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आईपीसीसी की नई रिपोर्ट ने कहा, ग्लोबल वार्मिंग रोकना लगभग असंभव, आशा की किरण भी दिखाई

भारत के राज्य तेलंगाना में बना सौर ऊर्जा का प्लांट। फोटो- थॉमस लॉयड ग्रुप/विकिमीडिया कॉमन्स

भारत के राज्य तेलंगाना में बना सौर ऊर्जा का प्लांट। फोटो- थॉमस लॉयड ग्रुप/विकिमीडिया कॉमन्स

  • वैश्विक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन 2025 तक अपने सबसे ऊंचे स्तर पर रहना चाहिए और 2030 तक यह 43 प्रतिशत कम होना चाहिए। अगर ऐसा हो पाया तो धरती का तापमान करीब 1.5 डिग्री सेल्सियस तक ही बढ़ेगा।
  • 2010-2019 में औसत वार्षिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन स्तर मानव इतिहास में सबसे अधिक रहा पर उसके बाद विकास दर धीमी हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सभी क्षेत्रों में तत्काल और उत्सर्जन में बड़ी कमी की आवश्यकता है।
  • धरती को गर्म होने से रोकने के लिए अभी जो वित्तीय प्रवाह है वह पर्याप्त नहीं है। इसे तीन से छह गुना बढ़ाने की जरूरत है।

जलवायु परिवर्तन के बढ़ते सबूतों की ओर इशारा करते हुए, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन 2025 तक तक चरम पर होना चाहिए और फिर इसमें कमी आनी चाहिए। अगर इस उत्सर्जन में 2030 तक 43% तक की कमी लाई जाए वार्मिंग को लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित किया जा सकेगा। 

साथ ही, पैनल का कहना है कि मीथेन उत्सर्जन को भी लगभग एक तिहाई कम करने की आवश्यकता होगी।

“अगर हम ऐसा कर भी पाए तो भी ग्लोबल वार्मिंग को स्थायी रूप से रोकना लगभग असंभव है। तापमान 1.5 डिग्री से ऊपर जाएगा। पर इन उपायों से इस सदी के अंत तक इसे पुनः नीचे कर सकते हैं,” रिपोर्ट में कहा गया है। 

वैश्विक तापमान तब जाकर स्थिर होगा जब कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नेट जीरो तक पहुंच जाएगा। इसका मतलब है कि 2050 के दशक की शुरुआत में वैश्विक स्तर पर नेट जीरो कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करना जरूरी है ताकि पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़े। अगर लक्ष्य 2 डिग्री सेल्सियस का है तो भी 2070 के दशक की शुरुआत में नेट जीरो हासिल करना ही होगा। नेट जीरो से तात्पर्य उत्सर्जन की मात्रा को इस स्तर लाना जिसे सोखने की क्षमता मौजूद हो। 

“रिपोर्ट क्लाइमेट चेंज 2022: मिटिगेशन ऑफ क्लाइमेट चेंज बाय ‘वर्किंग ग्रुप III” आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट (एआर 6) की तीसरी और अंतिम किस्त है। यह पेरिस के लक्ष्यों के अनुरूप 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए उत्सर्जन के वर्तमान रुझानों, भविष्य के वार्मिंग के अनुमानित स्तर और निम्न कार्बन अर्थव्यवस्था में बदलावों की जांच करता है।

जोयश्री रॉय रिपोर्ट की अध्याय पांच की प्रमुख लेखकों में शुमार हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि अगले कुछ वर्ष बहुत महत्वपूर्ण होने जा रहे हैं। इस दौरान कई देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के काम में तेजी ला रहे हैं। 

वर्तमान ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन प्रवृत्ति पर प्रकाश डालते हुए, रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि 2010-2019 में मानव इतिहास में औसत दशकीय उत्सर्जन में सबसे अधिक वृद्धि देखी गई। लेकिन विकास दर धीमी हो गई है। उस अवधि में औसतन, मनुष्यों ने प्रति वर्ष प्रति वर्ष 56 गीगाटन कार्बन उत्सर्जन (GtCO2eq) किया। मानव-जनित जीएचजी उत्सर्जन 2019 में 59 GtCO2eq तक पहुंच गया, जो 1990 के बाद का उच्चतम स्तर है।  इसके पीछे मुख्य स्रोत जीवाश्म ईंधन और उद्योग रहे। पैनल के अनुसार उत्सर्जन सभी क्षेत्रों में ऊपर था।

