- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जंगल की आग को लेकर 2022 की रिपोर्ट में कहा गया है कि मानवीय लापरवाही और बिजली गिरने से जंगल में आग लग सकती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन, भूमि के उपयोग में बदलाव और खराब वन प्रबंधन की नीति की वजह से आग पहले से कहीं अधिक लंबे समय तक लगी रहती है।
- जंगल की आग का जैव-विविधता पर स्थायी रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है और यह सदाबहार वनों के लिए खास तौर पर खतरनाक है।
- भारत में विभिन्न प्रकार के वन पाए जाते हैं। इनमें से प्रत्येक में आग का प्रभाव अलग-अलग होता है। जंगलों में आग लगने से बुरा प्रभाव जरूर पड़ता है लेकिन सभी तरह के जंगलों में लगने वाली आग हमेशा सिर्फ नुकसानदेह नहीं होती है।
जंगल की आग यानि फॉरेस्ट फायर्स को अनियंत्रित आग माना जाता है। इससे अक्सर जंगलों, घास के मैदानों, ब्रशलैंड और टुंड्रा प्रदेश के पेड़-पौधों की व्यापक तबाही के रूप में देखा जाता है।
जंगल में लगने वाली आग तीन प्रकार की होती हैं- सतह की आग, जमीन की आग और ऊपरी हिस्से की आग। सतह की आग को नियंत्रित करना सबसे आसान होता है और इससे कम से कम नुकसान होता है। क्योंकि यह आग केवल सतह की घास-फूस और खर-पतवार को ही जलाती है। जमीन की आग, जिसे भूमिगत या उप-सतह की आग भी कहा जाता है, इस तरह की आग सूखे घास-फूंस व अन्य वनस्पतियों की ढेर में जलती है। हालांकि इस तरह की आग बहुत धीमी गति से फैलती है, लेकिन अक्सर उन्हें नियंत्रित करना या पूरी तरह से बुझाना मुश्किल होता है। इस वजह से यह आग खतरनाक हो जाती है। ऊपरी सिरे की आग सबसे तेज और खतरनाक आग होती है, क्योंकि इससे पूरे पेड़ जल जाते हैं। यह आग हवाओं के कारण पेड़ के ऊपरी हिस्से में तेजी से फैल सकती है।
जंगल की आग पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा 2022 की रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि मानवीय लापरवाही और बिजली गिरने से जंगल में आग लग सकती है लेकिन जलवायु परिवर्तन, भूमि के उपयोग में होने वाले बदलाव और खराब वन-प्रबंधन इस आग को पहले से कहीं अधिक लंबे समय तक जलते रहने की वजह बन रहे हैं। इस रिपोर्ट में जंगल की आग के दो नए प्रकारों के बारे में बताया गया है- लैंडस्केप फायर्स और वाईल्ड फायर्स। लैंडस्केप फायर्स को मध्यम तीव्रता वाले मौसमी स्थिति में (उच्च तीव्रता के कुछ अपवादों को छोड़कर) आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है। इसे कम पर्यावरणीय प्रभाव (कुछ प्रजातियों के लिए इसका सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है) के रूप में परिभाषित किया गया है। वाइल्ड फायर्स वाली जंगल की आग को उच्च तीव्रता वाली लपटों के रूप में जाना जाता है, जिन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होता है और इसके गंभीर सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभाव पड़ते हैं।
जंगल की आग कैसे शुरू होती है?
