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[कॉमेंट्री ] पंचायती राज: 30 साल में कितना मजबूत हुआ लोकतंत्र?

मेंधालेखा में ग्राम सभा की बैठक। तस्वीर- मेंधालेखा / विकिमीडिया कॉमन्स

मेंधालेखा में ग्राम सभा की बैठक। तस्वीर- मेंधालेखा / विकिमीडिया कॉमन्स

  • इस साल तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के 30 साल पूरे हो गए हैं। साल 1992 में संविधान में संशोधन के साथ इस पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत हुई थी।
  • इस 73वें संशोधन की वजह से आदिवासी क्षेत्रों (अनुसूचित क्षेत्रों) में पंचायती राज के विस्तार और वन अधिकारों के लिए कानून बने।
  • अपनी टिप्पणी में सी आर बिजॉय लिखते हैं कि लोकतंत्र को बिना मजबूत किये सत्ता के विकेन्द्रीकरण की 30 वर्षों की यह कहानी आशा से निराशा की तरफ जाती है।
  • इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी राय है।

भारत में लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करने के लिहाज से साल 1992 को मील का पत्थर माना जाता है। तीन दशक पहले इसी साल संविधान में 73वां (पंचायती राज के लिए) और 74वां (नगरपालिका और शहरी स्थानीय निकायों के लिए) संशोधन किया गया था। आज़ादी के बाद राजनीतिक लोकतंत्र को निचले पायदान तक ले जाने की दिशा में यह पहला ऐतिहासिक कदम था। इन संशोधनों का मकसद संविधान के अनुच्छेद 40 को हकीकत में बदलना था। संविधान का अनुच्छेद 40 नीति निदेशक सिद्धांतों में से एक सिद्धांत को समेटे हुए है और इसमें राज्य को ग्राम पंचायतों के गठन और पावर देने का सुझाव दिया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य न केवल ग्राम पंचायत को संगठित करे बल्कि इतनी शक्ति और अधिकार दे कि वे स्वशासन की एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें। 

लेकिन सामंती सोच वाले शासक वर्ग को ये भरोसा करने में चार दशक लग गए कि लोग खुद से खुद पर शासन कर सकते हैं। दरअसल, तब शासक वर्ग, कमांड और कंट्रोल लाइन, पर बहुत ज्यादा निर्भर था। स्वतंत्रता के वक्त भारत को औपनिवेशिक प्रशासन के तरीके विरासत में मिले थे। इन तरीकों को ईजाद ही इसलिए किया गया था कि एक गुलाम देश और उसके लोगों पर आसानी से शासन किया जा सके।

आजादी के संघर्ष में यह खयाल भी शामिल था कि भविष्य में शासन करने के इन तरीकों का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा।

अतीत की बातें 

प्राचीन काल से ही भारत में ‘लोकतांत्रिक’ संस्थाओं का लंबा इतिहास रहा है। साझा संप्रभुता के आधार पर जुड़े इस समाज में, शक्ति और अधिकार का बंटवारा कुछ ऐसा रहा है कि गांव, स्वशासी ग्राम गणराज्य के रूप में कार्य करते रहे हैं।

भारत के कार्यवाहक गवर्नर-जनरल (1835-38) चार्ल्स टी. मेटकाफ ने लिखा था, “ग्राम समुदाय छोटे गणराज्य हैं, उनके पास अपनी जरूरत भर का लगभग सब कुछ मौजूद है.. केन्द्रीय सत्ता में कई वंश का शासन रहा। सब आए और निपट गए। पर ग्राम समुदाय जस के तस है…… ग्राम समुदायों के इस संघ ने, अपने आप में एक अलग छोटे राज्य का गठन कर लिया है। भारत के लोगों के संरक्षण में इसने किसी भी अन्य वजहों से अधिक योगदान दिया है।”

भारत की लगभग 66 से 69% आबादी गांवों में रहती है और देश के कुल क्षेत्र का लगभग 90% भूभाग ग्रामीण शासन के दायरे में आता है। तस्वीर- टिमोथी ए गोंसाल्वेस / विकिमीडिया कॉमन्स
भारत की लगभग 66 से 69% आबादी गांवों में रहती है और देश के कुल क्षेत्र का लगभग 90% भूभाग ग्रामीण शासन के दायरे में आता है। तस्वीर– टिमोथी ए गोंसाल्वेस / विकिमीडिया कॉमन्स

