और कानूनों के आलोक में देखा जाए तो जैव विविधता को भी नुकसान पहुंचाने वाला कदम है। यह तब है जब क्षीण होती जैव-विविधता अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय है।
  • श्वेता त्रिपाठी श्रुति नाम की एक संस्था से बतौर डायरेक्टर जुड़ी हैं और ये उनके निजी विचार हैं।

केंद्र सरकार ने हाल ही में जैव विविधता अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव दिया है जिसपर तमाम जन संगठनों और पर्यावरणविदों ने अपनी तीव्र प्रतिक्रिया दर्ज़ की है। खास बात यह है कि यह संशोधन तब आया है जब पर्यावरण और जैव विविधता की सुरक्षा और संरक्षण वर्तमान अंतरराष्ट्रीय बहसों और चिंतन के केंद्र में हैं।  हालांकि सरकार का कदम उलटी दिशा में जाता हुआ प्रतीत होता है। इसके तहत प्रस्तावित संशोधन समुदायों के क़ानून द्वारा मान्यता प्राप्त नैसर्गिक नियंत्रण को कमज़ोर करने की दिशा में अगला क़दम हैं। सनद रहे कि इन समुदायों का जीवन, आजीविका और सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व का प्रकृति की जैव विविधता, जैव संसाधनों और पारंपरिक ज्ञान के साथ पीढ़ियों से अन्योन्याश्रित संबंध है। जानकारों ने इस प्रस्ताव पर अपनी आपत्तियां दर्ज की हैं। इन आपत्तियों की पृष्ठभूमि में तमाम अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रयास-समझौते-क़ानूनों की अनदेखी और उल्लंघन भी है। ये प्रयास या समझौते, जैव विविधता के संरक्षण और समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में वर्षों के प्रयासों से फलीभूत हो सके हैं। नए अधिनियम की बारीकियों को समझने से पहले इन अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय सिद्धांतों-क़ानूनों को समझना बेहद उपयोगी होगा।

जैव विविधता क़ानून, 2002 को ब्राज़ील के रियो डी जेनेरियो शहर में 1992 में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन की जैव विविधता संधि के आलोक में पारित किया गया था। इस संधि के मुख्य लक्ष्यों में हैं – जैव विविधता का संरक्षण, जैवविविधता घटकों का सतत उपयोग और आनुवांशिक संसाधनों के उपयोग से प्राप्त होने वाले लाभों में उचित और समान हिस्सेदारी । संधि के अनुच्छेद 8 (ज) के अनुसार किसी भी पारंपरिक ज्ञान, कौशल और अन्वेषणों के उपयोग के पूर्व स्थानीय और पारंपरिक समुदायों की भागीदारी और सहमति अनिवार्य होगी और ऐसे उपयोगों से होने वाले लाभों में समुदायों की समान हिस्सेदारी होगी।

नगोया, जापान में 2010 में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (कॉप) के दौरान आनुवांशिक संसाधनों से उत्पन्न लाभों के निष्पक्ष और समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौता हुआ था। तस्वीर- कॉप 10 जापान/फ्लिकर
नगोया, जापान में 2010 में कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (कॉप) के दौरान आनुवांशिक संसाधनों से उत्पन्न लाभों के निष्पक्ष और समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौता हुआ था। तस्वीर– कॉप 10 जापान/फ्लिकर

वर्ष 2010 में पक्षकारों के दसवें सम्मेलन (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़) के दौरान नगोया, जापान में आनुवांशिक संसाधनों से उत्पन्न लाभों के निष्पक्ष और समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौता हुआ, जिसे नगोया प्रोटोकॉल के नाम से जाना गया। इसके बाद ही 2014 में भारत में जैवविविधता कानून के तहत एक्सेस एंड बेनिफिट शेयरिंग (पहुंच तथा लाभ साझाकरण) अधिनियम अधिसूचित किया। इस अधिनियम के तहत बतौर आनुवांशिक संसाधनों और संबन्धित पारंपरिक ज्ञान के संरक्षक स्थानीय समुदायों की ‘भागीदारी-पूर्व और सूचित सहमति’ को ‘लाभों के निष्पक्ष और समान वितरण’ के लिए अनिवार्य किया गया।

अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय सिद्धांतों के आलोक में इस संशोधन को देखना जरूरी