आईपीसीसी की रिपोर्ट ने ऊर्जा क्षेत्र में प्रमुख बदलावों का समर्थन किया जिसमें जीवाश्म ईंधन के उपयोग में पर्याप्त कमी शामिल है। तस्वीर- मारेक पिवनिकी/पेक्सल्स
आईपीसीसी की रिपोर्ट ने ऊर्जा क्षेत्र में प्रमुख बदलावों का समर्थन किया जिसमें जीवाश्म ईंधन के उपयोग में पर्याप्त कमी शामिल है। तस्वीर– मारेक पिवनिकी/पेक्सल्स

मानव उत्सर्जन का लगभग 34% ऊर्जा आपूर्ति क्षेत्र से, 24% उद्योग से, 22% कृषि, वानिकी और भूमि उपयोग से, 15% परिवहन से और 6% इमारतों से आया।

मांग, सेवाओं और मिटिगेशन के सामाजिक पहलुओं पर चर्चा करते हुए, रॉय ने कहा कि यह रिपोर्ट लोगों को कार्रवाई के केंद्र में रखती है। यह देखने की कोशिश हो रही है कि व्यक्तिगत रूप से हम क्या कर सकते हैं। मिटिगेशन को हिन्दी में शमन कहते हैं। इसका मतलब है कि जिन जिन कारणों से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसें बढ़ती हैं उन कारणों को कम किया जाए।

आईपीसीसी वर्किंग ग्रुप III के सह-अध्यक्ष प्रियदर्शी शुक्ला ने कहा, “हमारी जीवन शैली और व्यवहार में बदलाव को सक्षम करने के लिए सही नीतियां, बुनियादी ढांचा और प्रौद्योगिकी होने से 2050 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 40-70% की कमी हो सकती है। यह महत्वपूर्ण बात है और इसे अब तक प्रयोग में भी नहीं लाया गया है,”

उन्होंने कहा कि इस बात के सबूत भी हैं कि जीवनशैली में बदलाव हमारे स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है। 

हालांकि, पेरिस समझौते के लक्ष्यों की दिशा में वित्तीय प्रवाह की गति धीमी बनी हुई है। वित्तीय प्रवाह यानी पूंजी का वह संचार जिसके बूते जलवायु परिवर्तन को कम करना और उसके प्रभावों को झेलने की तैयारी हो सकेगी। जलवायु कार्रवाई यानी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए मौजूदा वित्तीय प्रवाह की तुलना में इसे तीन से छह गुना अधिक होना चाहिए।

जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई का सही समय

वर्तमान राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (नेशनल डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन) को देखा जाए तो यह 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने की संभावना है। इस तरह पृथ्वी साल 2100 तक 2.8 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो जाएगी। इसे देखते हुए रिपोर्ट ने ऊर्जा क्षेत्र में प्रमुख बदलावों का समर्थन किया जिसमें जीवाश्म ईंधन के उपयोग में पर्याप्त कमी शामिल है।  व्यापक ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने के लिए विद्युतीकरण, बेहतर ऊर्जा दक्षता और वैकल्पिक ईंधन (जैसे हाइड्रोजन) का उपयोग करने की सिफारिश की गई है। 

शहर और अन्य शहरी क्षेत्र भी उत्सर्जन में कमी के लिए महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करते हैं। इन्हें कम ऊर्जा खपत (जैसे कॉम्पैक्ट, पैदल चलने वाले शहर) बनाकर, कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों जैसे इलेक्ट्रिक व्हीकल और प्रकृति का उपयोग करके कार्बन अपटेक और भंडारण में वृद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। इस तरह के उपाय स्थापित, तेजी से बढ़ते और नए शहरों के लिए अच्छा विकल्प हो सकते हैं।

कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग बड़े पैमाने पर उत्सर्जन में कमी ला सकते हैं। ये बड़े पैमाने पर कार्बन डाइऑक्साइड को संग्रहीत कर सकते हैं। हालांकि, भूमि अकेले अन्य क्षेत्रों में उत्सर्जन की भरपाई नहीं कर सकती। इस तरह के उपाय जैव विविधता को लाभान्वित कर सकते हैं और हमें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को झेलने के लिए सक्षम बना सकते हैं। इससे सुरक्षित आजीविका, भोजन और पानी और लकड़ी की आपूर्ति भी हो सकती है। 


