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गर्मी में ठंडा और सर्दी में गर्म रहने वाले घर बनाने हों तो इन बातों का रखें ध्यान

गर्मी में ठंड और ठंड में गर्मी, घर बनाते समय इन बातों का रखें ध्यान

गर्मी में ठंड और ठंड में गर्मी, घर बनाते समय इन बातों का रखें ध्यान

  • जलवायु परिवर्तन, शहरी क्षेत्रों में बसने का बढ़ता रुझान, अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट और एयर कंडीशन (एसी) के बढ़ते उपयोग के चलते आने वाले दशकों में शहर व घर और ज्यादा गर्म होंगे।
  • आवासीय भवन डिजाइन में शामिल नई तकनीक घरों के अंदर वाले हिस्से को ठंडा रखने में मदद कर सकती हैं, जिससे एसी से घर को ठंडा रखने की जरूरत कम की जा सकती है।
  • इमारतों में कूलिंग डिजाइन भी हानिकारक गैसों के उत्सर्जन को कम करने में मदद करते हैं क्योंकि एसी को लगातार चलाने की आवश्यकता नहीं होती है।

आप साल 2030 में इंदौर या सूरत जैसे शहरों में किसी आवासीय परिसर (रेसिडेंशियल कॉम्पलेक्स) की कल्पना करें। अगर ये इमारतें मौजूदा दौर की गगनचुंबी इमारतों की तरह ही हुईं, तो आपके कल्पना का वह परिसर शहर के भीतर खड़ा एक बहुमंजिला ढांचा होगा। कंक्रीट की पतली दीवारों के बीच बने ये घर मॉड्यूलर होंगे। ऊपर की मंजिलों में रहने वाले परिवार गर्मी के बावजूद खिड़कियां बंद रखना पसंद करेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि हवा इतनी तेज होगी कि दरवाजे आपस में टकराएंगे। सबसे ऊपरी मंजिल पर रहने वालों को असुविधा होगी क्योंकि उन्हें चारों ओर यहां तक कि ऊपर से भी गर्मी लगेगी। हालांकि, ऊपर से नजारे शानदार दिखेंगे। बड़ी खिड़कियों से नीचे शहर का फैलाव तो दिखेगा पर आस-पास बनी गगनचुंबी इमारतें इस नज़ारे में खलल भी पैदा करेंगी। इन तमाम मॉडर्न सुविधाओं के बाद भी 2030 तक घर और गर्म हो जाएंगे। पतली कंक्रीट की दीवार और शीशा, झुलसाने वाली गर्मी से नहीं बचा पाएंगे। ऐसे में हर घर को रहने लायक बनाने के लिए एयर कंडीशन (एसी) की ज़रूरत होगी। ये एसी शहर को और ज्यादा गर्म करेंगे।

मैकिन्से का अनुमान है कि साल 2025 और 2035 के बीच इन शहरी क्षेत्रों में कम से कम एक हीटवेव आने की 40% संभावना है। इंदौर में गर्मियों में पारा पहले ही 44 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच चुका है। दूसरी तरफ, तटीय शहर होने के बावजूद सूरत में इस साल तापमान सामान्य से छह डिग्री अधिक रहा है। स्मार्ट सिटी में शामिल इंदौर और सूरत जैसे शहर 2030 तक शायद टियर 1 में शामिल हो जाएं और फिर महानगर बन जाएं।

बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट्स में जलवायु परिवर्तन पर शोध करने वाली चांदनी सिंह ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा, “भारत के लिए गर्मी कोई अजूबा नहीं है। इसका एक लंबा इतिहास है। यह लोगों के यादों का हिस्सा है और लोग इससे निपटने का तरीका भी जानते हैं।”

ऐसे में अगर हम इन पारंपरिक तरीकों में कुछ का इस्तेमाल गर्मी से बचने के लिए बनाए गए घरों में करें तो क्या होगा? यह उन लोगों के लिए है जो बेहतर जीवन की उम्मीद लेकर इन शहरों में बस रहे हैं। तो आइए जानते हैं वे घर कैसे होंगे?