पर अंग्रेजी हुकूमत में कर इत्यादि के संग्रह और लोगों तक सुविधाएं ले जाने के लिए मध्यस्थ ढांचे का खूब विकास हुआ और इस तरह ग्राम सभा के अधिकार कम होते गए। 1919 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट ने लोकप्रिय जनादेश के आधार पर स्थानीय स्वशासी संस्थाओं के लिए मार्ग प्रशस्त किया जिसका स्थानीय मामलों पर नियंत्रण होना था। ग्राम पंचायत अधिनियम को तब के मद्रास, बॉम्बे, मध्य प्रांत, बरार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार, असम और पंजाब में लागू किया गया। गर्वनमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 ने प्रांतीय स्वायत्तता और निर्वाचित सरकार की शुरुआत की।

फिर भी, पंचायती राज को संविधान के मसौदे में जगह नहीं मिली। तब यह दो धड़े की बहस में फंस गया। एक तरफ डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार थे कि गांव “अज्ञानता, संकीर्ण मानसिकता और सांप्रदायिकता का अड्डा” हैं तो दूसरी तरफ महात्मा गांधी का विचार था कि “भारतीय स्वतंत्रता सबसे नीचे से शुरू होनी चाहिए और यह सुनिश्चित होना चाहिए कि हर गांव आत्मनिर्भर और अपने मामलों के प्रबंधन में सक्षम हो”। इसका परिणाम यह हुआ कि इस मुद्दे को नीति निदेशक सिद्धांतों में ही जगह मिल पाई और इसे अनुच्छेद 40 शामिल में किया गया। इसे लागू करने की प्रतिबद्धता नहीं थी। इससे निपटने का जिम्मा भविष्य की सरकारों पर छोड़ दिया गया।

हालांकि, 1950 के दशक के आखिर और 1960 के दशक की शुरुआत में, कई राज्यों ने तृ-स्तरीय एक नई प्रणाली बनाई। गुजरात और महाराष्ट्र को छोड़कर अधिकांश में इसकी उपेक्षा हुई। पश्चिम बंगाल में 1973 में एक नया सवेरा हुआ। 1978 में पश्चिम बंगाल में दो-स्तरीय प्रणाली को अपनाया गया। उसके बाद आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में। पंचायत चुनाव नियमित रूप से केवल महाराष्ट्र और गुजरात (1960 के दशक की शुरुआत से) और बाद में पश्चिम बंगाल (1978 से) में आयोजित किए गए।

कई आधिकारिक समितियों ने प्रभावी ग्रामीण शासन से जुड़े मसले की जांच की। बलवंत राय मेहता समिति (1957) ने निर्णय लेने की शक्ति राज्य से ग्राम पंचायतों को देने की सिफारिश की। राष्ट्रीय विकास परिषद (1958) चाहती थी कि लोकतंत्र को सभी सरकारी प्रक्रियाओं और विकास में जमीनी स्तर और लोगों की भागीदारी बढ़ाई जाए। अशोक मेहता समिति (1977) ने जिला पंचायतों को राज्य के नीचे सत्ता केंद्र बनाने के लिए दो स्तरीय प्रणाली का प्रस्ताव रखा और जीवीके राव समिति (1985) ने तीन स्तरों वाले ढांचे की सिफारिश की। ग्राम सभाओं को प्रत्यक्ष लोकतंत्र का अवतार मानते हुए, एलएम सिंघवी समिति (1986) ने संविधान संशोधन के माध्यम से एक नया अध्याय शामिल करने का समर्थन किया, जिसमें ग्राम सभा को विकेंद्रीकृत लोकतंत्र का आधार बनाया गया।

कैसे आए महत्वपूर्ण संशोधन अस्तित्व में?