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प्रौद्योगिकी नवाचार भी जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई में सहायक हो सकती है। उदाहरण के लिए पैनल ने भारत सरकार द्वारा नीति मार्गदर्शन पर प्रकाश डाला है, जिसने निजी क्षेत्र के भीतर डेटा, परीक्षण क्षमताओं और ज्ञान के विकास को भी बढ़ावा दिया है। इस तरह देश में एयर कंडीशनर और रेफ्रिजरेटर के लिए ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम को सफलता मिली है। 

पैनल ने बताया कि कई शमन उपाय, जैसे कि सार्वजनिक परिवहन वाहनों का विद्युतीकरण, जलवायु कार्रवाई को बढ़ाने के लिए व्यवहार्य और सस्ती हैं। इनोवेटिव पॉलिसी पैकेजों की वजह से कई कम उत्सर्जन वाली प्रौद्योगिकियों की लागत कम हुई है और इससे वैश्विक स्तर पर अपनाने का रास्ता मिला है। भारत में, विद्युतीकरण, हाइड्रोजन और जैव ईंधन से परिवहन क्षेत्र को कार्बन मुक्त किया जा रहा है। 

भारत में, विद्युतीकरण, हाइड्रोजन और जैव ईंधन से परिवहन क्षेत्र को कार्बन मुक्त किया जा रहा है। तस्वीर- विनीत कौल/विकिमीडिया कॉमन्स
भारत में, विद्युतीकरण, हाइड्रोजन और जैव ईंधन से परिवहन क्षेत्र को कार्बन मुक्त किया जा रहा है। तस्वीर– विनीत कौल/विकिमीडिया कॉमन्स

डिजिटल प्रौद्योगिकियां डीकार्बोनाइजेशन, जलवायु शमन और कई सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (एसडीजी) की उपलब्धि में योगदान कर सकती हैं। पर अगर इनकी उचित निगरानी हो तभी ऐसा संभव होगा। क्योंकि डिजिटलाइजेशन में कई नुकसान भी सामने हैं जैसे कि ई-कचरा बढ़ना, श्रम बाजारों पर नकारात्मक प्रभाव, और मौजूदा डिजिटल भेदभाव। डिजिटल भेदभाव मतलब देश के सभी तबकों के पास डिजिटल साधन एक समान मौजूद नहीं है जिससे न्यायसंगत तरीके से कोई भी उपाय हर किसी तक नहीं पहुंच सकती। 

“उदाहरण के लिए, सेंसर, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से कई क्षेत्रों  की ऊर्जा खपत में सुधार लाया जा सकता है। साथ ही, ये  ऊर्जा दक्षता भी बढ़ा सकते हैं। इनकी मदद से आर्थिक अवसर पैदा किया जा सकता है और विकेंद्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग बढ़ाया जा सकता है,” रिपोर्ट में कहा गया है। 

भारत, जर्मनी और जापान जैसे घनी आबादी वाले देश मोड-शिफ्टिंग का समर्थन करने और व्यापक व्यवहार और जीवन शैली में बदलाव के माध्यम से यातायात की मांग को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी और इंटरनेट ऑफ थिंग्स की मदद लेने की कोशिश हो रही है। पैनल ने कहा कि व्यवहार और जीवनशैली में बदलाव के साथ-साथ निर्णय लेने में हितधारकों की भागीदारी को नई परिवहन नीतियों को लागू करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।

नवीकरणीय ऊर्जा के लिए एक आशाजनक संकेत में, पैनल ने कहा कि 2010 से सौर ऊर्जा (85%), पवन ऊर्जा (55%), और लिथियम-आयन बैटरी (85%) की इकाई लागत में निरंतर कमी आई है।  

भारत का सौर कार्यक्रम नेशनल डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन में एक प्रमुख तत्व है। यह दर्शाता है कि विकास और राष्ट्रीय विकास योजनाओं में मिटिगेशन के बारे में चिताएं पहले से ही शामिल हैं । आने वाले समय में यह कार्यक्रम न केवल ऊर्जा प्रदान कर सकता है बल्कि मिटिगेशन में भी योगदान दे सकता है। इससे आर्थिक विकास को भी बढ़ावा मिलेगा और हर किसी तक ऊर्जा की पहुंच और रोजगार के अवसरों में सुधार भी आ सकता है। पर ऐसा तब होगा जब नीतिगत उपायों की सावधानीपूर्वक तैयार और कार्यान्वित की जाए। हालांकि, हरित हाइड्रोजन, परमाणु या कार्बन कैप्चर, उपयोग और भंडारण (सीसीयूएस) जैसे विकल्पों की संभावना के आलोक में सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के संबंध में बदलाव के पर्यावरणीय प्रभावों की सावधानीपूर्वक जांच करने की भी आवश्यकता है।


