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वैज्ञानिकों ने तैयार किया चने का जीनोम सीक्वेंस, फसलों में सुधार से जुड़े प्रयासों को मिलेगा बढ़ावा

11 देशों के 41 संगठनों से जुड़े 57 शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने 60 देशों से ली गई चने की 3,366 जीनोम रेखाओं की सिक्वेंसिंग की। तस्वीर- जॉर्ज रॉयन/विकिमीडिया कॉमन्स

11 देशों के 41 संगठनों से जुड़े 57 शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने 60 देशों से ली गई चने की 3,366 जीनोम रेखाओं की सिक्वेंसिंग की। तस्वीर- जॉर्ज रॉयन/विकिमीडिया कॉमन्स

  • शोधकर्ताओं ने चने का जीनोम सिक्वेंस तैयार किया है।
  • वैज्ञानिकों को इससे दलहनी फसलों की ओरिजिन और माइग्रेशन के पैटर्न का पता लगाने में मदद मिली है।
  • यह रिसर्च लाभप्रद जीनों के ट्रांसफर और हानिकारक जीनों को हटाने में मददगार हो सकता है।

शोधकर्ताओं ने चने की अनुवांशिक सिक्वेंसिंग की है। इस तरह उन्होंने प्रोटीन युक्त चने का एक विस्तृत जीनोम मैप तैयार किया है। इस मैप ने उसके माइग्रेशन और उद्गम की पुष्टि करने और नए जीनों का पता लगाने में मदद की है। इससे फसलों के सुधार में मदद मिलेगी।

ऐसे जीनोम मैप से दलहनी फसलों, खासकर चने (सीसर एरीटिनम) को प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स और खनिज के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत के रूप में तैयार किया जा सकेगा। दक्षिण एशिया और अफ्रीका उप सहारा क्षेत्रों के अधिकांश हिस्सों में यानी लगभग 50 से भी ज्यादा देशों में बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है। यह संपोषण की सुरक्षा के लिए महत्त्वपूर्ण है।

खासकर दक्षिण एशिया और अफ्रीका उप सहारा क्षेत्रों में बढ़ती खाद्य और संपोषण की सुरक्षा की मांगों को देखते हुए ऐसी उन्नत किस्म की फसलों की जरूरत है जिनकी पैदावार ज्यादा हो, जो भरपूर पोषण देती हों और रोगों तथा कीटाणुओं से प्रतिरोध करने की जिनकी क्षमता ज्यादा हो।

11 देशों के 41 संगठनों से जुड़े 57 शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने 60 देशों से ली गई चने की 3,366 जीनोम रेखाओं की सिक्वेंसिंग की। इस सिक्वेंसिंग के जरिए उन्होंने चने का एक जीनोम बनाया। इस शोध का नेतृत्व हैदराबाद के इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर द सेमी एरिड ट्रोपिक्स (ICRISAT) ने किया। नेचर में छपी उनकी एक रिपोर्ट बताती है कि वैज्ञानिकों ने चने की ऐसी 1,582  नई जीनों का पता लगाया जिनके बारे में पहले से जानकारी नहीं थी। 

आस्ट्रेलिया के मर्डोक यूनिवर्सिटी के स्टेट एग्रीकल्चरल बायोटेक्नोलॉजी सेंटर के निदेशक राजीव कुमार वार्ष्णेय इस अध्ययन के लेखकों में से एक हैं और पहले ICRISAT में कार्यरत थे। उन्होंने बताया कि “यह बिलकुल नई कोशिश है। यह सिर्फ चने का ही नहीं बल्कि पौधे की किसी भी प्रजाति का अब तक का सबसे बड़ा जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट है।”

वैज्ञानिकों ने चने के ओरिजिन के इतिहास की पुष्टि के लिए समूची जीनोम सिक्वेंसिंग का उपयोग किया। जिसमें पाया गया कि यह क्षेत्र फर्टाइल क्रेसेंट में पड़ता है। यह फर्टाइल क्रेसेंट क्षेत्र आज के इराक, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, इजरायल, जॉर्डन, उत्तरी मिस्र और पश्चिमी ईरान में फैला मध्य पूर्व का एक अर्द्धचंद्राकर क्षेत्र है। तस्वीर-कार्ल डेविस, सीएसआईआरओ/विकिमीडिया कॉमन्स
वैज्ञानिकों ने चने के ओरिजिन के इतिहास की पुष्टि के लिए समूची जीनोम सिक्वेंसिंग का उपयोग किया। जिसमें पाया गया कि यह क्षेत्र फर्टाइल क्रेसेंट में पड़ता है। यह फर्टाइल क्रेसेंट क्षेत्र आज के इराक, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, इजरायल, जॉर्डन, उत्तरी मिस्र और पश्चिमी ईरान में फैला मध्य पूर्व का एक अर्द्धचंद्राकर क्षेत्र है। तस्वीर-कार्ल डेविस, सीएसआईआरओ/विकिमीडिया कॉमन्स

