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चुनौतियों के बावजूद शौचालयों से जुड़े बायोगैस अपनाने में प्रगति की राह पर कोल्हापुर

‘राष्ट्रीय बायोगैस विकास कार्यक्रम’ बायोगैस संयंत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी मुहैया कराने के मकसद से 1981 में शुरू किया गया था। तस्वीर- कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर 

‘राष्ट्रीय बायोगैस विकास कार्यक्रम’ बायोगैस संयंत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी मुहैया कराने के मकसद से 1981 में शुरू किया गया था। तस्वीर- कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर 

  • महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में 25% शौचालय बायोगैस इकाइयों से जुड़े हैं जो मौके पर ही मल का निपटान करते हुए उसे ईंधन में परिवर्तित कर देते हैं।
  • यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि आम तौर पर भारत में बायोगैस उत्पन्न करने के लिए मानव मल के इस्तेमाल को अनुचित माना जाता है। इसकी बड़ी वजह गैस का खाना पकाने में इस्तेमाल किया जाना है।
  • कम तकनीकी जानकारी के अलावा, भारत में खाना पकाने के ईंधन, उर्वरक और स्वच्छता के लिए अत्यधिक सब्सिडी वाली प्रतिस्पर्धी योजनाएं भी बायोगैस के कम इस्तेमाल के लिए जिम्मेदार हैं।

पश्चिमी राज्य महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में चौधरवाड़ी गांव की 35 वर्षीय रूपाली चौधरी का उनकी शादी के बाद ज्यादातर समय परिवार के लिए खाना पकाने में बीतता है। पहले वह चूल्हा जलाने के लिए जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के लिए दिन में तीन बार अपने गांव के पास एक जंगल में जाया करती थीं। लेकिन 2018 में उनके घर के पीछे आंगन में एक बायोगैस संयंत्र स्थापित होने के बाद से जंगल में आना-जाना कम हो गया और उनका काफी समय बचने लगा। अब वह खाना पकाने का काम बायोगैस से जलने वाले चूल्हे पर करती हैं। इससे न सिर्फ उन्हें धुएं से मुक्ति मिली है, बल्कि जलाऊ लकड़ी पर उनकी निर्भरता भी कम हो गई है।

उनका ये चूल्हा बायोगैस संयंत्र से निकलने वाली गैस से चलता है, जो उसके घर में हाल ही बने शौचालय के साथ जुड़ा है। चौधरवाड़ी के 100 में से 60 परिवारों ने अपने शौचालयों को ‘बायोगैस डाइजेस्टर्स’ से जोड़ा हुआ है जो वहां के शौचालयों से निकले कार्बनिक पदार्थ को विघटित कर बायोगैस उत्पन्न करता है।

इसका एक मतलब यह भी है कि रूपाली को अब शौच के लिए रोजाना आम सार्वजनिक शौचालय में जाना नहीं पड़ता है। उन्होने कहा, “मैं अब खेतों में ज्यादा समय बिता पाती हूं। संयत्र से निकलने वाला घोल (स्लरी) अच्छी खाद बनाता है जिसे हम अपने दो एकड़ के गन्ने के बागान में इस्तेमाल करते हैं। नतीजन यूरिया पर होने वाला खर्च कम हो गया है।” 

कोल्हापुर की कृषि अधिकारी गौरी पी. माथापति ने कहा, “बायोगैस से जुड़े शौचालय हमारी महिलाओं के लिए जीवन बदलने वाले रहे हैं। ये महिलाएं खाना पकाने और जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के काम के बोझ तले दबे रहती थीं और यहां तक कि शौच के लिए घर से बाहर जाने पर भी उनकी सुरक्षा का जोखिम भी बना रहता था।” 

कोल्हापुर में लगभग 25% शौचालय यानी 5,30,000 में से 1,19, 780 शौचालय बायोगैस संयंत्रों से जुड़े हैं। बायोगैस डाइजेस्टर के निर्माण में लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जिले को 1982 से देश में और महाराष्ट्र में कई बार प्रथम स्थान दिया गया है। कोल्हापुर के 1186 गांवों में से 12 गांवो में बायोगैस से जुड़े शौचालयों (बीएलटी) का 100% कवरेज है।