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रिपोर्ट में कहा गया है कि 2050 तक कोयला, तेल और गैस का उपयोग क्रमशः 100%, 60% और 70% कम हो सकता है, जो सफलतापूर्वक वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकता है।

 भारत के बिजली क्षेत्र के मामले में, कुछ अध्ययनों से संकेत मिलता है कि यहां सीसीएस यानी कार्बन कैप्चर और सीक्वेस्ट्रेशन की आवश्यकता है। नवीकरणीय क्षेत्र की ओर जिस रफ्तार से बढ़ा जा रहा है इसमें आगे चुनौतियां भी आ सकती है। अक्षय ऊर्जा को व्यवस्थित रूप से एकीकृत करने में महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि मौजूदा अध्ययन अनिश्चित लागत, लाइफ साइकल और नेट जीरो सहित अन्य जैव-भौतिक संसाधन जरूरतों और सामाजिक स्वीकृति सहित सीसीएस की सीमाओं को स्वीकार करते हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 2050 तक कोयला, तेल और गैस का उपयोग क्रमशः 100%, 60% और 70% कम हो सकता है, जो सफलतापूर्वक वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकता है। तस्वीर- मयंक अग्रवाल / मोंगाबे

डिमांड साइड मिटिगेशन यानी मांग पक्ष में जलवायु परिवर्तन रोकने के उपायों पर भी रिपोर्ट में चर्चा हुई है। “मांग पक्ष अध्याय कहता है कि हम अपनी आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों को कैसे पुनर्गठित करें ताकि कम ऊर्जा का उपयोग करते हुए लोगों की भलाई हो सके। यह अध्याय स्पष्ट रूप से कहता है कि ऐसा करना संभव है,” जॉयश्री रॉय ने कहा।

“पहली बार ठोस मापने योग्य शर्तों में 2020 की तुलना में 2050 तक कुल वैश्विक शमन लक्ष्यों की बात सामने आई है। ऊर्जा आपूर्ति क्षेत्र पर उत्सर्जन में कमी का बोझ पूरी तरह से डालने के बजाय, बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकियों को लोगों तक पहुंच को बदलकर बोझ को कम किया जा सकता है,” उन्होंने कहा।  

“उदाहरण के लिए, यदि हम खाद्य अपशिष्ट में कमी को देखते हैं, तो यह एक विकल्प है जिसे हर कोई अपना सकता है। यदि आप भोजन की पूरी आपूर्ति श्रृंखला में बदलाव करेंगे तो वास्तव में खाद्य अपशिष्ट को कम किया जा सकता है। या इसका उपयोग पेड़-पौधों के लिए खाद के रूप में किया जा सकता है। यह पोषण के स्तर को बनाए रखने की आवश्यकता को ध्यान में रखता है और वैश्विक आबादी में कमजोर  तबके के 25% कुपोषण की समस्या का भी समाधान है,” रॉय ने विस्तार से बताया।

“विकसित देशों – विशेष रूप से चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ – को अपने जलवायु शमन प्रयासों को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाना चाहिए क्योंकि ये तीन बड़े उत्सर्जक अकेले 2030 तक उपलब्ध कार्बन क्रेडिट का 45% उपभोग करेंगे। विकसित देशों को भी भारत जैसे विकासशील देशों में जलवायु शमन प्रयासों में तेजी लाने के लिए प्रौद्योगिकी और वित्त प्रदान करने के अपने लंबे समय के वादे को पूरा करने और बढ़ाने की जरूरत है, ”आईपीपीसी के सह लेखक और सीईईडब्लू से जुड़े वैभव चतुर्वेदी ने कहा।

 

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बैनर तस्वीरः भारत के राज्य तेलंगाना में बना सौर ऊर्जा का प्लांट। तस्वीर– थॉमस लॉयड ग्रुप/विकिमीडिया कॉमन्स

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