उन्होंने आगे बताया कि यह अध्ययन जेनेटिक बाधाओं पर ठोस रूप से ध्यान केन्द्रित करता है और जेनेटिक लोड की पहचान करता है। साथ ही यह हेप्लोटाइप्स तथा जेनोमिक ब्रीडिंग के बारे में भी बताता है। वस्तुतः इसके पहले इन पर कोई अध्ययन नहीं हुआ था। 

उनके अनुसार यह अध्ययन विकासवादी जीव विज्ञान के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह चने के उद्गम स्थल और उसके माइग्रेशन स्थिति को समझने में मदद करता है। 

वैज्ञानिकों ने चने के ओरिजिन के इतिहास की पुष्टि के लिए समूची जीनोम सिक्वेंसिंग का उपयोग किया। जिसमें पाया गया कि यह क्षेत्र फर्टाइल क्रेसेंट में पड़ता है। यह फर्टाइल क्रेसेंट क्षेत्र आज के इराक, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, इजरायल, जॉर्डन, उत्तरी मिस्र और पश्चिमी ईरान में फैला मध्य पूर्व का एक अर्द्धचंद्राकर क्षेत्र है। इस क्षेत्र को कृषि का जन्मस्थान माना जाता है। दरअसल यहां की भौगोलिक स्थिति और जलवायु फसलों के लिए अनुकूल रही है। दरअसल यहां कृषि की शुरुआत से ही मानव जाति शिकारी और संग्रह करने वाले समुदाय से आगे बढ़कर कृषक के रूप में विकसित हुई। 

रिपोर्ट बताती है, इस जीनोम सिक्वेंसिंग ने वैज्ञानिकों को बाकी दुनिया में चने की खेती के प्रसार के दो रास्तों की पहचान करने में मदद की। एक रास्ते से इसका प्रसार दक्षिण एशिया और पूर्वी अफ्रीका की ओर हुआ तो दूसरे रास्ते से इसकी खेती भूमध्यसागरीय क्षेत्र, संभवतः तुर्की से होते हुए काला सागर और मध्य एशिया तक, यहां तक कि अफगानिस्तान तक फैल गई।

विश्लेषण के दौरान ऐसे क्रोमोजोमल सेंगमेंट और जींस पाए गए जिनसे इस चने की खेती को अपनाए जाने, इसके माइग्रेशन और इसकी बेहतरी के संकेत मिलते हैं।

नेचर की रिपोर्ट बताती है कि यह रिसर्च चने की जेनेटिक विभिन्नताओं की एक मुकम्मल तस्वीर पेश करता है। साथ ही यह इसकी उपज को बेहतर बनाने के लिए जीनोमिक स्रोतों और जानकारियों का इस्तेमाल करने का एक मान्य रोड मैप भी प्रदान करता है।

रिपोर्ट के अनुसार वैज्ञानिकों ने क्रोमोजोम के उन क्षेत्रों का भी पता लगाया है, जिनमें वह जेनेटिक सामग्री मौजूद है, वे नुकसानदेह म्यूटेशन्स मौजूद हैं जिनके चलते जेनेटिक विभिन्नताएं ज्यादा नहीं हो पाती हैं और पौधे की सेहत भी खराब होती है। साथ ही उन जींस का भी पता चला है जिससे फसलों को बेहतर बनाया जा सके। यह जानकारी लाभप्रद जीनों को एक प्रजाति से दूसरे प्रजाति में ट्रांसफर करने में मददगार हो सकती है। साथ ही यह जीनोमिक्स ब्रीडिंग या जीन एडिटिंग की जरिए हानिकारक जीनों को अलग करने में मदद कर सकती है।

वैज्ञानिकों ने 16 खास प्रजातियों के लिए फसलों की उत्पादकता बढ़ाने और जेनेटिक विविधताओं को खत्म होने से बचाने के लिए फसलों की तीन ब्रीडिंग रणनीतियों का प्रस्ताव दिया है।

चने की फसल को बेहतर बनाने के प्रयास

ICRISAT के वैज्ञानिक चने के पौधों को बेहतर बनाने पर काम करते रहे हैं। पहले उन्होंने थ्योरीटिकल एंड एप्लाइड जेनेटिक्स की एक रिपोर्ट में बताया था कि “कम लागत वाले जीनोटाइपिंग प्लेटफॉर्म्स पर की गई आधुनिक ब्रीडिंग के जरिए चने की फसलों को बेहतर बनाने की कोशिशों को गति दी जा सकती है।” हाल के वर्षों में इन्होंने चने की फसल की बेहतरी के लिए परंपरागत ब्रीडिंग के साथ जीनोम टेक्नोलॉजी को एकीकृत किया है।

ICRISAT के वैज्ञानिक चने के पौधों को बेहतर बनाने पर काम करते रहे हैं। तस्वीर- ICRISAT
ICRISAT के वैज्ञानिक चने के पौधों को बेहतर बनाने पर काम करते रहे हैं। तस्वीर- ICRISAT