मोंगाबे-इंडिया ने इमारतों को ठंडा रखने के लिए कई आर्किटेक्ट और अर्बन डिजाइन विशेषज्ञों से बात की है। इनमें ‘निष्क्रिय डिजाइन (पेसिव डिजाइन)’ नाम की तकनीकों का एक सेट है क्योंकि उन्हें ठंडा करने के लिए ऊर्जा खर्च करने की जरूरत नहीं होती है।

ऐसे आवासीय भवनों के लिए संभावित डिजाइन का इलस्ट्रेशन मौजूदा शोध और विशेषज्ञों के इनपुट पर आधारित है।

नित्या सुब्रमण्यम/ मोंगाबे द्वारा इलस्ट्रेशन।

शेड, वेंटिलेट, इन्सुलेट

इन इमारतों को खास तौर पर ठंडा रखने के लिए डिजाइन किया जाएगा। निजी अपार्टमेंट में थर्मल कंफर्ट का ध्यान रखा जाएगा। हालांकि कम्फर्ट या आराम की सबकी अपनी परिभाषा होती है। लोग इसे अपने हिसाब, प्राथमिकताओं और जीवन के अनुभवों से तय करते हैं। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट में सस्टेनेबल बिल्डिंग्स एंड हैबिटेट प्रोग्राम के कार्यक्रम निदेशक रजनीश सरीन कहते हैं, “थर्मल कंफर्ट आराम के वो घंटे हैं जो आपको अपने घर के अंदर मिलते हैं। यह बिना एयर कंडीशनिंग या किसी मशीनी कूलिंग सिस्टम के।” सरीन कहते हैं कि इंसान की आराम के बारे में जो सोच है उसमें काफी हद तक कोई बदलाव नहीं आया है। कहते हैं, “सामग्री (घर बनाने से जुड़ी चीजें) और अन्य विज्ञान भले बदल गए हैं, लेकिन हवा और बहुत तेज हवा के बारे में आपकी समझ वही है। आपका शरीर उन्हें इसी तरह से समझता है।”

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नित्या सुब्रमण्यम/ मोंगाबे द्वारा इलस्ट्रेशन

थर्मल कंफर्ट के लिए तीन मुख्य डिजाइन तत्व- छांव की व्यवस्था (शेडिंग), वेंटिलेशन (रोशनदान) और इन्सुलेशन हैं। शेडिंग घर में रोशनी की व्यवस्था करते हुए सीधे गर्मी को आने से रोकता है। वेंटिलेशन घर में हवा की आवाजाही पक्का करता है। यह आदर्श रूप से एक घंटे में सामान्यतः 10 बार (ठंडी) बाहर की हवा से, अंदर की हवा को बदलता है। इन्सुलेशन घर को बहुत अधिक गर्मी सोखने से रोकता है और बाहर ठंड होने पर भी घर को गर्म रखता है।

भारतीय उपमहाद्वीप उत्तरी गोलार्ध में पड़ता है। यहां गर्मियों में सूरज सीधे ऊपर रहते हुए आगे बढ़ता है। वहीं सर्दियों में दक्षिण की तरफ से एक कोण पर गिरता है। कम ऊर्जा की खपत वाली इमारतों के डिजाइन में माहिर ग्रीनटेक नॉलेज सॉल्यूशंस की आर्किटेक्ट और सहयोगी निदेशक सास्वती चेतिया कहती हैं, “गर्मियों में दक्षिण की तरफ सूरज बहुत ऊपर होता है। अगर आपके पास एक साधारण छज्जा (छाया के लिए ओवरहैंग) हो, तो यह सूरज की किरणों को खिड़की के शीशे से टकराने से रोकता है। यही काफी है। और जाड़ों में दक्षिण की ओर सूर्य का कोण कम होता है। सर्दियों में आपको सूरज की जरूरत होती है, ताकि वही छज्जा सूरज को बाधित न करे। यह व्यवस्था उत्तर भारतीय जगहों पर बहुत अच्छी तरह से काम करती है।” पूरब में उगने वाले सूरज की तपिश वहां हल्की होती है। वह पर्याप्त रोशनी भी देता है। इसलिए सरीन उस तरफ रहने और काम करने की जगहें रखने का सुझाव देती हैं। साथ ही जितना संभव हो सके सूरज की किरणों को पश्चिम की तरफ शेडिंग और इन्सुलेटेड दीवारों के साथ रोकने की जरूरत है।

