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भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की जंगलों की क्षमता को बढ़ा-चढ़ा कर आंका गया, अध्ययन

पेंच टाइगर रिजर्व में विचरण करते चीतल। यह जंगल मध्यप्रदेश के सिवनी और छिंदवाड़ा जिले के बीच फैला हुआ है। तस्वीर- लिंडा डी वोल्डर/फ्लिकर

पेंच टाइगर रिजर्व में विचरण करते चीतल। यह जंगल मध्यप्रदेश के सिवनी और छिंदवाड़ा जिले के बीच फैला हुआ है। तस्वीर- लिंडा डी वोल्डर/फ्लिकर

  • एक नए अध्ययन में पाया गया है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा कार्बन सोख लेने के जरिए जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की भारतीय जंगलों की क्षमता को बढा-चढ़ा कर पेश किया गया है।
  • मशीन लर्निंग फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करके शोधकर्ताओं ने घास के मैदानों, झाड़-झंखाड़ वाले क्षेत्रों और जंगली इलाकों को दरकिनार करते हुए, जो प्राकृतिक जंगलों के विकास के लायक नहीं है, उन अतिरिक्त क्षेत्रों का पता लगाया है जो नए वनों के पुनर्रोपण और कृषिवानिकी के लिए मुफ़ीद हैं।
  • अध्ययन में यह भी पाया गया है कि भारत में वनों के पुनर्रोपण के जरिए जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की अतिरिक्त क्षमता, भारत द्वारा 2015 के पेरिस समझौते में किए गए वादे के मुकाबले एक चौथाई से भी कम है।

वनों के पुनर्रोपण और कृषिवानिकी के जरिए अतिरिक्त कार्बन को सोखकर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने की कोशिश हो रही है। पर इसके जरिए जो लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा वह भूमि के उपयोग, भूमि के उपयोग में परिवर्तन और वानिकी की कैटगरी (LULUCF) के क्षेत्र में भारत द्वारा 2015 में किए गए पेरिस समझौते के दौरान निर्धारित लक्ष्य के एक चौथाई से भी कम होगा। एक नए अध्ययन में यह बात कही गयी है। 

पेरिस समझौते में भारत के लिए राष्ट्रीय स्तर पर यह लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि उसे इतना अतिरक्त वनारोपण और वृक्षारोपण करना है जिससे कि उनके जरिए 2.5 से लेकर 300 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड सोख लिया जा सके। ऐसे में भारत को यदि इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करना है तो उसे 2030 तक अपने भौगोलिक क्षेत्र के 33 फीसद हिस्से को वनों के दायरे में लाना होगा। 

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर, हैदराबाद विश्वविद्यालय और जेएनयू के वैज्ञानिकों ने पूरे भारत में फैले जंगलों में निर्धारित 11,000 जीपीएस बिंदुओं पर आधारित एक ऐसा मशीन लर्निंग फ्रेमवर्क का इस्तेमाल किया है जिससे यह पता लगाया जा सके कि जलवायु, मिट्टी और टोपोग्राफिक कारकों यानी बायोक्लामेटिक एन्वेलप मॉडल के आधार पर प्राकृतिक जंगलों को कहां-कहां बनाए रखा जा सकता है ताकि प्राकृतिक वनों जैसे घास के मैदानों, झाड़-झंखार वाले क्षेत्रों और वैसे जंगली इलाकों को, जो प्राकृतिक जंगलों के विकास के लायक नहीं है, दरकिनार किया जा सके। 

मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए इस अध्ययन की सह-लेखिका और ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ जियोग्राफी एंड एनवायरनमेंट की डी.फिल. सदस्या तृषा गोपालकृष्ण बताती हैं, जिन इलाकों का मानचित्र तैयार किया गया है, उनमें मौजूदा जंगली इलाके भी शामिल हैं। उपयुक्त क्षेत्र का मानचित्र तैयार करने के बाद हमने इसमें से सभी वर्तमान प्राकृतिक जंगली क्षेत्रों को (दलदली और जल-क्षेत्रों, घास के मैदानों और झाड़-झंखार वाले इलाकों आदि को) इस मानचित्र से अलग किया। हमने पाया कि वर्तमान जंगली क्षेत्रों से बाहर के जो बाकी बचे हुए इलाके हैं, उन्हें यदि प्राकृतिक रूप से फिर से उगने और फलने-फूलने का मौका दिया जाए तो वे कार्बन सोखने वाले इलाके के रूप में काम करेंगे।

वे आगे इस बात पर जोर देते हुए कहती हैं कि भारत द्वारा जो वादे किए गए हैं उनमें वनों के पुनर्रोपण के जरिए जलवायु-परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने में उपलब्ध क्षेत्रों की क्षमता को बढ़ा-चढ़ा कर आंका गया है। गोपालकृष्ण आगे बताती हैं कि पेरिस समझौते में निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने में वनों का पुनर्रोपण और कृषिवानिकी (कई रणनीतियों में से एक) एक बुनियादी रणनीति हो सकती है। इसके साथ-साथ, लेखिका इस बात पर जोर देते हुए बताती हैं कि इसके लिए दूसरे क्षेत्रों में, खासकर उर्जा निर्माण के क्षेत्रों में हो रहे पर्याप्त ग्रीन हॉउस गैस उत्सर्जन में कटौती करना महत्त्वपूर्ण है।

जंगल लगाकर राज्यवार शमन क्षमता को दर्शाता नक्शा। साभार- गोपालकृष्णा
जंगल लगाकर राज्यवार शमन क्षमता को इस नक्शे में दर्शाया गया है। साभार- गोपालकृष्णा

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वनों के पुनर्रोपण के लिए संभावित अतिरिक्त क्षेत्र मात्र 15,80,000 हेक्टेयर हो सकता है जो कुलमिलाकर 61.3 TgC कार्बन को सोख पाएगा जो वैश्विक अध्ययनों में उल्लेखित अनुमानों से काफी कम है।

अध्ययन में यह भी पाया गया है कि जहां तक कृषिवानिकी का सवाल है, उसमें मौजूदा कृषि क्षेत्र 1,46,70,000 हेक्टेयर में पुनर्रोपण के अवसर उपलब्ध कराते हैं। इनके जरिए पूरे देश भर में 98.1 TgC कार्बन सोंखा जा पा रहा है। यह पेरिस समझौते में भारत ने LULUCF के तहत जो वादा किया है उसका 19.5 से लेकर 23.4 फीसद तक ही है। मतलब यह कि कृषिवानिकी के तहत जो अतिरिक्त क्षेत्र उपलब्ध हैं, वे भारत ने पेरिस वार्ता में वनों के पुनर्रोपण से संबंधित जो वायदे किए थे और वैश्विक अनुमानों के तहत भारत को जितना करना चाहिए था उसके मुकाबले बहुत ही कम थे। 

भारत के केंद्रीय इलाकों- छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में प्राकृतिक वनों को बनाए रखने के लिए वनों के पुनर्रोपण हेतु सबसे ज़्यादा अतिरिक्त क्षेत्र थे। इन दोनों में से प्रत्येक के पास 2,60,000 हेक्टेयर जमीन उपलब्ध थी। इनकी तुलना में भारत के पश्चमी हिस्से गोवा और पूर्वोत्तर में मिजोरम के पास सबसे कम, मात्र 2,000 हेक्टेयर क्षेत्र उपलब्ध थे। जहां तक उत्तर भारत में दिल्ली और पूर्वोत्तर में त्रिपुरा का सवाल है वहां पर वनों के पुनर्रोपण के अवसर बिल्कुल ही उपलब्ध नहीं थे। 

