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पुणे में गणेश प्रतिमाओं की मिट्टी को दोबारा उपयोग में लाकर पर्यावरण बचाने की पहल

गणेश प्रतिमाओं से इस साल दो मिट्टी एकत्रित हुई है उसे अगले साल मूर्तियां बनाने में इस्तेमाल में लाया जाएगा। तस्वीर- वेदसूत्र / विकिमीडिया कॉमन्स

गणेश प्रतिमाओं से इस साल दो मिट्टी एकत्रित हुई है उसे अगले साल मूर्तियां बनाने में इस्तेमाल में लाया जाएगा। तस्वीर- वेदसूत्र / विकिमीडिया कॉमन्स

  • महाराष्ट्र के पुणे में 2022 में एक अभियान के तहत यहां के लोगों ने पारंपरिक गणपति विसर्जन के बाद भगवान की मूर्तियों से 15,000 किलो चिकनी मिट्टी इकट्ठा की। इसका प्रयोग मूर्तिकार नई मूर्तियां बनाने में करेंगे।
  • प्राकृतिक चिकनी मिट्टी का भंडार सीमित है। मूर्तियां बनाने में चिकनी मिट्टी का प्रयोग होता है जिसका खनन गुजरात या पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में होता है। खनन की वजह से इन इलाकों में पर्यावरण को नुकसान हो रहा है।
  • पुणे के लोगों ने मिट्टी खनन पर दबाव कम करने के लिए चिकनी मिट्टी को रिसाइकल करना शुरू किया है। इसके अलावा यहां पिछले एक दशक से पूजा और उत्सवों में इस्तेमाल किए जाने वाले फूलों को भी नगर निगम की मदद से खाद में तब्दील किया जाता है।

दिनेश गोले महाराष्ट्र के पेण में रहने वाले एक मूर्तिकार हैं जो कई वर्षों से गणेश उत्सव के लिए मूर्तियां बनाते हैं। पेण, पुणे से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान पूरे महाराष्ट्र में मूर्तिकारों के शहर के नाम से जाना जाता है। यहां बनाई गईं मूर्तियां देश के अनेकों भागों में भेजी जाती हैं। यहां के कई मूर्तिकार अपनी बनी मूर्तियां विदेशों में भी भेजते हैं। 

हर साल सितंबर के महीने में गणेश चतुर्थी के समय यहां मूर्तियों की मांग काफी बढ़ जाती है। 

खुद गोले गणेश चतुर्थी के लिए लगभग 1,500 मूर्तियां बना लेते हैं और प्रदेश के बड़े शहरों जैसे पुणे, मुंबई, नाशिक में भेजते हैं। वो इन मूर्तियों को बनाने के लिए प्राकृतिक चिकनी मिट्टी का प्रयोग करतें हैं जिसे स्थानीय भाषा में ‘शाधु मिट्टी’ भी कहते हैं। 

मूर्तियों को बनाने में लगने वाली यह मिट्टी अक्सर देश के अन्य हिस्सों में खनन कर महाराष्ट्र के शहरों में पहुंचती है जहां इसका इस्तेमाल मूर्तिकार मूर्तियां बनाने में करतें हैं। “हमारे शहर में मूर्तियों को बनाने में अक्सर प्राकृतिक चिकनी मिट्टी का इस्तेमाल होता है जो गुजरात से आता है, जहां उसका खनन होता है। यह हमें 35 किलो के बोरे में मिलता है जिसकी कीमत लगभग 150 रुपये प्रति बोरा होता है,” गोले ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

प्राकृतिक चिकनी मिट्टी का भंडार सीमित है।  यह सिलिका से भरा एक प्रदार्थ होता है जो खनन के माध्यम से उपयोग योग्य बनाया जाता है। इसका खनन अक्सर पश्चिम बंगाल और गुजरात जैसे राज्यों में होता है और फिर इसे अलग अलग राज्यों में मूर्तियों के निर्माण के लिए भेजा जाता है। इसके खनन की पूरी प्रक्रिया में आसपास के इलाकों में प्रदूषण होता है और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या भी होती है। 


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पुणे में गणेश उत्सव हर साल काफी हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यहां के लोगों, युवाओं और कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने पिछले कुछ वर्षों से इस खनन को रोकने के लिए कुछ कदम उठाए हैं। इस साल इस शहर में ‘पुनरावर्तन’ नाम का एक अभियान चलाया गया जिसके अंतर्गत यह कोशिश की गई कि कैसे गणेश उत्सव में इस्तेमाल होने वाली मूर्तियां भी बनती रहें और कैसे मिट्टी के खनन को कम किया जा सके। इसके लिए पुणे नगर निगम की भी सहायता ली गई। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य प्राकृतिक चिकनी मिट्टी का पुनर्चक्रण या रिसाइकल करना था ताकि इन मूर्तियों में इस्तेमाल की गई मिट्टी को दोबारा मूर्ति बनाने में इस्तेमाल किया जा सके। 