1989 के संविधान (64वां संशोधन) विधेयक में संविधान में अनुच्छेद 243 को शामिल करने का प्रस्ताव शामिल था। इसके तहत सभी राज्यों में तृ-स्तरीय ढांचे को अनिवार्य किया जाना था। इसमें संविधान (65वां संशोधन) भी शामिल था जो शहरी स्थानीय निकाय से जुड़ा था। ये दोनों बिल 13 अक्टूबर, 1989 को लोक सभा से पारित हुए लेकिन राज्य सभा से पास नहीं हो पाए। 1990 में आया एक संयुक्त विधेयक भी फंस गया क्योंकि सरकार बदल गई। आखिरकार पंचायती राज पर संविधान (73वां) संशोधन कानून और नगरपालिका पर संविधान (74वां) संशोधन कानून क्रमश: 22 और 23 दिसंबर 1992 को पारित किया गया। पश्चिम बंगाल को छोड़कर सभी राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित, इन कानूनों को क्रमशः 24 अप्रैल, 1993 और 1 जून, 1993 को अधिसूचित किया गया।

प्राचीन काल से ही भारत में 'लोकतांत्रिक' संस्थाओं का लंबा इतिहास रहा है। साझा संप्रभुता से संचालित इस समाज में, शक्ति और अधिकार का बंटवारा कुछ ऐसा रहा है कि गांव स्वशासी ग्राम गणराज्य के रूप में कार्य करते रहे हैं। तस्वीर- प्रोप्रियम/विकिमीडिया कॉमन्स।
प्राचीन काल से ही भारत में ‘लोकतांत्रिक’ संस्थाओं का लंबा इतिहास रहा है। साझा संप्रभुता से संचालित इस समाज में, शक्ति और अधिकार का बंटवारा कुछ ऐसा रहा है कि गांव स्वशासी ग्राम गणराज्य के रूप में कार्य करते रहे हैं। तस्वीर– प्रोप्रियम/विकिमीडिया कॉमन्स।

संविधान में दो नए भाग जोड़े गए: भाग IX ‘पंचायत’ और भाग IXA ‘नगर पालिकाएं’। कानूनों ने 29 विषयों को पंचायतों को और 18 विषयों को नगर पालिकाओं के सुपुर्द कर दिया। राज्यों को इन संशोधनों के हिसाब से एक साल के भीतर उपयुक्त कानून बनाना था। ग्रामीण शासन को तीन स्तरीय पंचायत राज संस्थाओं (PRIs) को सौंप दिया जाना था। इसी तरह शहरी शासन की जिम्मेदारी तीन प्रकार की नगर पालिकाओं को सौंप दिया जाना था। इसमें एक बड़े शहर के हिसाब से, दूसरा छोटे शहर के हिसाब से और तीसरा उन कस्बों के लिए था जो शहर में तब्दील हो रहे थे।

किस हाल में है गांवों का शासन?

भारत की लगभग 66 से 69% आबादी गांवों में रहती है और देश के कुल क्षेत्र का लगभग 90% भूभाग ग्रामीण शासन के दायरे में आता है। 755 जिलों में कुल 2,55,278 ग्राम पंचायतें, 6,683 मध्यवर्ती पंचायतें और 662 जिला पंचायतों के दायरे में लगभग 650,000 गांव आते हैं।

चूंकि ‘स्थानीय सरकार’ का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य सूची के तहत है, इसलिए राज्यों को पंचायतों के संचालन के लिए उपयुक्त कानून बनाने थे। अधिकांश राज्यों ने 1994 तक पंचायत कानूनों को कानूनी जामा पहना दिया या मौजूदा कानूनों में संशोधन किया। पंचायती राज संस्थाओं को पूरी तरह से सरकारी विभागों के साथ मिलकर योजना बनाने और उन्हें लागू करने का काम करना था। हालांकि, 73वां संशोधन का अक्षरश: पालन नहीं हुआ। शासन के औपनिवेशिक रवैये ने स्थानीय व्यवस्था पर अपनी पकड़ बनाए रखी।