जैव विविधता कानून को अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय पर्यावरण कानूनों और भारतीय संविधान के तहत मान्यता प्राप्त कुछ सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों के आलोक में समझना भी बेहद ज़रूरी है। इन सिद्धान्तों को उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय ने अपने अलग-अलग आदेशों में लागू भी किया।

जैव विविधता के संरक्षण और समुदायों के अधिकार को रेखांकित करते इन सिद्धांतों में कुछ बेहद महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं – (i)‘लोक न्यास का सिद्धांत जिसका अर्थ हुआ कि राज्य जनता द्वारा उपयोग और उपभोग की जाने वाली सभी प्राकृतिक वस्तुओं/ संसाधनों का न्यासी भर है। संसाधन जनता के हैं न कि राज्य के। राज्य का काम प्रकृतिक संसाधनों को संरक्षित करना और जनता के हितों की सुरक्षा करना है; (ii)‘प्रदूषक भुगतान करे का सिद्धांत’ जिसका अर्थ हुआ कि प्रदूषक पर्यावरण के नुकसान के लिये न केवल प्रदूषण से प्रभावितों को प्रतिकर देगा बल्कि उसे वह लागत भी वहन करनी होगी जो पर्यावरण ह्रास को पुनर्स्थापित करने में मदद करे। इस प्रकार प्रदूषक पर्यावरण को होने वाले हर नुकसान के लिए और प्रदूषण से पीड़ितों के लिए अनिवार्य रूप से उत्तरदायी होगा; (iii)‘अंतरपीढ़ीगत समता’ जो पर्यावरण और उसके प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग और संरक्षण में न सिर्फ वर्तमान बल्कि पीढ़ियों के बीच निष्पक्षता को रेखांकित करती है; (iv)‘पूर्व सावधानी का सिद्धान्त जिसके अनुसार पर्यावरणीय नुकसान के खतरे के बारे में निश्चायक वैज्ञानिक प्रमाण की कमी को उस खतरे को रोकने के लिए कार्रवाई नहीं करने के बहाने के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए और हर स्थिति में ऐसे किसी भी पहल या क्रियाकलाप को पर्यावरण को क्षति पहुँचाने से रोका जाना चाहिये।

इन सबके साथ ही साथ भारतीय संविधान भी पर्यावरणीय अधिकार को सुनिश्चित करते हुये कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान देता है। जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 जो जीवन के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करता है – उसमें पर्यावरण के मुद्दे को भी शामिल किया है। ऐसे ही अनुच्छेद 48 (अ) जो राज्य को पर्यावरण की रक्षा और सुधार करने और देश के वनों और वन्यजीवों की रक्षा करने का आदेश देता है। अनुच्छेद 39 (ब) सुनिश्चित करता है कि समुदाय के भौतिक संसाधनों के नियंत्रण और स्वामित्व का वितरण जनता के हितों के अनुसार सर्वोत्तम हो।

जंगल से वनोपज इकट्ठा कर हाट में बेचने ले जाती छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं। वन संपदा पर आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित रखने में पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को शक्तियां प्रदान की गई हैं। तस्वीर- डीपीआर छत्तीसगढ़
जंगल से वनोपज इकट्ठा कर हाट में बेचने ले जाती छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं। वन संपदा पर आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित रखने में पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को शक्तियां प्रदान की गई हैं। तस्वीर- डीपीआर छत्तीसगढ़

साथ ही साथ जैव विविधता के संरक्षण और समुदायों के हितों-सुरक्षा को केन्द्रित करते कानून भी जैव विविधता को समझने के लिए बेहद प्रासंगिक हैं। इनमें जैव और सांस्कृतिक विविधतता तक पहुंच के अधिकार और इनसे संबन्धित बौद्धिक सम्पदा और पारंपरिक ज्ञान के सामुदायिक अधिकार को अनुसूचित जन जतियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के लिए सुनिश्चित करता वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम, 2006 प्रमुख कानून हैं। इस अधिनियम के साथ-ही-साथ पेसा (पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996, संविधान का 73वां और 74वां संशोधन ग्राम सभा को जैव विविधतता के संरक्षण-सुरक्षा के लिए उत्तरदायी-अधिकारी बनाता है।

अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर पारित इन सिद्धांतों-क़ानूनों को भारतीय न्याय प्रणाली ने अपने तमाम आदेशों- निर्णयों में व्यापक पहचान दी है। चाहे वो वर्ष 1997 का बहुचर्चित एम० सी० मेहता बनाम कमलनाथ का मामला हो या फिर विगत वर्ष 2018 का दिव्या फार्मेसी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया का आदेश, न्यायालयों ने बार-बार सुनिश्चित किया है कि पर्यावरण-जैव विविधता के हितों-संरक्षण से संबन्धित उपरोक्त राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों-सिद्धांतों-समझौतों के अनुरूप ही प्रशासनिक-न्यायिक-सामाजिक प्रक्रियाओं का संचालन हो।

स्पष्ट है कि जैवविविधता के अंतर्गत कोई भी निर्णय उपरोक्त अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और न्यायिक प्रणाली के भीतर ही लिया जा सकता है। ऐसे में नए संशोधन क्या इन सभी वर्तमान समझौतों-क़ानूनों के अनुरूप हैं? इसको समझने के लिए नए संशोधन के कुछ प्रमुख बिन्दुओं पर प्रकाश डाला जा सकता है।

जैव विविधता संशोधन: आम जन की कोई भागीदारी नहीं 

नए संशोधन निर्धारित समय सीमा के विपरीत बिना राज्य सरकारों, ग्राम सभाओं, पंचायतों, सम्बद्ध जैव विविधता प्राधिकरण/राज्य परिषद/स्थानीय समितियों या व्यापक जनता के साथ परामर्श के लाये गए हैं। इन संशोधनों को केवल अंग्रेजी में ज़ारी किया गया है। ज़ाहिर है, इन संशोधनों को अंग्रेज़ी में लाने के साथ सरकार की मंशा वैसे भी पूर्व-विधान परामर्श के नियमों का पालन करना नहीं थी। यह समूची प्रक्रिया अपने आप में जैव विविधता की मूल मंशाओं के विपरीत केंद्रीकृत, प्रतिगामी और आत्म-विरोधाभासी है।

कानून की धारा 2 (ज) में लोक क़िस्मों और भू-प्रजातियों जैसी असपष्ट परिभाषाओं के नए उपवाक्यों (क्लॉज़) के जोड़े जाने के साथ प्रस्तावित संशोधन ‘पौधा किस्‍म और कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 2001’ के तहत किसानों द्वारा अपने खेत में परंपरागत रूप से जोते जाने और विकसित किए जाने की ‘कृषक किस्म’ की परिभाषा और मान्यता के विपरीत हैं। नयी शब्दावलियों के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों-निगमों के लिए रास्ते खुल जाएंगे जो कृषक क़िस्मों को नए प्रणालियों के साथ विकसित करने के नाम पर कृषि संबंधी परंपरागत प्रणालियों-संप्रभु अधिकारों का अधिग्रहण करने के फिराक में हैं।

संहिताबद्ध पारंपरिक ज्ञान के लिए पूर्व अनुमति से छूट ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के हितों के लिए हानिकारक होगा। तस्वीर- रॉय/पिक्साहाइव
संहिताबद्ध पारंपरिक ज्ञान के लिए पूर्व अनुमति से छूट ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के हितों के लिए हानिकारक होगा। तस्वीर– रॉय/पिक्साहाइव

मूल कानून की धारा 41 में संशोधन से लेकर प्रबंधन संबन्धित दूसरे तमाम संशोधनों को साथ देखने पर साफ ही समझ आता है कि नए संशोधन बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विशेष रूप से आयुष उद्योग सहित निजी निगमों को लाभ प्रदान करने के उद्देश्य के तहत लाये गए हैं, जिसकी मंशा जैव विविधता कानून के अंतर्गत स्थानीय स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियों के संप्रभु अधिकारों को सीमित करते हुये उन्हें केंद्र द्वारा नियंत्रित प्रणालियों के अधीन करना है। इससे जैव संसाधनों का अपरिवर्तनीय दोहन और कई मूल्यवान पौधों की प्रजातियों पर नियंत्रण और उनके विलुप्त होने का ख़तरा है।