मौजूदा या नए शौचालयों को बायोगैस संयंत्रों से जोड़ने की पहल कोल्हापुर में जिला प्रशासन की ओर से तब शुरू की गई थी, जब 2014 में स्वच्छ भारत अभियानलॉन्च किया गया था। सरकार बायोगैस से जुड़े शौचालय बनाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से अनुमानित खर्च के लगभग 30% की सब्सिडी प्रदान करती है। 

लेकिन इस पहल की अपनी कुछ चुनौतियां हैं, जिनसे निपटना आसान नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती  मुख्य रूप से लोगों के व्यवहार में बदलाव की है। कोल्हापुर के जिला कार्यक्रम प्रबंधक (जिला जल और स्वच्छता मिशन) विजय पाटिल ने कहा, “शौचालय लोगों में घिन पैदा करता है। वह इसे हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। मल को संसाधन के रूप में मानने की मानसिकता में बदलाव इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा थी। लेकिन एक मजबूत जागरूकता कार्यक्रम ने हमारी मदद की।

भारत को 2019 में खुले में शौच मुक्त घोषित किया गया था। लेकिन ग्रामीण भारत में अभी भी सीवरेज नेटवर्क नहीं है। भारत के 6 लाख गांवों में से सिर्फ 1.36 लाख में तरल अपशिष्ट प्रबंधन के लिए कुछ व्यवस्था है। अपशिष्ट से निपटने के लिए ज्यादातर शौचालय के साथ सेप्टिक टैंक यानी जुड़वां गड्ढे या एक गड्ढा बनाया जाता है, जिसे हर कुछ सालों में खाली करने की जरूरत होती है। बिहार में 2018 के एक अध्ययन के अनुसार, यह शौचालय का इस्तेमाल करने में सबसे बड़ी बाधा के रूप में उभरा है। कुछ गांव खाली किए गए मल को पास के शहरी क्षेत्रों में उपचार संयंत्रों में ले जाते हैं लेकिन यह एक महंगा मामला है। 

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई), नई दिल्ली स्थित थिंक-टैंक की वरिष्ठ कार्यक्रम प्रबंधक सुष्मिता सेनगुप्ता ने कहा, “मानव मल से निपटने के लिए ऑन-साइट प्रबंधन महत्वपूर्ण है क्योंकि तभी इसका पूरा फायदा उठाया जा सकता है. बीएलटी को किसी भी इलाके में स्थापित किया जा सकता है और विशेष रूप से जल-जमाव वाले क्षेत्रों के लिए यह काफी अच्छा है।” 

कचरे से ईंधन

भारत में आमतौर पर एक बायोगैस संयंत्र में मुख्य फीडस्टॉक के रूप में गाय का गोबर होता है और इसमें तीन भाग होते हैं – एक इनलेट जहां से गोबर को पानी के साथ मिलाया जाता है, एक डाइजेस्टर और एक स्लरी संग्रह टैंक से जुड़ा एक आउटलेट। लेकिन मानव शौचालय सीधे पीवीसी पाइप लाइन के जरिए डाइजेस्टर से जुड़ा होता है और इसे मैन्युअल रूप से संभालने की जरूरत नहीं पड़ती है।

बायोगैस में 55-65% मीथेन, 35-44% कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य गैसें होती हैं। बायोगैस का उत्पादन कार्बनिक पदार्थ के रूप में होता है और डाइजेस्टर के ऊपर से खाना पकाने के स्टोव तक पाइप से जुड़ा होता है। गैस का बढ़ा हुआ दबाव स्लरी (घोल) को स्लरी स्टोरेज टैंक से बाहर निकलता है। फिर ये घोल 20-30 दिनों के लिए डाइजेस्टर में रखा जाता है, अधिकांश रोगजनकों और खरपतवार के बीजों को विघटित करता है, जिससे नाइट्रोजन युक्त खाद बनती है। बायोएथेनॉल या बायो-डीजल के विपरीत बायोगैस कचरे से प्राप्त होती है, इसलिए इसमें खाद्य उत्पादों के लिए भूमि और जैव विविधता के साथ प्रतिस्पर्धा शामिल नहीं है।

