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चार रामसर साइट्स के बावजूद क्यों धीमा है मध्य प्रदेश में वेटलैंड संरक्षण

2019 में बिना खरपतवार वाली सिरपुर आर्द्रभूमि। तस्वीर साभार- भालू मोंधे।

2019 में बिना खरपतवार वाली सिरपुर आर्द्रभूमि। तस्वीर साभार- भालू मोंधे।

  • साल 2022 में मध्य प्रदेश की तीन और आर्द्रभूमियों को रामसर साइट्स का दर्जा मिलने के बाद इनकी संख्या बढ़कर चार हो गई। हालांकि राज्य में आर्द्रभूमि के संरक्षण की दिशा में आधिकारिक कदम अभी भी धीमी गति से आगे बढ़ रहे हैं।
  • आर्द्रभूमियों की अधिसूचना उनके संरक्षण और भविष्य में रामसर साइट का दर्जा मिलने की संभावनाओं के लिए रास्ता बनाती है। अधिसूचना काफी मायने रखती है क्योंकि यह आर्द्रभूमि की सीमाओं का निर्धारण करने और इसके प्रभाव क्षेत्र की पहचान करने के अलावा जल निकाय को कानूनी दर्जा देने का भी काम करती है।
  • मध्य प्रदेश में छह आर्द्रभूमि हैं, जिन्हें वह रामसर साइटों के दावेदार के रूप में प्रस्तावित करना चाहता है।

मध्य प्रदेश 2022 में अपने तीन नए वेटलैंड्स (आद्रभूमि) को रामसर साइट का दर्जा दिए जाने का जश्न मना रहा है। लेकिन रामसर साइट में शामिल होने के लिए इंतजार कर रही राज्य की बाकी आर्द्रभूमियों की यात्रा के जल्द पूरा होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। राज्य में ऐसे कई वेटलैंड्स हैं जिनके संरक्षण के लिए उन्हें चिन्हित तो किया गया है। मगर इनमें से एक को छोड़ दें, तो किसी को भी भविष्य के लिए रामसर में नामित करने के लिए आधिकारिक तौर पर अधिसूचित नहीं किया गया है। दरअसल यह राज्य सरकार की ओर से की जाने वाली एक प्रशासनिक प्रक्रिया है जो जल निकायों को कानूनी दर्जा देती है और संरक्षण में उनकी सहायता करती है। अधिसूचना दिए जाने के बाद ही यह तय किया जाता है कि ये रामसर साइट का दर्जा दिए जाने योग्य हैं या नहीं। 

रामसर साइट अंतरराष्ट्रीय महत्व की वो आर्द्रभूमि हैं जिन्हें दुर्लभ या अद्वितीय आर्द्रभूमि प्रकार या जैविक विविधता के संरक्षण में उनके महत्व के लिए नामित किया जाता है।

स्टेट वेटलैंड अथॉरिटी ने करीब एक साल पहले वेटलैंड रूल्स 2017 के तहत छह झीलों की अधिसूचना के लिए राज्य सरकार को प्रस्ताव भेजा था। इरादा इन झीलों को अधिसूचित करने का था ताकि इन्हें संरक्षण की सुविधा प्रदान की जा सके और उनके नाम अगले नामांकन दौर में रामसर स्थानों का दर्जा दिए जाने के लिए सुझाए जा सकें। इन नामों में शिवपुरी जिले में जाधव सागर और माधव सागर झीलें, सागर जिले में सागर झील, अशोकनगर जिले के ईसागढ़ में सिंध सागर, रतलाम में अमृत सागर और दतिया जिले में सीता सागर शामिल हैं।