सामान्य जन के साथ नहीं खड़ा दिखता यह परिवर्तन

नए विधेयक के उद्देश्यों और कारणों का विवरण देते हुये पर्यावरण मंत्री ने अपने संलग्न वक्तव्य के बिन्दुवार 5 में स्पष्ट किया है कि ये संशोधन ‘सहयोगी अनुसंधान और निवेश के लिए अनुकूल वातावरण को प्रोत्साहित करने, पेटेंट आवेदन प्रक्रिया को सरल बनाने, स्थानीय समुदायों के साथ पहुंच और लाभ साझा करने के दायरे को बढ़ाने और जैविक संसाधनों के आगे संरक्षण के लिए’ के इरादे से लाये गए हैं।

इससे स्पष्ट है कि प्रस्तावित संशोधनों का उद्देश्य दुनिया भर से विदेशी-निजी निगमों, अनुसंधान संगठनों और कॉर्पोरेट डेटा एजेंसियों द्वारा भारत की जैव विविधता और संबंधित ज्ञान-जानकारी तक व्यापक पहुंच हासिल करना है। ‘संरक्षण’, ‘जैव विविधता के संरक्षण’ और ‘स्थानीय समुदायों के ज्ञान’ के विपरीत विधेयक का मुख्य फोकस जैव विविधता में व्यापार को सुविधाजनक बनाना है।

अब संहिताबद्ध पारंपरिक ज्ञान, औषधीय पौधों की खेती के लिए और पंजीकृत आयुष चिकित्सकों को कुछ खास उद्देश्यों के अंतर्गत जैविक संसाधन प्राप्त करने के लिए राज्य जैव विविधता बोर्ड (एसबीबी) को पूर्व सूचित करने की ज़रूरत नहीं होगी। कानून की धारा 7 में इस नए संशोधन के साथ यह स्पष्ट ही समझ आता है यह बदलाव जैवविविधता संरक्षण के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध मात्र आयुष कंपनियों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से लाया गया है। साथ ही औषधीय पौधों को अधिनियम के दायरे से छूट आयुष निर्माण कंपनियों और निगमों के लिए किसी भी अनुमोदन से छूट लेने के लिए एक और रास्ता देता है। यह प्रावधान केवल बड़ी कंपनियों को स्थानीय समुदायों के पूर्व सहमति-अनुमोदन तथा पहुंच और लाभ के साझाकरण (एक्सेस और बेनिफिट शेयरिंग) की व्यवस्था से छूट देने की मंशा से लाया गया है। कहना न होगा कि यह संशोधन वन अधिकार अधिनियम, 2006 का भी उल्लंघन करता है जो ग्राम सभा को वनों के संरक्षण, संरक्षण और प्रबंधन के लिए सर्वोच्च प्राधिकरण के रूप में मान्यता देता है और अधिकृत करता है। साथ ही संहिताबद्ध पारंपरिक ज्ञान के लिए पूर्व अनुमति से छूट ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के हितों के लिए हानिकारक होगा। पारंपरिक ज्ञान के उपयोग से होने वाले लाभों से समुदायों को लाभ होना चाहिए। यदि संरक्षक विशेष रूप से ज्ञात नहीं है, तो पहुंच और लाभ साझा करने की राशि का उपयोग संरक्षण गतिविधियों के लिए किया जा सकता है। भारतीय पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करके विदेशों में काम कर रही कंपनियों की पहचान करना राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के लिए असंभव होगा और इससे बायोपाइरेसी के द्वार खुलेंगे।

मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व से सटे गांव में महुआ का फल (गुली) इकट्ठा करती एक आदिवासी महिला। सामुदायिक वन अधिकार न मिलने की वजह से ग्रामीणों को जंगल जाकर वनोपज इकट्ठा करने में परेशानी आती है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे
औषधीय पौधों को अधिनियम के दायरे से छूट आयुष निर्माण कंपनियों और निगमों के लिए किसी भी अनुमोदन से छूट लेने के लिए एक और रास्ता देता है। तस्वीर- मनीष चंद्र मिश्र/मोंगाबे