बायोगैस संयंत्र जो सिर्फ मानव मल पर काम करते हैं, वे घरेलू उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पाते हैं। दरअसल इनमें पर्याप्त मात्रा में गैस का उत्पादन करने के लिए फीडस्टॉक बहुत कम होता है। गाय के गोबर और मानव मल का मिश्रण अधिक प्रभावी होता है। 

कोल्हापुर में पूर्वनिर्मित बायोगैस संयंत्रों की आपूर्ति करने वाली एजेंसी शिवसदन सहकारी सोसाइटी के प्रबंध निदेशक आर.पी. नीलकांत ने कहा, “एक किलोग्राम गाय के गोबर से 40 लीटर बायोगैस पैदा होती है जबकि एक किलोग्राम मानव मल से 70 लीटर गैस पैदा होती है। (अगर गाय के गोबर और मानव मल का उपयोग किया जाए) स्वाभाविक तौर पर रोजाना खाना पकाने के लिए ज्यादा ईंधन उपलब्ध हो पाएगा।” 

दो क्यूबिक मीटर/दिन (2000 लीटर) क्षमता की एक बुनियादी बायोगैस इकाई पांच सदस्यों के परिवार के लिए रोजाना के इस्तेमाल के लिए काफी होती है। इसके लिए प्रतिदिन 4-5 मवेशियों के गोबर और मानव मल की आवश्यकता होती है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा ग्रामीण जल आपूर्ति और अपशिष्ट जल प्रबंधन पर सफल केस स्टडी के विस्तृत विवरण बिग चेंज इज पॉसिबल नामक एक रिपोर्ट का कहना है। “एक महीने में दो घन मीटर का संयंत्र 26 किलोग्राम एलपीजी, 88 किलोग्राम चारकोल या 210 किलोग्राम जलाऊ लकड़ी के बराबर 60 घन मीटर बायोगैस का उत्पादन कर सकता है। अगर कोई परिवार महीने में एक एलपीजी सिलेंडर का इस्तेमाल करता है और बीएलटी में शिफ्ट हो जाता है, तो इससे सालाना 12,000 रुपये की बचत होगी।