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की 2020 की रिपोर्ट बताती है कि जंगल में लगने वाली सभी तरह की आग में से 75% आग के लिए इंसान जिम्मेदार हैं। प्राकृतिक रूप से बिजली गिरने, ज्वालामुखी और कोयले के जलने की वजह से जंगल में आग लग सकती है लेकिन ऐसा अपेक्षाकृत बहुत कम होता हैं।
मानवीय आम लापरवाही: अक्सर मानवीय लापरवाही के चलते मसलन माचिस की फेंकी गई तीली या सुलगते सिगरेट की चिनगारी आदि के कारण अनियंत्रित आग लग सकती है। भारत में, 95 प्रतिशत से अधिक जंगल की आग या तो अनजाने में या इंसानी लापरवाही के कारण ही लगती है।
जंगल में लगने वाली आग का व्यवहार आम तौर पर तीन चीजों पर निर्भर करता है–
1. ईंधन (वनस्पति मात्रा, संरचना, निरंतरता और सूखापन)
2. मौसम (हवा का तापमान, सापेक्ष आर्द्रता, सौर विकिरण, वर्षा, हवा की गति और दिशा)
3.भूमि की ढलान और ऊंचाई।
आग की तीव्रता, प्रसार दर, लपटों की ऊंचाई और अवधि इस बात पर निर्भर करती है कि जंगल की आग कितनी जल्दी दिखाई देती है। बड़ी मात्रा में शुष्क ईंधन और कम सापेक्ष आर्द्रता के साथ-साथ तेज़ हवाएं अपेक्षाकृत छोटी आग की लपटों को भी धधकती ज्वाला में तब्दील कर सकती हैं।
जंगल की आग को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?
जंगल की आग से लड़ने में प्रौद्योगिकी की बहुत सीमित उपयोगिता है, लेकिन शुरुआती चरण में आग का पता लगाने में यह सबसे उपयोगी है और यहां तक कि आग लगने की आशंका के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि जंगल की आग का व्यवहार स्थानीय कारकों जैसे मौसम, ईंधन (ज्वलनशील पदार्थों) की उपलब्धता और भूमि की परत पर निर्भर है। इसलिए, इन चीजों और स्थितियों की गहरी समझ और आग के जोखिम वाले मौसमों के दौरान उचित तैयारी ही जंगल की आग से निपटने का सबसे कारगर तरीका और रणनीति है।
इसके अलावा, फायर-वॉच और आग लगने पर त्वरित प्रतिक्रिया के लिए ख़ासतौर से स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना चाहिए। यह जंगल की आग के नियंत्रण और प्रबंधन में बेहतर मदद कर सकता है। देखा जाए तो नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व में आग बुझाने के कुछ सक्रिय उपायों ने अपना असर दिखाया है। यहां 1989 और 2014 के बीच आग लगने की स्थिति में सुधार आया है और लगातार कमी दर्ज की गई है।
आग की आशंका वाले क्षेत्रों में ‘फायर-ब्रेक्स’ बनाने के लिए रणनीतिक रूप से पहले से खाली स्थानों पर खर-पतवारों और वनस्पतियों को जलाकर आग के लिए ईंधन की उपलब्धता का बेहतर तरीके से प्रबंधन किया जा सकता है। इस तरह जंगल की आग के जोखिम को भी कम किया जा सकता है। आग को नियंत्रित करने के लिए आग लगाना एकदम उल्टा लगता है लेकिन नियंत्रित तरीके से आग लगाना जंगल में लगने वाली आग की रोकथाम के साथ-साथ वन भूमि प्रबंधन के लिए भी बहुत उपयोगी माना गया है।
जंगल की आग कभी-कभी लाभदायक क्यों होती है?