इस अभियान का उद्देश केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नियमों से भी मेल खता है जो त्योहारों में ऐसी मूर्तियों के प्रयोग पर जोर देता है जो वातावरण के लिए अच्छा हो और जिससे जल स्रोतों पर भी कोई दुष्प्रभाव न पड़े। इस अभियान के अंतर्गत इस साल पुणे में इस्तेमाल की गई 15,000 किलो प्राकृतिक मिट्टी इकट्ठा की गई। इसमें शहर के स्कूल, नागरिक, कंपनियां आदि ने बढ़चढ़ के हिस्सा लिया। इस इकट्ठा की गई मिट्टी से अब 15,000 नई मूर्तियां बन सकती हैं। इस मिट्टी को पुणे और पेण में स्थित मूर्तिकारों को मुफ्त में दिया गया ताकि इसका सही इस्तेमाल हो सके और इस मिट्टी को दूसरे प्रदेशों से लाने की जरूरत को कम किया जा सके। 

गोवा में गणेश की मूर्ति पर काम करता एक कलाकार। तस्वीर- निजगोयकर / विकिमीडिया कॉमन्स
गोवा में गणेश की मूर्ति पर काम करता एक कलाकार। तस्वीर– निजगोयकर / विकिमीडिया कॉमन्स

“इस मिट्टी की खास बात यह होती है कि इससे मूर्ति बनाना आसान होता है क्योंकि इसमें अच्छा चिकनापन होता है और आपस में अच्छे से चिपकने की क्षमता होती है। इस्तेमाल के बाद जब आप इसे पानी में मिलाएंगे तो यह केवल 10 मिनट में पूरी तरह से गल के वापस मिट्टी बन जाएगी। ऐसा प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों में नहीं होता है जो पूरी तरह से टूटने में महीनों लगा देती हैं,” गोले ने बताया। 

कुछ वर्ष पहले तक प्लास्टर ऑफ पेरिस का मूर्तियां बनाने में काफी इस्तेमाल होता था क्योंकि वो सस्ता और हल्का भी था। धीरे धीरे मिट्टी की जगह प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां ज्यादा चलन में आने लगी थीं। लेकिन, जल स्रोतों और वातावरण पर इसके कारण पड़ने वाले हानिकारक प्रभावों के कारण केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड ने इससे 2020 में इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। इससे बनी मूर्तियों में अक्सर हानिकारक पदार्थ जैसे जिप्सम, सल्फर, फास्फोरस और मैग्नीशियम पाये जाते हैं। 

कैसे इस अभियान ने पकड़ी रफ्तार 

इस अभियान की शुरुआत इस साल के जून के महीने में हुई। शहर के लगभग 15 स्वयं सेवी संस्थानों में इस अभियान को सफल बनाने के लिए भरसक प्रयास किए और उसके हिसाब से सही रणनीति बनाई। 

मनीषा सेठ, पुणे में ई-कोएक्सिस्ट नाम की संस्था की संस्थापक हैं। उन्होने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि प्राकृतिक चिकनी मिट्टी के दोबारा इस्तेमाल का काम 2020 से छोटे स्तर पर शुरू किया गया था लेकिन 2022 में यह एक बड़े अभियान के तौर पर उभरा जब बहुत से संस्थानों ने साथ में मिलकर इस पर काम करना शुरू किया। 

“इसकी शुरुआत 2020 में एक छोटे स्तर पर की गई। हमने पहले कुछ टूटी मूर्तियों की मिट्टी से दूसरी मूर्तियां बनाने के कोशिश की और यह सफल भी रहा। मूर्तिकारों को भी इससे कोई समस्या नहीं थी। फिर हमनें इसे बड़े पैमाने पर करने का सोचा और दूसरे संस्थानों और लोगों से मदद मांगी। चूंकि चिकनी मिट्टी एक नवीकरणीय साधन नहीं है, तो हम इसके इस्तेमाल को कम करना चाहते थे। इसी लिए हमने इसके दोबारा इस्तेमाल की योजना बनाई,” सेठ ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया। 

इस अभियान के लिए नागरिकों ने विसर्जन के बाद मिट्टी एकत्रित की। तस्वीर- पूर्णावर्तन
इस अभियान के लिए नागरिकों ने विसर्जन के बाद मिट्टी एकत्रित की। तस्वीर- पुनरावर्तन

सेठ कहतीं हैं कि पुणे में गणेशोत्सव में हर साल लाखों मूर्तियों का विसर्जन पानी के स्रोतों में किया जाता है। “अलग अलग संस्थानों की अलग अलग क्षमता और दक्षता थी। कोई कचरा प्रबंधन के लिए जाना जाता था, तो कोई लोगों को साथ में लाने के लिए, तो कोई जलाशयों के स्वास्थ्य की दिशा में काम करता था। सबने अपनी शक्ति और ज्ञान का प्रयोग कर इस मिशन को सफल बनाया। इसके कारण इस साल सिर्फ सितंबर के महीने में हम लोगों ने 15,000 किलो चिकनी मिट्टी इकट्ठा की और उसे मूर्तिकारों को दिया,” सेठ ने बताया। 