इन आर्द्रभूमियों के संरक्षण और कायाकल्प के लिए पहले ही बहुत पैसा लगाया जा चुका है। स्टेट वेटलैंड अथॉरिटी के ऑफिस इंचार्ज लोकेंद्र ठक्कर ने बताया कि ये वेटलैंड भारत सरकार के एनपीसीए प्रोजेक्ट का हिस्सा थे। शिवपुरी में जाधव सागर और माधव सागर झीलों पर अब तक 111.54 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। इनके संरक्षण के लिए कई तरह की गतिविधियां चलाई गई थीं। इसी तरह सागर झील में 21.33 करोड़, अशोकनगर के सिंध सागर में 10.78 करोड़, रतलाम के अमृत सागर में 21 करोड़ और दतिया जिले के सीता सागर में 13.85 करोड़ रुपये लगाए जा चुके हैं।

भोपाल में भोज आर्द्रभूमि में उड़ते प्रवासी पक्षी। आर्द्रभूमि को 2002 में रामसर साइट का दर्जा दिया गया था। तस्वीर साभार- देवेंद्र दुबे
भोपाल में भोज आर्द्रभूमि में उड़ते प्रवासी पक्षी। आर्द्रभूमि को 2002 में रामसर साइट का दर्जा दिया गया था। तस्वीर साभार- देवेंद्र दुबे

इसके अलावा राज्य ने मध्य प्रदेश में 120 आर्द्रभूमियों की एक सूची केंद्र सरकार को भेजी है। इन सभी का राष्ट्रीय जलीय पारिस्थिकी संरक्षण योजना (एनपीसीए) के तहत संरक्षण और कायाकल्प कार्यक्रम में शामिल किया गया है।

मध्य प्रदेश में अब कुल चार रामसर स्थान हैं। भोज वेटलैंड और बड़ा तालाब के नाम से जाने जाने वाली अपर लेक को 2002 में मध्य प्रदेश की पहली रामसर साइट घोषित किया गया था। उसके दो दशक बाद 2022 में  इंदौर के दो जल निकायों ‘यशवंत सागर झील’ और ‘सिरपुर झील’ को रामसर साइट घोषित किया गया। इसी साल बाद में, शिवपुरी की साख्या सागर झील को भी रामसर साइट का दर्जा मिल गया था। 

वेटलैंड्स को रामसर में नामित करने के लिए अधिसूचना जारी करना एक स्वतंत्र प्रक्रिया है। यह नामित रामसर साइटों के निरंतर संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण कदम भी है।

जबलपुर उच्च न्यायालय में अपर लेक की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिका दायर करने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता सुभाष पांडेय ने कहा, “सरकार के प्रयासों को सही उद्देश्यों के साथ सही दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। राज्य सरकार ने स्टेट वेटलैंड (संरक्षण और प्रबंधन) नियम 2017 के तहत एक भी वेटलैंड को अधिसूचित नहीं किया है। राज्य रामसर साइट अपर लेक (भोज वेटलैंड) को अधिसूचित करने का दावा करती है, लेकिन उसे भी अदालत में चुनौती दी गई है।”  पांडे ने आरोप लगाते हुए कहा कि अधिसूचना से संबंधित वेटलैंड नियम साफ तौर पर बताते हैं कि अधिसूचना से पहले एक जन सुनवाई जरूरी है। लेकिन सरकार ने जानबूझकर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए इस प्रक्रिया को पीछे छोड़ दिया।

अधिसूचना- संरक्षण की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम

राज्य सरकार की ओर से वेटलैंड्स की अधिसूचना, संरक्षण की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम है। यह वेटलैंड्स की सीमाओं का निर्धारण करने के अलावा इसके ‘प्रभाव क्षेत्र’ की पहचान करने के लिए एक नक्शा तैयार करता है। ऐसा करना वेटलैंड नियम 2017 के तहत अनिवार्य है। पांडे ने कहा कि प्रभाव क्षेत्र में प्रतिबंधित, विनियमित और अनुमत गतिविधियों पर निर्णय लेने के लिए नक्शे की जरूरत होती है। आर्द्रभूमि के प्रभाव का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जहां विकासात्मक गतिविधियों से आर्द्रभूमि के पारिस्थितिकी तंत्र संरचना और पारिस्थितिक कार्यप्रणाली में प्रतिकूल बदलाव होने की संभावना होती है। प्रभाव क्षेत्र की सीमा को परिभाषित करते समय विशेषज्ञ स्थानीय जल विज्ञान और भूमि उपयोग की प्रकृति पर विचार करते हैं।