विस्तीर्ण जंगली इलाकों को छोड़ दें तो पूर्वोत्तर में जो क्षेत्र उपलब्ध हैं वे वनों के पुनर्रोपण के सिमित अवसर ही उपलब्ध कराते हैं।

गोपालकृष्ण बताती हैं, “चूंकि पूर्वोत्तर का अधिकांश भाग अन्य इलाकों की तुलना में अभी भी जंगलों से भरा-पूरा है, इसलिए वहां वनों का पुनर्रोपण सबसे अच्छी रणनीति नहीं हो सकती, जिसपर अमल किया जा सके। इसकी जगह हमें वहां पहले से ही मौजूद वनों का संरक्षण करना चाहिए ताकि वे कार्बन को अधिक से अधिक सोखते रहें। जहां तक भारत के केंद्रीय राज्यों का सवाल है, जहां वनों के पुनर्रोपण के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध हैं, वहां हमें इस रणनीति का उपयोग सबसे ज़्यादा करना चाहिए ताकि वहां लंबे अरसे से जो जंगलों का नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की सके।

अध्ययन में अतिरिक्तता के लिए जिस क्राइटेरिया को अपनाया गया है, वह कार्बन क्रेडिट और कार्बन मार्केट के लिए एक महत्त्वपूर्ण मानदंड है। वे बताती हैं, इस क्राइटेरिया के पीछे यह अवधारणा काम कर रही है कि मौजूदा जंगलों को यदि संरक्षित किया जाए और उनकी जमीनों का दूसरा कोई उपयोग नहीं किया जाए तो उनके द्वारा कार्बन का सोंखा जाना जारी रहेगा। अतः हमें इन इलाकों को छोड़कर ही बाकी इलाकों में वनों के पुनर्रोपण की बात करनी चाहिए क्योंकि वहां तो पहले से ही वन उपलब्ध हैं। इस तरह हम समूचे कार्बन स्टॉक में इन क्षेत्रों की दुबारा गिनती से बच जाएंगे। 

वनों के पुनर्रोपण के लिए 15,80,000 हेक्टेयर का जो क्षेत्र निर्धारित किया गया था, वे क्षेत्र ऐसे थे जहां पहले से मौजूद जंगलों और झाड़-झंखारों का नुकसान हुआ था, मौजूदा रिसर्च के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह सुझाव दिया कि वहां जंगलों की सरकारी देखभाल और जमीन को पट्टे पर उठाने की प्रक्रिया आदि के सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों की छानबीन की जानी चाहिए क्योंकि वहां के भूमि-उपयोग की वर्तमान स्थिति, उसकी ऐतिहासिक विरासत और अन्य पहलू वहां वनों के पुनर्रोपण की खास स्कीम की राजनीतिक अर्थनीति से संबंधित होते हैं। मतलब यह कि वैज्ञानिकों के अनुसार इन मामलों पर आगे भी गहन शोध की जरूरत है।

सिक्किम का एक गांव दारप। पूर्वोत्तर भारत के कई गांव कार्बन पॉजिटिव हैं क्योंकि वे पवित्र जंगलों और आदिवासियों की प्रथाओं के आसपास केंद्रित हैं। इससे कार्बन सोखने की प्रक्रिया बढ़ती है। तस्वीर- शारदा प्रसाद / विकिमीडिया कॉमन्स
सिक्किम का एक गांव दारप। पूर्वोत्तर भारत के कई गांव कार्बन पॉजिटिव हैं क्योंकि वे पवित्र जंगलों और आदिवासियों की प्रथाओं के आसपास केंद्रित हैं। इससे कार्बन सोखने की प्रक्रिया बढ़ती है। तस्वीर– शारदा प्रसाद / विकिमीडिया कॉमन्स

