Site icon Mongabay हिन्दी

हिमाचल में आदिवासियों को उजाड़ती पनबिजली परियोजना

बैनर तस्वीर: बाजोली-होली जलविद्युत परियोजना का एक दृश्य। तस्वीर- विशेष प्रबंध

बैनर तस्वीर: बाजोली-होली जलविद्युत परियोजना का एक दृश्य। तस्वीर- विशेष प्रबंध

  • हिमाचल प्रदेश में प्रभावित ग्रामीण पिछले 15 वर्षों से बजोली-होली जल विद्युत परियोजना का विरोध कर रहे हैं। यह परियोजना 180 मेगावाट क्षमता की है।
  • स्थानीय लोगों का आरोप है कि सुंरग को नदी के दाहिने किनारे से हटा कर अवैज्ञानिक तरीके से जंगल और आबादी वाले क्षेत्र में बनाया गया। इससे नुकसान अधिक हो रहा है।
  • इस परियोजना पर स्थानीय पारिस्थितिकी, मकान, जमीन, स्वास्थ्य खराब करने के आरोप लगते रहे हैं। इससे हिमाचल प्रदेश के गद्दी आदिवासी सबसे अधिक प्रभावित है। परियोजना की वजह से 4,000 ओक (बांज) के पेड़ काटे गए हैं, जिससे जानवरों का चारागाह कम हो गया है।

25 मार्च 2014 की तारीख, हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला स्थित झरौता गांव के लोग इस तारीख को भूल नहीं सकते। इसी दिन कम से कम 31 महिलाओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया था, क्योंकि ये लोग 180 मेगावॉट की बजेली-होली जल विद्युत परियोजना (बीएचएचपीपी) का विरोध कर रहे थे। 

गद्दी जनजाति से वास्ता रखने वाली इन महिलाओं को डर था कि जलविद्युत परियोजना उनके घरों को नष्ट कर देगी और प्राकृतिक जल स्रोतों को सुखा देगी। उन्हें यह डर सता रहा था कि इस परियोजना की वजह से उन्हें अपना घर कभी अचानक से छोड़ना पड़ेगा और वे शरणार्थी बनने के लिए मजबूर हो जाएंगे। उन्होंने ढीली चट्टानों को देखते हुए इस जोखिम की चेतानवी दी थी। 

यह बात आई गई हो गई और आदिवासियों की आशंका और उनके विरोध को नजरअंदाज कर दिया गया। 

आठ साल बाद दिसंबर 2021 में आदिवासियों का डर हकीकत बनकर सामने आया। इन आठ वर्षों में परियोजना के तहत एक सुरंग बनाई गई और दिसंबर में उसका परिक्षण हुआ। परिक्षण के दौरान सुरंग से पानी रिसने लगा और भूस्खलन का कारण बना। इस वजह से झरौता गांव में घरों को नुकसान हुआ। दिसंबर महीने की 19 तारीख को ग्रामीणों ने सुरंग से रिसाव होते देखा। देखते ही देखते 22 दिसंबर तक स्टेट हाईवे के पास के घरों में दरारें दिखने लगीं। 

सावित्री देवी, सैनी राम और जोधा राम तीनों के घरों की दीवारों में भारी दरारें आ गईं। नतीजतन, सावित्री देवी को अपना घर खाली करना पड़ा और उन्हें अपने पशुओं के साथ पास के अस्थायी घर में जाना पड़ा। 

“बांध से रिसने के कारण, हमारे घर में दरारें आ गई थीं, जिससे रहना असंभव हो गया था। घर हमारे ऊपर न गिर जाए, इस डर से रातों में नींद नहीं आती थी। डर के मारे हमने घर छोड़ने का फैसला किया। हमने कभी नहीं सोचा था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा। इस घर को बनाने में हमारी जिंदगी खप गई और इसे इस तरह छोड़ना पड़ रहा है,” सावित्री देवी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। वह एक डेयरी किसान हैं और पशुपालन से उनका घर चलता है। 

ग्रामीणों का आरोप है कि घरों में दरारें जल विद्युत परियोजना के कारण हैं। तस्वीर- विशेष प्रबंध
ग्रामीणों का आरोप है कि घरों में दरारें जल विद्युत परियोजना के कारण हैं। तस्वीर- विशेष प्रबंध

भरमौर क्षेत्र में स्थित झरौता गांव की वार्ड सदस्य कविता देवी ने कहा, “हम एक दशक से अधिक समय से विरोध कर रहे हैं। हम यह नहीं कह रहे कि परियोजना बंद हो, बस उसमें कुछ सुधार किया जाए।”