उन्होंने बताया है कि कन्वेंशनल ब्रीडिंग के जरिए अब तक वे चने की 200 से ज्यादा बेहतर किस्मों का विकास कर पाए हैं। आगे भी उनकी उत्पादकता बढ़ाने की “भरपूर गुंजाईश” है। 

दिल्ली की शिव नादर युनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ ह्यूमनीटीज एंड सोशल साइंसेज में प्रोफेसर और कृषि नीतियों की विशेषज्ञ राजेश्वरी रैना का कहना है कि दूसरी दलहनी फसलों की तरह चने का उतना हाइब्रिडाइजेशन नहीं हो पाता। चने के बड़े पैमाने पर ब्रीडिंग के लिए यह भी एक गंभीर समस्या है। इस तरह चने की फसल में हाइब्रिडाइजेशन ने उतना काम नहीं किया है। 

इसका एक दूसरा कारण यह भी है कि वैज्ञानिकों के लिए चावल और गेंहू जैसे फसलों की क्रॉप फिजियोलॉजी को बदल पाना, उदाहरण  के लिए उनके तनों को छोटा और बालियों को बड़ा बना पाना, अपेक्षाकृत आसान होता है, पर चने के मामले में ऐसा नहीं है।

इधर हाल के दशकों में, खासकर हरित क्रांति के बाद भारत की कृषि नीतियों में एक बदलाव आया है। कपास और गन्ने जैसी नकदी फसलों की तरफ झुकाव ज्यादा होने की वजह से परंपरागत मोटी फसलों और दलहनी फसलों की उपेक्षा हुई है। 

भारत में चना लगभग 107.5 करोड़ हेक्टेयर में उगाया जाता है। ये बारिश वाले इलाके हैं जहां इसकी खेती में बाह्य लागत ज्यादा नहीं लगाई जाती है। इसमें नए बीजों के इस्तेमाल की दर भी काफी कम है। मतलब परंपरागत बीजों की अपेक्षा हाई क्वालिटी बीजों का इस्तेमाल बहुत कम क्षेत्रों में होता है। इससे चने की खेती का विस्तार नहीं हो पाता। 2021 का एक अध्ययन बताता है कि लो क्वालिटी बीजों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल और बीजों की नवीनीकरण की दर काफी कम होने के चलते भारत में आम दलहनी फसलों की उत्पादकता ठहराव की स्थिति में है। अध्ययन के अनुसार यदि सिंचाई के साधन, संस्थागत कर्ज और बीजों के नवीनीकरण में वृद्धि की जाए तो चने की उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। 

रिपोर्ट बताती है कि भारत में चने के उत्पादन में वृद्धि हुई है। ICRISAT के मुताबिक उसके सहयोग से विकसित JG 11 और JAKI 9218 जैसी छोटी अवधि की चने की किस्मों ने दक्षिणी भारत में चने की खेती के विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ICRISAT का कहना है कि भारत में दलहन की पैदावार बढ़ाने में अच्छी सफलता हासिल हुई है। इसका कारण मध्य और दक्षिण भारत में चने के उत्पादन क्षेत्र में जबरदस्त बढ़ोत्तरी होना है।  यह बाकी दुनिया की अपेक्षा चने के उत्पादन में बेहतरीन प्रदर्शन है। 


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यह इस बात से जाहिर है कि 1979-2019 के बीच मध्य और दक्षिण भारत में चने की पैदावार में 445 फीसदी की वृद्धि हुई। यह पिछले चार दशकों के दौरान 12.7 लाख मीट्रिक टन से बढ़कर 69.5 लाख मीट्रिक टन हो गई।

खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अनुसार दुनिया के 55 देशों के 1. 456 करोड़ हेक्टेयर में चने की खेती होती है, जिसमें 1.478 करोड़ टन पैदावार होती है। पर कई ऐसे बायोटिक और गैर-बायोटिक पहलू हैं जो चने की पैदावार को करीब एक टन प्रति हेक्टेयर तक सीमित कर देते हैं। पर यदि स्थितियां अच्छी हों तो प्रति हेक्टेयर 3.5 से लेकर 4 टन तक की पैदावार हासिल की जा सकती है। 

1961 से चने की उत्पादकता बढ़ी है। इसके साथ-साथ बायोटिक और गैर-बायोटिक पहलूओं के प्रति इसकी संवेदनशीलता में भी वृद्धि हुई है। इसकी पैदावार के सीमित होने का दूसरा कारण जर्मप्लाज्म वाले डोनर प्लांट्स की संख्या का सीमित होना है। 

इसी बीच सूखे और गर्मी की वजह से भी चने की पैदावार में 70 प्रतिशत की कमी हो सकती है। सूखी जड़ों की सड़न, कॉलर रॉट, फ्युसेरियम विल्ट, एस्कोकाइटा ब्लाइट और बोट्राइटिस ग्रे मोल्ड जैसी बैक्टीरियल और फंगल बीमारियों से भी इसकी पैदावार प्रभावित होती है। साथ ही मौसमी खर-पतवार भी इसकी उपज को कम कर देते हैं।

 

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