भारतीय वन सेवा (IFS) के एक अधिकारी पुष्पेंद्र राणा, जो इस अध्ययन से जुड़े नहीं थे, का कहना है कि गोपालकृष्ण और अन्य लोगों द्वारा किया गया यह वैश्विक अध्ययन वनीकरण की योजनाएं बनाने के क्रम में एक समग्र परिप्रेक्ष्य का निर्माण करने में मदद कर सकता है। मोंगाबे-इंडिया से बात करते हुए राणा बताते हैं, महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि हम इन वैश्विक निष्कर्षों को कैसे स्थानीय परिप्रेक्ष्य के मुताबिक ढाल सकते हैं। हमारे सामने मुख्य चुनौती भी यही है। इन राष्ट्रीय स्तर के अध्ययनों में आमतौर पर ज़्यादा संभावना होती है कि आंकड़ों की कमी या अन्य कारणों की वजह से स्थानीय परिप्रेक्ष्यों से विशेष रूप से संबंधित महत्त्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पहलू नजरंदाज कर दिए जाएं। जिसके चलते जिन इलाकों में वनीकरण वास्तव में किया जाता है वहां उपरोक्त वैश्विक निष्कर्षों का इस्तेमाल करने में समस्याएं सामने आ सकती हैं। इसलिए स्थानीय स्तर पर जरूरत इस बात की है कि कारगर और सुव्यवस्थित वृक्षारोपण योजनाओं का विकास करने के लिए वनारोपण के अवसरों की क्षमता बढ़ाई जाए और उसके लिए योजनाएं बनाते समय उपरोक्त महत्त्वपूर्ण पहलूओं पर भी ध्यान दिया जाए।

रिसर्च और नीति-निर्माण के बीच के गैप को पाटना 

गोपालकृष्ण बताती हैं कि लैंड यूज एंड लैंड कवर के मामले में एक प्रमुख बहस यह है कि गैर-वनीय इकोसिस्टम वाले इलाकों जैसे घास के मैदानों, झाड़-झंखार वाले क्षेत्रों और जंगली इलाकों को शामिल किया जाए या उनको एक हद तक बाहर रखकर सोचा जाए। वर्तमान में या फिर ऐतिहासिक रूप से भी जो घास के मैदान हैं वे विशिष्ट इकोसिस्टम वाले इलाके हैं। जो एक महत्त्वपूर्ण इकोसिस्टम प्रदान करते हैं और साथ ही सामाजिक रूप से भी फायदेमंद हैं। बहुत सारे वैश्विक अनुमानों में वनों के पुनर्रोपण के लिए इन इलाकों को उपयुक्त बताया गया है। अतः जिन इलाकों में पेड़ों को प्राकृतिक रूप से लगाना और बनाए रखना संभव नहीं है, ऐसे इलाकों में वनीकरण को बढ़ावा देना इस पूरी प्रणाली को खतरे में डालना है।


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इस अध्ययन में लेखकों ने वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट, इंडिया द्वारा बनाए गए रेस्टोरेशन अपॉर्चुनिटीज एटलस (WOAWOA) का हवाला दिया है जो इस मामले में भारत में किया गया एकमात्र विशिष्ट अध्ययन है। इसकी नवीनता यह है कि इसमें वनों के पुनर्रोपण वाले क्षेत्रों की संभावित कैनोपी डेंसिटी की पहचान की गई है। इसने जंगलों की किस्म के आधार पर प्राकृतिक रूप से पुनः उगे जंगलों द्वारा प्रदत्त कार्बन स्टॉक के डाटा का इस्तेमाल किया है। इस एटलस में जंगलों और वृक्षों के पुनर्रोपण के लिए उपलब्ध संभाव्य क्षेत्रों का आकलन किया गया है। इस आकलन के अनुसार ऐसे क्षेत्रों का रकबा 13 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर जो गोपालकृष्ण और उनके सह-लेखकों द्वारा हाल ही में प्रस्तुत रिपोर्ट में किए गए आकलन से ज़्यादा ठहरता है।