वहीं 2004 में पंचायती राज मंत्रालय (MoPR) अस्तित्व में आया। 2006-07 में पंचायती राज मंत्रालय ने पंचायत अधिकारिता के तहत ढांचे, कार्यों, वित्त और कार्यकर्ताओं से युक्त एक डिवोल्यूशन इंडेक्स (हस्तांतरण सूचकांक यानी (DI) के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को दिए गए 29 विषयों की समीक्षा शुरू की। ये समीक्षा जवाबदेही प्रोत्साहन योजना के तहत शुरू हुई। इसमें 2013 में ‘जवाबदेही’ और ‘क्षमता निर्माण’ जोड़ा गया। इसके तहत पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाने में राज्य के प्रदर्शन का आकलन होना था। इस हिसाब से राज्यों की रैंकिंग होनी थी। राष्ट्रीय औसत पंचायत राज डीआई 2010-11 में 42.38, 2011-12 में 41.9, 2012-13 में 38.5 और 2013-14 में 39.92 पाया गया था। यह आकलन नेशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा 2006-07 से 2008-09 के दौरान और भारतीय लोक प्रशासन संस्थान द्वारा 2009-10 से 2012-13 के दौरान किया गया था। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज द्वारा 2014-15 और 2015-16 में शक्तियों और संसाधनों के हस्तांतरण की स्थिति का त्वरित मूल्यांकन किया गया था। राज्यों के व्यवहार के खिलाफ समायोजित नीति का समायोजित सूचकांक 2014-15 में 1 के पैमाने पर 0.20 से 0.77 के बीच और औसत 0.39 था। 2015-16 में 1 के स्केल पर नोशनल इम्प्रूव्ड इंडेक्स ऑफ पॉलिसी एडजस्टेड प्रैक्टिस 0.01 से 0.65 के बीच और औसत 0.16 था। ऐसा लगता है कि इस खराब रिकॉर्ड के चलते MoPR ने तब से आकलन करना ही बंद कर दिया है। इस दौरान 2010 में हर साल 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाने की घोषणा भी हुई।

शक्ति का हस्तांतरण का सही से न होना, नौकरशाही का बहुत अधिक नियंत्रण, फंड मिलने में लालफीताशाही और अन्य कानूनों के साथ सामंजस्य नहीं होने की वजह से पंचायती राज से जुड़ी संस्थाएं ठीक से काम नहीं कर सकीं। ग्राम सभाओं का काम करना इसलिए भी अव्यवहारिक हो गया क्योंकि इनका गठन ग्राम पंचायत स्तर पर किया गया जिसमें जनसंख्या काफी अधिक होती था। इस तरह यह एक अच्छे विचार को लागू करने की खानापूर्ति भर होकर रह गयी। ग्राम सभा के स्तर से ऊपर निर्वाचित निकायों के पास ही शक्तियां सीमित रहीं और इसे लागू करने की जिम्मेदारी भी तमाम विभागों के पास रही। संविधान में जिस लोकप्रिय लोकतंत्र की परिकल्पना की गयी थी उसके बजाय राज्य के कानूनों ने ‘कलेक्टर राज’ को बढ़ावा दिया। विभागों को अपने हाथ में लेने के बजाय, पंचायती राज, खुद उन संस्थाओं का हिस्सा बन गया जिनके माध्यम से पहले शासन किया जाता था।

ग्राम सभाओं के अधिकार में भूमि से अलगाव को रोकना, अवैध रूप से छीनी गई जमीन को बहाल करना, लघु वनोपज का स्वामित्व, अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले लघु जल निकायों और लघु खनिजों को नियंत्रित करना, ग्राम हाट का संचालन, संस्थानों और पदाधिकारियों का प्रबंधन, शराब की बिक्री/खपत को सीमित करना इत्यादि शामिल है। तस्वीर- आर्या जोशी/विकिमीडिया कॉमन्स
ग्राम सभाओं के अधिकार में भूमि से अलगाव को रोकना, अवैध रूप से छीनी गई जमीन को बहाल करना, लघु वनोपज का स्वामित्व, अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले लघु जल निकायों और लघु खनिजों को नियंत्रित करना, ग्राम हाट का संचालन, संस्थानों और पदाधिकारियों का प्रबंधन, शराब की बिक्री/खपत को सीमित करना इत्यादि शामिल है। तस्वीर– आर्या जोशी/विकिमीडिया कॉमन्स

