झींगा फार्म के विरोध में क्यों हैं रामेश्वरम के पारंपरिक मछुआरे
Priyanka Shankar
तमिलनाडु के रामेश्वरम में अरियानकुंडु के पारंपरिक मछुआरों का आरोप है कि उनके गांव के पीछे झींगा पालने वाले फार्म ने भूजल को प्रदूषित कर दिया है। उनकी सामुदायिक जगहों (कॉमन) का अतिक्रमण कर लिया है। कुछ फार्म सरकारी नियमों का पालन भी नहीं कर रहे।
मछुआरों की शिकायत है कि झींगा पालन से होने वाले प्रदूषण के चलते उनकी आजीविका प्रभावित हो रही है। हालांकि झींगा पकड़ने वाले मछुआरों का कहना है कि यह व्यवसाय कमाई के लिहाज से आकर्षक है लेकिन आर्थिक रूप से चुनौतीपूर्ण है।
शोधकर्ता झींगा के लिए ऐसा चारा विकसित कर रहे हैं जो पानी को प्रदूषित नहीं करेगा। वे जमीन के इस्तेमाल में बदलाव की निगरानी के लिए रिमोट-सेंसिंग टूल का इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। साथ ही झींगा पालन को पर्यावरण के अनुकूल बनाने के लिए गंदे पानी को साफ करने वाली प्रणालियों के लिए मजबूत नियमों की वकालत करते हैं।
इन सबके बीच, भारत में झींगा पालन तेजी से बढ़ रहा है। झींगा मछली का निर्यात हर साल बढ़ता जा रहा है। केंद्र और राज्य सरकार दोनों की नीतियां मछली पालन के विकास को बढ़ावा दे रही हैं।
समुद्र के बीच में बसे तमिलनाडु के रामेश्वरम में यह सूरज के साथ आंख-मिचौली कर रहे बादलों के कारण यह एक धूप-छाँव वाला दिन था। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम के मेमोरियल के कारण पर्यटकों को आकर्षित करने वाला गांव अरियानकुंडु है। इस गांव से कुछ आगे जमीन का एक हिस्सा है जहां कीचड़ से भरी सड़के समुद्री की तरफ जाती हैं। इन सड़कों के दोनों ओर काले और भूरे-हरे पानी के कई कुंड दिखाई देते हैं। वे क्षेत्र के कुछ झींगा फार्म से निकलने वाले गंदे पानी से भरे हुए हैं।
कभी यह इलाका नारियल और खजूर के पेड़ और मूंगफली, मक्का व बाजरा जैसी फसलों के लिए जाना जाता था। अब यह इलाका बंजर पड़ा है। अब इसके समुद्र तट पर झींगा पालन होता है। झींगा फार्म से निकलने वाला पानी जहां रुकता है वहां बुलबुले पैदा होते हैं। पूरे इलाके में सूखे पेड़, प्रदूषित मिट्टी, शैवाल के फूल और सूखे हुए तालाब दिखाई देते हैं।
सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के सचिव और रामेश्वरम के निवासी करुणामूर्ति कहते हैं, “यह पंचकल्याणी है। इससे इलाके के पानी की जरूरत पूरी होती है।” करुणामूर्ति दशकों से द्वीप पर झींगा पालन के विस्तार का विरोध कर रहे हैं।
अरियानकुंडु और आसपास के गांवों के निवासी ज्यादातर ईसाई हैं।ये रामेश्वरम में धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। रामेश्वरम में अधिकतर लोग हिंदू हैं। गांव के मछुआरे पहले आसपास के तट पर मछली पकड़ते थे और खेती करते थे।वे अब द्वीप पर बेमन से मजदूरी कर रहे हैं। इन मछुआरों से कहा गया था कि झींगा पालन फार्म आने पर उन्हें नौकरी मिलेगी। अब इन मछुआरों का कहना है कि उन्होंने झींगा फार्म के चलते खेती की जमीन, नमक के खेत, मीठे पानी के संसाधन और अन्य कॉमन्स खो दिए।
रामेश्वरम का मछुआरा समुदाय ऐतिहासिक रूप से लगातार चक्रवातों से प्रभावित रहा है। यह जगह अक्सर श्रीलंका के साथ समुद्री सीमा से जुड़े विवाद के लिए भी चर्चा में रहती है। ये लोग कई तरह के सामाजिक और पर्यावरण से जुड़ी मुश्किलों का सामना करते हैं। अब इन्होंने आमराय से द्वीप पर झींगा पालन के विस्तार का विरोध किया है।
करुणामूर्ति बताते हैं, “इन झींगा फार्म के मालिक रामेश्वरम के मछुआरे नहीं हैं।बल्कि राज्य के अलग-अलग हिस्सों के बड़े कारोबारी और राजनीतिक रसूख वाले लोग हैं। वे स्थानीय मछुआरों को अपने फार्म पर काम पर नहीं रखते हैं। इस तरह पारंपरिक मछुआरों को किसी तरह का आर्थिक लाभ नहीं मिलता है।”