नित्या सुब्रमण्यम/ मोंगाबे द्वारा इलस्ट्रेशन
नित्या सुब्रमण्यम/ मोंगाबे द्वारा इलस्ट्रेशन

वहीं वेंटिलेशन पेचीदा काम है। इसमें घर के भीतर हवा की आवाजाही की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन तब जब यह ठंडा हो। आप बहुत तेज हवा भी नहीं चाहेंगे। ऐसे में हवा के उचित प्रवाह के लिए खिड़की का डिजाइन अहम हो जाता है। बड़ी खिड़कियों से भरपूर रोशनी मिलती है, लेकिन वे वेंटिलेशन में मददगार नहीं हैं। ऐसा इसलिए कि किसी भी समय, पूरी खिड़की का सिर्फ आधा हिस्सा ही खोला जा सकता है। इसके उलट, अंदर या बाहर खुलने वाली खिड़कियां 90% से अधिक खोली जा सकती हैं। चेतिया बड़ी खिड़की के साथ एक और खामी भी बताती हैं: उनमें बहुत अधिक शीशा होता है, जो गर्मी का खराब परावर्तक (रिफ्लेक्टर) है। बड़ी खिड़कियां घरों को ग्रीनहाउस बना देती हैं। मतलब इन खिड़कियों से घरों में अधिक गर्मी आती है और घर में ठहर जाती है, जिसे ठंडा करने के लिए आपको एयर कंडीशन की जरूरत होती है। वह पुराने जमाने की खिड़कियों की तरफ लौटने का सुझाव देती हैं। इनमें रोशनी के लिए आधा हिस्सा शीशा का होता था। वहीं लकड़ी से बना आधा हिस्सा गर्मी और रोशनी दोनों को रोकता था। फिर भी बाहर के नजारों के लिए बड़ी खिड़की लगाना जरूरी ही है, तो शीशे पर गर्मी रोकने वाली कोटिंग या खिड़की पर एक शेड जरूरी है।

इमारत की ऊंचाई चार मंजिल से अधिक न रखने की एक खास वजह वेंटिलेशन भी है। शहरों में हवा के प्रवाह के अध्ययन से पता चलता है कि ऊंची मंजिलें हवा की तेज गति का अनुभव करती हैं। पंक्तियों में बनाई गईं ऊंची इमारतें शहर के भीतर हवा की सुरंगें भी बनाती हैं, जिससे शहर में हवा के प्रवाह का पैटर्न बदलता है। इससे जीवन पर असर पड़ता है।

नित्या सुब्रमण्यम/ मोंगाबे द्वारा इलस्ट्रेशन
नित्या सुब्रमण्यम/ मोंगाबे द्वारा इलस्ट्रेशन

बड़े शहरों में वेंटिलेशन के लिए बाहरी हवा का इस्तेमाल करने में एक समस्या वायु प्रदूषण है। जैसा कि चेतिया बताती हैं, “दिल्ली जैसी जगहों पर हमें बाहरी हवा का इस्तेमाल करने के लिए उसे साफ रखना होगा। यह प्राकृतिक संसाधन हमें उपलब्ध है। आप उस संसाधन को प्रदूषित कर रहे हैं और इस कारण आप इसका इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे। दूसरे शहरों के लिए, आप हवा को उस हद तक प्रदूषित नहीं करें। अगर आप इस हवा का उपयोग करने में सक्षम नहीं हैं, तो यह सबके लिए विनाशकारी साबित होगा।”