इसी प्रकार कानून की धारा 3 (ज) और धारा 8, 9, 10, 13, 15, 16 में प्रस्तावित संशोधनों के मुताबिक राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) में सचिव का नया पद जोड़ा गया है, जिससे एन बी ए को केंद्र द्वारा नियंत्रित करने का रास्ता खोल दिया गया है। नियंत्रण और अंकुश के केंद्रीय कवायदों के वर्तमान दौर में यह संशोधन सरकार का अगला कदम है। साथ ही अब एक बार राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण से अनुमति प्राप्त करने के बाद बिना किसी प्रतिबंध या एनबीए के संज्ञान के किसी भी तीसरे पक्ष को जैविक संसाधन या ज्ञान हस्तांतरित किया जा सकेगा। ऐसे में बीजों के व्यवसायीकरण की संभावना बढ़ जाएगी, जो जैवविविधता कानून के मूल उद्देश्यों के पूरी तरह खिलाफ है।  

धारा 21 (1) में नए बदलावों के अंतर्गत ‘लाभ के बंटवारे के लिए दावेदारों और स्थानीय निकायों’ की विकेंद्रीकृत परिभाषा केंद्र के निर्धारणों पर आश्रित है। साथ ही अब स्थानीय निकायों के बजाय जैव विविधता प्रबंधन समितियों का गठन राज्य जैव विविधता बोर्ड भी कर सकेंगे। व्यावसायिक हितों को तरजीह देती यह केंद्रीकृत व्यवस्था स्थानीय समुदायों के अधिकारों का पूरी तरह से हनन करती है।


और पढ़ेंः जैव विविधता संशोधन कानून का महत्व क्या है और क्यों हुआ इसका विरोध?


नए बदलावों के मुताबिक अब कानून के उल्लंघन की दिशा में आपराधिक-आर्थिक दंड के बजाय सिर्फ आर्थिक दंड का ही प्रावधान होगा। धारा 55 में इस संशोधन के बाद अब सवाल यह है कि क्या बड़े निगमों-कंपनियों द्वारा बड़े लाभ की दिशा में किए गए कानूनी उल्लंघन को मात्र आर्थिक दंड रोक सकने  में सफल होंगे? या फिर सरकार ने व्यावसायिक हितों की सुरक्षा को जैव-विविधता संरक्षण के ऊपर तरजीह देने का पूरी तरह से मन बना लिया है?

कानून की धारा 3 और 4 में नए बदलावों के बाद अब राष्ट्रीय जैव प्राधिकरण के पूर्व अनुमोदन के साथ भारत के भीतर या बाहर वाणिज्यिक उपयोग और बौद्धिक संपदा अधिकारों की अनुमति होगी। यह सीधे-सीधे स्थानीय समुदायों, पंचायती राज, राज्यों के अधिकारों का हनन है। यह स्पष्ट रूप से जैव विविधता और बौद्धिक सम्पदा को दांव पर लगाते हुये बायोपाइरेसी और वाणिज्यिक उपयोग का मार्ग प्रशस्त करता है।

नए संशोधनों की बारीकियों और जैव विविधता से जुड़े तमाम राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहलुओं से अवगत होने पर सरकार की मंशा स्पष्ट ही दिखती है। शायद इसीलिए संशोधनों को मात्र अंग्रेज़ी में लाया गया जिससे समुदायों को उनके पारंपरिक संसाधनों की लूट की खबर ही न मिल सके।

ज़ाहिर ही है कि ये संशोधन तमाम अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय समझौतों-सिद्धांतों-क़ानूनों को ताक पर रख कर लाये गए हैं, जिनका जैव विविधता के संरक्षण से कोई संबंध नहीं है। वाणिज्यिक निवेश को बढ़ाने की दिशा में कानून में ये बदलाव घातक साबित होने वाले हैं। यही कारण है कि ये बदलाव देश भर के तमाम जनसंगठनों और पर्यावरणविदों के आंख की किरकिरी बने हुये हैं। लेकिन क्या जैव विविधता के संरक्षण की मूल मंशा से विपरीत ये बदलाव अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर भी देश की छवि के लिए ठीक होंगे? क्या जैव विविधता और सांस्कृतिक विविधता के साथ ऐसा बर्ताव स्थानीय परंपरागत समुदाय होने देंगे? जलवायु परिवर्तन के प्रति वर्तमान चिंताओं के दौर में ऐसा संभव तो नहीं दिखता।

 

बैनर तस्वीरः भारत में जंगलों में पारंपरिक तौर से निवास करने वाले लोग वन पर निर्भर हैं। जैव विविधता अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव उनके अधिकारों को कमजोर कर सकता है। तस्वीर– इंडिया वाटर पोर्टल/फ्लिकर

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