रामेश्वरम के मछुआरे पकड़ी हुई मछलियों को किनारे पर लाते हुए। तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारमन/मोंगाबे
पर्यावरण और आजीविका के लिए खतरा
अरियानकुंडु के लोग अपने गांव के पीछे बने झींगा फार्म द्वारा कई तरह के नियम तोड़ने का हवाला देते हैं, जिससे उनकी आजीविका के लिए खतरा पैदा हो गया है।
सबसे पहले, झींगा फार्म तटीय जलकृषि प्राधिकरण कानून, 2005 (Coastal Aquaculture Authority Act, 2005/सीएए,) का उल्लंघन कर रहे हैं। कानून कहता है, “उच्च ज्वार वाली जगह से 200 मीटर के भीतर कोई तटीय मछली पालन नहीं किया जाएगा।” अरियानकुंडु में किनारे पर स्थित इन फार्म ने उस सीमा का पालन नहीं किया है। करुणामूर्ति कहते हैं, “खुदाई और खनन में काम आने वाली विशालकाय मशीनों ने कई कीमती प्रवाल संरचनाओं (जिन्हें स्थानीय रूप से पवाझा पराई कहा जाता है) को नष्ट कर दिया। इनका इस्तेमाल शुरू में भूमि की सतह को समतल बनाने के लिए किया गया था। ये संरचनाएं समुद्र तटों को कटाव से बचाती हैं।” उन्होंने दावा किया कि पारिस्थितिकी के लिए अहम इन प्रवाल संरचनाओं को नुकसान पहुंचाना अवैध है।
करुणामूर्ति ने कहा, “तट के करीब इन पवाझा पराई के पास आमतौर पर मछलियां प्रजनन के लिए आती हैं। इन प्रवाल संरचनाओं को नष्ट करने सेपास रहने वाले मछुआरों की आजीविका खत्म हो रही है।”
दूसरा उल्लंघन सीएए कानून की ज़रूरतों का पालन नहीं करना है। यह कहता है कि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव से बचने के लिए झींगा फार्म को उपज के बाद पानी को वापस समुद्र में छोड़ने से पहले उसे साफ करना चाहिए। भंडारण के लगभग 90-120 दिनों के बाद बढ़ते हुए तालाबों से झींगा निकाला जाता है। झींगा तालाब के पानी की गुणवत्ता इन मछलियों के बढ़ने की अवधि के दौरान बिगड़ जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि झींगों के आकार और बायोमास के साथ उनके चारे की दर बढ़ जाती है। इसलिए, गंदे पानी की उच्चतम मात्रा और सबसे खराब गुणवत्ता (पोषक तत्व भार, कुल अमोनिया और आयनित अमोनिया और कुल छोड़े गए ठोस पदार्थ के संदर्भ में) आमतौर पर झींगा को निकालने से ठीक पहले पाई जाती है। इस दौरान झींगा का बायोमास सबसे अधिक होता है।
केंद्र ने झींगा फार्म से निकलने वाले गंदे पानी को साफ करने के लिए कुछ दिशानिर्देश तय किए हैं। इनके मुताबिक, “झींगा के गंदे पानी में जीवित और मृत प्लैंकटन, चारे का कचरा, मल पदार्थ और झींगा के अन्य उत्पाद शामिल हैं… झींगा को निकालने के बाद सफाई के कामों के दौरान निकले गंदे पानी का खुले जल की पारिस्थितिकी पर बहुत ज्यादा असर हो सकता है। भले ही इसकी अवधि छोटी हो।”
लेकिन करुणामूर्ति कहते हैं, अरियानकुंडु में इनमें से कई झींगा फार्म ने पानी छोड़ने से पहले ठीक से इसे साफ नहीं किया।
सीएए के नियमों के मुताबिक पानी के पोषक तत्वों के स्तर को कम करने के लिए पांच हेक्टेयर क्षेत्र से बड़े फार्म के लिए गंदा पानी साफ करने वाली प्रणाली (ईटीएस) लगाना अनिवार्य हैं। पांच हेक्टेयर से कम के फार्म के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। मत्स्य विज्ञान और मछली पालन समीक्षा में प्रकाशित 2020 के एक अध्ययन ने पाया, “कई झींगा पालकों ने अपने फार्म को छोटे फार्म के रूप में वर्गीकृत करने और ईटीएस में निवेश से बचने के लिए उन्हें अलग-अलग हिस्सों में दिखाया है। इस अध्ययन में जलीय पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता पर भविष्य में मछली पालन के असर की समीक्षा की गई है।