रामसर स्थलों के अंदर आने वाले क्षेत्रों के आधार पर सरकारी अधिकारी उन गतिविधियों के बारे में निर्णय लेते हैं जो इन आर्द्रभूमियों पर की जा सकती हैं।

खरपतवारों से भरी इंदौर की सिरपुर आर्द्रभूमि फिलहाल उपेक्षित अवस्था में पड़ी है। तस्वीर साभार- भालू मोंधे।
खरपतवारों से भरी इंदौर की सिरपुर आर्द्रभूमि फिलहाल उपेक्षित अवस्था में पड़ी है। तस्वीर साभार- भालू मोंधे।

पर्यावरणविद सुभाष पांडे ने कहा, “वेटलैंड नियमों में प्रतिबंधित, विनियमित और अनुमत गतिविधियों को बेहतर तरीके से परिभाषित किया गया है। लेकिन सरकार और निवासियों के बीच टकराव तब शुरू होता है जब स्थानीय प्राधिकरण वहां रहने वाले लोगों को विश्वास में लिए बिना नक्शे और प्रभाव क्षेत्र को चिन्हित कर देते हैं।”

एक सेवानिवृत्त वन अधिकारी (IFS) और आर्द्रभूमि विशेषज्ञ सुदेश वाघमारे ने बताया, “प्रभाव क्षेत्र आर्द्रभूमि सीमा से 50 से 500 मीटर तक हो सकता है। इसमें जल स्रोत भी शामिल है (जैसे नदी आर्द्रभूमि को बनाए रखती है)। इसकी परिभाषा में लचीलापन या मनमानी स्थानीय अधिकारियों द्वारा ‘प्रभाव क्षेत्र’ की सीमा में हेरफेर करने की ओर ले जाती है।

अधिसूचना प्रक्रिया पर असर डालता राजनीतिक प्रभाव

वाघमारे ने कहा कि सरकारें आर्द्रभूमियों की अधिसूचना में सक्रिय तौर पर रुचि नहीं लेती हैं। उनके लिए ऐसा करना विवादों के भानुमती का पिटारा खोलने जैसा है। वाघमारे ने बताया, “अधिसूचना के बाद आर्द्रभूमि और उसके आसपास की गतिविधियों को विनियमित करने के अलावा आर्द्रभूमि की सीमाओं का निर्धारण किया जाता है। किसानों और मछुआरों के साथ-साथ उसके आस-पास रहने वाले तमाम लोग अपनी आजीविका के लिए आर्द्रभूमि से जुड़े होते हैं और अधिसूचना जारी होने का इन सभी लोगों पर सीधा असर पड़ता है। ये लोग राजनेताओं के वोट बैंक होते हैं, इसलिए राजनीतिक नेता वेटलैंड की सीमा का निर्धारण करने या आर्द्रभूमि के आसपास की गतिविधियों को विनियमित करने में रुकावटें डालते रहते हैं।” 

भोज आर्द्रभूमि क्षेत्र के पास जमीन का बड़ा हिस्सा प्रभावशाली लोगों या सत्ता में बैठे लोगों को बेच दिया गया था। वाघमारे ने आरोप लगाया कि अगर अधिसूचना जारी कर दी गई होती और प्रभाव क्षेत्र की सीमा का निर्धारण कर दिया जाता, तो ये सौदे कभी नहीं हो पाते।