फिक्स्ड-डोम टॉयलेट-लिंक्ड एनारोबिक डाइजेस्टर (टीएलएडी) का सचित्र आरेख। गहरे नीले तीर फीडस्टॉक के प्रवाह को दर्शाते हैं और हल्के नीले रंग के तीर बायोगैस के प्रवाह को दर्शाते हैं। शौचालय (A) और गाय या अन्य पशु का गोबर (B) से निकला फीडस्टाक्स और अन्य कार्बनिक अपशिष्ट एक पतली नाली से बहते हुए पानी के साथ मिलकर डाइजेस्टर (F) में प्रवाहित होते हैं। जैसे-जैसे जैविक कचरा विघटित होता है बायोगैस डाइजेस्टर के अंदर बनती जाती है और एक पाइप (E) के जरिए ऊपर आते हुए सीधे रसोई के चूल्हे तक पहुंच जाती है। बायोगैस का उत्पादन निश्चित गुंबद संरचना (C) के अंदर दबाव बढ़ाता है और प्रक्रिया के उप-उत्पाद को स्लरी को भंडारण क्षेत्र (D) से बाहर आने के लिए मजबूर कर देता है। तरल उत्पाद को स्लरी कहा जाता है। यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है और मुख्य रूप से इसे संयंत्र उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. आमतौर पर, मुख्य डाइजेस्टर के ऊपर बना बायोगैस गुंबद (C) जमीन से ऊपर होता है. लेकिन कुछ मामलों में (F) और (C) दोनों भूमिगत होते हैं। इमेज स्रोत: विलियम्स, एन बी, क्विलियम, आर एस, कैंपबेल, बी, घटानी, आर, और डिकी, जे (2022)। टैबू , टॉयलेट और बायोगैस: एक स्थायी घरेलू प्रौद्योगिकी की स्वीकृति के लिए सामाजिक-तकनीकी मार्ग। एनर्जी रिसर्च एंड सोशल साइंस, 86, 102448. https://doi.org/10.1016/j.erss.2021.102448
फिक्स्ड-डोम टॉयलेट-लिंक्ड एनारोबिक डाइजेस्टर (टीएलएडी) का सचित्र आरेख। गहरे नीले तीर फीडस्टॉक के प्रवाह को दर्शाते हैं और हल्के नीले रंग के तीर बायोगैस के प्रवाह को दर्शाते हैं। शौचालय (A) और गाय या अन्य पशु का गोबर (B) से निकला फीडस्टाक्स और अन्य कार्बनिक अपशिष्ट एक पतली नाली से बहते हुए पानी के साथ मिलकर डाइजेस्टर (F) में प्रवाहित होते हैं। जैसे-जैसे जैविक कचरा विघटित होता है बायोगैस डाइजेस्टर के अंदर बनती जाती है और एक पाइप (E) के जरिए ऊपर आते हुए सीधे रसोई के चूल्हे तक पहुंच जाती है। बायोगैस का उत्पादन निश्चित गुंबद संरचना (C) के अंदर दबाव बढ़ाता है और प्रक्रिया के उप-उत्पाद को स्लरी को भंडारण क्षेत्र (D) से बाहर आने के लिए मजबूर कर देता है। तरल उत्पाद को स्लरी कहा जाता है। यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है और मुख्य रूप से इसे संयंत्र उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. आमतौर पर, मुख्य डाइजेस्टर के ऊपर बना बायोगैस गुंबद (C) जमीन से ऊपर होता है. लेकिन कुछ मामलों में (F) और (C) दोनों भूमिगत होते हैं। तस्वीर स्रोत: विलियम्स, एन बी, क्विलियम, आर एस, कैंपबेल, बी, घटानी, आर, और डिकी, जे (2022)। टैबू , टॉयलेट और बायोगैस: एक स्थायी घरेलू प्रौद्योगिकी की स्वीकृति के लिए सामाजिक-तकनीकी मार्ग। एनर्जी रिसर्च एंड सोशल साइंस, 86, 102448. https://doi.org/10.1016/j.erss.2021.102448

कोल्हापुर में प्रगति

कोल्हापुर के गगनबावड़ा ब्लॉक के धुंडावाडे गांव में 60 परिवार हैं। साल 2021 तक सभी के पास बीएलटी सुविधा आ गई थी। धूंदावड़े के सरपंच सरजाराव चौधरी ने कहा, “मेघालय के बाद गगनबावड़ा में सबसे ज्यादा बारिश होती है। मानसून के दौरान, जलाऊ लकड़ी को सूखा रखना मुश्किल हो जाता था। पहला बीएलटी 15 साल पहले धुंधवाडे में लगाया गया था। उन्होंने कहा, “लोगों ने इसके फायदे देखे। हमें पहले एक एकड़ धान के खेत में 500 किलो यूरिया की जरूरत होती थी। स्लरी के प्रयोग से अब सिर्फ 150 किग्रा. यूरिया से काम चल जाता है। कुछ लोगों को हाल ही में एलपीजी कनेक्शन मिला है, लेकिन उन्होंने भी अब इसे छोड़ दिया है क्योंकि उनके पास पूरे दिन का खाना पकाने के लिए पर्याप्त बायोगैस होती है।

कोल्हापुर में जलस्तर काफी ज्यादा है और समय-समय पर यहां बाढ़ आती रहती है। पदाली खू गाँव के प्रकाश एस पाटिल ने कहा, “सेप्टिक टैंक बनाने से यहां का पानी दूषित हो जाएगा।इस गांव के 1700 घरों में से 250 में बीएलटी हैं। जल और स्वच्छता शोधकर्ताओं सी एस शारदा प्रसाद और ईशा रे ने व्हेन द पिट्स फिल अप- (इन) विजिबल फ्लो ऑफ वेस्ट इन अर्बन इंडियानामक अपने 2019 के एक अध्ययन में कहा था कि गड्ढों से मल अपशिष्ट की लिंचिंग और फिर पीने के पानी के स्रोतों को दूषित करने वाले रोगजनकों का खतरा उच्च भूजल तालिका या मानसून की बारिश वाले क्षेत्रों में आम है।  