भारत के क्रेआ विश्वविद्यालय में पर्यावरण अध्ययन के सहायक प्रोफेसर भरत सुंदरम के अनुसार भारत में विभिन्न प्रकार के जंगल हैं, सब में आग का असर अलग-अलग होता है।
जंगल की आग के बारे में बताते हुए वे कहते हैं कि शुष्क पर्णपाती वन (पूर्व-मध्य भारत में उत्तरी दक्कन के जंगल) और सवाना (बांदीपुर के घास वाले जंगल की तरह) अक्सर आग लगने की स्थिति के बावजूद वे लाखों सालों में अच्छी तरह से विकसित हुए हैं। अनोखे शोला-ग्रासलैंड सिस्टम को ठंड और आग द्वारा बनाए रखा जाता है। इसमें ठंड से पेड़ और घास मर जाते हैं, और घास आग को वनस्पति में जाने से रोकती हैं। वे लिखते हैं कि हालांकि, सदाबहार वन (जैसे कि पश्चिमी घाट, उत्तर पूर्व भारत और हिमालय की तलहटी) के जंगल प्राकृतिक रूप से जंगल की आग से बचने के लिए विकसित नहीं हुए हैं, इसलिए ये जंगल कम तीव्रता वाली आग का भी सामना नहीं कर सकते हैं।
जंगलों में आग लगने के खतरों के बावजूद, जंगल में लगने वाली हर तरह की आग सिर्फ नुकसानदेह नहीं हो सकती है। सोलिगास और कुरुबा जैसे देशज लोगों ने बेहतर तरीके से जंगल की आग के नियंत्रण और संतुलन का इस्तेमाल किया है। इन समुदायों द्वारा लगाई गई आग के जरिए हेमीपैरासाइट (परजीवी) को कम कर दिया और संभवतः टीक-जनित रोगों की घटनाओं को कम कर दिया, जबकि चारे के रूप में काम आने वाली घास को विकसित किया।
इन जनजातियों की चयनात्मक आगजनी की प्रक्रिया ने घास की उपज में बढ़ोतरी की और पेड़ों की वृद्धि को कम किया। इससे इन लोगों को अपने चरागाहों को बनाए रखने में मदद मिली। इससे न केवल लकड़ी बल्कि अन्य वन उत्पादों को इकट्ठा करने के लिए बेहतर देखरेख और सुरक्षित आवाजाही सुनिश्चित हुई। बल्कि आगजनी के कारण विकसित घास में ही कई तरह की स्थानीय जंगली जड़ी-बूटियां भी विकसित हुई।
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हालांकि, ब्रिटिश राज में जंगल में आग लगाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध के बाद से, स्थानीय समुदायों ने सुझाव दिया है कि हेमिपैरासाइट्स अब बड़े पेड़ों पर हावी हो रहे हैं। इसके अलावा, लैंटाना आक्रामक रूप से जंगलों में फैल गया है जिससे कमजोर देशज व स्थानीय वनस्पतियों और पौधों का अधिक नुकसान हुआ है। इससे जंगल के स्वरूप में बदलाव आया है। फरवरी 2019 के अंत में बांदीपुर में भीषण आग ने 60 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र को नष्ट कर दिया। माना जाता है कि पारिस्थितिकी तंत्र की खराब समझ के कारण यह घटना हुई।
जंगल में आग लगाने पर पूर्ण प्रतिबंध ने घास की ठंड ने आग की घटनाओं को कम कर दिया, जो आमतौर पर बहुत कम तापमान पर तेजी से जलती है। इस स्थिति में लैंटाना के आक्रामक प्रसार के साथ-साथ बुरे अग्नि शमन नीतियों ने आग के लिए बड़े पैमाने पर ईंधन का निर्माण करने में योगदान दिया। इससे भयंकर आग लगी जिसने सभी तरह के पेड़ों को जला कर राख कर दिया।
कुछ जंगल की आग नुकसानदेह क्यों होती है?