केंद्र और राज्य के राजनीतिक कार्यपालिका में सामंजस्य की कमी के कारण और औपनिवेशिक सोच के प्रशासन की वजह से एक गैर कानूनी बाजार खड़ा हो गया। संदिग्ध लेन-देन और कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए, यह वह जगह बन गई जहां लूट की कल्पना की जाती है और फिर उसकी बंदरबांट होती है। चुनावी लोकतंत्र ने शासन करने के बजाय इस नापाक बाजार पर कब्जा करने के लिए खुद को एक बेलगाम सवारी में बदल दिया। इस तरह कई अन्य कानूनों के माध्यम से औपनिवेशिक शासन प्रणाली को ताकतवर बनाना जारी रहा।     

एक तरफ लोकतंत्र सुदृढ़ नहीं हो पाया और औपनिवेशिक शासन प्रणाली भी खत्म नहीं हुई दूसरी तरफ वैश्वीकरण के दौर में ‘विकास’ का उन्माद भी बढ़ा। इससे संसाधन के लिए झगड़े बढ़े और पारिस्थितिक को तबाह करने की प्रक्रिया तेज हुई। आम जनता को हमेशा राज्य के एक या दूसरे अंग के खिलाफ किया जाता रहा है। प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर किया जाता है। जीवित रहने के संघर्ष में इन्हें शहरी इलाकों में पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

कुछ राज्यों को मिली छूट

नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, मणिपुर के पहाड़ी इलाकों, पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जिले के पहाड़ी इलाकों और संविधान के अनुच्छेद 244 (1) और (2) में शामिल अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों को 73वें संविधान संशोधन से छूट दी गई थी।

नागालैंड के लिए अनुच्छेद 371ए और मिजोरम के लिए 371जी जैसे विशेष संवैधानिक प्रावधान के तहत कई मामलों में विशेष शक्ति दी गयी। इसमें धार्मिक या सामाजिक परम्पराएं, स्थानीय समुदाय के प्रथागत कानून और प्रचलन, नागरिक और आपराधिक न्याय के प्रशासन से संबंधित मामलों और भूमि व उसके संसाधनों का स्वामित्व तय करने का अधिकार दिया गया। यदि वे चाहें तो उनकी विधान सभाएं राज्य के कानूनों के माध्यम से 73वें संशोधन के प्रावधानों को लागू कर सकती थीं; लेकिन उन्होंने नहीं किया। उन्होंने बदलावों के साथ अपनी स्थानीय पारंपरिक शासन प्रणाली को प्राथमिकता दी।

नागालैंड में प्रत्येक जनजाति, क्षेत्र परिषद, रेंज परिषद और ग्राम परिषद के लिए आदिवासी परिषद है। नागालैंड में 16 जनजातियां अपने विविध पारंपरिक स्व-शासन प्रणालियों के माध्यम से शासित एक अलग क्षेत्र में रहती हैं। स्कूली शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल और बिजली सेवाओं के रूप में कई सार्वजनिक सेवाएं ग्राम अधिकारियों के नियंत्रण में हैं। मिजोरम ने भी वंशानुगत सरदारों की पुरानी परंपराओं की जगह ग्राम परिषदों का चुनाव किया है।

छठी अनुसूची के क्षेत्रों में भी इसी तरह की व्यवस्था मौजूद है, जहां आदिवासी आबादी बड़ी तादाद में रहती है। अक्सर इन्हें एक राज्य के भीतर एक राज्य की उपमा दी जाती है। छठी अनुसूची जिला या क्षेत्रीय परिषदों को कई विषयों पर विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियां प्रदान करती है। इसमें भूमि पर नियंत्रण शामिल है, लेकिन आरक्षित वनों को शामिल नहीं किया गया है और किसी भी गांव या शहर के निवासियों के हितों को बढ़ावा देने वाले किसी भी उद्देश्य के लिए भूमि आवंटन, उस पर कब्जा या उपयोग, या उसे अलग करना शामिल है। छठी अनुसूची का क्षेत्र देश में 0.6 प्रतिशत आबादी और 4.2 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों के साथ देश के 1.7% क्षेत्रफल को कवर करता है। ऐसे क्षेत्र में असम (21 जिलों में से छह), मेघालय (शिलांग की नगर पालिका और छावनी को छोड़कर), त्रिपुरा (राज्य का लगभग 68%) और मिजोरम के तीन जिले शामिल हैं।