थर्मल कंफर्ट के लिए डिजाइनिंग का तीसरा हिस्सा इन्सुलेशन है। यह उन सामग्रियों से तय किया जाता है जिनका इस्तेमाल घर बनाने में होता है। आधुनिक आवासीय परिसरों को रीइनफोर्स्ड सीमेंट कंक्रीट (RCC) से बनाया जाता है। इसे मजबूत बनाने के लिए स्टील फ्रेम के चारों ओर कंक्रीट से ढाला जाता है। RCC की दीवारें बहुमंजिला घरों के लिए बहुत अच्छी हैं क्योंकि हर दीवार भार उठाने के लिए पूरी तरह मजबूत है। इसका मतलब है कि अलग से बीम या फ्रेम की जरूरत नहीं है। इससे बनी दीवारें बहुत पतली भी हो सकती हैं। यह गगनचुंबी इमारतों के लिए वरदान है, क्योंकि दीवारें हल्की होती हैं। आरसीसी की दीवारों के लिए मोल्ड बनाना महंगा है। इसलिए लागत को तभी सही ठहराया जा सकता है, जब बहुमंजिला आवासीय परिसरों में मॉड्यूलर निर्माण में मोल्ड का बार-बार इस्तेमाल किया जाए। इस तरह की मॉड्यूलर दीवारों का उपयोग करने से श्रम की बचत होती है। साथ ही निर्माण की गति बढ़ जाती है। यही वजह है कि आरसीसी से शहर में होने वाले निर्माण में ज्यादा फायदा है।


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दूसरी तरह से देखें तो फ्लोर एरिया अधिक मिलता है क्योंकि दीवारें 15 सेमी जितनी पतली होती हैं। शहरों में फ्लोर एरिया के आधार पर ही फ्लैट बेचे जाते हैं। लेकिन पतली दीवारों का मतलब बाहर से अंदर की ओर तेजी से गर्म होना भी है। कंक्रीट एक खराब इंसुलेटर है, जिसमें मिट्टी की ईंटों की तुलना में तापीय चालकता (थर्मल कंडक्टिविटी) दोगुनी होती है। 

भविष्य के बनने वाले घरों में मोटी या बेहतर इन्सुलेटेड दीवारें बनाई जा सकती हैं। उदाहरण के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसी पुरानी इमारत को लिया जा सकता है। यहां दीवारें 24 इंच तक मोटी हैं। जिसके चलते  दिन में और भी कम गर्मी अंदर आती है। दूसरी तरफ, इनमें जमा गर्मी ठंडी रातों के दौरान रिलीज होती हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आधुनिक घरों को ऐसी मोटी दीवारों की जरूरत है। 

पारिस्थितिकी पर ध्यान देने वाली डिजाइन फर्म बायोम एनवायरनमेंटल सॉल्यूशंस के सीनियर आर्किटेक्ट अनुराग तम्हंकर का सुझाव है, “एक बहुत मोटी दीवार बनाने की कोशिश करने के बजाय, हम खोखले ब्लॉक या या दोहरी दीवारों का उपयोग करने की कोशिश करते हैं। इनमें हवा के लिए खाली जगह के साथ पतली दीवारों की दो परतें होती हैं। यह गर्मी का असर कम करने में मदद करती हैं। इसलिए 18 इंच या 24 इंच की दीवार बनाने के बजाय आप 12 इंच में ही इस तरह का आराम पा सकते हैं।” हालांकि अभी और समझौता करने की गुंजाइश है: यदि दीवारें मोटी होंगी, तो फ्लोर एरिया कम होगा। इसका मतलब है कि घर का कार्पेट एरिया कम हो जाएगा। कार्पेट एरिया के हिसाब से ही घऱ या फ्लैट बेचे जाते हैं।

सरीन कहती हैं, “लोगों की सोच है कि ऐसी डिजाइन पर काम करना बहुत महंगा है।” “लेकिन ऐसा नहीं है। डिजाइन से कई तरह के फायदे हो सकते हैं, जो परियोजना की कुल लागत का महज 2% होता है।” कई समाधान, जैसे बिल्डिंग ऑरिएंटेशन यानी इमारत किस दिशा में है या सूझ-बूझ से बनाई गई खिड़की का डिजाइन निर्माण लागत बढ़ाते नहीं हैं, बल्कि थर्मल कंफर्ट देते हैं।

आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन, शहरी क्षेत्रों में प्रवास, शहरी हीट आइलैंड प्रभाव और एयर कंडीशनर के बढ़ते उपयोग की वजह से शहर और घर गर्म होते जाएंगे। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली / मोंगाबे
आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन, शहरी क्षेत्रों में प्रवास, शहरी हीट आइलैंड प्रभाव और एयर कंडीशनर के बढ़ते उपयोग की वजह से शहर और घर गर्म होते जाएंगे। तस्वीर- कार्तिक चंद्रमौली / मोंगाबे

ये डिज़ाइन स्केलेबल हैं कि नहीं, अभी तक स्थापित नहीं हो पाया है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि चूंकि शहरी क्षेत्रों में रियल इस्टेट की लागत अधिक होती है, इसलिए बिल्डर भूमि का अधिक से अधिक उपयोग करने के लिए ऊंची इमारतें बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन ऐसे डिजाइन को अन्य छोटे शहरों में इस्तेमाल किया जा सकता है। इन शहरों में नए परिवार बस रहे हैं और जमीन की कीमत लोगों की पहुंच में है। शायद अभी भी यह सोचने का समय है कि लोग कैसे रहें।

उपमहाद्वीप में नया डिजाइन

अशोका विश्वविद्यालय में समाजशास्त्री व पर्यावरण अध्ययन की प्रोफेसर अमिता बाविस्कर कहती हैं, “ऐसी कई डिजाइन हैं जो भारतीय उपमहाद्वीप में विकसित हुई हैं और भविष्य के लिए घर बनाते समय इन पर विचार किया  जा सकता है। इस तरह के विचारों को वर्ग और कालक्रम में बांटा जा सकता है। वह बताती हैं कि दिल्ली के घने इलाकों जैसे शाहजहानाबाद की चहारदीवारी में वेंटिलेशन के साथ सूरज की सीधी किरणों को विक्षेपित करने की कोशिश का एक संयोजन था। इनमें दरवाजे के ऊपर मोटी दीवारें, पोर्च, बरामदे, छज्जे, रोशनदान (ऊंची जगह पर वेंटिलेटर) और आंगन जैसी चीजें थी। “ज्यादातर घर एक-दो मंजिल के होते थे, जिसके ऊपर एक खुली छत थी। छत हवाओं को बांधे रखने, गर्मियों में सोने, सर्दियों में धूप सेंकने वगैरह की जगह बन गई।” अंग्रेजों की शैली को वह व्यापक रूप से उष्णकटिबंधीय वास्तुकला के रूप में वर्गीकृत करती हैं: “यह स्थानीय जलवायु से मिलता था, जो विशेषाधिकार के आधार पर बहुत सारी जगह तक पहुंच पर आधारित था।” ऐसे घरों में बड़े-बड़े बगीचे, बरामदे और बहुत ऊंची छतें होती थीं।

बाविस्कर ध्यान दिलाती हैं कि मुंबई में मजदूरों की चॉल और शाहजहानाबाद में साझा बालकनी, गलियारों और साझा आंगन की वास्तुकला के बीच समानताएं हैं।

मुगल वास्तुकला में अंदर की जगहों में नहरें और फव्वारे भी थे। इनसे वाष्पीकरण में मदद मिलती थी और जो ठंडक को बढ़ाती है। तमिल और केरल के घरों में अक्सर घर के सामने लोहे के दरवाजे और बरामदे होते हैं। इसके चलते बाहर और अंदर के बीच एक दूरी (अहाता) होती है जो गर्मी को रोकती है। राजस्थान में मिट्टी के पलस्तर और फूस की छतों जैसी स्थानीय निर्माण तकनीकों से भी सूरज की तपिश से राहत मिलती है।

प्रेरणा पाने के लिए स्थानीय तकनीकों को देखना उपयोगी है। तम्हंकर बताते हैं कि ऐसे सभी आइडिया अब व्यावहारिक नहीं हैं। वह कहते हैं, “उस समय की कई तकनीकें हमारी मौजूदा जीवनशैली के लिए शायद उपयुक्त नहीं हैं। मिट्टी की दीवारों को हर साल फिर से पलस्तर करने की आवश्यकता होती है।”