तमिलनाडु फिशरीज यूनिवर्सिटी (एक सरकारी संस्थान) में टिकाऊ मछली पालन निदेशालय के प्रोफेसर स्टीफन संपत कुमार विस्तार से बताते हैं, “झींगा तैयार होने के बाद फार्म से निकलने वाले पानी में कचरा और पोषक तत्व होते हैं। जब यह पानी अतिरिक्त कचरे के साथ ठहरा हुआ रहता है, इसे सूक्ष्मजीवों द्वारा खत्म या डिग्रेड करने की जरूरत होती है। इन सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग करने वाले शैवाल जीवित रहते हैं। यही कारण है कि आपको पानी में बहुत सारे शैवाल मिलते हैं।”
जब इन फार्म से यह पूछने के लिए संपर्क किया गया कि वे इस पानी को साफ कैसे करते हैं या वे प्रदूषण को किस तरह दूर करने की योजना बनाते हैं, तो अरियानकुंडु के पीछे झींगा फार्म में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के पास कोई जवाब नहीं था। इस संवाददाता के दौरे के समय साइट पर बातचीत के लिए मालिक मौजूद नहीं थे।
रामेश्वरम के मछली पालक रोशन वी. का अनुमान है कि अरियानकुंडु के इन पुराने फार्मों में से कुछ ने लंबी दूरी के लिए पाइपलाइन लगाने में अतिरिक्त निवेश से बचने के लिए अपने फार्म को तट के करीब बनाया होगा। वह कहते हैं, “समुद्र से पानी खींचने वाली पाइपलाइनों में बहुत निवेश ज्यादा पैसा लगता है। नए उद्यमी लंबी दूरी के लिए पाइप लगाने और उन्हें बनाए रखने के लिए प्रयास कर रहे हैं, लेकिन यह चुनौतीपूर्ण है।“
अरियानकुंडु के निवासियों का यह भी आरोप है कि मछली पालन में आई तेजी ने क्षेत्र में कृषि और चराई की भूमि को नष्ट कर दिया है। इसने उनके पीने के पानी को प्रदूषित कर दिया है, परिवारों को उस एकमात्र घर से विस्थापित कर दिया है जिसमें वह पीढ़ियों से रह रहे थे।
दूसरी तरफ, अरियानकुंडु से कुछ किलोमीटर पूर्व में पिल्लईकुलम है। पिल्लईकुलम कभी एक फलता-फूलता गांव था। यहां60 से अधिक परिवार रहते थे। ये परिवार तट के पास मछली पकड़ने, खेती और अन्य गतिविधियों से का अभ्यास करते थे। केवल तीन घर आबाद हैं और निवासियों का आरोप है कि क्षेत्र में झींगा फार्म ने भूजल को प्रदूषित कर दिया और इसे खारा बना दिया। अब इसका इस्तेमालमवेशियों और यहां रहने वाले नहीं कर सकते थे। वे अपने खेतों में सिंचाई नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे लोग अपने घरों को छोड़कर जाने लगे।
पिल्लईकुलम के तीन निवासियों में से एकजॉनसन पीटरयाद करते हैं, “पहले हम यहां खेती करते थे। हमारे पास बहुतायत में केझवारागु (रागी), कंबु (मोती बाजरा), कथिरिकई (बैंगन), ठक्कली (टमाटर) के खेत थे। सैकड़ों की संख्या में नारियल और खजूर के पेड़ भी थे। अब, केवल हमलावर सीमाई कारुवेलम (प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा) या विलायती बबूल ही बचा है।” पीटर के घर की छत से बाहर का नजारा उतना ही बेजार है, जितना वह बताते हैं।
पिल्लईकुलम के लोग अब एक ड्रम पानी के लिए 800 रुपये देते हैं। इस पानी का इस्तेमाल पीने, नहाने और मवेशियों के लिए किया जाता है। अपनी मूक-बधिर बेटी के साथ रहने वाली 75 साल की मारिया रोसाई बताती हैं, ” यह पूरे महीने भी नहीं चलता है।”
कार्यकर्ता करुणामूर्ति का आरोप है कि रामेश्वरम में कई झींगा फार्मों ने तटीय जलीय कृषि प्राधिकरण अधिनियम का पालन नहीं किया है।
अरियानकुंडु के अरुलराज के कहते हैं कि पानी और आजीविका के अवसरों की कमी के कारण कई लोग गांव छोड़कर जा सकते हैं। इस तरह उनका गांव भी जल्द ही खाली हो सकता है।
तमिलनाडु सी वर्कर्स एसोसिएशन के राज्य सचिव, सी.आर. सेंथिलवेल कहते हैं, “तमिलनाडु में, पारंपरिक मछुआरों के लिए वैकल्पिक आजीविका के रूप में कई दशकों से झींगा पालन और तटीय जलीय कृषि को बढ़ावा दिया जाता रहा है, लेकिन जो लोग झींगा फार्मिंग में लगे हैं वे ज्यादातर स्थानीय लोग नहीं।