एटखेड़ी गांव (भोज आर्द्रभूमि की सीमा पर स्थित) के एक किसान वीर सिंह ठाकुर ने कहा, “सरकार ने (लगभग दो दशक पहले) भोजपाल वेटलैंड के लिए 16 एकड़ कृषि भूमि का अधिग्रहण किया था। सरकार की तरफ से हमें मुआवजा दिया गया था। लेकिन इसके साथ अधिकारियों ने हमसे यह भी कहा था कि पानी का स्तर कम होने पर हम अपनी जमीन पर खेती कर सकते हैं, लेकिन अब हमें इसकी अनुमति नहीं है। ऐसा करने की कोशिश करने वाले किसानों को पुलिस ने पीटा भी है।”

किसान वीर सिंह ठाकुर भोज आर्द्रभूमि सीमा के पास अपनी जमीन पर खड़े हैं। उनका आरोप है कि किसानों को खेती करने की इजाजत तो दे दी गई है लेकिन उसी इलाके में आवासीय कॉलोनियां भी बनाई जा रही हैं। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी
किसान वीर सिंह ठाकुर भोज आर्द्रभूमि सीमा के पास अपनी जमीन पर खड़े हैं। उनका आरोप है कि किसानों को खेती करने की इजाजत तो दे दी गई है लेकिन उसी इलाके में आवासीय कॉलोनियां भी बनाई जा रही हैं। तस्वीर- शहरोज़ अफरीदी

खजूरी गांव (भोज आर्द्रभूमि के तट पर स्थित) में रहने वाले एक अन्य किसान दशरथ सिंह ठाकुर ने एफटीएल (फुल टैंक लेवल) पिलर लगाने के तरीके पर अपनी आपत्ति जताई। ठाकुर ने सवाल उठाया, “जिस तरह से प्रशासनिक अधिकारियों ने एफटीएल पिलर लगाया है, उसमें हुई गड़बड़ियों को कोई भी आसानी से समझ सकता है। प्रभावशाली लोगों की जमीनें बख्श दी गई हैं, जबकि गरीबों की जमीनों को डूब क्षेत्र में शामिल कर लिया गया है। यह कैसे संभव है कि मेरी भूमि को जलमग्न श्रेणी में रखा गया है, जबकि बगल की भूमि जलमग्न नहीं है और एफटीएल स्तर से बाहर है?” ठाकुर ने आगे कहा, “सरकारी अधिकारियों ने एफटीएल पिलर लगाने में भेदभाव किया है। हम भोज वेटलैंड सीमा का निर्धारण करने की प्रक्रिया के खिलाफ उच्च न्यायालय में दायर याचिका का समर्थन करते हैं। हमने इस मामले को लेकर अपने विधायक से भी आपत्ति जताई है और उन्होंने हमें हर तरह की मदद का आश्वासन दिया है।”

वाइज यूजदृष्टिकोण

अधिसूचित आर्द्रभूमियों के संरक्षण और प्रबंधन के मामले में ‘वाइज यूज’ दृष्टिकोण अपनाए जाने की सिफारिश की गई है। वाइज यूज का मतलब इंसानों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आर्द्रभूमि सहित वन्य जीवों के संसाधनों का सतत उपयोग। इंसान और उनके द्वारा संसाधनों का इस्तेमाल आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र की गतिशीलता का एक अनिवार्य घटक है। ‘वाइज यूज’ दृष्टिकोण कहता है कि आर्द्रभूमि के नुकसान को रोकने के लिए वहां रहने वाले लोगों और आर्द्रभूमि के साथ उनके संबंधों को एक साथ लाने की जरूरत है। ‘वाइज यूज’ सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य इन पारिस्थितिक तंत्रों का निरंतर इस्तेमाल करता रहे, यह संरक्षण के अनुकूल है।