कोल्हापुर के एक खेत में बायोगैस से जुड़े शौचालय का निर्माण कार्य। तस्वीर- कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर।
कोल्हापुर के एक खेत में बायोगैस से जुड़े शौचालय का निर्माण कार्य। तस्वीर- कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर।

खेतिहर मजदूर उमा जाधव ने दो साल पहले बीएलटी बनवाया था। इसके बाद से उसकी कमाई बढ़ने लगी है। उन्होंने कहा, “अब मेरे पास काफी समय बच जाता है। समय बचने का मतलब है कि मैं और अधिक काम कर सकती हूं।उसके गांव संगरोल में 3000 परिवारों में से लगभग 2000 ने बीएलटी स्थापित किए हैं। वह बताती हैं, “बाकियों के पास घर में जगह नहीं है, इसलिए वे सेप्टिक टैंक रखने को मजबूर हैं।” 

पाटिल ने कहा, “हम एक कृषि अर्थव्यवस्था हैं। बायोगैस संयंत्र को बनाए रखने के लिए हर घर में काफी मवेशी हैं। खुले में शौच मुक्त गांवों का अभियान जब पहली बार शुरू हुआ तो लोगों का झुकाव सेप्टिक टैंक की तरफ ज्यादा था। लेकिन जब उन्होंने महसूस किया कि इसका मतलब हर कुछ साल बाद गड्ढों को खाली करना होगा, तो वे बीएलटी में जाने के लिए तैयार हो गए।

महाराष्ट्र के अन्य जिलों में 250 की तुलना में कोल्हापुर ने इस साल 1000 बीएलटी का लक्ष्य रखा है। रूपाली से जब पूछा गया कि क्या वह कभी अपने शौचालय से निकलने वाली बायोगैस का इस्तेमाल करने के खिलाफ थीं, तो उन्होंने कहा, “यह गंदा नहीं है। आखिरकार, आग में सब कुछ जल जाता है।

हालांकि माथापति ने बताया कि उन्हें अभी भी शिरोल और हाटकनागले ब्लॉक में कुछ समुदायों को समझाने में मुश्किलें आ रही हैं। उन्होंने कहा, “उनके पास बीएलटी स्थापित करने के लिए सभी साधन मसलन जमीन, पशु और पैसा है। लेकिन वे ऐसा नहीं करना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि बायोगैस पर बना खाना अशुद्ध होता है। हमने उन्हें बताया कि वेदों के अनुसार, “अग्नि” सब कुछ शुद्ध करती है। वास्तव में, अगर वे लकड़ी के लिए पेड़ काटते हैं तो वे हिंसा कर रहे हैं। लेकिन वे हमारी बात से सहमत नहीं हैं। 

अनुचित माने जाने वाली तकनीक

जिला कार्यक्रम प्रबंधक पाटिल ने 2011 का एक उदाहरण दिया, जब महाराष्ट्र के बाहर के अधिकारियों की एक समिति 2011 में कोल्हापुर में एक स्वच्छ योजना निर्मल ग्राम के कार्यान्वयन की जांच करने आई थी। अधिकारियों ने बीएलटी से जुड़े चूल्हे पर बनी चाय को पीने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा, “अगर स्वच्छता विभाग के अधिकारियों का ऐसा रवैया है, तो हम अनजान लोगों से इस तकनीक को अपनाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।”

1970 के दशक में पहले तेल संकट के बाद भारत में बायोगैस तकनीक पर काफी ध्यान दिया गया। उस समय यह साफ हो गया था कि कमर्शियल एनर्जी ग्रामीण और शहरी गरीबों की आर्थिक पहुंच से बाहर रहेगी। ऊर्जा को अधिक सुलभ बनाने और संकट के प्रभावों को कम करने के तरीके के रूप में बायोगैस संयंत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी देने पर विचार किया गया और फिर 1981 में राष्ट्रीय बायोगैस विकास कार्यक्रम शुरू हुआ। इसे अब नया राष्ट्रीय बायोगैस और जैविक खाद कार्यक्रम कहा जाता है।