गोपालकृष्ण और सह-लेखकों के मुताबिक एटलस में इधर-उधर बिखरे वनों को मिलाकर समूचे वन क्षेत्र में पुनर्रोपण की रणनीति बनाने के क्रम में एटलस के आकलन में अपेक्षाकृत रूप से जो ज़्यादा रकबा दिखाई पड़ता है वह इसलिए है कि जिन क्षेत्रों में 40 फीसद से भी कम जंगल है उन कृषि क्षेत्रों को भी उसमें शामिल कर लिया गया है। जबकि गोपालकृष्ण और सह-लेखकों ने खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सभी खेती योग्य और सिंचित क्षेत्रों को अपने आकलन में शामिल नहीं किया है। इसके अलावा इस एटलस में अपेक्षाकृत बढ़ा हुआ आकलन इसलिए भी दिखाई पड़ता है कि भारत के कुल भू-भाग से विभिन्न किस्म के लैंड यूज एंड लैंड कवर वाले क्षेत्रों को आकलन से बाहर कर दिया गया है।

भारत अपने मौजूदा प्राकृतिक वन आवरण को खोता जा रहा है और महज वृक्षारोपण से इसकी भरपाई करने की कोशिश की जा रही है। तस्वीर- टी.आर. शंकर रमन / विकिमीडिया कॉमन्स।
भारत में मौजूदा प्राकृतिक वन आवरण कम होता जा रहा है और महज वृक्षारोपण से इसकी भरपाई करने की कोशिश की जा रही है। तस्वीर– टी.आर. शंकर रमन / विकिमीडिया कॉमन्स।

2018 के अध्ययन की एक सह-लेखिका रूचिका सिंह कहती हैं कि यह एटलस डाटा-गैप, बहुत सारे स्रोतों से आंकड़े मिलने में कठिनाई और/ या आंकड़ों के खंडित रूप से मिलने के कारण साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लेने की प्रक्रिया के बाधित होने जैसी तीन महत्त्वपूर्ण चुनौतियों को संबोधित करता है।

एटलस को विकसित करने में अपनाई गई कार्य-प्रणाली पर रौशनी डालते हुए 2018 के रिपोर्ट के दूसरे सह-लेखकों, सिंह और जयहरि केएम ने बताया कि इधर-उधर बिखरे वनों को मिलाकर समूचे वन क्षेत्र में पुनर्रोपण की संभाव्यता का आकलन करते वक्त खाद्य सुरक्षा और लोगों की जीविका में उनकी भूमिका को देखते हुए सभी सिंचित कृषि क्षेत्रों को उसमें शामिल नहीं किया गया है। 

आगे वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट, इंडिया के सस्टेनेबल लैंडस्केप्स एंड रेस्टोरेशन के निदेशक सिंह ने मोंगाबे-इंडिया से बातचीत के क्रम में बताया योजना आयोग (अब नीति आयोग) द्वारा प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर बाकी बची हुई कृषि-भूमि के लिए वृक्षारोपण के अधिकतम दायरे को भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में 20 से लेकर 40 फीसद तक रखा गया था।

मौजूदा रिपोर्ट के अनुसार एटलस में लैंड यूज एंड लैंड कवर वाले इलाकों को बाहर रखने की प्रक्रिया की वजह से ही जंगलों के पुनर्रोपण वाले क्षेत्रों का आकलन बढ़ा हुआ दिखाई पड़ता है। इस रिपोर्ट का हवाला देते हुए सिंह और जयहरि बताते हैं कि इस एटलस को विकसित करने के दौरान अपनाई गई कार्य प्रणाली ही वह कारक है जिसकी वजह से प्राकृतिक और नाजुक इकोसिस्टम की रक्षा के लिए वनों के पुनर्रोपण के संभावित क्षेत्रों का आकलन करते वक्त इन लैंड यूज एंड लैंड कवर वाले क्षेत्रों को बाहर रखा गया है। घास के मैदान, मरुभूमि वाले क्षेत्र, रेतीले मैदान, स्थायी बर्फीले इलाके और स्क्रबलैंड (ऐसे जंगली क्षेत्र जहां पेड़ों को काटकर उनके तनों को छोड़ दिया गया हो) इस इकोसिस्टम में शामिल हैं।