जंगल से वनोपज इकट्ठा कर हाट में बेचने ले जाती छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं। वन संपदा पर आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित रखने में पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को शक्तियां प्रदान की गई हैं। तस्वीर- डीपीआर छत्तीसगढ़
जंगल से वनोपज इकट्ठा कर हाट में बेचने ले जाती छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं। वन संपदा पर आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित रखने में पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को शक्तियां प्रदान की गई हैं। तस्वीर- डीपीआर छत्तीसगढ़

नतीजतन, 16,096 पारंपरिक निकायों को आधिकारिक तौर पर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (201), असम (469), मणिपुर (3,657), मेघालय (9,017), मिजोरम (834), नागालैंड (1,289), त्रिपुरा (628) और पश्चिम बंगाल (1) में शासन करने वाले प्राधिकरण का दर्जा हासिल है।

पेसा: लोकतंत्र और शासन को फिर से परिभाषित किया गया

पांचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची के तहत अधिसूचित क्षेत्रों में 73वें संशोधन का विस्तार, संसद के मध्यम से ही हो सकता था। केंद्र सरकार ने छठी अनुसूची क्षेत्रों के लिए कोई विधायी प्रक्रिया शुरू नहीं की। पर ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 1994 में अनुसूचित क्षेत्रों में 73वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए भूरिया समिति का गठन किया जिसका काम था कि संभावित कानून की रूपरेखा करे।

1995 की उनकी रिपोर्ट ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा, ग्राम पंचायतों, मध्यवर्ती पंचायतों और स्वायत्त जिला परिषदों के लिए शक्तियों, कार्यों और प्रक्रियाओं को रेखांकित किया। शक्तियों का व्यापक रूप से विकेंद्रीकरण करते हुए, समिति ने कुछ विषयों पर विधायी, न्यायिक और कार्यकारी शक्तियों के साथ छठी अनुसूची के पैटर्न को अपनाया। आदिवासी आंदोलनों के राष्ट्रीय गठबंधन- नेशनल फ्रंट फॉर ट्राइबल सेल्फ रूल के जवाब में संसद ने 1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) कानून (पेसा) के प्रावधान को कानूनी जामा पहनाया।

पेसा ने ऐतिहासिक रूप से अलग रास्ता अपनाया। पहले इसने ग्राम सभा को छोटी-छोटी बस्तियों या इन बस्तियों के समूह के स्तर पर परिभाषित किया। यह पंचायती राज संस्थाओं के ग्राम पंचायत स्तर पर बेतुके बोझिल ग्राम सभा से अलग था। फिर इसने ग्राम सभा की शक्तियों को इस चेतावनी के साथ परिभाषित किया कि ऊपर बैठी संरचनाएं इसकी शक्तियों का अतिक्रमण नहीं करेंगी। यह तभी संभव है जब ग्राम सभाओं के ऊपर वाले ढांचे अपने क्षेत्र में स्वायत्त हों। अतः जिला स्तर पर उपरोक्त संरचना को छठी अनुसूची के हिसाब से बनाया जाना था।


और पढ़ेंः [वीडियो] पच्चीसवें साल में पेसा: ग्राम सभा को सशक्त करने के लिए आया कानून खुद कितना मजबूत!