अरियानकुंडु के मारुसेलियन एस (बाएं) और पलाराजन एस उन दिनों को याद करते हैं जब वे अपने कुओं से पानी साझा किया करते थे। उनका गांव एकसाथ मिलकर खेती करता था।
"पिल्लईकुलम के निवासी अब एक ड्रम में पानी 800 रुपए में खरीद रहे हैं। इतना पानी पूरे एक महीने भी नहीं चलता है।" मारिया रोसाई कहती हैं। इस पानी का उपयोग पीने, नहाने और मवेशियों के लिए किया जाता है।
पिल्लईकुलम के जॉनसन पीटर। उनके गांव के कई लोग पलायन कर चुके हैं, लेकिन उन्होंने अपना घर झींगा फार्म के मालिकों को बेचने से इंकार कर दिया। अब वे भी अपने गांव से पलायन कर गए हैं।
न्यानसुंदरी एस (एल) और अरोकियानिर्मला। "अब हम पानी के लिए भी 50 रुपए का भुगतान करते हैं। कुओं से पानी निकालना अब संभव नहीं है,” अरोकियानिर्मला कहती हैं। न्यानसुंदरी एस, 1994 में 45 अन्य लोगों के साथ एक झींगा फार्म का विरोध करने के लिए जेल भी गईं थी।
सभी तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारामन/मोंगाबे
क्या वास्तव में भूजल पास में स्थित झींगा फार्म के चलते खारा हो गया है, जैसा कि यहां रहने वाले लोगों का दावा है?
नाम न छापने की शर्त पर एक मछली पालन विशेषज्ञ कहते हैं, “यह पक्के तौर पर संभव है कि जब हम समुद्री जल (बहुत सारे पोषक तत्वों और कचरे के साथ) को एक तटीय स्थान पर ठहरने देते हैं, जहां इसे लंबे समय तक स्थिर नहीं माना जाता है, तो यह इसके आसपास के जल निकायों और भूजल को खारा बना देता है।”
ओडिशा में साल 2011 में हुए एक अध्ययन ने मछली पालन और आस-पास के क्षेत्र की मिट्टी के खारेपन के बीच संबंध का विश्लेषण किया। इसमें पाया गया कि रिसाव खारेपन का प्रमुख कारण है। अध्ययन के नतीजों में कहा गया, “मछली पालन फार्म में खारे पानी का भंडारण आसपास के कृषि क्षेत्रों में मिट्टी के खारेपन को प्रभावित करता है। हालांकि नमक की मात्रा मिट्टी के ऊपजाऊ नहीं रहने का अकेला कारण नहीं हो सकता है, लेकिन इससे उत्पादकता पर असर पड़ता है।
रोशन कहते हैं, “कुछ किसान पानी छोड़ने से पहले पानी को छानने के लिए सेडीमेंट तालाबों का उपयोग कर रहे हैं। और यह पक्का करने के लिए कि तालाब से सीधे पानी का रिसाव न हो, तालाबों में उच्च घनत्व वाली पॉलीथीन शीट बिछाई जा सकती हैं। यह महंगा सौदा है। लेकिन अगर हमें अधिक सब्सिडी मिलती है, तो झींगा किसान यह पक्का कर सकते हैं कि भूजल को प्रभावित करने वाले पानी का रिसाव बिल्कुल न हो।”
मछली पालन के विकास के लिए केंद्र प्रायोजित योजना (सीएसएस) 40 हजार रुपए तक प्रति हेक्टेयर 25% सब्सिडी प्रदान करती है। लेकिन केवल दो हेक्टेयर या उससे कम जमीन वाले झींगा पालक ही इसका लाभ उठा सकते हैं। रोशन और कई अन्य झींगा पालक जो दो हेक्टेयर से अधिक के मालिक हैं, वे इस सब्सिडी का लाभ उठाने के योग्य नहीं हैं। केंद्र सरकार की योजना प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना की केंद्रीय क्षेत्र योजना में कहा गया है कि ‘सामान्य‘ मछली पालक किसानों के लिए परियोजना/इकाई लागत का 40% और ‘एससी/एसटी और महिला‘ किसानों के लिए 60% लाभ उठाने का प्रावधान है। हालांकि, रोशन का कहना है कि द्वीप के झींगा किसानों को इस बात की जानकारी नहीं है कि इस सब्सिडी का लाभ किस तरह उठाया जाए।
यह स्टोरी इंटरन्यूज़ के अर्थ जर्नलिज़्म नेटवर्क के सहयोग से तैयार की गई है।
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बैनर तस्वीर: रामेश्वरम का एक पारंपरिक मछुआरा। तस्वीर- नारायण स्वामी सुब्बारमन / मोंगाबे