जयहरि का आगे कहना है, शहरी और नवनिर्मित क्षेत्रों को भी इस आकलन से बाहर रखा गया है। इस आकलन में जो अंतर दिखाई पड़ सकता है वह इसलिए भी है कि तृषा गोपालकृष्ण और सह-लेखकों के रिपोर्ट में जंगली क्षेत्रों को इस आकलन में शामिल नहीं किया गया है। इसके ठीक विपरीत रेस्टोरेशन एटलस ने वनों के पुनर्रोपण वाले संभाव्य क्षेत्रों को जंगली क्षेत्रों में शामिल कर लिया है।

पश्चिम बंगाल के लतगुरी वन से गुजरती एक ट्रेन। भारत में वन बहाली से शमन क्षमता 2015 में पेरिस समझौते के लिए देश की प्रतिबद्धताओं के एक चौथाई से भी कम है। तस्वीर- सोमदीप दत्ता/विकिमीडिया कॉमन्स
पश्चिम बंगाल के लतगुरी वन से गुजरती एक ट्रेन। भारत में वन बहाली से शमन क्षमता 2015 में पेरिस समझौते के लिए देश ने अपना एक लक्ष्य निर्धारित कर रखा है। तस्वीर– सोमदीप दत्ता/विकिमीडिया कॉमन्स

मौजूदा रिपोर्ट में एटलस में दिख रहे जिस गैप को चिन्हित किया गया था उसका कारण यह था कि एटलस ने  जंगलों से आच्छादित क्षेत्रों की सघनता की अधिकतम संभावना का आकलन करने के क्रम में उन प्राकृतिक विपदाओं (जैसे आग आदि) पर, जो प्राचीन इकोसिस्टम (कम सघन जंगली क्षेत्र, घास के मैदान और इधर-उधर फैले झाड़-झंखार वाले क्षेत्रों) को बाधित करती हैं, विचार नहीं किया था। यह बताते हुए सिंह और जयहरि कहते हैं कि उन प्राकृतिक विपदाओं पर विचार करने की जरुरत नहीं थी क्योंकि एटलस का उद्देश्य ऐसे संभाव्य क्षेत्रों का आकलन करना था जहां बेहतर प्रबंधन के जरिए प्राकृतिक विपदाओं को नियंत्रित किया गया हो या उनके घटित होने की संभावनाओं को खत्म कर दिया गया हो।

मोंगाबे-इंडिया से बातचीत क्रम में सिंह ने बताया कि एटलस में प्रस्तुत डाटा जमीन पर कार्यान्वयन-योजनाओं को विकसित करने की अनुशंसा करने के लिए नहीं हैं- इसे रेखांकित करते हुए हमने शोध के दौरान सक्षम परिस्थतियों और संसाधन के अधिकारों पर भी निगाह डाली। उन्होंने आगे बताया, इसके लिए जरूरी है कि जिला और उपजिला के स्तर पर तैयार रिपोर्टों तथा ग्रामीण स्तर पर विकसित विस्तृत प्रोजेक्ट रिपोर्टों या सहयोगमूलक कार्यान्वयन योजनाओं के तालमेल के आधार पर वनों के पुनर्रोपण की एक गहन, जमीनी और विस्तृत योजना ली जाए।  

 

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बैनर तस्वीरः पेंच टाइगर रिजर्व में विचरण करते चीतल। यह जंगल मध्यप्रदेश के सिवनी और छिंदवाड़ा जिले के बीच फैला हुआ है। तस्वीर– लिंडा डी वोल्डर/फ्लिकर

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