ग्राम सभाओं के अधिकार में भूमि से अलगाव को रोकना, अवैध रूप से छीनी गई जमीन को बहाल करना, लघु वनोपज का स्वामित्व, अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले लघु जल निकायों और लघु खनिजों को नियंत्रित करना, ग्राम हाट का संचालन, संस्थानों और पदाधिकारियों का प्रबंधन, शराब की बिक्री/खपत को सीमित करना इत्यादि शामिल है। साथ ही लोगों की परंपराओं और रीति-रिवाजों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों और विवाद समाधान के पारंपरिक तरीके की रक्षा और संरक्षण करना भी इसमें शामिल है। यह देश का ऐसा पहला कानून बन गया जिसमें निर्वाचित सदस्यों के बजाय आम लोगों को केंद्र में रखकर लोकतंत्र को फिर से परिभाषित किया गया।

किसी भी राज्य का पेसा संशोधन, पेसा के प्रावधानों का पूरी तरह से पालन नहीं करता है।

मध्य प्रदेश के कुछ अनुसूचित क्षेत्रों के साथ छत्तीसगढ़ 2000 में अस्तित्व में आया और वैसे ही 2014 में तेलंगाना भी। पेसा से जुड़े 10 राज्यों ने एक दशक से भी अधिक समय तक कानून को लागू करने की जहमत नहीं उठाई। छह राज्यों में 2011 से नियम अधिसूचित किए गए। ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्य में इन नियमों को अभी तक अधिसूचित नहीं किया गया है। इसकी वजह यह है कि यहां के अधिकांश आदिवासी लोग जमीन के ऊपर और नीचे समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के साथ रहते हैं।

पेसा का अनुपालन करने के लिए अधिकांश राज्य और केंद्रीय विषय के कानूनों में संशोधन नहीं किया गया। स्व-शासन वाली ग्राम सभा, स्वशासन को प्रशासनिक रूप से अव्यावहारिक बना रही पंचायती राज संस्थाओं के ढांचे में फंस गई थी। फिर भी, कानूनी रूप से वैध राजनीतिक अधिकार के रूप में ग्राम स्वशासन ने लोगों को उत्साहित किया। 2017-19 में, आदिवासियों ने घृणा, निराशा और क्रोध में, अपनी स्वायत्तता और स्व-शासन की घोषणा करते हुए, झारखंड में अपने गांवों के अधिकार क्षेत्र के इलाके का सीमांकन करने के लिए पत्थर की सिल्ली खड़ी करके पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू किया। यह जल्द ही पास के राज्यों में फैल गया। राज्यों ने सख्त पुलिस कार्रवाई के साथ जवाब दिया और सैकड़ों लोगों पर देशद्रोह के मामलों सहित हजारों लोगों पर मामले दर्ज किए।

झारखंड में आदिवासी गांवों में पारंपारिक स्वशासन व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। पेसा कानून का प्रावधान इसी की वकालत करता है। तस्वीर- असगर खान
झारखंड में आदिवासी गांवों में पारंपारिक स्वशासन व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। पेसा कानून का प्रावधान इसी की वकालत करता है। तस्वीर- असगर खान

पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में 664 ब्लॉकों में 22,040 पंचायतों के 77,564 गांव शामिल हैं। कुल 45 जिले पूरी तरह से और 63 जिले आंशिक रूप से शामिल किए गए है। कुल जनसंख्या के 5.7% के साथ 11.3% क्षेत्रफल को कवर करते हुए  देश की अनुसूचित जनजाति की 35.2% आबादी यहां रहती है।

वन अधिकार कानून (FRA): जंगलों में लोकतंत्र की शुरुआत

पर्यावरण मंत्रालय (MoEFCC) ने 2002 के मध्य में एक बेवकूफी भरा आदेश जारी किया। इसके तहत ‘सभी अतिक्रमण जो नियमितीकरण के योग्य नहीं हैं’ को बेदखल करने के आदेश दे दिया गया। इस तरह देश भर में लोगों को जबरन बेदखल किया जाने लगा। मात्र मई 2002 और मार्च 2004 के बीच 1,524 वर्ग किलोमीटर जंगलों से लोगों को बेदखल किया गया।

इस अवैध आदेश का विरोध और जंगलों में लोकतंत्र के लिए संघर्ष के नाम पर कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी अस्तित्व में आया। यह कई वनवासी संगठनों का एक राष्ट्रव्यापी गठबंधन था। पेसा के ढांचे से एक ऐसे कानून का रास्ता खुला जो अब तक आधिकारिक रूप से स्वीकृत ‘ऐतिहासिक अन्याय’ को समाप्त कर सके। इस तरह अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी के लिए वन अधिकार कानून, 2006 (FRA) अस्तित्व में आया।