30 करोड़ गोजातीय आबादी के साथ, जो बायोगैस संयंत्रों के लिए फीडस्टॉक का स्रोत है, भारत में 1.2 करोड़ से ज्यादा बायोगैस इकाइयां स्थापित करने की क्षमता है। आज तक देश में पचास लाख प्लांट लगाए गए हैं।

भारत में कितने बीएलटी मौजूद हैं, इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं है। साल 2020-21 में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने 8450 ऐसे बायोगैस शौचालय स्थापित करने का लक्ष्य रखा है। यह 60,000 बायोगैस संयंत्रों के वार्षिक लक्ष्य का 14% है।

सरकार दो घन मीटर बायोगैस संयंत्र के लिए 14,350 रुपये की सब्सिडी के साथ-साथ इसे शौचालय से जोड़ने के लिए अतिरिक्त 1,600 रुपये भी देती है। सब्सिडी का प्रतिशत 50,000 रुपये के अनुमानित खर्च का लगभग 30% है। फिर भी उम्मीद के मुताबिक चीजें आगे की ओर नहीं बढ़ रही हैं।

कोल्हापुर में बायोगैस से जुड़ी शौचालय योजना के लाभार्थी। फोटो -कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर 
कोल्हापुर में बायोगैस से जुड़ी शौचालय योजना के लाभार्थी। फोटो -कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर

इंजीनियरिंग प्रोफेसर से किसान बने धीरेंद्र और स्मिता सोनेजी गुजरात के नर्मदा जिले में रहते हैं। ये दोनों एक एनजीओ प्रयास के साथ ग्राम-स्तरीय सुपरवाइजर थे, जिसने 1986 में गुजरात में बायोगैस संयंत्र स्थापित किए और बायोगैस इकाइयों को शौचालयों से जोड़ा। उन्होंने कहा, “लेकिन किसी ने उन शौचालयों का इस्तेमाल नहीं किया। वे उनमें लकड़ी या खेती के उपकरण जमा करते हैं, लेकिन शौच के लिए इसका इस्तेमाल कभी नहीं किया।” 

असम में 2022 में एक अध्ययन किया गया था। इसमें राज्य और यूनाइटेड किंगडम के शोधकर्ताओं ने तकनीकी, सामाजिक-सांस्कृतिक और सामाजिक-तकनीकी में बीएलटी को अपनाने की अनिच्छा के कारणों का विश्लेषण किया था। अध्ययन के मुताबिक, सामाजिक-सांस्कृतिक कारण भारत की जाति व्यवस्था में मौजूद हैं। यहां समाज को उसके पेशे, पवित्रता और अपवित्रता की धारणा के आधार पर बांटा जाता है। अध्ययन के प्रतिभागियों ने बताया कि बीएलटी धार्मिक प्रथा के खिलाफ है, बीएलटी पर खाना बनाना पाप है, मानव मल के साथ गाय के गोबर को मिलाना अपराध है, परिवार के बुजुर्ग इसे स्वीकार नहीं करेंगे, रिश्तेदार उनके घर खाना नहीं खाएंगे। अगर लोगों को पता चलता है कि वे बीएलटी का इस्तेमाल कर रहे हैं तो उन्हें उनकी जाति या गांव से बाहर कर दिया जाएगा। अध्ययन में पाया गया कि बीएलटी कैसे काम करता है, इस बारे में ज्ञान और अनुभव की कमी इन मान्यताओं को मजबूत करती है।

अध्ययन में जिन सामाजिक-तकनीकी कारणों का जिक्र किया गया, उसमें से एक यह था कि खाने से टॉयलेट की गंध आएगी। लोगों को शौचालय गैस पर खाना पकाए जाने के बारे में सोचना भी हिकारत लगता है। उनकी नजर में बीएलटी की देखरेख करना एक गंदा काम है और बायोगैस पर पका हुआ खाना खाना धार्मिक और शारीरिक रूप से अपवित्र है।