जंगल की आग का जैव विविधता पर स्थायी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह विशेष रूप से सदाबहार जंगलों के लिए खतरनाक है। सदाबहार वन हिमालय की ढलानों के साथ दुर्लभ वनस्पतियों और विभिन्न तरह के जीवों के घर भी हैं।
इसके अलावा, जंगल की आग कई समुदायों की आर्थिक स्थिति को सीधे प्रभावित करती है। ये लोग जंगलों में रहते हैं और आय के स्रोत के रूप में लकड़ी-सहित अन्य वन उत्पादों पर निर्भर होते हैं। मई 2021 के अंत तक, भारतीय वन विभाग ने तीन लाख से अधिक फायर अलर्ट जारी किए थे। यह संख्या पिछले वर्ष की तुलना में लगभग तिगुनी थी। वनों के आसपास रहने वाले लोग जो पहले से ही कोविड-19 के लॉकडाउन के आर्थिक प्रभावों से जूझ रहे थे, बुरी तरह प्रभावित हुए।
आय के स्रोतों के नुकसान के साथ-साथ, उनके घरों के जलने का भी भयानक खतरा था, क्योंकि इस साल आग पहले से कहीं अधिक व्यापक थी। 2020-2021 में आग लगने वाले मौसम (नवंबर-जून) के दौरान, 21,000 से अधिक बार बड़े जंगलों में आग लगी थी। जिनमें 1500 से अधिक ऐसी आग की घटनाएं थी जो चार दिनों या उससे अधिक दिनों तक जारी रहीं और जंगल जलते रहे। इनमें से 24 आग की घटनाएं ऐसी थी जो 10 दिनों तक या दो दो सप्ताह तक जारी रहीं और आग जलती रही। इस साल, भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) ने अप्रैल के अंत में केवल 3 दिनों तक चलने वाली जंगल की आग के 7800 से अधिक घटनाओं को दर्ज किया।
ऐसे समय में जब दुनिया जंगलों, घास के मैदानों, मिट्टी और अन्य क्षेत्रों में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर को नीचे लाने के समाधान की तलाश में है, ख़ास तौर से बड़े जंगल की आग इन प्रयासों पर पानी फेर रही हैं। उत्तराखंड में 2021 के दौरान सिर्फ एक महीने (मार्च) में जंगल की आग ने लगभग 0.2 मेगा टन कार्बन उत्सर्जित किया। वैश्विक स्तर पर, लगभग 1.76 पेटाग्राम कार्बन उत्सर्जित करने के लिए जंगल की आग जिम्मेदार थी, जो कि कुल उत्सर्जित 36 पेटाग्राम कार्बन का लगभग 5% है। इन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के प्रयास में, बड़े-व्यास वाले लकड़ी के पेड़ों की कटाई की प्रथा शुरू की गई थी (ताकि जंगलों में आग के लिए ईंधन को कम किया जा सके), लेकिन हाल की स्थितियों से पता चलता है कि वास्तव में इससे कुछ बेहतर होने से ज्यादा नुकसान ही हो सकता है। इस तरह के पेड़ों को काटने से जंगल में आग लगने की तुलना में अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। इस तरह के उदाहरण प्रभावी नीतियों को बनाने के लिए वन पारिस्थितिकी तंत्र की बेहतर समझ की आवश्यकता को उजागर करते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र की समझ जंगल की आग के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए अत्यधिक उपायों का सहारा लिए बिना उसे कम कर सकता है।
यह देखते हुए कि भारत के 36% जंगलों में बार-बार आग लगती है और लगभग 4% जंगल ऐसे हैं जो गम्भीर रूप से आग लगने वाले हैं। इसलिए भारत को व्यापक वन अग्नि-शमन रणनीतियों की आवश्यकता है। जहां इस तरह के प्रयासों को झटका लगा है वहीं भारत अपनी वन अग्नि-शमन क्षमताओं में सुधार की दिशा में काम कर रहा है। एफएसआई आग चेतावनी प्रणाली स्थापित करने और आग से प्रभावित वन क्षेत्रों का विश्लेषण करने के लिए उपग्रह इमेजिंग तकनीक का उपयोग कर रहा है ताकि आग की रोकथाम के प्रयासों के लिए जंगल की आग की स्थिति और पारिस्थितिकी को बेहतर ढंग से समझा जा सके।
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बैनर तस्वीर: 2019 के दौरान बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान में आग। तस्वीर- नवीन एन कदलवेनी/विकिमीडिया कॉमन्स।