वह आगे कहती हैं, “हमने इसे रावी नदी के दाईं ओर स्थानांतरित करने की मांग की, जो वास्तव में परियोजना की मूल योजना थी। दाहिनी ओर कोई नहीं रहता लेकिन बाईं ओर गद्दी जनजाति के 27 गांव हैं जो खतरे में हैं। गांव का ढलान 60 डिग्री से अधिक है और बड़ी तलछटी चट्टानों से बनी है। ऊपरी मिट्टी की परत कम घनी होती है। इसकी बनावट ऐसी होती है कि पानी के रिसाव से ये कमजोर पड़ सकती हैं। हुआ भी यही, बांध से पानी के रिसाव ने तलछटी चट्टानों के ब्लॉक में दरारें बना दी हैं। ढलान अधिक होने के कारण जमीन खिसकने का डर है।”

चंबा के गांव बजोली में रावी नदी पर बीएचएचपीपी की एक रन-ऑफ-द-रिवर परियोजना है। ‘रन ऑफ द रिवर’ परियोजना के तहत वादियों के जल प्रवाह में बिना बाधा डाले जल-विद्युत का उत्पादन किया जाता है। इसमें बड़े बांध बनाने की जरूरत नहीं होती और जल प्रवाह का उपयोग कर बिजली पैदा की जाती है। 

साल 2004 में केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) ने परियोजना की प्री फिजिबिलिटी रिपोर्ट तैयार की, जो नदी के दाहिने तरफ के डिजाइन पर आधारित थी। 2007 में, हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत बोर्ड (एचपीएसईबी) ने एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट भी तैयार की, जो भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के वैज्ञानिक तथ्यों के साथ दाहिने किनारे पर  आधारित थी।

सुरंग में पानी छोड़ने के बाद पहाड़ों में दरारें दिखने लगीं। तस्वीर- विशेष प्रबंध
सुरंग में पानी छोड़ने के बाद पहाड़ों में दरारें दिखने लगीं। तस्वीर- विशेष प्रबंध

जुलाई 2007 में, जीएमआर समूह को जलविद्युत परियोजना का ठेका दिया गया। कंपनी ने फरवरी 2008 में पर्यावरण मंत्रालय से पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) अध्ययन करने की शर्त पर प्राप्त की थी। यह भी राइट-बैंक (दाहिने किनारे) के डिजाइन पर आधारित था। इसके तहत यह घोषणा भी शामिल थी कि परियोजना में कोई वन भूमि या निवास प्रभावित नहीं होगा। दिसंबर 2008 में, जीएमआर ने परियोजना को बंजर और निर्जन दाहिने किनारे से नदी के बाएं किनारे पर स्थानांतरित कर दिया। उस समय कथित तौर पर ऐसा कहा गया कि ऐसा करना अधिक उपयुक्त है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि परियोजना की संरचना में बदलाव का कारण लागत कम करना था। क्योंकि बाएं किनारे पर पहले से ही एक सड़क और अन्य बुनियादी ढांचा मौजूद है। जबकि दाहिने किनारे पर यह सब शुरू से बनाना होता। 

19 अप्रैल, 2010 को परियोजना के लिए जीएमआर द्वारा आयोजित पहली पर्यावरण मंजूरी सार्वजनिक सुनवाई में प्रस्तावित योजना के विरोध में लोगों के साथ भारी हंगामा हुआ। तत्कालीन उपायुक्त ने कंपनी को क्षेत्र के सभी पांच ग्राम परिषदों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) प्राप्त करने का आदेश दिया। जीएमआर ने कहा कि प्रत्येक ग्राम परिषद के भीतर राजनीतिक रूप से मजबूत लोगों ने उनके पक्ष में बात की। लेकिन दो ग्राम परिषदों ने बड़ी वन भूमि के डायवर्जन और आजीविका के संभावित नुकसान का हवाला देते हुए अपना समर्थन वापस ले लिया।

ग्रामीणों ने विरोध किया तो अधिकारियों ने शिफ्टिंग पर एचपीएसईबी की राय मांगी। एचपीएसईबी के मुख्य अभियंता ने (2011 में एक बयान में) कहा था, “एचपीएसईबी ने आर्थिक और सामाजिक पहलुओं पर विचार करते हुए परियोजना को रावी नदी के दाहिने किनारे पर लगाने पर विचार किया है। 

जल विद्युत परियोजना का विरोध करती महिलाएं। तस्वीर- विशेष प्रबंध
जल विद्युत परियोजना का विरोध करती महिलाएं। तस्वीर- विशेष प्रबंध