चार्ट- नित्या सुब्रमण्यम
चार्ट- नित्या सुब्रमण्यम

सरीन कहते हैं, अन्य व्यावहारिक मुद्दे भी हैं। इस तरह की स्थानीय डिजाइन तकनीकों के लिए कुशल श्रम और कच्चे माल की कमी। चेतिया यह भी बताती हैं कि उदाहरण की खातिर ईंट बिछाने के लिए एक राजमिस्त्री की आवश्यकता होती है। फिर किसी को राजमिस्त्री की देखरेख करनी पड़ती है, जिससे लागत बढ़ जाती है। प्रीफैब्रिकेटेड कंक्रीट इस लागत को कम करता है। फिर भी डिजाइन लागत, परियोजना पर आने वाले खर्च का एक छोटा हिस्सा है। स्मार्ट डिजाइन विकल्पों के चलते लंबे वक्त में घर को ठंडा रखने पर आने वाले खर्च में काफी बचत हो सकती है।

रूफ गार्डन और छत पर सोलर पैनल जैसे नए लेकिन स्थापित विचार भी महत्वपूर्ण हैं। सौर पैनल छत पर सूर्य की सीधी किरणों से पौधों को बचाते हैं। इनसे अपार्टमेंट परिसर के आम हिस्सों में बिजली दी जा सकती है। इससे ऊर्जा की बचत होती है।

तेजी से बढ़ रहा एयर कंडीशनर का इस्तेमाल

इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान के अनुसार 2017 में भारत में महज आठ प्रतिशत घरों में एयर कंडीशनर थे। लेकिन यह संख्या तेजी से बढ़ रही है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी का अनुमान है कि 2022 में भारतीयों के पास 6.7 करोड़ एसी यूनिट हैं। अनुमान है कि 2032 तक यह आंकड़ा 31.8 करोड़ यूनिट तक पहुंच जाएगा। इस एयर कंडीशनिंग का अधिकांश हिस्सा शहरी क्षेत्रों में घरों को ठंडा करने के लिए इस्तेमाल होगा, जो ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में तेजी से गर्म हो रहे हैं। घर को ठंडा रखने के लिए एयर कंडीशन की इतनी मांग बिजली की खपत बढ़ाएगी, जिसे ‘कोल्ड क्रंच’ कहा जाता है। निश्चित तौर पर इसका हल निकालना होगा। एयर कंडीशनर को अधिक ऊर्जा कुशल बनाना होगा। अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट से बचने के लिए अर्बन प्लानिंग में सुधार करना होगा और भविष्य के घरों को और ज्यादा थर्मल कंफर्ट के हिसाब से बनाना होगा। इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसे कई घरों में एयर कंडीशनिंग की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन उनके डिजाइन का मतलब यह होगा कि एयर कंडीशनर कम घंटों तक चलेंगे।

चेतिया कहती हैं, “[भूतल + 4 मंजिल] से ऊंचा बनाने का मतलब है कि आप कार्बन उत्सर्जन बढ़ा रहे हैं, क्योंकि आपको और ज्यादा ऊपर जाने के लिए अधिक ठोस घनत्व की आवश्यकता होती है, आपको लिफ्ट की आवश्यकता होती है, आपको फायर सिस्टम और दूसरी चीजों की जरूरत होती है।” इसलिए वह इमारतों को उच्च घनत्व, लेकिन कम ऊंचा रखने का सुझाव देती हैं। जब इमारतों को लगातार एयर कंडीशनर की आवश्यकता नहीं होती है तो उत्सर्जन अपने आप कम हो जाता है।

 

इस खबर में इलेस्ट्रेशन के लिए इनपुट नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के प्रोग्राम मैनेजर सुगीत ग्रोवर और ग्रीनटेक नॉलेज सॉल्यूशंस में आर्किटेक्ट और एसोसिएट डायरेक्टर सास्वती चेतिया से मिला है।

 

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बैनर तस्वीर: नित्या सुब्रमण्यम/ मोंगाबे द्वारा इलस्ट्रेशन