हालांकि, प्रतिभागियों ने बताया कि ईंधन स्रोत के बारे में नाम न बताने से लोग बीएलटी के अभ्यस्त हो सकते हैं। गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में बायोगैस रिसर्च एंड माइक्रोबायोलॉजी विभाग के पूर्व सहायक प्रोफेसर प्रदीप आचार्य ने कहा, “यह ऐसा है जैसे किसान अपने खेतों में इस्तेमाल करने के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से खाद खरीदते हैं लेकिन अपने बायोगैस संयंत्र से निकलने वाली जैविक खाद को हाथ लगाना नहीं चाहते ।” फिलहाल आचार्य बीएलटी पर सलाहकार के तौर पर काम कर रहे हैं।

बीएलटी लाभार्थियों का कहना है कि इसके इस्तेमाल को लेकर कई तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक वर्जनाएं हैं और साथ ही बहिष्कार का डर भी है। तस्वीर- कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर 

बीएलटी की कम स्वीकार्यता का एक अन्य कारण इसके बारे में कम जानकारी है। बीएलटी में दी जाने वाली सेवाओं मसलन खाना पकाने के ईंधन, उर्वरक और स्वच्छता को सब्सिडी वाले और जीवाश्म ईंधन आधारित एलपीजी, रासायनिक उर्वरकों से प्रतिस्पर्धा मिलती है। इसमें सरकार का स्वच्छ भारत मिशन भी शामिल है,  लेकिन वह मुख्य रूप से बुनियादी गड्ढे वाले शौचालयों पर केंद्रित है। हालांकि बीएलटी इस मिशन के एक घटक के रूप में है।

पूंजीगत लागत, बायोगैस संयंत्र के रखरखाव के बारे में कम जानकारी, और सही लाभार्थियों तक पहुंचने में सरकार की अक्षमता ने बायोगैस की सफलता को प्रभावित किया है।  गुजरात विद्यापीठ में बायोगैस और माइक्रोबायोलॉजी विभाग के सहायक प्रोफेसर प्रतीक शिल्पकार ने कहा, “बायोगैस एक संपूर्ण सर्कुलर तकनीक है। यह जरूरतमंद लोगों तक पहुंचनी चाहिए, जो अभी भी जलाऊ लकड़ी पर निर्भर हैं और जिनके पास शौचालय नहीं है।” 


और पढ़ेंः बायोचार में बिगड़ते मौसम को बचाने की ताकत, लेकिन लागत बड़ी बाधा


एक बायोगैस संयंत्र का नियमित रखरखाव करना पड़ता है- पर्याप्त पानी, रोजाना उसमें डालने के लिए गोबर, टॉयलेट साफ करने के लिए किसी तरह का एसिडिक क्लीनर का इस्तेमाल न करना, समय-समय पर सफाई और देखभाल, उचित धूप या फिर सर्दियों में गर्म पानी, क्योंकि उस दौरान माइक्रोबियल क्रिया धीमी हो जाती है। यह सब काम लोगों को बोझिल लगता है। प्लांट के ठीक से काम न करने पर उसकी मरम्मत के लिए प्रशिक्षित राजमिस्त्री की कमी समस्या को और बढ़ा देती है।

कंक्रीट की बढ़ती कीमतों के कारण दो घन मीटर बायोगैस संयंत्र की पूंजीगत लागत 50,000 रुपये से ज्यादा बैठती है। साल 1997 से कोल्हापुर में बायोगैस संयंत्र स्थापित कर रहे वर्कर उत्तम निगड़े ने कहा “उन्हें कम से कम 50% सब्सिडी देनी चाहिए ताकि लोग आगे आयें। शौचालय बनाने का खर्च भी बढ़ जाता है। हालांकि सरकार शौचालय के लिए 12,000 रुपये की सब्सिडी देती है। लेकिन सेट-अप की पूरी लागत ज्यादातर लोगों की 2-3 महीने की आय से ज्यादा है। 

 

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बैनर तस्वीर: ‘राष्ट्रीय बायोगैस विकास कार्यक्रम’ बायोगैस संयंत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी मुहैया कराने के मकसद से 1981 में शुरू किया गया था। तस्वीर- कृषि अधिकारी, जिला परिषद, कोल्हापुर 

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