प्रोजेक्ट से जुड़े मामले कोर्ट तक पहुंचे लेकिन रिव्यू पिटीशन तक खारिज कर दिया गया। जो एजेंसियां ​​पहले परियोजना को बाएं किनारे पर स्थानांतरित करने के पक्ष में नहीं थीं, उन्होंने बाद में बाएं किनारे पर परियोजना के निर्माण के लिए पर्यावरण, वन और तकनीकी-आर्थिक मंजूरी दी। जनवरी 2013 में, एक और बड़ा विरोध तब हुआ जब परियोजना प्रस्तावक ने परियोजना पर निर्माण के लिए पेड़ों को काटना शुरू कर दिया। लोगों की मुख्य मांग परियोजना की सुरंग में मूल रूप से योजना के अनुसार दाईं ओर वापस जाने की थी।

स्वच्छ ऊर्जा की कीमत

हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण निगरानी समूह हिमधारा कलेक्टिव की एक रिपोर्ट के मुताबिक  बीएचएचपीपी को दी गई पर्यावरण मंजूरी के अनुसार, परियोजना के लिए कुल 85.70 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता है। इसमें से 18 हेक्टेयर जल के भीतर है और शेष 67 हेक्टेयर में से लगभग 23 हेक्टेयर या लगभग 40 प्रतिशत भूमि को परियोजना के लिए डायवर्ट किया गया है। इसका उपयोग ‘वन’ भूमि पर मलबा फेकने के लिए किया जाना है। 

रिपोर्ट में कहा गया है कि 2013 से 2018 तक परियोजना के लिए पर्यावरण मंजूरी से संबंधित दस्तावेजों में पाया गया कि लगभग हर साल कारण बताओ नोटिस जारी करने के बावजूद उल्लंघन जारी रहा। ये सारे उल्लंघन कचरा डंपिंग से संबंधित थे। 

दिसंबर 2021 की दुर्घटना के बारे में बात करते हुए, हिमधारा कलेक्टिव के सह-संस्थापक, मानशी आशेर ने एक बयान में कहा कि लोगों ने प्रशासन को इसके बारे में चेतावनी दी थी कि इस क्षेत्र की जमीन काफी नाजुक है। इसका असर लोगों के जीवन पर होगा लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। 

उन्होंने आगे कहा, “यह अपनी तरह की पहली घटना नहीं है।  ऐसे खतरे परियोजना के हर चरण में सामने आते रहे हैं, जैसे निर्माण के दौरान विस्फोट के कारण, परीक्षण के दौरान और परियोजना चालू होने के बाद भी। एक बार जब ढलानों को अस्थिर कर दिया जाता है तो क्षेत्र का भूविज्ञान बिगड़ जाता है। स्थानीय जनजीवन पर इसका प्रभाव होना तय है। यह सब योजना और प्रभाव मूल्यांकन चरण के दौरान देखा जाना चाहिए था। हालांकि, उस समय एजेंसियों का सरोकार किसी तरह से केवल मंजूरी लेने से होता है।

क्षेत्र को अस्थिर करने के अलावा, बीएचएचपीपी ने गद्दी जनजाति सहित स्थानीय लोगों के जीवन और आजीविका को भी प्रभावित किया है। यहां आय का प्रमुख स्रोत फसल और डेयरी है। मवेशियों का चारा गांव के पास ओक के जंगलों पर निर्भर है। 

परियोजना की वजह से पिछले 10 वर्षों में लगभग 4,000 ओक के पेड़ों को काट दिया गया है। तस्वीर- विशेष प्रबंध
परियोजना की वजह से पिछले 10 वर्षों में लगभग 4,000 ओक के पेड़ों को काट दिया गया है। तस्वीर- विशेष प्रबंध

“आस-पास का जंगल मवेशियों के चरने की भूमि और सर्दियों के लिए सूखी लकड़ी का मुख्य स्रोत है। लेकिन परियोजना की वजह से पिछले 10 वर्षों में लगभग 4,000 ओक के पेड़ों को काट दिया गया है। इससे मवेशियों को चराने और सूखी लकड़ी का संग्रह करना मुश्किल हो गया है,” झरौता गांव के एक शिक्षक अनूप झडोटा ने कहा।

“जंगल अब बिजलीघर, स्टोर, प्रेशर शाफ्ट और सड़कों में बदल गया है। बचे हुए पेड़ भी डूब क्षेत्र में आ जाएंगे। एक दशक पहले उनके पास 70-80 भैंसें थीं जो अब घटकर 15-20 हो गई हैं,” उन्होंने आगे कहा।