सत्या नटराजन पुणे के ‘स्वच्छ पुणे, स्वच्छ भारत’ नाम के एक अभियान से जुड़े हैं जो शहर को कचरा मुक्त बनाने की दिशा में काम करता है। नटराजन ने भी ‘पुनरावर्तन’ अभियान में बढ़चढ़ के हिस्सा लिया और इसका प्रबंधन संभाला। नटराजन ने बताया कि इस अभियान के अंतर्गत बनी टीम ने कुछ दिशा निर्देश बनाए। इसके अंतर्गत स्वयंसेवक लोगों से केवल प्राकृतिक चिकनी मिट्टी ही वापस लेंगे जबकि प्लास्टर ऑफ पेरिस या मिश्रित मिट्टी को स्वीकार नहीं किया जाएगा। 

“हमने इस काम के लिए बहुत से युवा स्वयंसेवकों को चुना और 50 कलेक्शन पॉइंट घोषित किए जहां कोई भी व्यक्ति अपनी मूर्तियों की मिट्टी को जमा करा सकता था। हमनें कुछ विडियो के माध्यम से भी जागरूकता फैलाई कि मूर्तियों को कैसे घर पर ही पारंपरिक तरीके से विसर्जित करके उसकी मिट्टी को जमा करना है। हमनें कई बड़े बिल्डिंग सोसाइटी के लिए परिवहन के भी इंतेजाम किये। जो लोग खुद से मूर्तियों से मिट्टी नहीं निकाल सकते थे उनसे हमने मूर्तियां वापस लीं और मूर्तिकारों को वापस कर दी। इस साल जितनी मिट्टी इकट्ठा हुई है उससे अगले साल के पुणे की 25% मूर्तियों को दोबारा बनाया जा सकता है,” नटराजन ने बताया। 

इस निजी प्रयास के अलावा पुणे नगर निगम ने भी कुछ कलेक्शन पॉइंट बनाए थे जहां चिकनी मिट्टी को वापस किया जा सकता था। पुणे नगर निगम ने भी एक सर्क्युलर निकाल कर लोगों को ‘पुनरावर्तन’ अभियान से जुड़ने का आवेदन किया। 

मिट्टी के पुनर्चक्रण के संदेश को फैलाने के लिए प्रचारकों ने साइकिल रैलियों और आउटरीच कार्यक्रमों के अन्य तरीकों का इस्तेमाल किया। तस्वीर- पूर्णावर्तन
मिट्टी के पुनर्चक्रण के संदेश को फैलाने के लिए प्रचारकों ने साइकिल रैलियों और आउटरीच कार्यक्रमों के अन्य तरीकों का इस्तेमाल किया। तस्वीर- पुनरावर्तन

शहर के युवाओं ने इस अभियान को सफल बनाने के लिए विशेष ध्यान दिया। मुनिरा फलतनवाला, एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं जिन्होंने ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस अभियान से जोड़ने में मदद की। मुनिरा ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “हम लोग स्कूल, कॉलेज और स्वयंसेवी संस्थाओं के पास गए और उनको साथ में काम करने का आमंत्रण दिया। कॉलेज के बहुत से युवाओं ने साथ में काम की इच्छा जताई। उन्हें पहले हमने कुछ प्रशिक्षण दिया। कुछ लोगों ने इस अभियान को इंटरनेट के माध्यम से मशहूर किया जबकि कई लोगों ने अपने इलाकें में जागरूकता फैलाई जबकि कई और लोगों से मिट्टी इकट्ठा करने के काम में लग गए।”  

सूचिस्मिता पाई पुणे के ‘सामाजिक सेवा प्रयास’ नाम की एक संस्था की सह-संथापक है। पाई का कहना है कि पुणे शहर में लोगों और संस्थानों का पर्यावरण और संरक्षण के मामलों के लिए साथ आना एक आम बात है जो यहां के लोगों की पर्यावरण के प्रति जागरूकता को दर्शाता है। पाई ने बताया कि पुणे में केवल मिट्टी का ही नहीं बल्कि पूजा में इस्तेमाल फूल और दूसरी पूजा सामग्री का पुनर्चक्रण भी पिछले 10 साल किया जा रहा है। 

“मिट्टी का पुनर्चक्रण कोई इकलौता उदाहरण नहीं है। साल 2011 में पुणे में ई-कोएक्सिस्ट और स्वच्छ नामक संस्थाओं ने एक अभियान शुरू किया था जिसके अंतर्गत पूजा में इस्तेमाल फूल और दूसरी सामग्री जो पानी के स्रोतों के पास आती हैं उनका पुनर्चक्रण  किया जाता है। पुणे नगर निगम की सहायता से इसे खाद में तब्दील कर दिया जाता है। इस अभियान का नाम ‘निर्मल्य’ रखा गया था। इस साल इस अभियान के अंतर्गत हमने पूजा में इस्तेमाल हुए 77 टन फूलों को खाद में तब्दील किया,” पाई ने बताया।

 

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बैनर तस्वीरः गणेश प्रतिमाओं से इस साल दो मिट्टी एकत्रित हुई है उसे अगले साल मूर्तियां बनाने में इस्तेमाल में लाया जाएगा। तस्वीर– वेदसूत्र / विकिमीडिया कॉमन्स

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