औपनिवेशिक प्रशासन को मजबूत करने के सामान्य तरीकों से हटकर, इन कानून ने गांव स्तर की ग्राम सभाओं को पेसा की तरह अधिकार दिया, ताकि वे व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों का निर्धारण और मंजूरी दे सकें, जिनका वे कई पीढ़ियों से आनंद ले रहे हैं। इसने ‘गांव के दायरे में पड़ने वाले पारंपरिक महत्व की वन भूमि या इस्तेमाल’ के सीमांकन के लिए अधिकार प्रदान किया, जिसे ग्राम सभाओं को संरक्षित, बचाव, विनियमित और प्रबंधित करना है। किसी भी उद्देश्य के लिए वन को दूसरे काम में लगाने के लिए ग्राम सभा की सहमति अनिवार्य हो गई है।


और पढ़ेंः झारखंडः पंचायत चुनाव की सुगबुगाहट से एक बार फिर क्यों उठने लगी पेसा कानून की मांग


पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 2009 में माना कि लगभग 4,00,000 वर्ग किलोमीटर सामुदायिक वन संसाधनों को ‘ग्राम स्तरीय लोकतांत्रिक संस्थानों’ को सौंपा जाना है। दिसंबर 2021 तक, 64,361.67 वर्ग किलोमीटर वनों को वनाधिकार कानून के तहत मान्यता दी गई और उन्हें वनाधिकार कानून में शामिल किया गया है। यह दुनिया के समकालीन इतिहास में वनों से जुड़े अधिकारों को शायद सबसे बड़ी मान्यता है।

स्वतंत्रता के बाद से राज्य जो हासिल नहीं कर सके, वो ग्राम सभाओं ने अधिकारों को निर्धारित करने के लिए वैधानिक प्राधिकरण बनने के बाद हासिल कर लिया। वनवासियों द्वारा जंगल पर लोकतांत्रिक शासन की शुरुआत करने के लिए वनाधिकार कानून स्पष्ट रूप में पेसा से आगे निकल गया। यह पर्याप्त सबूत है कि लोगों का लोकतंत्र बेहतर क्यों काम करता है।

उपसंहार

मार्च 2010 में, पंचायती राज मंत्रालय ने संविधान में संशोधनों के तीन सेटों का प्रस्ताव किया जिसमें छठी अनुसूची और पांचवीं अनुसूची के तत्वों को मिलाकर पंचायती राज लागू करना है। इसने सभी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों (महानगरीय क्षेत्रों को छोड़कर) के प्रतिनिधित्व के साथ पंचायतों और नगर पालिकाओं के तहत सभी विषयों पर शक्तियों के साथ जिला पंचायत की जगह एक एकीकृत निर्वाचित जिला परिषद का प्रस्ताव रखा। जिला परिषद, पंचायतों और नगर पालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करने और सभी स्थानीय कार्यों के मद्देनजर पूरे जिले की योजना बनाने के लिए जिम्मेदार होगी। जिला योजना समिति, जिसमें अधिकारी और विशेषज्ञ शामिल हैं, इस परिषद की सहायता करेगी। जिला कलेक्टर को निर्वाचित जिला परिषद के प्रति जवाबदेह मुख्य कार्यकारी अधिकारी होना है।

पेसा के तहत ग्राम सभा की शक्तियों को संविधान की एक नई अनुसूची के रूप में सम्मिलित करने का प्रस्ताव किया गया था। पेसा प्रावधानों को छठी अनुसूची क्षेत्रों के पारंपरिक ग्राम निकायों की शक्तियों में जोड़ा जाना था। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से, यह अभी तक लोगों का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच पाया है।

लेखक संसाधन संघर्षों और शासन से जुड़े मुद्दों की तहकीकात करते हैं। एक स्वतंत्र शोधकर्ता के तौर पर, वह वन अधिकार, ग्राम स्व-शासन और स्वायत्तता जैसे मसलों पर काम करते हैं।

 

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बैनर तस्वीरः मेंधालेखा में ग्राम सभा की बैठक। तस्वीर– मेंधालेखा / विकिमीडिया कॉमन्स

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