जलविद्युत को ऊर्जा का एक स्वच्छ स्रोत माना जाता है। सरकार द्वारा कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए इसे ऊर्जा के एक अच्छे स्रोत के रूप में प्रोत्साहित किया जाता है। लेकिन हिमाचल सरकार के आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ द्वारा प्रकाशित एक भूस्खलन जोखिम मूल्यांकन रिपोर्ट में पाया गया कि बड़ी संख्या यानी 67 जलविद्युत स्टेशन भूस्खलन के के खतरे में हैं। इसमें 10 मेगा जल विद्युत स्टेशन, मध्यम और उच्च जोखिम भूस्खलन क्षेत्र में मौजूद हैं।”

“झरौता में लोगों की दुर्दशा इसका स्पष्ट उदाहरण है। सरकारी संस्थानों द्वारा वैज्ञानिक अध्ययनों की गंभीर कमी है। जलविद्युत परियोजनाओं ने नाजुक भूविज्ञान को और अधिक नुकसान करने का कारण बनी। यह सरकार की गलत प्राथमिकताओं को दिखाता है, जो जलविद्युत को बिजली के स्वच्छ और नवीकरणीय स्रोत के रूप में प्रोत्साहित करते हैं, और पारिस्थितिकी को नजरअंदाज करते हैं,” आशेर ने जोर देकर कहा।

हिमधारा के अनुसार, हिमाचल प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एचपीएसपीसीबी) और स्थानीय समुदायों सहित अन्य गैर-सरकारी संस्थाओं ने पाया है कि यहां नियमों का पालन नहीं हो रहा है। एचपीएसपीसी डंपिंग की प्रभावी निगरानी करने में विफल रहा है।

भरमौर के उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम), मनीष सोनी ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि उन्होंने क्षेत्र में बीएचएचपीपी के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए भूवैज्ञानिकों को बुलाया है और रिपोर्ट मिलते ही उचित कार्रवाई करेंगे। मोंगाबे-हिन्दी ने जीएमआर से इस मामले पर बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने किसी भी टिप्पणी से इनकार किया।

क्या पलायन ही एकमात्र विकल्प?

2019 में, जनजातीय मामलों के मंत्रालय के एक बयान में कहा गया है कि अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को उनकी भूमि या परिसर से गलत तरीके से बेदखल करना दंडनीय अपराध है। 

इसके अलावा किसी भी भूमि या परिसर या पानी या सिंचाई सुविधाओं पर वन अधिकारों सहित उनके अन्य अधिकारों में भी हस्तक्षेप जायज नहीं है। उनकी फसलों को नष्ट करना या उससे उपज ले जाना अत्याचार की श्रेणी में आता है और इन सब मामलों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत दंड का प्रावधान है। 


और पढ़ेंः हर साल जलवायु परिवर्तन का दंश झेलता हिमाचल प्रदेश


एसडीएम सोनी ने कहा कि ग्रामीण चाहें तो कंपनी के खिलाफ इस तरह के मामले को आगे बढ़ा सकते हैं।

भरमौर के सत्ताधारी दल बीजेपी विधायक जिया लाल ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि उन्होंने नुकसान की सूची तैयार की और जीएमआर को ग्रामीणों को नुकसान का भुगतान करने के लिए कहा।

लेकिन यह पूछे जाने पर कि क्या इससे समस्या हल हो जाएगी या स्थायी उपाय करने की कोई योजना है, तो उन्होंने कहा, “लोगों को पलायन करना पड़ता है तो नए घरों का निर्माण जीएमआर द्वारा किया जाएगा। यदि क्षेत्र रहने के लिए उपयुक्त नहीं है, तो लोगों को अपने जीवन के बारे में सोचना चाहिए और कहीं और पलायन करना चाहिए।”

जब यह पूछा गया कि इस तरह से सभी को विस्थापित किया जाएगा तो विधायक ने कहा कि परियोजना रातोंरात नहीं बनती है और ग्राम परिषदों को (पहले) विरोध करना चाहिए था। “भरमौर में, 12 बिजली परियोजनाएं हैं। तीन बिजलीघरों चमेरा में भी है। वहां से लोग पलायन कर चुके हैं। यहां भी लोगों को पलायन करना चाहिए। भूमि अब रहने योग्य नहीं है।”

 

बैनर तस्वीर: बाजोली-होली जलविद्युत परियोजना का एक दृश्य। तस्वीर- विशेष प्रबंध

Exit mobile version