रामसर कन्वेंशन

रामसर कन्वेंशन वेटलैंड्स के ‘वाइज यूज’ को सतत विकास के संदर्भ में पारिस्थितिकी तंत्र के दृष्टिकोण के कार्यान्वयन के माध्यम से हासिल किए गए उनके पारिस्थितिक चरित्र के रखरखाव के रूप में परिभाषित करता है। पारिस्थितिक तंत्र के दृष्टिकोण के लिए विभिन्न पारिस्थितिकी तंत्र तत्वों और एकीकृत भूमि, जल और जीवित संसाधनों के प्रबंधन को बढ़ावा देने के बीच जटिल संबंधों पर विचार करने की आवश्यकता है। टिकाऊ विकास पर जोर देते हुए वाइज यूज संसाधनों के उपयोग के ऐसे तरीकों की जरूरत की बात कहता है जिससे न सिर्फ वर्तमान में बल्कि भविष्य में भी आर्द्रभूमि पर मानव निर्भरता को बनाए रखा जा सके। कुल मिलाकर  ‘वाइज यूज’ आर्द्रभूमि के लाभों को बनाए रखने और बढ़ाने के बारे में है और यह इंटर- जेनरेशनल इक्विटी के नजरिए से आर्द्रभूमि (उनकी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं) से लाभों के प्रवाह के रखरखाव को सुनिश्चित करने के लिए कार्य करता है।

राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण द्वारा गठित इंदौर जिला आर्द्रभूमि संरक्षण समिति के सदस्य और पदमश्री भालू मोंधे ने कहा कि राज्य सरकार की तरफ से दी गई अधिसूचना आर्द्रभूमि को बचाने में मदद करती है। यह अधिसूचना स्थानीय प्रशासन को झील के भीतर और आसपास की गतिविधियों को विनियमित करने की शक्ति देती है। मोंधे ने कहा, “मैं इन आर्द्रभूमियों को अधिसूचित करने में सरकार की हिचकिचाहट को समझने में विफल हूं। इंदौर नगर निगम के अधिकारी संरक्षण गतिविधियों को बढ़ावा देने में रुचि नहीं लेते हैं। वे हमारे फोन कॉल भी नहीं उठाते हैं।” 


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इंदौर में सिरपुर झील और यशवंत सागर झीलों को 2022 में रामसर साइट के लिए नामित किया गया था।

मधु वर्मा वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली की मुख्य अर्थशास्त्री हैं। वह भारतीय वन प्रबंधन संस्थान (IIFM), भोपाल में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान भोपाल में भोज वेटलैंड पर बड़े पैमाने पर काम कर चुकी हैं। उन्होंने बताया कि जल निकाय के आसपास रहने वाले स्थानीय लोगों के अलावा नगर निकाय, वन अधिकारी, सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड आदि सहित आर्द्रभूमि के संरक्षण में कई हितधारक हैं।

वर्मा ने कहा, “कई एजेंसियां इसके लिए काम करती हैं, लेकिन कोई भी आर्द्रभूमि के संरक्षण की जिम्मेदारी नहीं लेता है। आर्द्रभूमि की सीमाओं का निर्धारण एक प्रमुख मसला है। सभी एजेंसियों के प्रतिनिधियों को आर्द्रभूमियों के महत्व के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। तभी चीजें बेहतर हो सकती हैं। ”

लेकिन मध्य प्रदेश के पर्यावरण मंत्री हरदीप सिंह डांग की राय उनसे अलग है। उन्होंने मोंगाबे इंडिया से कहा, “राज्य सरकार आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए सभी जरूरी कदम उठा रही है। वेटलैंड्स के सीमांकन की प्रक्रिया जारी है और जल्द ही पूरी हो जाएगी। ” 

लेकिन उन्होंने मोंगाबे इंडिया द्वारा वेटलैंड्स को अधिसूचित करने में देरी से संबंधित सवाल को टाल दिया।

किसान वीर सिंह ठाकुर भोज आर्द्रभूमि सीमा के पास अपनी जमीन पर खड़े हैं। उनका आरोप है कि किसानों को खेती करने की इजाजत तो दे दी गई है लेकिन उसी इलाके में आवासीय कॉलोनियां भी बनाई जा रही हैं। तस्वीर- शाहरोज अफरीदी 

 

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बैनर तस्वीर: 2019 में बिना खरपतवार वाली सिरपुर आर्द्रभूमि। तस्वीर साभार- भालू मोंधे।

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